Sunday, 15 May 2016

बाबा टिकैत जो झंडा पकड़ा गए थे, उसका रंग क्यों भूल गया ओ जाट व् तमाम किसान?


आज बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की पांचवीं पुण्य-तिथि (15/05/2011) पर अंधभक्त बन भगवे के पीछे भाग रहे जाटों व् तमाम किसानों के बालकों से पूछना चाहूंगा कि क्या जो झंडा हमारा पुरख हुतात्मा बाबा टिकैत हमें पकड़ा गया था उसका रंग भगमा था या हरा (किसान के खेतों की हरियाली का प्रतीक) व् सफेद (किसान के यहां होने वाले दूध का प्रतीक) था?

हमें भगवे को आदर देने से परहेज नहीं, इसीलिए कभी किसी किसान पुत्र ने तिरंगे पर ऊँगली नहीं उठाई, जिसमें हरे और सफ़ेद के साथ भगवा और नीला अशोक चक्र (उद्योग व् दलित) का प्रतीक भी हैं| भगवे को स्थान देने के चक्कर में सफेद, हरे और नीले को मत भूलो, भगवा देश का पेट नहीं भरता; वो भरता है हरा, सफेद व् नीला|

हमारे पुरख यानि हमारे बाप हमें "हर-हर महादेव" और "अल्लाह-हू-अकबर" दोनों एक साथ बोलना सीखा के गए हैं; हमें उनको और उनके जैसी चीजों-चिन्हों को आगे बढ़ाना है, किन्हीं बहरूपियों के एजेंडों को नहीं|

और उनको भूले हो तो आज देख लो, ना अगर किसानों के नेताओं को एक-एक करके ठिकाने लगाया जा रहा हो तो| नेता तो नेता तुम्हारे खिलाडियों तक को ठिकाने लगाया जा रहा है| आज बाबा की पुण्यतिथि के अवसर पर लौट आओ अपनी जड़ों की ओर वापिस|

इनसे सिर्फ कारोबारी और रोजगारी रिश्ते स्वीकारो| जो जाट और किसान हो गया वो आध्यात्म और बौद्धिकता का खजाना स्वत: हो गया| मत उतरो अपनी "जाट देवता" की पदवी से नीचे, इन बहरूपियों के चरणों में अपने को झुका के| इनको गिरवी मत रखो अपने आध्यात्म और बौद्धिकता को|

Ending the note with this poem dedicated to Baba Tikait:

सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या:

धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
धर्म नैं चिलम भरी थारी हो, थमनै होण दी ना पाड़ कदे,
अल्लाह-हू-अकबर, हर-हर-महदेव, राखे दोनूं एक पाळ खड़े|
अवाम खड़ी हो चल देंदी, जब-जब थमनें हुम्-हुंकार भरे,
सिसौली से दिल्ली अर वैं ब्रज-बांगर-बागड़ के मैदान बड़े|
चूं तक नहीं हुई कदे धर्म पै, आज यें हाजिरी लावैं फण्डियाँ कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

किसान यूनियन रोवै खड़ी, पाड़ उतरगी भीतर म्ह,
तीतर-बटेरों का झुण्ड हो रे, खा गये चूंट कैं चित्र नैं|
स्याऊ माणस लबदा ना, यू गहग्या सोना पित्तळ म्ह,
राजनीति डसगी उज्जड न्यूं, ज्यूँ कुत्ते चाटें पत्तळ नैं||
एक्का क्यूकर हो दादा, खोल बता ज्या त्यरे इस टोळे तैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

मंडी भा-खाणी रंडी हो री, दवन्नी पल्लै छोड्ती ना,
आंधी पिस्सै कुत्ते चाटें, त्यरे भोळे की भोड़ती ना|
कमर किसान की तोड़दी हाँ, या लागत खस्मां खाणी,
गए जमाने लुटे फ़साने, भागां रहगी फांसी, कै गस खाणी||
अन्नदाता की राहराणी बणै ज्यूँ, न्यूँ ला ज्या बात ठिकाणे पै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

खाप त्यरी यैं बिन छतरी-चिमनी का हो री चूल्हा,
बूँद पड़ी अर चौगरदे नैं धूमम्म-धूमा-धूमम्म-धूमा|
टकसाळो की ताल जोड़ दे, ला फेर चबूतरा सोरम सा,
'फुल्ले-भगत' मोरणी चढ़ा दे, अर गेल टेर दे तोरण शाह||
या चित-चोरण सी माया तेरी, करै निहाल सारे जटराणे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
शब्दावली: भोळा/भोळे = किसान
लेख्क्क: फूल कुंवार म्यलक (Phool Kumar Malik)

जय यौद्धेय!

 

No comments: