आर्य-समाज की उपलब्धियों, आकाँक्षाओं व् प्रतिबद्धताओं को दोहराने हेतु "DAV संस्थाओं" (आर्य-समाज का शहरी वर्जन) द्वारा दिल्ली में एक विशाल कार्यक्रम आयोजित किया गया| इसमें आचार्य देवव्रत जिन्होनें ताउम्र आर्य-समाज के ग्रामीण वर्जन के गुरुकुलों में काम किया, वो जब प्रधानमंत्री के बराबर वाली कुर्सी पर इस DAV के कार्यक्रम में बैठे दिखे तो सवाल उठा और मन किया कि इनसे पूछूं:
1) आपने कभी भी आर्य-समाज के गुरुकुलों में DAV की तर्ज पर शिक्षा पद्द्ति क्यों नहीं लागू की? यह एक हांडी में दो पेट क्यों रहने दिए, इसको बदलने हेतु काम क्यों नहीं किया?
2) DAV में संस्कृत पढ़ना प्राथमिकता नहीं, अपितु अंग्रेजी-हिंदी पढ़ना प्राथमिकता है| यह प्राथमिकता गुरुकुलों में क्यों नहीं लागू करवाई आपने कभी? और यह उन वजहों में से एक बहुत बड़ी वजह है कि इन गुरुकुलों से निकलने वाले बच्चे अधिकतर शास्त्री बनने तक सिमित रह जाते हैं, जबकि DAV वालों की तरह बड़े-बड़े अधिकारी, अफसर या प्रोफेसर बनते बहुत कम देखे हैं| आखिर यह एक हांडी में दो पेट क्यों?
3) आर्यसमाज की गीता यानी 'सत्यार्थ प्रकाश' लड़की के सानिध्य को लड़के के लिए 'आग में घी' के समान बताती है, इसलिए वकालत करती है कि दोनों को अलग-अलग शिक्षा दी जावे, सहशिक्षा ना दी जावे? तो सवाल उठता है कि यह नियम गुरुकुलों पर ही क्यों लगाया गया, इन DAV स्कूलों और संस्थाओं में तो हर जगह सहशिक्षा यानी co-education है? आखिर यह एक ही विचारधारा रुपी हांडी में दो पेट कैसे?
हालाँकि आप यह मत समझियेगा कि मैं कोई जन्मजात आर्य-समाज का आलोचक हूँ, नहीं जी मैंने तो बहुत आर्य-समाजी मेलों में बढ़-चढ़ के भाग लिया है| बचपन में आर्य-समाज के प्रचारकों को खुद बुला के लाया करते थे, हमारे गली-मोहल्ले में प्रचार करने हेतु|
ऐसा भी नहीं है कि मैं गाँव में पढ़ा और फिर बाद में अक्ल आई, पहली से ले दसवीं तक आरएसएस के स्कूल में ही पढ़ा हूँ; और तभी से यह फर्क समझने लग गया था| कि जब आर्य समाज एक तो इसकी शिक्षण पद्द्तियां दो क्यों? गाँवों के बच्चों को गंवार रखने के लिए गुरुकुल और शहरों वालों को एडवांस बनाने के लिए DAV?
इन सवालों को उठाते हुए यह भी मत समझियेगा कि आज मेरी आस्था नहीं आर्यसमाज में; वो आज भी है| परन्तु इन सवालों का तो अब हल चाहिए ही चाहिए| आखिर यह एक हांडी में दो पेट क्यों?
मेरे साथी या आलोचक भी इन बातों पर गौर फरमावें कि एक जमाने में जो संस्कृत मनुवादी विचारधारा के लोग पिछड़े-शूद्र के लिए पढ़ना भी पाप समझते थे, संस्कृत के श्लोक बोलने पे उनकी जिह्वा कटवा दिया करते थे, सुनने पर उनके कानों में तेल डलवा दिया करते थे, तो अचानक इतनी मेहरबानी कैसे हुई कि यह संस्कृत सबके लिए खोल दी गई?
कहीं यह इसलिए तो नहीं किया गया कि इन गंवारों ने अगर अंग्रेजी पढ़ ली और उससे प्रेम हो गया तो तुम इनके दिमागों को संकुचित और सिमित कैसे रख पाओगे? अंग्रेजों को इनका दुश्मन कैसे दिखा पाओगे? इसलिए इन हर इस उस वक्त हिन्दू धर्म की बुराई करने वालों को तो गुरुकुलों के जरिये इन संस्कृत के श्लोकों को समझने में उलझा दो और खुद DAV के जरिये अंग्रेजी पढ़ के इनसे आगे रहो, इनको मुठ्ठी में रखो? मुझे तो आर्य-समाज के यह 'एक हांडी में दो पेट' गुरुकुल वालों के लिए किसी सजा से कम नहीं लगते|
अत: आपसे मेरी प्रार्थना है और क्योंकि आर्य समाज के संस्थापक दयानंद जी का भी यही मानना था कि मेरे स्थापित सिद्धांतों में समय के अनुसार परिवर्तन करते रहना होगा| चलो संस्थापक महोदय से जो गलती हुई सो हुई, परन्तु अब आपसे अनुरोध है कि इसको सुधरवाने हेतु कदम उठवाए जावें और DAV हो या गुरुकुल दोनों जगह सामान शिक्षा प्रणाली लागू करवाई जावे|
गुरुकुलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी व् शिक्षक कृपया इसके ऊपर विचारना अवश्य प्रारम्भ करें| क्योंकि आज का ग्रामीण युवा और सोच अब इन चीजों को पकड़ने लगी है और आने वाले वक्त में आर्य-समाज में यह समानता लाने हेतु एक बड़ी आवाज उठेगी|
विशेष: मेरी कोशिश है कि मैं इन सवालों को इन जनाब तक पहुँचाऊँ| इनको देवव्रत जी तक पहुंचाने वाले का धन्यवाद| अरे हाँ देवव्रत ही क्यों बाबा रामदेव तक भी पहुँचाया जाए इन सवालों को|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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