Saturday, 23 February 2019

ऐसा क्या है कि हरयाणा में जो दलित व् ओबीसी, जाट के इतने विरुद्ध हुआ जाता सा दीखता है या विरुद्ध किया जा रहा है?

जनवरी 2019 में निबटे जिंद (जिंद ले गया दिल का जानी वाला जिंद) उपचुनाव से पहले मैं इस मुद्दे को छूने से परहेज करता रहा हूँ| परन्तु इस पर लिखने की फरवरी 2016 से ही दिमाग में थी| तब से अब तक इसलिए नहीं लिख रहा था क्योंकि लोग कहते कि जब देखो यह भी क्या जहर घोलने जैसी बातें उठाये रहता है| परन्तु जिंद उपचुनाव ने मेरे को वह वजहें दी हैं जो मुझे यह लेख लिखने का साहस करने हेतु चाहिए थीं|

और वह दिया लोसुपा अध्यक्ष राजकुमार सैनी के जिंद उपचुनाव बारे 'मेरा रिपोर्टर' संग दिए साक्षात्कारों में सामने आये उनके निम्नलिखित बयानों ने; महाशय सैनी की जुबानी:

1) हरयाणा में जाट, भाजपा-आरएसएस के लिए ऐसे ही हो चुका है जैसे यूपी में मुस्लिम| यानि आप जाट को भाजपा-आरएसएस के लिए हरयाणा में मुस्लिम समझिये|
2) हम जिंद उपचुनाव में और ज्यादा वोटें लेते अगर चुनाव से ऐन पहले दिन व् उसी रात, सारे शहर में यह हाय-तौबा नहीं मचाई होती कि बीजेपी को वोट दे दो अन्यथा जाट कैंडिडेट जीत रहा है| यानि दिग्विजय चौटाला जीत की और अग्रसर थे|
3) हरयाणा में सरकारी नौकरी सिर्फ 1% हैं बाकी 99% रोजगार प्राइवेट है|

असली मर्म की बात पर आने से पहले, थोड़ा हमारे समाज का सामाजिक-व्यवसायिक परिवेश का परिदृश्य रखते हुए चलूँगा| हमारे समाज में मुख्यत: चार प्रकार की रोजगार-कारोबार केटेगरी हैं:

1) पुजार - यानि मंदिरों-मठों-डेरों-मस्जिद-गुरुद्वारों-चर्चों से होने वाली आवक व् इससे मुठ्ठीभर लोगों को मिलने वाला रोजगार| हिन्दू परिपेक्ष्य में 90% एक ही समुदाय का आधिपत्य है| हरयाणवी परिपेक्ष्य में यह शायद 60 % है, 40 % अन्य जातियों जिनमें कि मुख्यत: जाट ही हैं उनके पास है|

मेरे यहाँ जिन "दादा मोलू जी महाराज, खरकरामजी" टिल्ले की मान्यता है, उस पर 90 % वाला ना तो चढ़ता और ना ही उसका चढ़ना शुभ माना जाता| बल्कि पूर्णिमा के दिन 90% वाले समुदाय के दर्शन भी अपशकुन माने जाते हैं| खीर-पकवान आदि भी दलित जाति में धाणकों को देते हैं, 90% वाले को नहीं| यह 90% वाले को दर्द का बिंदु है, क्योंकि इससे उसकी पुजार के फील्ड में मोनोपोली टूटती है| और यही मोनपोली हासिल करने की लड़ाई भी बनी हुई है जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये हरयाणा में| लेकिन यह हासिल करने का प्रयास है दलित-ओबीसी को जाट से छिंटकवाने के जरिये|

2) व्यापार - यानि हर प्रकार के क्रय-विक्रय से उत्पन होने वाले रोजगार| मुख्यत: दो व् कृषि संबंधी व्यापारों को जोड़ें तो कृषि से जुड़ा लगभग हर समुदाय इस केटेगरी में आता है|

3) कृषक-जमींदार - यानि खेती से उत्पन होने वाला रोजगार| हरयाणा में मुख्यत:जाट-यादव-गुज्जर-राजपूत-रोड आदि व् कुछेक जगह बाहमण जातियां इसमें आती हैं|

4) मजदूर-कारीगर - पुजार-व्यापार-कृषक-जमींदार के यहाँ मजदूरी व् कारीगरी से संबंधित प्राइवेट नौकरी/रोजगार/दिहाड़ी व् इसमें अफसर-कर्मचारी वाली सरकारी नौकरी/रोजगार/दिहाड़ी और जोड़ लीजिये| इसमें 1% सरकारी वाले निकाल दें तो 99% प्राइवेट में 80% से ज्यादा ओबीसी व् दलित बिरादरी आती हैं|

अब आते हैं असली मर्म की बात पर:

आखिर ओबीसी व् दलित में, जाट के प्रति इतना जहर-गुस्सा-तनाव विगत के 2-4-5-10 सालों में उभर के क्यों आया है?

मोटे तौर पर जड़ जो पकड़ में आती है वह यह है कि, "जाट आसानी से सॉफ्ट-टारगेट बनाया जा सकता है" और वह बनाया जा भी रहा है| यह तो अब खुद राजकुमार सैनी जैसे जाट-विरोधी भी पब्लिक इंटरव्यू तक में बोलने लगे हैं|

जाट "सॉफ्ट-टारगेट" क्यों, कैसे और किसलिए बन रहा है या बनाया जा रहा है?:

पहले जाट क्यों सॉफ्ट टारगेट बन रहा है या बनाया जा रहा है:

1) जाट जितनी सिद्द्त से खेती की बाड़ कर उसकी सुरक्षा करना जानता है, उतना ही अपनी सामाजिक पहचान की सुरक्षा करने बारे उदासीन है| जबकि इसको दलित-ओबीसी से जो टारगेट करवा रहे हैं (नाम नहीं लिखूंगा, क्योंकि जो इस विषय बारे जरा भी जानता होगा वह भली-भांति जानता है कि वह कौन वर्ग, कौन लोग हैं) वह तानाशाह-क्रूर-विश्व के सबसे बड़े नश्लवादी-वर्णवादी-छूआछूति लोग हैं| "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" की आज के दिन जाट को सबसे ज्यादा जरूरत है| उसको अपना पैसा-संसाधन आज के दिन इस पर सबसे ज्यादा लगाने की जरूरत है| क्योंकि सामाजिक परिवेश में आपकी सामाजिक पहचान की बाड़ आपकी कौम की "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" से ही होती है| सनद रहे व्यर्थ में जाट एकता, जाट-जाट चिल्लाना "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" में नहीं आता| पहले खापें (सर्वजातीय सर्वखाप में उसके नीचले लेवल पर जो सजातीय सर्वखाप विंग होती है उसकी बात है यहाँ, वरना खाप 36 बिरादरी की रही हैं) यह काम भलीभांति करती थी परन्तु इनमें जब से "ठू-मच राजनीति" घुसी है, तब से इस कौम की हालत सुन्नी गोखड़ जैसी हो गई है; जिसको राह चलते कुत्ते भी काटने को दौड़ रहे हैं| इस पर काम हो जाए तो 70 % मसला हल हो जाए|

2) जाट अपनी औरतों के साथ बैठ कभी यह बातें उनसे साझा नहीं करता कि जाट समाज की मान्यताओं में "जेंडर इक्वलिटी व् जेंडर सेन्सिटिवटी" बारे क्या प्रावधान रहे हैं| जैसे कि "दादा नगर खेड़ों" 100% में पूजा का अधिकार औरतों को होना (विश्व में कोई अन्य ऐसी मान्यता व् समाज नहीं, जो पूजा-पाठ का 100% आधिपत्य अपनी औरतों को दे के रखता हो; बाजे-बाजे तो अपने धर्मस्थलों को पुरुषों के ही अधीन रखते हैं; औरतें कब क्यों उनमें चढ़ेंगी यह भी पुरुष ही तय करते हैं), "देहल-धाणी की औलाद का कांसेप्ट", "तलाक में बेटी-बहु के हक क्या रहे हैं", "खेड़े का गौत का कांसेप्ट कैसे जेंडर न्यूट्रल है", "गाम-गौत-गुहांड" नियम की पाजिटिविटी क्या हैं, "गाम की बेटी 36 बिरादरी की बेटी" का क्या महत्व है" आदि-आदि| पहले के साथ इस बिंदु पर भी काम हो जाए तो समझो जाट को "सॉफ्ट-टारगेट" बनाने की 99% समस्याएं हल| इनमें बिंदु और भी हैं जोड़ने को, परन्तु फ़िलहाल यह दो भी जाट समाज कर ले तो बहुत होगा|

3) तीसरा मुख्य कारण है कि शहरी व् धनाढ्य जाट की अपनी मान-मान्यताओं से तो दूरी बनी ही, साथ ही उसकी उसके पुरखों की भांति अपनी कोई विचारधारा अभी तक उभर कर नहीं आ पा रही है| यह पहलु भी बहुत सीरियस है|

दूसरा जाट को कैसे सॉफ्ट-टारगेट बनाया जा रहा है:

मोटे तौर पर देखा जाए तो जाट के दलित या ओबीसी के साथ सभी प्रकार के जितने भी झगड़े-लफड़े-कलह आदि होती हैं उनमें 95% कारोबारी मसलों को लेकर होती रही हैं| खेत में सीरी है तो ठीक से काम नहीं करने पर कहासुनी| दिहाड़ी पर मजदूर आया तो वक्त पर उसकी दिहाड़ी नहीं दी तो कहासुनी| सनद रहे यहाँ कोई-कोई अवैध शारीरिक संबंधों को भी वजह बताएगा, परन्तु इनमें भी 95% अवैध संबंध रजामंदी के देखे गये हैं| धक्काशाही के मिले भी तो वह वाली धक्काशाही तो नहीं ही मिलती जो दक्षिण-पूर्व भारत के मंदिरों में "देवदासी (दो टूक कहूं तो मंदिरों में पुजारियों की रखैल)", "प्रथमव्य व्रजसला कन्या-भंजन (इसमें मंदिर के पुजारी प्रथम बार व्रजसला हुई लड़की की मंदिर के गर्भगृह में सामूहिक सील-भंग करते हैं, ज्यादा जानकारी के लिए 2002 में आई "माया" फिल्म देखें)" या "विधवा आश्रमों (हरिद्वार से ले हुगली तक के गंगाघाटों के विधवा आश्रम देख आईये, नर्क को जितना बुरा बताते हैं उससे भी बुरा इन आश्रमों में विधवाओं का हाल न कहो तो कहियेगा)" में मिलती है|

अब एक गजब और देखिये, किसान यानि जमींदार जाट से ज्यादा जुल्म दलित-ओबीसी मजदूर-कारीगर को व्यापारी की फैक्ट्री-ऑफिस में झेलने को मिलते हैं| वहां वह ऐसा कभी करने को तैयार नहीं होता कि मुख्य व्यापारिक जातियों को नाम लेकर उनसे नफरत अभियान चला दे?

इनसे भी बड़ा गजब इन वर्णवाद-जातिवाद-नक्शलवाद-छुआछूत फ़ैलाने वालों का देख लीजिये| जाट के साथ तो 95% झगड़े कारोबारी हैं दलित-ओबीसी के| परन्तु इनके साथ तो 95% झगड़े-मनमुटाव, वर्णवाद-जातिवाद-नक्शलवाद-छुआछूत के हैं| परन्तु कभी नहीं देखा हरयाणा में इनके खिलाफ कभी इतना खुला बिगुल फूंके, जितना जाट पे आँखें तराये हुआ सा नजर आता है?

और दलित-ओबीसी को यह फूंक मार कौन है रहा है?

दो बातें:

एक - यह फूंक मार रहे हैं जिनको पुजार में मोनोपॉली चाहिए व् जिनको खेती को सबसे कम आवक का धंधा बनाना है; यह दो|

दूसरी - जाट का ऊपर बताये "ब्रांड प्रोटेक्शन, प्रिजर्वेशन एवं प्रमोशन" व् अपनी औरतों से "जाट समाज में जेंडर इक्वलिटी व् सेंसिटीवी पर डाइलॉगिंग" करने के प्रति उदासीनता भी इस फूंक मारने के माहौल में फूंक मारने वालों को हौंसला देता है कि जाटों को अपनी ब्रांड प्रोटेक्शन तो करनी नहीं तो लगे रहो दलित-ओबीसी को इनके खिलाफ भरने-भड़काने पे| पहले तो बुड्ढी-ठेरी यह जानकारियां पास कर दिया करती थी परन्तु आजकल जब 24 घंटे टीवी के डब्बे ही जानकारी का मुख्य स्त्रोत हों और उनमें भी फंड-पाखंड का कल्चर जितना चाहे उतना ढूंढ लो, उतना परोसा जा रहा हो तो जाट औरतों को जाट कल्चर से जोड़े कौन रखेगा? उसके प्रति जागरूक कौन रखेगा? जाहिर सी बात है जाट समाज के पुरुष|

और यह सब किसलिए हो रहा है, उसकी एक तो मुख्य वजह पुजार वालों को पुजार में मोनोपोली बता ही दी, इसलिए| दूसरा कृषि को लूट के खाना है| तीसरा जाट को आधुनिक जमाने का अछूत बनाना है| हालाँकि धन-दौलत से तो अछूत नहीं बना पाएंगे, परन्तु सोच से दीनहीन बनाने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है|

जो जाट या नॉन-जाट चाहता हो कि हरयाणा व् वेस्ट यूपी रुपी धन-धनाढ्यता, उदारवादी जमींदारी के कल्चर का यह डाहरा बचा रहे, वह एक्टिव हो जावें| फंडी ने जहर बहुत भर दिया है हरयाणा में| और दलित-ओबीसी को यह भान भी नहीं है कि वह इन फंडियों के बहकावे में आकर उनके और इन फंडियों के बीच सदियों से रहे जाट रुपी सुरक्षा कवच को तोड़ कर बहुत भारी भूल कर रहे हैं| जाट ना होते यहाँ तो शायद दक्षिण-पूर्व भारत वाला देवदासी कल्चर यहाँ भी होता| जाट तो किसी तरह इस बवंडर को खे जायेंगे, परन्तु जब तक दलित-ओबीसी सम्भलें तब तक शायद बहुत देर हो चुकी हो| इसलिए उठिये और जागिये व् जगाईये| इस लेख जैसे विचार लिखिए और फैलाइये| इस लेख को भी ज्यादा से ज्यादा फैलाइये| क्योंकि यूँ हाथ पर हाथ धरे बाड़ नहीं रहने वाली समाज की|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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