Sunday 16 October 2016

भक्ति या अंध्भक्ति जाट का डीएनए ही नहीं, भक्त बने जाट व्यर्थ ही अपने ही डीएनए से जूझ रहे!

अंधभक्त बने जाटों की सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वो अंधभक्ति दिखाने की कोशिश में अपने ही डीएनए के विरुद्ध जद्दोजहद कर रहे हैं| क्योंकि जाट डीएनए अधिनायकवाद के सिद्धांत का है ही नहीं| इसमें या तो हर कोई राजा है या फिर हर कोई रंक| इसीलिए कहावत भी कही गई है कि "भरा पेट जाट का, राजा के हाथी को भी गधा बता दे"| और नवजोत सिंह सिध्धू अभी-अभी राजा रुपी पीएम मोदी के हाथी रुपी बीजेपी को गधा बताते हुए, बीजेपी को लात मार के; इसको साबित भी कर चुके हैं|

ऐसे ही दो-तीन किस्से और भी सुनाता हूँ, परन्तु थोड़े दूसरी तरह के| यह ऐसे किस्से हैं जब जाटों ने खुद ही, अहंकार में आये राजनेताओं को ही राजनीति में औंधे मुंह गिराया या उनके दम्भ को चकनाचूर कर दिया|
आज जो भिवानी से सांसद हैं धर्मवीर पंघाल जी, इनकी पहली राजनैतिक विजय हुई ही इस वजह से थी कि हरयाणा मुख्यमंत्री के तौर पर 10 साल से राज करते आ रहे हरयाणा निर्माणपुरुष चौधरी बंसीलाल जी ने उनके हल्के में शेखी बघार दी थी कि मेरे से बड़ा कोई जाट नेता नहीं आज के दिन; मेरे सिवा तुम किसके साथ लगोगे| बस जाटों को यह बात ऐसी अखरी कि "बिल्ली के भागों, छींका छूटने" और "चाहे गाम की गाल में बुग्गी पे बैठा मानस एमएलए बनाना पड़ जाओ, पर इसमें उभरते अधिनायकवाद को नहीं छोड़ेंगे" अंदाज में 1977 के विधानसभा चुनाव में अदने से युवा धर्मबीर पंघाल को चौधरी बंसीलाल के विरुद्ध एमएलए बना दिया|

यह हरयाणा का एक-इकलौता ऐसा वाकया है जब कोई सीएम से ले के देश के रक्षा-मंत्री कद का नेशनल लेवल का नेता अपनी गृह-सीट पर ही चुनाव हार गया हो| वर्ना कोई हरा के दिखा दो हुड्डा जी को किलोई-सांपला से, चौटालाओं को डबवाली साइड से और ऐसे ही आजीवन अपराजित स्वर्गीय भजनलाल रह के चले गए मंडी-आदमपुर से|

दूसरा किस्सा "महम-कांड" तो जगप्रसिद्ध है; हर कोई जानता है कि चौधरी आनंद सिंह दांगी व् महम-चौबीसी-खाप बनाम चौधरी ओम प्रकाश चौटाला जी की सरकार के बीच कैसी खूनी-जंग चली थी| कैसे महम-चौबीसी वालों ने सैंकड़ों पुलिस व् सीआरपीएफ वालों को दौड़ा-दौड़ा पीटा था और कैसे पुलिस व् फाॅर्स वाले अपनी वर्दी छोड़-छोड़ जानें बचाते हुए खेतों-कीचड़ों से लथपथ होते भागे थे| यह हादसा चौटाला साहब की सीएम की कुर्सी भी लील गया था|

तीसरा तगड़ा, झटका फरवरी 2016 में हुए जाट आंदोलन के तहत सीधा पीएम मोदी, बीजेपी, आरएसएस, राजकुमार सैनी और खट्टर सबके अहम को एक साथ दिया; चार दिनों में सरकार घुटनों के बल आ गई थी| परन्तु यह ठहरे झूठों के झूठे, सात फेरे लेने वाली से किये वचन नहीं निभाते; जनता से किये तो तब निभाएंगे|

तो सार यही है कि आज जो आप इनके दिखाए थोथे जुमलों से लबरेज सब्जबागों के हत्थे चढ़ के अपने ही डीएनए के विपरीत खुद से व् समाज से व्यवहार कर रहे हो, यह तभी तक है जब तक बीजेपी-आरएसएस वाले आपकी अनख पे बैठने जैसा कुछ उट-मटीला टाइप नहीं करते| हालाँकि फरवरी वाले उट-मटीले ने बहुत से अंधभक्त बने जाटों की आँखें खोली हैं और रही-सही की भी किसी न किसी दिन खुली ही समझो| और जिस दिन खुली, उस दिन किसी के कहने की भी लोड नहीं होनी, खुद ही इनके पैर उखाड़ दोगे; क्योंकि एक कहावत है कि "जाट निवाला भी खिलावेगा तो गले में रस्सा डाल के"|

इसलिए जिसको अपने जितने काम निकलवाने हैं, चुपचाप निकलवाते रहो| ज्यादा इस चक्कर में मत पड़ो कि अपने काम निकलवाने के ऐवज में इनके एजेंडा भी हरयाणा में फैलवा दें| हंसी-ख़ुशी राजी-मिजाजी में तो सत्तर बार जाट इनको सर पे चढ़ाये रखते, परन्तु फरवरी के बाद से अधिकतर जाट सिर्फ इस मूड में है कि बस अपने काम निकलवाओ और बाई-बाई बोलते जाओ|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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