आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे
अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं
होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज
औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता,
उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित
करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?
दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|
तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|
इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|
तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं|
फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|
तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|
तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|
इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|
तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं|
फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|
तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|
"दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की मास्टर-इंचार्ज औरते हैं?:
आज दादा जी का बताया वह जवाब सबसे तर्कशील व्यवहारिक लगा, जिसमें मैं उनसे अक्सर पूछा करता था कि हमारे "दादा नगर खेड़ों" में क्यों तो मूर्ती नहीं होती, क्यों मर्द पुजारी नहीं होते और क्यों इनमे धोक-ज्योत की इंचार्ज औरते हैं; जबकि अन्य चाहे मंदिर देखो, मस्जिद या चर्च; मर्द ही कर्ताधर्ता, उसी का आधिपत्य है? मर्द ही भगवान के विराजमान होने का स्थान निर्धारित करता है जैसे इंसान का बाप भगवान ना हो अपितु इंसान, भगवान का बाप हो?
दादा यही जवाब दिया करते कि हमारे पुरखे इंसान की मंदबुद्धि, लालची प्रवृति व् नस्लीय द्वेष को बहुत गहनता से समझते थे| वह जानते थे कि भगवान/खुदा इंसान के दिमाग की उपज है और इंसानों के एक समूह को उससे लाभ नहीं होगा तो वह दूसरा घड़ लेगा, कल तीसरा, परसों चौथा और यह गिनती अनंत चलती जाएगी| उदाहरणार्थ जिसको राम पसंद नहीं आया वह श्याम ले आया, जिसको दोनों ही पसंद नहीं आये वह शिवजी ले आया, जिनको शिवजी पसंद नहीं आया वह विष्णु-ब्रह्मा-हनुमान आदि ले आया| जिनको यह भी नहीं जमे वह विभिन्न प्रकार की माताएं ले आये| और सबके दावे यह कि अजी यह वाला ज्यादा महान, इसकी शक्तियां ज्यादा, यह आपका अपना वंशबेल का आदि-आदि| और इतिहास से वर्तमान तक में शैव-वैष्णव-ब्रह्मी-नाथ-दास आदि-आदि अनंत धड़े बने व् आपस में लड़े भी बहुत, आज भी मनभेद से ले मतभेद हैं इन धड़ों में|
तो पुरखों ने यह रोज-रोज के क्लेश खत्म करने को निर्धारित किया कि एक ऐसा कांसेप्ट लाया जाए जिसके अंदर यह सब समाहित हों; और विचार हुआ कि एक गाम-नगर को बसाना सृष्टि के नवनिर्माण जैसा होता है और इसको बसाने वाले प्रथम पुरुष-महिला साक्षात् भगवान का रूप| अब रोज-रोज ढोंग-पाखंडियों के नए-नए भगवानों-देवताओं-गुरुओं को कौन धोकता फिरेगा इसलिए हर गाम अपने गाम के प्रथम पुरखों समेत आपके वंश-इतिहास (जैसे गाम के प्रथम पुरखे कहाँ से आये थे, किस खानदान-वंश के थे; उन लेनों तक के पुरखे-महापुरुष आदि सब)में हुए तमाम अच्छे-बुरे सब पुरखों को एकमत समाहित कर धोकते चले जाओ, तब कांसेप्ट निकल कर आया "दादा नगर खेड़े" का|
इसीलिए मरने के बाद 13 दिन लोग बैठते हैं मरे हुए इंसान की अच्छाइयाँ ऊपर चर्चा करवा उसको पुरखों-शामिल करवाने को और संकेत देते हैं कि मरने वाला अच्छा था या बुरा था, हमारा अपना था, उसकी बुराइयाँ भुलाई जाएँ व् उसको पुरखों-शामिल माना जाए|
तब बात आई कि इनका कोई आकार रखा जाए? तो पुरखे बोले कि इनको निराकार रखो, ताकि इंसानों में इनके नाम के धड़े ही ना बंटे| इसलिए इनमें कोई आकार यानि मूर्ती ना रखी जाए| और देखो पोता इसीलिए इन खेड़ों में हर भगवान के मंदिर में जाने वाला एक-सहमति से ज्योत लगाने आता है; चाहे वह राम के मंदिर जाता हो, शिव के, कृष्ण के, हनुमान के या किसी अन्य के| यही इस कांसेप्ट की महानता है, कि यह अलग-अलग मंदिर जाने वाले भी "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत के वक्त एकमत रहते हैं क्योंकि इनका आधार बिंदु यह है कि इनमें सब पुरखे समाहित हैं, भले ही "धर्म-आध्यात्म को धंधा बनाने वालों ने इनके अलग-अलग मंदिर बना लिए हों" तो भी वह सब अंत में इनमें आकर एक-शामिल हो जाते हैं |
फिर दादा से पूछा कि मर्द पुजारी क्यों नहीं बैठाये? दादा बोले कि इंसान की नस्लीय द्वेष जैसे कि वर्णवाद की प्रवृति व् औरत के प्रति उसकी मर्दवादी सोच से इनको मुक्त रखने हेतु ऐसा नहीं किया जाता| विरला ही मर्द होता है जो गैर-बीर को मर्जी-बेमर्जी पाप की दृष्टि से ना देखे, उसको भोग्य वस्तु ना देखे| यह खेड़े विलासिता-भोग्यता के अड्डे ना बनें, देवदासी-बांदी टाइप चीजें दिमाग में ही ना आवें; इसलिए इनमें मर्द पुजारी नहीं बैठाये जाते|
तो औरतों को इनमें धोक-ज्योत का मास्टर-चार्ज क्यों है? क्योंकि औरत मर्द से ज्यादा सेंसिटिव, भावुक व् आध्यात्मिक होती है| वह परिवार की आध्यात्मिक सोच व् दिशा को मर्द से जल्दी भांप लेती है| वह अपनी कौम-बिरादरी-समाज पर पड़ने वाली बाह्य मुसीबतों को मर्द से ज्यादा संजीदगी से पकड़ लेती है| और इसी वजह से वह विचिलित भी बहुतायत होती है; क्योंकि यह सब विषमताएं उसको उसके परिवार-कौम-समाज पर खतरे नजर आती हैं| ऐसे में उसको कोई मार्गदर्शक छवि का ध्यान होने का मन होता है और वह इस मामले में अपने वंश-पुरखों से बड़ा स्मरण किसी का नहीं मानती| और उसका यह स्मरण सबसे प्रबल तरीके से उसके पुरखों के सानिध्य में बैठ पूर्ण होता है| इसीलिए वही "दादा नगर खेड़ों" में ज्योत-धोक की मास्टर-इंचार्ज हैं| मर्द सिर्फ उसको इसकी व्यवस्था करके देते हैं, इसकी सुरक्षा-निरंतरता कायम रखते हैं|
और पोता यही "मूर्ती-पूजा" नहीं करने का कांसेप्ट आर्य-समाज में लिया गया है; यही तो वजह है सबसे बड़ी कि क्यों हरयाण की उदारवादी जमींदारी व् सहयोगी जातियों में आर्य-समाज इतने कम समय में इतने व्यापक स्तर पर स्वीकार्य हुआ|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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