1857 की क्रांति के अमरप्रतापी सर्वखाप यौद्धेय दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज की जन्म-जयंती 11 फरवरी 1797 पर विशेष!
1857 की क्रांति का जब-जब जिक्र होता है तो हरयाणा (उस वक्त वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और वेस्ट यूपी एक ही भूभाग होता था और हरयाणा कहलाता था) से दो यौद्धेयों का खास जिक्र आता है एक बल्लबगढ़ नरेश राजा नाहर सिंह और दूसरे दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज| जहां दक्षिण-पश्चिमी छोर से बल्लबगढ़ नरेश ने अंग्रेजों को संधि हेतु सफेद झंडे उठवाए थे, वहीँ उत्तरी-पूर्वी छोर पर बाबा शाहमल जी ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए थे और इस प्रकार हरयाणे के वीरों ने दिल्ली की सीम बचाई थी| वो तो पंडित नेहरू के दादा गंगाधर कौल जैसे अंग्रेजों के मुखबिर ना होते तो अंग्रेज कभी दिल्ली ना ले पाते|
आज बाबा जी की जन्म-जयंती है| उनकी शौर्यता के चर्चे दुश्मनों की जुबान से कुछ यूँ निकले थे:
डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था, को बाबा शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा| इसने अपनी डायरी में लिखा है, "चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों जिसे 'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना नामुमकिन था|"
एक और अंग्रेजी सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि, "एक जाट (बाबा शाहमल तोमर जी) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।
प्रचार-प्रसार और अपनों को याद ना करने की बुरी आदत का नतीजा यह होता है कि फिर हमें कागजी वीरों और शहीदों को गाने वालों की ही सच माननी पड़ती है| इससे बचने के लिए जरूरी है कि हम ना सिर्फ असली शहीदों और वीरों का प्रचार-प्रसार और उनको याद करें, वरन नवयुवा पीढ़ी तक यह बातें ज्यों-की-त्यों एक विरासत की भांति स्थांतरित हुई कि नहीं यह उनके बचपन से ही सुनिश्चित करें|
इसलिए इस भ्रमजाल से बाहर आईये कि 'जाट तो इतिहास बनाते हैं, लिखते नहीं' क्योंकि इतिहास बनाने के बराबर ही उसको लिखने और गाने की भी जरूरत होती है| वर्ना तो वही बात फिर कागजी वीर घड़ने वाले, असली वीरों को उनकी लेखनी से ढांप देते हैं|
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के अमरप्रतापी सर्वखाप यौद्धेय दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज की जन्म-जयंती पर दादावीर को कोटि-कोटि नमन!
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
स्वतन्त्रता संग्राम के जाट वीर यौद्धा बाबा शाहमल सिंह तोमर की जयंती पर विशेष ।। शहीद बाबा शाहमल सिंह तोमर
बिजरौल गांव में 11 फरवरी 1797 को जन्मे बाब
शाहमल के पिता चौधरी अमीचंद तोमर किसान थे।
उनकी माता हेवा निवासी धनवंति कुशल गृहणी थीं।
बाबा शाहमल ने दो शादियां की थी। फिलहाल
बिजरौल गांव में उनकी छठी पीढ़ी को थांबा
चौधरी यशपाल सिंह, सुखबीर सिंह, मांगेराम,
बलजोर, बलवान सिंह, करताराम आगे बढ़ा रहे हैं।
मेरठ जिलेके समस्त पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग में अंग्रेजों के लिए भारी खतरा उत्पन्न करने वाले बाबा शाहमल ऐसे ही क्रांतिदूत थे। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने
के लिए इस महान व्यक्ति ने लम्बे अरसे तक अंग्रेजों को
चैन से नहीं सोने दिया था।
बाबा शाहमल 18 जुलाई 1857 को बड़का के जंगलों में
अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे।1857 की
क्रांति में अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाने वाले शहीद
बाबा शाहमल इतने बहादुर थे कि उनके शव से भी फिरंगी कांप उठे थे। बाबा को उठाने की हिम्मत न जुटा पाने वाले कई गोरों को उनकी ही सरकार ने मौत के घाट उतार दिया था।
अंग्रेज हकुमत से पहले यहाँ बेगम समरू राज्य करती थी.
बेगम के राजस्व मंत्री ने यहाँ के किसानों के साथ बड़ा
अन्याय किया. यह क्षेत्र १८३६ में अंग्रेजों के अधीन आ
गया. अंग्रेज अधिकारी प्लाउड ने जमीन का बंदोबस्त
करते समय किसानों के साथ हुए अत्याचार को कुछ
सुधारा परन्तु मालगुजारी देना बढा दिया. पैदावार अच्छी थी. जाट किसान मेहनती थे सो बढ़ी हुई मालगुजारी भी देकर खेती करते रहे. खेती के बंदोबस्त और बढ़ी मालगुजारी से किसानों में भारी असंतोष था जिसने 1857 की क्रांति के समय आग में घी का काम किया.इतिहासविदों के मुताबिक, 10 मई 1857
को प्रथम जंग-ए-आजादी का बिगुल बजने के बाद
बाबा शाहमल सिंह ने बड़ौत तहसील पर कब्जा
करते हुए उस समय के आजादी के प्रतीक ध्वज को
फहराया।
शाहमल का गाँव बिजरौल काफी बड़ा गाँव था .
1857 की क्रान्ति के समय इस गाँव में दो पट्टियाँ
थी. उस समय शाहमल एक पट्टी का नेतृत्व करते थे.
बिजरौल में उसके भागीदार थे चौधरी शीश राम और
अन्य जिन्होंने शाहमल की क्रान्तिकारी कार्रवाइयों का साथ नहीं दिया. दूसरी पट्टी में 4
थोक थी. इन्होने भी साथ नहीं दिया था इसलिए
उनकी जमीन जब्त होने से बच गई थी बडौत के लम्बरदार
शौन सिंह और बुध सिंह और जौहरी, जफर्वाद और जोट
के लम्बरदार बदन और गुलाम भी विद्रोही सेना में
अपनी-अपनी जगह पर आ जमे. शाहमल के मुख्य
सिपहसलार बगुता और सज्जा थे और जाटों के दो बड़े गाँव बाबली और बडौत अपनी जनसँख्या और रसद की तादाद के सहारे शाहमल के केंद्र बन गए.
१० मई को मेरठ से शुरू विद्रोह की लपटें इलाके में फ़ैल गई.शाहमल ने जहानपुर के गूजरों को साथ लेकर बडौत तहसील पर चढाई करदी. उन्होंने तहसील के खजाने को लूट कर उसकी अमानत को बरबाद कर दिया. बंजारा सौदागरों की लूट से खेती की उपज की कमी को पूरा कर लिया. मई और जून में आस पास के गांवों में उनकी
धाक जम गई. फिर मेरठ से छूटे हुये कैदियों ने उनकी की
फौज को और बढा दिया. उनके प्रभुत्व और नेतृत्व को
देख कर दिल्ली दरबार में उसे सूबेदारी दी.
12 व 13 मई 1857 को बाबा शाहमल ने सर्वप्रथम
साथियों समेत बंजारा व्यापारियों पर आक्रमण कर
काफी संपत्ति कब्जे में ले ली और बड़ौत तहसील और
पुलिस चौकी पर हमला बोल की तोड़फोड़ व लूटपाट
की। दिल्ली के क्रांतिकारियों को उन्होंने बड़ी
मदद की। क्रांति के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण की
भावना ने जल्दी ही उनको क्रांतिवीरों का सूबेदार
बना दिया। शाहमल ने न केवल अंग्रेजों के संचार
साधनों को ठप किया बल्कि अपने इलाके को
दिल्ली के क्रांतिवीरों के लिए आपूर्ति क्षेत्र में बदल
दिया।
अपनी बढ़ती फौज की ताकत से उन्होंने बागपत के
नजदीक जमुना पर बने पुल को नष्ट कर दिया. उनकी इन
सफलताओं से उन्हें तोमर जाटों के 84 गांवों का
आधिपत्य मिल गया. उसे आज तक देश खाप की
चौरासी कह कर पुकारा जाता है. वह एक स्वतंत्र क्षेत्र
के रूप में संगठित कर लिया गया और इस प्रकार वह
जमुना के बाएं किनारे का राजा बन बैठा, जिससे कि
दिल्ली की उभरती फौजों को रसद जाना कतई बंद
हो गया और मेरठ के क्रांतिकारियों को मदद पहुंचती
रही. कुछ अंग्रेजों जिनमें हैवेट, फारेस्ट ग्राम्हीर,
वॉटसन कोर्रेट, गफ और थॉमस प्रमुख थे को यूरोपियन
फ्रासू जो बेगम समरू का दरबारी कवि भी था, ने अपने
गांव हरचंदपुर में शरण दे दी। इसका पता चलते ही शाहमल
ने निरपत सिंह व लाजराम जाट के साथ फ्रासू के हाथ
पैर बांधकर काफी पिटाई की और बतौर सजा उसके घर
को लूट लिया। बनाली के महाजन ने काफी रुपया
देकर उसकी जान बचायी। मेरठ से दिल्ली जाते हुए
डनलप, विलियम्स और ट्रम्बल ने भी फ्रासू की रक्षा
की। फ्रासू को उसके पड़ौस के गांव सुन्हैड़ा के लोगों ने
बताया कि इस्माइल, रामभाई और जासूदी के नेतृत्व
में अनेक गांव अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गए है। शाहमल के
प्रयत्नों से सभी जाट एक साथ मिलकर लड़े और हरचंदपुर,
ननवा काजिम, नानूहन, सरखलान, बिजरौल, जौहड़ी,
बिजवाड़ा, पूठ, धनौरा, बुढ़ैरा, पोईस, गुराना,
नंगला, गुलाब बड़ौली, बलि बनाली (निम्बाली),
बागू, सन्तोखपुर, हिलवाड़ी, बड़ौत, औसख, नादिर
असलत और असलत खर्मास गांव के लोगों ने उनके नेतृत्व में
संगठित होकर क्रांति का बिगुल बजाया।
कुछ बेदखल हुये जाट जमींदारों ने जब शाहमल का साथ
छोड़कर अंग्रेज अफसर डनलप की फौज का साथ दिया
तो शाहमल ने ३०० सिपाही लेकर बसौड़ गाँव पर
कब्जा कर लिया. जब अंग्रेजी फौज ने गाँव का घेरा
डाला तो शाहमल उससे पहले गाँव छोड़ चुका था.
अंग्रेज फौज ने बचे सिपाहियों को मौत के घाट उतार
दिया और ८००० मन गेहूं जब्त कर लिया. इलाके में
शाहमल के दबदबे का इस बात से पता लगता है कि
अंग्रेजों को इस अनाज को मोल लेने के लिए किसान
नहीं मिले और न ही किसी व्यापारी ने बोली
बोली. गांव वालों को सेना ने बाहर निकाल दिया
शाहमल ने यमुना नहर पर सिंचाई विभाग के बंगले को
मुख्यालय बना लिया था और अपनी गुप्तचर सेना
कायम कर ली थी। हमले की पूर्व सूचना मिलने पर एक
बार उन्होंने 129 अंग्रेजी सैनिकों की हालत खराब कर
दी थी।
इलियट ने १८३० में लिखा है कि पगड़ी बांधने की प्रथा
व्यक्तिको आदर देने की प्रथा ही नहीं थी, बल्कि
उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की संज्ञा भी थी. शाहमल ने
इस प्रथा का पूरा उपयोग किया. शाहमल बसौड़
गाँव से भाग कर निकलने के बाद वह गांवों में गया और
करीब ५० गावों की नई फौज बनाकर मैदान में उतर
पड़ा.
दिल्ली दरबार और शाहमल की आपस में उल्लेखित
संधि थी. अंग्रेजों ने समझ लिया कि दिल्ली की
मुग़ल सता को बर्बाद करना है तो शाहमल की शक्ति
को दुरुस्त करना आवश्यक है. उन्होंने शाहमल को
जिन्दा या मुर्दा उसका सर काटकर लाने वाले के
लिए १०००० रुपये इनाम घोषित किया.
डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था,
को शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा. इसने
अपनी डायरी में लिखा है -
"चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा
रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों का जिसे
'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना
नामुमकिन था."
एक सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि
एक जाट (शाहमल) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो
गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली
थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर
लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली
इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।
जुलाई 1857 में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के
लिए अंग्रेजी सेना संकल्पबद्ध हुई पर लगभग 7 हजार
सैनिकों सशस्त्र किसानों व जमींदारों ने डटकर
मुकाबला किया। शाहमल के भतीजे भगत के हमले से
बाल-बाल बचकर सेना का नेतृत्व कर रहा डनलप भाग
खड़ा हुआ और भगत ने उसे बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय
शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली किसान मौजूद थे।
गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में विशेष महारत हासिल करने
वाले शाहमल और उनके अनुयायियों का बड़ौत के
दक्षिण के एक बाग में खाकी रिसाला से आमने सामने
घमासान युद्ध हुआ.
डनलप शाहमल के भतीजे भगता के हाथों से बाल-बाल
बचकर भागा. परन्तु शाहमल जो अपने घोडे पर एक अंग
रक्षक के साथ लड़ रहा था, फिरंगियों के बीच घिर
गया. उसने अपनी तलवार के वो करतब दिखाए कि
फिरंगी दंग रह गए. तलवार के गिर जाने पर शाहमल अपने
भाले से दुश्मनों पर वार करता रहा. इस दौर में उसकी
पगड़ी खुल गई और घोडे के पैरों में फंस गई. जिसका
फायदा उठाकर एक धोखेबाज़ मुस्लिम सवार ने उसे
घोड़े से गिरा दिया. अंग्रेज अफसर पारकर, जो
शाहमल को पहचानता था, ने शाहमल के शरीर के टुकडे-
टुकडे करवा दिए और उसका सर काट कर एक भाले के ऊपर
टंगवा दिया.बाबा कि जासूसी करने वाला दलाल
बाद बाघपत नवाब बनाया और बाबा के पोते उस
धोखेबाज को नरक का रास्ता दिखा दिया।
डनलप ने अपने कागजात पर लिखा है कि अंग्रेजों के
खाखी रिशाले के एक भाले पर अंग्रेजी झंडा था और
दूसरे भाले पर शाहमल का सर टांगकर पूरे इलाके में परेड
करवाई गई. तोमर जाटों के चौरासी गांवों के 'देश'
की किसान सेना ने फिर भी हार नहीं मानी. और
शाहमल के सर को वापिस लेने के लिए सूरज मल और
भगता स्थान-स्थान पर फिरंगियों पर हमला करते
रहे.शाहमल के गाँव सालों तक युद्ध चलाते रहे.
21 जुलाई 1857 को तार द्वारा अंग्रेज
उच्चाधिकारियों को सूचना दी गई कि मेरठ से आयी
फौजों के विरुद्ध लड़ते हुए शाहमल अपने 6000 साथियों
सहित मारा गया। शाहमल का सिर काट लिया
गया और सार्वजनिक रूप से इसकी प्रदर्शनी लगाई गई।
पर इस शहादत ने क्रांति को और मजबूत किया तथा 23
अगस्त 1857 को शाहमल के पौत्र लिज्जामल जाट ने
बड़ौत क्षेत्र में पुन: जंग की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों ने इसे
कुचलने के लिए खाकी रिसाला भेजा जिसने पांचली
बुजुर्ग, नंगला और फुपरा में कार्रवाई कर
क्रांतिकारियों का दमन कर दिया। लिज्जामल
को बंदी बना कर साथियों जिनकी संख्या 32
बताई जाती है, को फांसी दे दी गई।
शाहमल मैदान में काम आया, परन्तु उसकी जगाई
क्रांति के बीज बडौत के आस पास प्रस्फुटित होते रहे.
बिजरौल गाँव में शाहमल का एक छोटा सा स्मारक
बना है जो गाँव को उसकी याद दिलाता रहता है.
1857 की क्रांति का जब-जब जिक्र होता है तो हरयाणा (उस वक्त वर्तमान हरयाणा, दिल्ली, उत्तराखंड और वेस्ट यूपी एक ही भूभाग होता था और हरयाणा कहलाता था) से दो यौद्धेयों का खास जिक्र आता है एक बल्लबगढ़ नरेश राजा नाहर सिंह और दूसरे दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज| जहां दक्षिण-पश्चिमी छोर से बल्लबगढ़ नरेश ने अंग्रेजों को संधि हेतु सफेद झंडे उठवाए थे, वहीँ उत्तरी-पूर्वी छोर पर बाबा शाहमल जी ने अंग्रेजों को नाकों चने चबवाए थे और इस प्रकार हरयाणे के वीरों ने दिल्ली की सीम बचाई थी| वो तो पंडित नेहरू के दादा गंगाधर कौल जैसे अंग्रेजों के मुखबिर ना होते तो अंग्रेज कभी दिल्ली ना ले पाते|
आज बाबा जी की जन्म-जयंती है| उनकी शौर्यता के चर्चे दुश्मनों की जुबान से कुछ यूँ निकले थे:
डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था, को बाबा शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा| इसने अपनी डायरी में लिखा है, "चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों जिसे 'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना नामुमकिन था|"
एक और अंग्रेजी सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि, "एक जाट (बाबा शाहमल तोमर जी) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।
प्रचार-प्रसार और अपनों को याद ना करने की बुरी आदत का नतीजा यह होता है कि फिर हमें कागजी वीरों और शहीदों को गाने वालों की ही सच माननी पड़ती है| इससे बचने के लिए जरूरी है कि हम ना सिर्फ असली शहीदों और वीरों का प्रचार-प्रसार और उनको याद करें, वरन नवयुवा पीढ़ी तक यह बातें ज्यों-की-त्यों एक विरासत की भांति स्थांतरित हुई कि नहीं यह उनके बचपन से ही सुनिश्चित करें|
इसलिए इस भ्रमजाल से बाहर आईये कि 'जाट तो इतिहास बनाते हैं, लिखते नहीं' क्योंकि इतिहास बनाने के बराबर ही उसको लिखने और गाने की भी जरूरत होती है| वर्ना तो वही बात फिर कागजी वीर घड़ने वाले, असली वीरों को उनकी लेखनी से ढांप देते हैं|
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम के अमरप्रतापी सर्वखाप यौद्धेय दादावीर बाबा शाहमल तोमर जी महाराज की जन्म-जयंती पर दादावीर को कोटि-कोटि नमन!
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
स्वतन्त्रता संग्राम के जाट वीर यौद्धा बाबा शाहमल सिंह तोमर की जयंती पर विशेष ।। शहीद बाबा शाहमल सिंह तोमर
बिजरौल गांव में 11 फरवरी 1797 को जन्मे बाब
शाहमल के पिता चौधरी अमीचंद तोमर किसान थे।
उनकी माता हेवा निवासी धनवंति कुशल गृहणी थीं।
बाबा शाहमल ने दो शादियां की थी। फिलहाल
बिजरौल गांव में उनकी छठी पीढ़ी को थांबा
चौधरी यशपाल सिंह, सुखबीर सिंह, मांगेराम,
बलजोर, बलवान सिंह, करताराम आगे बढ़ा रहे हैं।
मेरठ जिलेके समस्त पश्चिमी और उत्तर-पश्चिमी भाग में अंग्रेजों के लिए भारी खतरा उत्पन्न करने वाले बाबा शाहमल ऐसे ही क्रांतिदूत थे। गुलामी की जंजीरों को तोड़ने
के लिए इस महान व्यक्ति ने लम्बे अरसे तक अंग्रेजों को
चैन से नहीं सोने दिया था।
बाबा शाहमल 18 जुलाई 1857 को बड़का के जंगलों में
अंग्रेजों से लोहा लेते हुए शहीद हो गए थे।1857 की
क्रांति में अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिलाने वाले शहीद
बाबा शाहमल इतने बहादुर थे कि उनके शव से भी फिरंगी कांप उठे थे। बाबा को उठाने की हिम्मत न जुटा पाने वाले कई गोरों को उनकी ही सरकार ने मौत के घाट उतार दिया था।
अंग्रेज हकुमत से पहले यहाँ बेगम समरू राज्य करती थी.
बेगम के राजस्व मंत्री ने यहाँ के किसानों के साथ बड़ा
अन्याय किया. यह क्षेत्र १८३६ में अंग्रेजों के अधीन आ
गया. अंग्रेज अधिकारी प्लाउड ने जमीन का बंदोबस्त
करते समय किसानों के साथ हुए अत्याचार को कुछ
सुधारा परन्तु मालगुजारी देना बढा दिया. पैदावार अच्छी थी. जाट किसान मेहनती थे सो बढ़ी हुई मालगुजारी भी देकर खेती करते रहे. खेती के बंदोबस्त और बढ़ी मालगुजारी से किसानों में भारी असंतोष था जिसने 1857 की क्रांति के समय आग में घी का काम किया.इतिहासविदों के मुताबिक, 10 मई 1857
को प्रथम जंग-ए-आजादी का बिगुल बजने के बाद
बाबा शाहमल सिंह ने बड़ौत तहसील पर कब्जा
करते हुए उस समय के आजादी के प्रतीक ध्वज को
फहराया।
शाहमल का गाँव बिजरौल काफी बड़ा गाँव था .
1857 की क्रान्ति के समय इस गाँव में दो पट्टियाँ
थी. उस समय शाहमल एक पट्टी का नेतृत्व करते थे.
बिजरौल में उसके भागीदार थे चौधरी शीश राम और
अन्य जिन्होंने शाहमल की क्रान्तिकारी कार्रवाइयों का साथ नहीं दिया. दूसरी पट्टी में 4
थोक थी. इन्होने भी साथ नहीं दिया था इसलिए
उनकी जमीन जब्त होने से बच गई थी बडौत के लम्बरदार
शौन सिंह और बुध सिंह और जौहरी, जफर्वाद और जोट
के लम्बरदार बदन और गुलाम भी विद्रोही सेना में
अपनी-अपनी जगह पर आ जमे. शाहमल के मुख्य
सिपहसलार बगुता और सज्जा थे और जाटों के दो बड़े गाँव बाबली और बडौत अपनी जनसँख्या और रसद की तादाद के सहारे शाहमल के केंद्र बन गए.
१० मई को मेरठ से शुरू विद्रोह की लपटें इलाके में फ़ैल गई.शाहमल ने जहानपुर के गूजरों को साथ लेकर बडौत तहसील पर चढाई करदी. उन्होंने तहसील के खजाने को लूट कर उसकी अमानत को बरबाद कर दिया. बंजारा सौदागरों की लूट से खेती की उपज की कमी को पूरा कर लिया. मई और जून में आस पास के गांवों में उनकी
धाक जम गई. फिर मेरठ से छूटे हुये कैदियों ने उनकी की
फौज को और बढा दिया. उनके प्रभुत्व और नेतृत्व को
देख कर दिल्ली दरबार में उसे सूबेदारी दी.
12 व 13 मई 1857 को बाबा शाहमल ने सर्वप्रथम
साथियों समेत बंजारा व्यापारियों पर आक्रमण कर
काफी संपत्ति कब्जे में ले ली और बड़ौत तहसील और
पुलिस चौकी पर हमला बोल की तोड़फोड़ व लूटपाट
की। दिल्ली के क्रांतिकारियों को उन्होंने बड़ी
मदद की। क्रांति के प्रति अगाध प्रेम और समर्पण की
भावना ने जल्दी ही उनको क्रांतिवीरों का सूबेदार
बना दिया। शाहमल ने न केवल अंग्रेजों के संचार
साधनों को ठप किया बल्कि अपने इलाके को
दिल्ली के क्रांतिवीरों के लिए आपूर्ति क्षेत्र में बदल
दिया।
अपनी बढ़ती फौज की ताकत से उन्होंने बागपत के
नजदीक जमुना पर बने पुल को नष्ट कर दिया. उनकी इन
सफलताओं से उन्हें तोमर जाटों के 84 गांवों का
आधिपत्य मिल गया. उसे आज तक देश खाप की
चौरासी कह कर पुकारा जाता है. वह एक स्वतंत्र क्षेत्र
के रूप में संगठित कर लिया गया और इस प्रकार वह
जमुना के बाएं किनारे का राजा बन बैठा, जिससे कि
दिल्ली की उभरती फौजों को रसद जाना कतई बंद
हो गया और मेरठ के क्रांतिकारियों को मदद पहुंचती
रही. कुछ अंग्रेजों जिनमें हैवेट, फारेस्ट ग्राम्हीर,
वॉटसन कोर्रेट, गफ और थॉमस प्रमुख थे को यूरोपियन
फ्रासू जो बेगम समरू का दरबारी कवि भी था, ने अपने
गांव हरचंदपुर में शरण दे दी। इसका पता चलते ही शाहमल
ने निरपत सिंह व लाजराम जाट के साथ फ्रासू के हाथ
पैर बांधकर काफी पिटाई की और बतौर सजा उसके घर
को लूट लिया। बनाली के महाजन ने काफी रुपया
देकर उसकी जान बचायी। मेरठ से दिल्ली जाते हुए
डनलप, विलियम्स और ट्रम्बल ने भी फ्रासू की रक्षा
की। फ्रासू को उसके पड़ौस के गांव सुन्हैड़ा के लोगों ने
बताया कि इस्माइल, रामभाई और जासूदी के नेतृत्व
में अनेक गांव अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े हो गए है। शाहमल के
प्रयत्नों से सभी जाट एक साथ मिलकर लड़े और हरचंदपुर,
ननवा काजिम, नानूहन, सरखलान, बिजरौल, जौहड़ी,
बिजवाड़ा, पूठ, धनौरा, बुढ़ैरा, पोईस, गुराना,
नंगला, गुलाब बड़ौली, बलि बनाली (निम्बाली),
बागू, सन्तोखपुर, हिलवाड़ी, बड़ौत, औसख, नादिर
असलत और असलत खर्मास गांव के लोगों ने उनके नेतृत्व में
संगठित होकर क्रांति का बिगुल बजाया।
कुछ बेदखल हुये जाट जमींदारों ने जब शाहमल का साथ
छोड़कर अंग्रेज अफसर डनलप की फौज का साथ दिया
तो शाहमल ने ३०० सिपाही लेकर बसौड़ गाँव पर
कब्जा कर लिया. जब अंग्रेजी फौज ने गाँव का घेरा
डाला तो शाहमल उससे पहले गाँव छोड़ चुका था.
अंग्रेज फौज ने बचे सिपाहियों को मौत के घाट उतार
दिया और ८००० मन गेहूं जब्त कर लिया. इलाके में
शाहमल के दबदबे का इस बात से पता लगता है कि
अंग्रेजों को इस अनाज को मोल लेने के लिए किसान
नहीं मिले और न ही किसी व्यापारी ने बोली
बोली. गांव वालों को सेना ने बाहर निकाल दिया
शाहमल ने यमुना नहर पर सिंचाई विभाग के बंगले को
मुख्यालय बना लिया था और अपनी गुप्तचर सेना
कायम कर ली थी। हमले की पूर्व सूचना मिलने पर एक
बार उन्होंने 129 अंग्रेजी सैनिकों की हालत खराब कर
दी थी।
इलियट ने १८३० में लिखा है कि पगड़ी बांधने की प्रथा
व्यक्तिको आदर देने की प्रथा ही नहीं थी, बल्कि
उन्हें नेतृत्व प्रदान करने की संज्ञा भी थी. शाहमल ने
इस प्रथा का पूरा उपयोग किया. शाहमल बसौड़
गाँव से भाग कर निकलने के बाद वह गांवों में गया और
करीब ५० गावों की नई फौज बनाकर मैदान में उतर
पड़ा.
दिल्ली दरबार और शाहमल की आपस में उल्लेखित
संधि थी. अंग्रेजों ने समझ लिया कि दिल्ली की
मुग़ल सता को बर्बाद करना है तो शाहमल की शक्ति
को दुरुस्त करना आवश्यक है. उन्होंने शाहमल को
जिन्दा या मुर्दा उसका सर काटकर लाने वाले के
लिए १०००० रुपये इनाम घोषित किया.
डनलप जो कि अंग्रेजी फौज का नेतृत्व कर रहा था,
को शाहमल की फौजों के सामने से भागना पड़ा. इसने
अपनी डायरी में लिखा है -
"चारों तरफ से उभरते हुये जाट नगाड़े बजाते हुये चले जा
रहे थे और उस आंधी के सामने अंग्रेजी फौजों का जिसे
'खाकी रिसाला' कहा जाता था, का टिकना
नामुमकिन था."
एक सैन्य अधिकारी ने उनके बारे में लिखा है कि
एक जाट (शाहमल) ने जो बड़ौत परगने का गवर्नर हो
गया था और जिसने राजा की पदवी धारण कर ली
थी, उसने तीन-चार अन्य परगनों पर नियंत्रण कर
लिया था। दिल्ली के घेरे के समय जनता और दिल्ली
इसी व्यक्ति के कारण जीवित रह सकी।
जुलाई 1857 में क्रांतिकारी नेता शाहमल को पकड़ने के
लिए अंग्रेजी सेना संकल्पबद्ध हुई पर लगभग 7 हजार
सैनिकों सशस्त्र किसानों व जमींदारों ने डटकर
मुकाबला किया। शाहमल के भतीजे भगत के हमले से
बाल-बाल बचकर सेना का नेतृत्व कर रहा डनलप भाग
खड़ा हुआ और भगत ने उसे बड़ौत तक खदेड़ा। इस समय
शाहमल के साथ 2000 शक्तिशाली किसान मौजूद थे।
गुरिल्ला युद्ध प्रणाली में विशेष महारत हासिल करने
वाले शाहमल और उनके अनुयायियों का बड़ौत के
दक्षिण के एक बाग में खाकी रिसाला से आमने सामने
घमासान युद्ध हुआ.
डनलप शाहमल के भतीजे भगता के हाथों से बाल-बाल
बचकर भागा. परन्तु शाहमल जो अपने घोडे पर एक अंग
रक्षक के साथ लड़ रहा था, फिरंगियों के बीच घिर
गया. उसने अपनी तलवार के वो करतब दिखाए कि
फिरंगी दंग रह गए. तलवार के गिर जाने पर शाहमल अपने
भाले से दुश्मनों पर वार करता रहा. इस दौर में उसकी
पगड़ी खुल गई और घोडे के पैरों में फंस गई. जिसका
फायदा उठाकर एक धोखेबाज़ मुस्लिम सवार ने उसे
घोड़े से गिरा दिया. अंग्रेज अफसर पारकर, जो
शाहमल को पहचानता था, ने शाहमल के शरीर के टुकडे-
टुकडे करवा दिए और उसका सर काट कर एक भाले के ऊपर
टंगवा दिया.बाबा कि जासूसी करने वाला दलाल
बाद बाघपत नवाब बनाया और बाबा के पोते उस
धोखेबाज को नरक का रास्ता दिखा दिया।
डनलप ने अपने कागजात पर लिखा है कि अंग्रेजों के
खाखी रिशाले के एक भाले पर अंग्रेजी झंडा था और
दूसरे भाले पर शाहमल का सर टांगकर पूरे इलाके में परेड
करवाई गई. तोमर जाटों के चौरासी गांवों के 'देश'
की किसान सेना ने फिर भी हार नहीं मानी. और
शाहमल के सर को वापिस लेने के लिए सूरज मल और
भगता स्थान-स्थान पर फिरंगियों पर हमला करते
रहे.शाहमल के गाँव सालों तक युद्ध चलाते रहे.
21 जुलाई 1857 को तार द्वारा अंग्रेज
उच्चाधिकारियों को सूचना दी गई कि मेरठ से आयी
फौजों के विरुद्ध लड़ते हुए शाहमल अपने 6000 साथियों
सहित मारा गया। शाहमल का सिर काट लिया
गया और सार्वजनिक रूप से इसकी प्रदर्शनी लगाई गई।
पर इस शहादत ने क्रांति को और मजबूत किया तथा 23
अगस्त 1857 को शाहमल के पौत्र लिज्जामल जाट ने
बड़ौत क्षेत्र में पुन: जंग की शुरुआत कर दी। अंग्रेजों ने इसे
कुचलने के लिए खाकी रिसाला भेजा जिसने पांचली
बुजुर्ग, नंगला और फुपरा में कार्रवाई कर
क्रांतिकारियों का दमन कर दिया। लिज्जामल
को बंदी बना कर साथियों जिनकी संख्या 32
बताई जाती है, को फांसी दे दी गई।
शाहमल मैदान में काम आया, परन्तु उसकी जगाई
क्रांति के बीज बडौत के आस पास प्रस्फुटित होते रहे.
बिजरौल गाँव में शाहमल का एक छोटा सा स्मारक
बना है जो गाँव को उसकी याद दिलाता रहता है.
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