Sunday, 12 March 2017

किसानी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा!

किसान जातियों को "मिनिमम कॉमन एजेंडा" बना के चलने का दौर आन पहुँचा है| ना अब अकेला जाट-जाट चिल्लाने से चलने वाला, ना ब्राह्मण-ब्राह्मण चिल्लाने से, ना यादव-यादव से, ना राजपूत-राजपूत से, ना गुज्जर-गुज्जर से और ना ही किसी अन्य किसानी जाति द्वारा ऐसे ही चिल्लाने से| अगर वाकई में भारतीय किसानी के प्रारूप को बचाने और किसान को आर्थिक रूप से सम्पन्न रखने को ले कर कटिबद्धता पर चलना है तो अपने-अपने जातीय अभिमानों-स्वाभिमानों-गौरवों को आपस में आदर देते हुए, साइड रखते हुए; अब सबको मिनिमम-कॉमन-एजेंडा के प्रारूप पर काम करना होगा|

वर्ना यह सरकार यहां कॉर्पोरेट खेती लाने ही वाले हैं, फिर करते रहना बंधुआ मजदूरी, कॉर्पोरेट खेतों में| यह सरकार बेचने की राह पर है, तुम्हारे किसानी स्वाभिमान को बेचने की राह पर है, तुम्हारी किसानी बेचने की राह पर है| किसी को नहीं देखने वाले यह, ना ब्राह्मण किसान को, ना पंजाबी किसान को, न जाट किसान को और ना ही किसी अन्य जाति के किसान को|

सिर्फ एक शब्द है जो आपकी किसानी को, आपकी जमीनों को बचा सकता है - 'किसानी जातियों का मिनिमम कॉमन एजेंडा'!

और हाँ चलते-चलते, भाजपा को जिसने यूपी में जिताया वह कोई लहर नहीं अपितु आपके अंदर भर दी गई या भरी हुई धर्मान्धता व् मुस्लिमों के प्रति भय ने जितवाया है| आज यूपी के परिदृश्य से मुस्लिम निकाल के देख लो, तो पता लगेगा कि इनको वोट करने का 90% कारण तो अकेला यही है; बाकी EVM गड़बड़ी तो जो सुर्ख़ियों में है वह है ही|

मुद्दों पर जीतती बीजेपी तो कहीं तो किसान का, मजदूर का, छोटे व्यापारी का कोई तो मुद्दा नजर आता? चुनाव से पहले तो अमितशाह तक जाटों के आगे वोटों के लिए गिड़गिड़ा रहे थे, इतनी लहर होती तो एक प्रधानमंत्री स्तर के बन्दे को यूँ विधासभा चुनावों के लिए गली-गली उतरना पड़ता क्या?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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