2014 में रणदीप हुड्डा अभिनीत फिल्म आई थी "रंग-रसिया", जो कि भारत के
प्रथम चित्रकार "राजा रवि वर्मा" (1848 में पैदा हुए, 1906 में मृत्यु हो
गई) पर आधारित है। कायदे से तो बॉलीवुड का "दादा साहेब फाल्के" पुरस्कार
"राजा रवि वर्मा" के नाम से ही होना चाहिए था, परन्तु शायद जातिवाद के चलते
ऐसा हुआ नहीं; क्योंकि वो "राजा रवि वर्मा" और उनके जर्मन सहयोगी की
स्थापित करी प्रेस थी, जिसके जरिये व् "राजा रवि वर्मा" की प्रेरणा से
"दादा फाल्के" ने पहली फिल्म बनाई थी। यानि बॉलीवुड के साजो-सामान-मंच की
नींव रखने वाले राजा रवि वर्मा थे।
खैर, राजा रवि वर्मा वो सख्श हैं जिन्होनें "राम-सीता-लक्ष्मण-हनुमान", "धन की देवी लक्ष्मी", "राधा-कृष्ण" आदि मैथॉलॉजीकल देवी-देवताओं को चित्रित रूप दिया; इनके रूप की कल्पना करी व् अपनी पेंटिंग्स पर उकेरा। आज के दिन जो 30 से 40 उम्र का वर्ग है इन्होनें यह मूर्तियां अपने व् पड़ोसियों के घर खूब देखी होंगी। इन टाइटल्स से गूगल करके इमेज ढूंढेंगे और जिस तरह की पहली क़िस्त इमेजों की आएगी, यह सब "राजा रवि वर्मा" की कलाकृतियों की कापियां हैं। दिखने में ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे युग-युगान्तर से चली आई हों, परन्तु यह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की देन हैं। उससे पहले इन भगवानों का कोई मूरत रूप नहीं होता था।
जब यह मूर्तियां बनी तो पूरे भारत में फैली, तो लाजिमी है कि हरयाणा की तरफ भी फैली। इन्होनें हरयाणवी सांगी "पण्डित लखमीचन्द" (1901 में पैदा और 1945 में मरण) का ध्यान आकर्षित किया। पण्डित लखमीचन्द अनपढ़ थे, इसलिए उन्होंने बनारस से एक पंडा और माइथोलॉजी की पुस्तकें मंगवाई। पण्डे के साथ मिलकर इन पुस्तकों का हरयाणवी किस्सों में अनुवाद हुआ व् इन किस्सों पर रागनियां बनी। बताता चलूँ कि भारत की सबसे पहली रामलीला 1862 में चित्रकूट (यूपी वाला, एक चित्रकूट मध्यप्रदेश में भी है) में शुरू हुई थी यानि लगभग मात्र 150 साल पहले। जबकि प्रभाव व् प्रचार ऐसा है कि जैसे हजारों साल से होती आ रही हो।
1940 के इर्दिगर्द का वक्त ही वह वक्त था जब बनारस-अवध-अयोध्या की तरफ होने वाली रामलीलाएं हरयाणा की तरफ बुलवाई गई और फैलाई गई। इससे पहले हरयाणा में राम-रामायण का कोई ख़ास जिक्र नहीं मिलता, इतना तो बिलकुल नहीं जितना कि आज हो चला है। शुरू-शुरू में लोगों ने इनको नौटंकियों के रूप में लिया और यह फैलती गई| रामलीलाओं ने राम के चरित्र को इतना प्रचारित और व्यापक किया कि लोग "राम" शब्द को "राम-राम" के सम्बोधन में प्रयोग करने लगे। उसके बाद से आजतक आगे कितनी इस विषय पर प्रगति हुई, उसको हर सख्श जानता ही है। नब्बे के दशक में रामायण पर टीवी सीरियल आ गए और फिर इन विषयों पर टीवी सीरियलों की बाढ़।
इससे पहले हरयाणा में दशहरा कोई ख़ास नहीं मनता था बल्कि इस दिन "पुराने मिटटी के बर्तन फोड़ने" का दिन मनाया जाता था ताकि कुम्हार द्वारा चाक व् आक से उतारी गई नई बर्तनों की खेप को मार्किट मिल सके और कुम्हार की आमदनी हो सके। बचपन में इस दिन खूब पुराने-भांडे तो मैंने भी फोड़े हुए हैं। दशहरे का सामानांतर हरयाणवी त्यौहार "सांझी" में भी जो "हांडी" फोड़ने का कांसेप्ट है वो इसके साथ मिश्रित है।
यह एक बहुत बड़ा मूल फर्क है शुद्ध हरयाणवी त्योहारों व् अन्यों के त्योहारों में। बाकियों के त्यौहार जहां मूलतः माइथोलॉजी आधारित व् एक वर्ग विशेष को महिमामंडित करने वाले रहे हैं, वहीँ हर शुद्ध हरियाणवी त्यौहार में किसी-ना-किसी कारोबारी जाति के सहयोग की प्रेरणा रहती रही है; जैसे इस पुराने भांडे फोड़ने के "सांझी" वाले त्यौहार में कुम्हार को मार्किट व् बिज़नस देना।
हालाँकि इससे पहले भी रामायण हरयाणा में रही है, परन्तु इतने व्यापक स्तर पर नहीं। क्योंकि बुद्धकाल में यहां लगभग हर दलित-ओबीसी-किसान बौद्ध बन गया था। ख़ास बात यह भी है कि रामायण में बुद्ध का जिक्र है, जो साबित करता है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गई। जब बुद्ध और सनातन धर्म के अनुयायिओं में युद्ध हुए तो बहुत से बुद्ध मठ तोड़े गए, जिसकी वजह से आज भी हरयाणा में "मार दिया मठ", " कर दिया मठ", हो गया मठ" की कहावतें चलती हैं। बौद्धों व् सनातनियों की लड़ाइयों की कटुता के चलते यह चीजें दोनों पक्षों के मनों में रही। और क्योंकि बौद्ध ज्यादा थे तो उस वजह से उस वक्त यह चीजें इधर ज्यादा नहीं फ़ैल पाई।
परन्तु वक्त के साथ और गुलामी काल की वजह से लोग इन पर चर्चाएं नहीं कर पाए; जिसकी वजह से यह कहावतें तो आजतक भी जिन्दा हैं परन्तु लोग धीरे-धीरे इनके पीछे का उद्गम भूलने लगे। और यही वह समय था जब रामायण, रामलीलाओं को हरयाणा में प्रवेश करवाने का उचित समय मिला।
रामायण बारे ऐसा भी कहा जाता है कि यह 1253 ईसवीं के इर्दगिर्द थाईलैंड के अयुथ्या (अयोध्या शब्द से मिलता-जुलता शब्द है) में हुई थी; परन्तु इसकी सच्चाई अभी ज्यादा नहीं जान पाया हूँ।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
खैर, राजा रवि वर्मा वो सख्श हैं जिन्होनें "राम-सीता-लक्ष्मण-हनुमान", "धन की देवी लक्ष्मी", "राधा-कृष्ण" आदि मैथॉलॉजीकल देवी-देवताओं को चित्रित रूप दिया; इनके रूप की कल्पना करी व् अपनी पेंटिंग्स पर उकेरा। आज के दिन जो 30 से 40 उम्र का वर्ग है इन्होनें यह मूर्तियां अपने व् पड़ोसियों के घर खूब देखी होंगी। इन टाइटल्स से गूगल करके इमेज ढूंढेंगे और जिस तरह की पहली क़िस्त इमेजों की आएगी, यह सब "राजा रवि वर्मा" की कलाकृतियों की कापियां हैं। दिखने में ऐसी प्रतीत होती हैं जैसे युग-युगान्तर से चली आई हों, परन्तु यह बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की देन हैं। उससे पहले इन भगवानों का कोई मूरत रूप नहीं होता था।
जब यह मूर्तियां बनी तो पूरे भारत में फैली, तो लाजिमी है कि हरयाणा की तरफ भी फैली। इन्होनें हरयाणवी सांगी "पण्डित लखमीचन्द" (1901 में पैदा और 1945 में मरण) का ध्यान आकर्षित किया। पण्डित लखमीचन्द अनपढ़ थे, इसलिए उन्होंने बनारस से एक पंडा और माइथोलॉजी की पुस्तकें मंगवाई। पण्डे के साथ मिलकर इन पुस्तकों का हरयाणवी किस्सों में अनुवाद हुआ व् इन किस्सों पर रागनियां बनी। बताता चलूँ कि भारत की सबसे पहली रामलीला 1862 में चित्रकूट (यूपी वाला, एक चित्रकूट मध्यप्रदेश में भी है) में शुरू हुई थी यानि लगभग मात्र 150 साल पहले। जबकि प्रभाव व् प्रचार ऐसा है कि जैसे हजारों साल से होती आ रही हो।
1940 के इर्दिगर्द का वक्त ही वह वक्त था जब बनारस-अवध-अयोध्या की तरफ होने वाली रामलीलाएं हरयाणा की तरफ बुलवाई गई और फैलाई गई। इससे पहले हरयाणा में राम-रामायण का कोई ख़ास जिक्र नहीं मिलता, इतना तो बिलकुल नहीं जितना कि आज हो चला है। शुरू-शुरू में लोगों ने इनको नौटंकियों के रूप में लिया और यह फैलती गई| रामलीलाओं ने राम के चरित्र को इतना प्रचारित और व्यापक किया कि लोग "राम" शब्द को "राम-राम" के सम्बोधन में प्रयोग करने लगे। उसके बाद से आजतक आगे कितनी इस विषय पर प्रगति हुई, उसको हर सख्श जानता ही है। नब्बे के दशक में रामायण पर टीवी सीरियल आ गए और फिर इन विषयों पर टीवी सीरियलों की बाढ़।
इससे पहले हरयाणा में दशहरा कोई ख़ास नहीं मनता था बल्कि इस दिन "पुराने मिटटी के बर्तन फोड़ने" का दिन मनाया जाता था ताकि कुम्हार द्वारा चाक व् आक से उतारी गई नई बर्तनों की खेप को मार्किट मिल सके और कुम्हार की आमदनी हो सके। बचपन में इस दिन खूब पुराने-भांडे तो मैंने भी फोड़े हुए हैं। दशहरे का सामानांतर हरयाणवी त्यौहार "सांझी" में भी जो "हांडी" फोड़ने का कांसेप्ट है वो इसके साथ मिश्रित है।
यह एक बहुत बड़ा मूल फर्क है शुद्ध हरयाणवी त्योहारों व् अन्यों के त्योहारों में। बाकियों के त्यौहार जहां मूलतः माइथोलॉजी आधारित व् एक वर्ग विशेष को महिमामंडित करने वाले रहे हैं, वहीँ हर शुद्ध हरियाणवी त्यौहार में किसी-ना-किसी कारोबारी जाति के सहयोग की प्रेरणा रहती रही है; जैसे इस पुराने भांडे फोड़ने के "सांझी" वाले त्यौहार में कुम्हार को मार्किट व् बिज़नस देना।
हालाँकि इससे पहले भी रामायण हरयाणा में रही है, परन्तु इतने व्यापक स्तर पर नहीं। क्योंकि बुद्धकाल में यहां लगभग हर दलित-ओबीसी-किसान बौद्ध बन गया था। ख़ास बात यह भी है कि रामायण में बुद्ध का जिक्र है, जो साबित करता है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गई। जब बुद्ध और सनातन धर्म के अनुयायिओं में युद्ध हुए तो बहुत से बुद्ध मठ तोड़े गए, जिसकी वजह से आज भी हरयाणा में "मार दिया मठ", " कर दिया मठ", हो गया मठ" की कहावतें चलती हैं। बौद्धों व् सनातनियों की लड़ाइयों की कटुता के चलते यह चीजें दोनों पक्षों के मनों में रही। और क्योंकि बौद्ध ज्यादा थे तो उस वजह से उस वक्त यह चीजें इधर ज्यादा नहीं फ़ैल पाई।
परन्तु वक्त के साथ और गुलामी काल की वजह से लोग इन पर चर्चाएं नहीं कर पाए; जिसकी वजह से यह कहावतें तो आजतक भी जिन्दा हैं परन्तु लोग धीरे-धीरे इनके पीछे का उद्गम भूलने लगे। और यही वह समय था जब रामायण, रामलीलाओं को हरयाणा में प्रवेश करवाने का उचित समय मिला।
रामायण बारे ऐसा भी कहा जाता है कि यह 1253 ईसवीं के इर्दगिर्द थाईलैंड के अयुथ्या (अयोध्या शब्द से मिलता-जुलता शब्द है) में हुई थी; परन्तु इसकी सच्चाई अभी ज्यादा नहीं जान पाया हूँ।
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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