जो लोग यदाकदा यह कहते
देखे जाते हैं कि इतिहास में जाट मुस्लिमों के डर के चलते मुस्लिम बने थे,
उनके लिए छारा, जिला झज्जर में 200 युवकों द्वारा धर्म-परिवर्तन करने की
बात वाली घटना काफी होनी चाहिए यह समझने के लिए कि जाट किसी के डर से नहीं,
अपितु मनुवादियों के आज जैसे जाट बनाम नॉन-जाट और पैंतीस बनाम एक बिरादरी
वाले माहौलों व् हालातों से निजात पाने हेतु ऐसा किया करते थे। वर्ना जाटों
में तब भी वो ताकत होती थी और आज भी है कि जिस अंदाज में चाहें इनको
मुंहतोड़ जवाब दे देवें, फिर चाहे सामने कोई खड़ा हो, तथाकथित ब्रिगेड खड़ी
हो, ट्रैंड-कबुतर मंडली खड़ी हो, पुलिस-फ़ौज-सीआरपीएफ कुछ भी खड़ा हो।
किये होंगे किसी या किन्हीं के डरों के चलते किन्हीं ने धर्मपरिवर्तन;
परन्तु जाट ने जब-जब ऐसा किया यह तब ही किया जब इन मनुवादियों ने जाट की
मानसिक शांति व् संतुष्टि छीननी या रौंदनी चाही।
जाट हमेशा से शांति का पुजारी रहा है और जब उसको यह मनुवादियों से नहीं मिली तो बुद्ध, सिख, इस्लाम, जैन, ईसाई धर्मों में ढूंढी। और जिस भी धर्म में गए वहाँ सर्वोच्च सम्मान पाया। ईसाईयों ने जाटों को 'रॉयल रेस' कह के सम्मान दिया, मुस्लिमों ने चौधरी कह के तो सिखों ने सरदार जी कह के। और यह मनुवादी क्या-क्या कहलवा के सम्मान दिलवा रहे हैं यही इसकी वजह है कि जाट क्यों फिर से धर्म बदलने या अलग धर्म बनाने की सोच रहे हैं।
चला तो सिख धर्म में जाना था सारे जाट को उन्नीसवीं सदी में ही, यह तो अगर 1875 में मनुवादी बॉम्बे में इकठ्ठे हो जाटों को दयानन्द सरस्वती द्वारा सत्यार्थ प्रकाश लिखवा उसमें "जाट जी" कह के आदर ना देते तो। तब तो जाट रुक गए थे, परन्तु इन्होनें फिर से वही हालात ला खड़े किये हैं। आखिर इनको कब अक्ल आएगी। पहले भिड़ते हैं और फिर बाद में "जाट जी" कहते/लिखते आगे पीछे फिरते हैं।
लेकिन अबकी बार तो इसका कुछ ऐसा हल हो ही जाए कि या तो यह अपनी हरकतों से बाज आवें या फिर जाट इस धर्म को ही खाली कर जावें। बेशक "जाट धर्म" घोषित कर लिया जावे।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
जाट हमेशा से शांति का पुजारी रहा है और जब उसको यह मनुवादियों से नहीं मिली तो बुद्ध, सिख, इस्लाम, जैन, ईसाई धर्मों में ढूंढी। और जिस भी धर्म में गए वहाँ सर्वोच्च सम्मान पाया। ईसाईयों ने जाटों को 'रॉयल रेस' कह के सम्मान दिया, मुस्लिमों ने चौधरी कह के तो सिखों ने सरदार जी कह के। और यह मनुवादी क्या-क्या कहलवा के सम्मान दिलवा रहे हैं यही इसकी वजह है कि जाट क्यों फिर से धर्म बदलने या अलग धर्म बनाने की सोच रहे हैं।
चला तो सिख धर्म में जाना था सारे जाट को उन्नीसवीं सदी में ही, यह तो अगर 1875 में मनुवादी बॉम्बे में इकठ्ठे हो जाटों को दयानन्द सरस्वती द्वारा सत्यार्थ प्रकाश लिखवा उसमें "जाट जी" कह के आदर ना देते तो। तब तो जाट रुक गए थे, परन्तु इन्होनें फिर से वही हालात ला खड़े किये हैं। आखिर इनको कब अक्ल आएगी। पहले भिड़ते हैं और फिर बाद में "जाट जी" कहते/लिखते आगे पीछे फिरते हैं।
लेकिन अबकी बार तो इसका कुछ ऐसा हल हो ही जाए कि या तो यह अपनी हरकतों से बाज आवें या फिर जाट इस धर्म को ही खाली कर जावें। बेशक "जाट धर्म" घोषित कर लिया जावे।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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