Tuesday, 6 September 2016

दादी कहती थी कि गीता व्यवहारिक बात नहीं करती, इन मोडडों का क्या है यह तो ठाल्ली बैठे कुछ भी लिखते हैं!

एक-आध बार जब किसी बनिए की दूकान पर ग्राहकों को लुभाने के लिए लगे पोस्टरों से गीता का कोई श्लोक पढ़ के आता था और चाव से घर में सुनाता था तो दादी डाँटते हुए कहती थी कि घरों के मसले समझा-बुझा-सुलह करके दबाये जाते हैं, उनपर महाभारत नहीं रचाये जाते| यानी अगर घर के मसले इतने बड़े होने लगें जितने गीता ने दिखाए हैं तो शायद ही कोई घर साबुत बचे| हम जाट-जमींदार हैं, हर दूसरे घर में जमीन-जायदाद के झगड़े होते हैं तो क्या इसका मतलब हमें यही काम रह गया है कि गीता की मान के कुरुक्षेत्र रचाते फिरेंगे? या हमारी पंचायतों की बजाये इन ठाल्ली-निकम्मे और नकारा मोडडों से न्याय करवाते फिरेंगे?

दादी कहती थी कि जिस दिन जाट-जमींदारों के यहां जमीनों जैसे मसले भी युद्धों से हल होने लगे तो बस लिए हमारे गाँव-नगर-खेड़े| दूर रहो इन अतिरेक से भरी किताबों से| हमारे यहां ऐसे झगड़े बढ़ाये नहीं अपितु घटाए जाते हैं| कोई किसी की बहु-बेटी को छेड़ दे या तंज कस दे तो पंचायत उसको गधे पे बैठा के काला मुंह करके पूरे गांव में घुमाती है| हो गई थी जो दुर्योधन-दुशासन से द्रोपदी को छेड़ने और गन्दा बोलने की गलती तो क्यों नहीं उठा के गधे पे घुमा दिया था दोनों को; मामला वहीँ की वहीँ दब जाता|

मैं दादी का ऐसा ताबड़तोड़ न्याय करने वाला जवाब सुनके सन्न और अवाक् रह गया था, कि क्या ऐसा भी हो सकता है| तो दादी कहती है कि यही तो अतिरेक दिखाया गया है गीता में, राह लगती बात करी नहीं; बेवजह राई का पहाड़ बना के कहानी पाथ दी|

दादी की यह लाइन उस दिन से आजतक शिक्षा बनके मेरे साथ चल रही है और तब से गीता-रामायण-महाभारत (आरएसएस के स्कूल में था पहली से दसवीं तक) को मैंने पढ़ा जरूर, परन्तु सिर्फ माइथोलॉजी मान के, वास्तविकता नहीं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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