Thursday, 3 January 2019

जब उदारवादी जमींदार को जानवरों पर बोलना होता है तो वह बोलता है, सिवाए इंसानी जानवरों के!

सबसे पहले: जमींदार दो तरह के होते हैं:

1) सामंतवादी जमींदार: इनकी पहचान "नौकर-मालिक वर्किंग कल्चर", "बंधुवा मजदूरी को बुरा नहीं मानते", "वर्णवादी व् जातिवादी ताकतों के सबसे बड़े पोषक होते हैं", "खेतों में खुद काम ना करके मजदूरों से करवाते हैं", "दलित-शूद्र का छुआ नहीं खाते-पीते, उसको पास बैठने नहीं देते", "गरीब-अमीर का अंतर् अव्वल दर्जे का होता है", "महिला क्या किसको कैसे कब पूजेगी इसका अधिकार मर्द समाज रखता है", "सोशल-मिल्ट्री-कल्चर नहीं होता", "सभाएं-पंचायतें पेड़ों के नीचे लगती हैं", "औलाद का गौत बाप का ही गौत होता है", "सोशल जस्टिस के नाम पर "जिसकी लाठी, उसकी भैंस" की रीत चलती है| बिहार-बंगाल-पूर्वांचल-झारखंड-उड़ीसा में सबसे ज्यादा यही जमींदारी पाई जाती है|

2) उदारवादी जमींदार: इनकी पहचान "सीरी-साझी वर्किंग कल्चर", "बंधुवा मजदूरी को बुरा मानते हैं", "वर्णवादी व् जातिवादी ताकतों से बचते हैं और विरोध करना पड़े तो वह भी करते हैं", "खेतों में मजदूर के साथ खुद भी काम करते हैं", "दलित-शूद्र, छुआछूत, ऊँचनीच लगभग ना के बराबर होता है", "गरीब-अमीर का अंतर् सबसे कम होता है अपेक्षाकृत बाकी के भारत के", "पूजा अर्चना का 100% अधिकार औरत के सुपुर्द होता है "दादा नगर खेड़ों के जरिये", "औलाद का गौत माँ का गौत भी हो सकता है", "सोशल मिल्ट्री कल्चर होता है", "सभाएं-पचायतें मिनी-फोर्ट्रेस टाइप की परस-चौपालों में होती आई हैं", "सोशल जस्टिस में दोनों पक्षों के झगड़े सुलझाने के बाद, उनके बीच भाईचारे को पुनर्स्थापित करना अहम् रहता है और ९९% होता भी है"| हरयाणा-वेस्ट यूपी-दिल्ली-पंजाब-उत्तरी राजस्थान में सबसे ज्यादा यही जमींदारी पाई जाती है|

लेख के शीर्षकानुसार बात उदारवादी जमींदारी की करेंगे| यह जमींदार फसल को औलाद की तरह पालते हैं (सामंती पलवाते हैं), फसल की आवारा जानवरों से रक्षा बड़े अच्छे से करते हैं| परन्तु जब यही फसल कट के इसको कैश करने की बात आती है तो इंसानी जानवरों के आगे धराशायी हो जाते हैं| यही बात उसकी औलाद रुपी फसल के बारे रहती है| शहरों में निकली उसकी औलादें, उसके कल्चर को, उसके आध्यात्म को, उसके सोशल इंजीनियरिंग को क्यों कायम नहीं रख पाते? 90% तो खुद को जमींदार की औलाद या जमींदार का वंश कहने तक से कतराते देखे हैं| औरों में तो धर्मों-जातियों-वर्णों को लेकर घृणा देखी जाती है, मगर यह तो बिलकुल इसी तरह की छोटा-बड़ा, ऊंच-नीच समझने की घृणा गाम में पीछे अपने ही पिछोके वालों से करते देखे हैं|

कमी कहाँ है? आखिर ऐसा क्यों होता है?

हरयाणा के बड़े शहरों का उदाहरण लेते हैं| चंडीगढ़-गुड़गामा-रोहतक-हिसार-पानीपत-पंचकूला-करनाल-सोनीपत| इन शहरों में देश के अलग-अलग कोनों से आ के बसे हुए लोग भी हैं| परन्तु पडोसी राज्यों या सुदूर देश के सैंकड़ों-हजारों किलोमीटर के कोनों से आये क्षेत्रों के यह लोग, जिस स्वछंदता व् सिद्द्त से अपने कल्चर-भाषा-पहनावा-रहन-सहन-खान-पान इत्यादि को साथ लिए रहते हैं, यही उदारवादी जमींदारी परिवेश से अपने गाम से मात्र १०-२०-५० किलोमीटर अपनी होम-स्टेट ही के शहरों में आन बसे लोग क्यों नहीं रख पाते? वजहें क्या इसकी?

ऊपर जो उदारवादी जमींदारी के चरित्र-पहचान बारे बिंदु बताये, ऐसे बिंदु सिर्फ यूरोप-अमेरिका आदि के डेवलप्ड देशों में मिलते हैं| फिर भी इनको अंगीकार करने को तैयार नहीं?

कुछ एक साल पहले की बात है, मेरी सगी बुआ का लड़का, एक मेरे गाम का मेरे बचपन का मित्र, पेरिस के "इंडिया हाउस" हॉस्टल में इकठ्ठे हुए| मैंने आदतवश रागणी लगा दी और साथ की साथ वह फेसबुक पर भी अपडेट कर दी| इतने भर पे मुझे नसीहत दे डाली गई कि तुम यहाँ आकर भी इनमें डूबे हुए हो, तुम्हारा कुछ नहीं हो पायेगा| हालाँकि उनको पता था कि वह किसको और किस बात पर नसीहत देने की गलती कर बैठे| इसलिए मेरे बोलने से पहले ही एक्सक्यूज़ लेने की कोशिश करने लगे| परन्तु मुझे खिन्न ने घेर लिया था| इसलिए छोटा सा जवाब दिया|

झन्नाते हुए से सर के साथ बालकनी से बाहर देखने लगा| नीचे सड़क पर जाते हुए एक सरदार जी दिखे| मैंने उसकी तरफ इशारा करके कहा कि क्या उन सरदार जी को जा के यही बात कहने की हिम्मत रखते हो कि, "पेरिस में आ के भी तुम पगड़ी बांधे फिरते हो, तुम्हारा कुछ नहीं हो पायेगा"? और शायद पंजाबी भंगड़े-गाने भी मेरे से तो कुछ ज्यादा ही शेयर किये होंगे सोशल मीडिया पर सरदार जी ने? "इंडिया हाउस" हॉस्टल में थोड़ी देर पहले मिले "शिमला-टोपी" पहने एक हिमाचली की याद दिलवाई और पूछा कि क्या तुम उसको कह सकते हो कि, "पेरिस में आ के भी शिमला-टोपी लगाए फिरते हो, तुम्हारा कुछ नहीं हो सकता"? दोनों मेरे को ऐसे देख रहे जैसे किसी ने पुचकार दिया हो|

फिर मैंने उनसे दूसरा सादा सवाल किया| यह बताओ यहाँ हम सिर्फ तीन हैं? तीनों हरयाणवी? तीनों एक जाति के भी हैं| गाम-खून-वंश में भी तीनों काफी नजदीकी हैं| फिर भी हम हमारी ही कल्चर की रीढ़ रागणी सुनने-शेयर करने पर सिर्फ इसलिए एकमत नहीं हैं कि हम पेरिस में बैठे हैं?

मैं उस सारी रात, इसकी वजह ढूंढता रहा|

मैंने आज तक यूरोपियन-अमेरिकन और हिंदुस्तानी उदारवादी जमींदारों की लाइफ व् कल्चरल फिलोसोफी में दसियों ऐसे समानताएं देश के सुप्रीम कोर्ट से लेकर लंदन की सभाओं और रिसर्च पेपर प्रेसेंटेशन्स में बताई और बढ़ाई हैं|

परन्तु आजतक इस पहेली का ऐसा माकूल हल नहीं निकाल पाया हूँ जिसके सहारे उदारवादी जमींदारों की शहरी व् ग्रामीण औलादों-वंशों को यह समझा सकूं कि पैसा कमाना, लाइफ स्टैण्डर्ड बेहतर करना, पावर कमाने का मतलब अपनी कल्चरल पहचान छुपाना, उससे दूरी बनाना तो कम-से-कम नहीं ही होता|

मैंने पेप्सी को की सीईओ इंदिरा नूई को अमेरिका में पब्लिक कांफ्रेंस में बैठ के खुद को "प्राउड साउथ इंडियन ब्राह्मण" कहते सुना-देखा है, यूट्यूब पर आज भी वह वीडियो पड़ी है; सर्च करके देख सकते हो|

तो फिर क्या-कैसी तो यह कमियां हैं और क्या-कैसे इसके हल होवें; ताकि उदारवादी जमींदारों के बीच की यह कमी समझी जा सके| कहीं ऐसा करते वक्त जेनेटिक उदारवाद हद से ज्यादा हावी होने वाली समस्या तो नहीं है; कि जिसके चलते दूसरे को कम्फर्टेबल स्पेस देने का गुण हावी हो जाता हो? अगर यही वजह है तो फिर इस पर तो यही कहूंगा कि "ना इतने मीठे बनो कि दुनिया निगल ले, और ना इतने कड़वे कि दुनिया उगल दे" वाली इस कहावत वाला मीठा कुछ ज्यादा ही हो रहा है|

और इसकी बलि एक ऐसा कल्चर चढ़ रहा है जो हिंदुस्तानी परिपेक्ष्यों में दूसरों की तुलना में सबसे अधिक लिबरल है, गणतांत्रिक है, लोकतान्त्रिक है और धर्म-आध्यात्म के मामले में तो इकलौती ऐसी थ्योरी जो पूजा के "दादा नगर खेड़ों" धामों में पूजा-विधान करने का पूरा अधिकार ही औरत को देकर रखता है| वह भी एक ऐसे देश में जिसकी तथाकथित सबसे पढ़ी-लिखी स्टेट में सबरीमला जैसा मंदिर औरतों के मंदिर प्रवेश अधिकार पर मर्दों से लड़ रहा है|

जरा सोचिये-विचारिये| ऊपर बताये अति-उदारवाद के साथ-साथ और कौनसे कारण हैं कि हम अपनी कल्चर-भाषा की पहचान को अन्य भारतियों की अपेक्षा कम विश्वास कैरी करते हैं?

हालाँकि मैं इसमें अपवाद हूँ और मुझे जो भी मिला और इस पहलु पर समझ पाया, वह या तो पहले से ही अपवाद था या हमारी संगत ने उसको अपवाद बना दिया| कुछ साथियों ने मिलके धरातल पर अभियान भी चलाया हुआ है परन्तु अपवाद हमारी मंजिल नहीं, जब तक कि इस अपवाद को संवाद ना बना दें|

आखिर कुछ तो है इस हरयाणे की हरयाणत उदारवादी जमींदारी में जो चेन्नई-मुंबई-गुजरात के पिटे हुए उत्तरी-पूर्वी भारतीय भी इस धरा को सेफ-हेवन मानते हैं और इधर रोजगार करने चले आते हैं| और तो और 1984 में जब पंजाब में आतंकवाद छिड़ा तो वहां के उजड़े भी यहीं बसे, कश्मीरी पंडित यहीं बसे| इतने गुण परन्तु फिर भी हम खुद को अपनों के बीच भी अपने कल्चर-आध्यात्म को लेकर सहज नहीं?

सबको सेफ-हेवन भी उदारवादी जमींदारी वाले हरयाणवियों का हरयाणा लगता है और नेशनल मीडिया के अनुसार देखो तो इससे खूंखार लोग और स्टेट भी कहीं की ना बताई? क्या यह बात इससे सुधर ना जाएगी, जिस दिन ऊपर बताई उदारवादी जमींदारी वाली परिभाषा हर सभा, हर मंच से गई सुनाई और गाई?

इंसानी जानवरों से रक्षा की बात अभी पूरी नहीं हुई है| कोई नी पहले इस लेख में उठाई बातों के कारण खोज लेवें, जानवरों से रक्षा वाले पहलु अगले लेख में लाऊंगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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