इस बारे में दो साल पहले एक आलेख पोस्ट किया था। उसी आलेख को दुबारा पोस्ट कर रहा हूँ। फ़िल्म-निर्माता हक़ीक़त की बज़ाय फ़साने को तरज़ीह देता है। महाराजा सूरजमल के असली स्वरूप को जानने के लिए ये आलेख पढ़िए।
महाराजा सूरजमल: एक शूरवीर एवं स्वाभिमानी शासक
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जन्म: 13 फरवरी 1707
ताजपोशी: 22 मई 1755, डीग में
वीरगति: 25 दिसम्बर 1763
अट्ठारवीं शताब्दी को भारतीय इतिहास की सबसे अस्थिर, उथल-पुथल से भरी और डांवाडोल शताब्दी माना जा सकता है। इस शताब्दी के जिस रियासती शासक में वीरता, धीरता, गम्भीरता, उदारता,सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ, चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था, वह था महाराजा सूरजमल। मेल-मिलाप और सह-अस्तित्व तथा समावेशी सोच को आत्मसात करने वाली भारतीयता का वह सच्चा प्रतीक था।
भरतपुर जहां स्थित है, वह इलाका सोघरिया जाट सरदार रुस्तम के अधिकार में था। यहां पर सन 1733 में भरतपुर नगर की नींव डाली गई। सन 1732 में बदनसिंह ने अपने 25 वर्षीय पुत्र सूरजमल को डीग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित सोघर गांव के सोघरियों पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सूरजमल ने सोघर को जीत कर वहाँ राजधानी बनाने के लिए किले का निर्माण शुरू कर दिया। भरतपुर में स्थित यह किला लोहागढ़ किला (Iron fort) के नाम से जाना जाता है। यह देश का एकमात्र किला है, जो विभिन्न आक्रमणों के बावजूद हमेशा अजेय व अभेद्य रहा। बदन सिंह और सूरजमल यहां सन 1753 में आकर रहने लगे।
भरतपुर के किले का निर्माण- कार्य शुरू करने के कुछ समय बाद बदनसिंह की आंखों की ज्योति क्षीण होने लगी। अतः उसने विवश होकर राजकाज अपने योग्य और विश्वासपात्र पुत्र सूरजमल को सौंप दिया। वस्तुतः बदनसिंह के समय भी शासन की असली बागडोर सूरजमल के हाथ में रही।
मुगलों, मराठों व राजपूतों से गठबंधन का शिकार हुए बिना ही सूरजमल ने अपनी धाक स्थापित की। घनघोर संकटों की स्थितियों में भी राजनीतिक तथा सैनिक दृष्टि से पथभ्रांत होने से बचता रहा। बहुत कम विकल्प होने के बावजूद उसने कभी गलत या कमजोर चाल नहीं चली। उसने यत्न किया कि संघर्ष का पथ अपनाने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों को अवश्य आज़माया जाए।
नवजात जाट राज्य की रक्षा करने और उसे सुरक्षित बनाए रखने के लिए उसने साहस तथा सूझबूझ का परिचय दिया।
रण-कौशल और चतुराई में अव्वल:
1.बागड़ू की लड़ाई
सन 1743 में जयपुर-नरेश सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद राजगद्दी पर आसीन होने के मसले पर उसके पुत्रों ईश्वरी सिंह और माधो सिंह में भ्रातृघाती युद्ध हुआ। माधो सिंह की मां उदयपुर की होने के कारण मेवाड़ के राणा ने अपने पद और प्रभाव का प्रयोग करके अपने भांजे के लिए प्रबल समर्थक जुटा लिया। मराठों तथा जोधपुर, बूंदी और कोटा के शासकों ने भी माधोसिंह का साथ दिया। केवल भरतपुर के सिनसिनवार बदन सिंह ने जयसिंह को दिए अपने वचन को निभाते हुए ईश्वरी सिंह को सक्रिय सहयोग प्रदान करने के लिए अपने वीर पुत्र सूरजमल को जयपुर भेजा। सूरजमल ने दस हज़ार घुड़सवार ,दो हज़ार पैदल सैनिक और दो हज़ार बर्छेबाज को साथ लेकर कुम्हेर से जयपुर की ओर कूच किया। उसकी सेना में जाट, गुर्जर, अहीर, राजपूत और मुसलमान थे। ईश्वरी सिंह ने सूरजमल को बराबरी का सम्मान देते हुए उसका स्वागत किया।
ईश्वरीसिंह और माधोसिंह की सेनाओं का आमना- सामना 21 अगस्त 1748 को जयपुर से 18 मील दूर दक्षिण-पश्चिम में स्थित बागड़ू में हुआ। बेशक युद्ध बेमेल था। माधोसिंह के पक्ष में शामिल नामी योद्धाओं में मल्हारराव होलकर, गंगाधर टांटिया ,मेवाड़ के महाराणा, जोधपुर नरेश तथा कोटा व बूंदी के राजा थे। उसकी सहायता करने के लिए महाराणा, राठौड़, सिसोदिया, हाड़ा, खींची व पंवार सब शासक शामिल थे। ईश्वरी सिंह के साथ लड़ने वाला सूरजमल अप्रसिद्ध- सा था। सूरजमल के सैनिक संख्या में अवश्य कम थे, परन्तु भली -भांति प्रशिक्षित थे। उनका सेनापति सूरजमल परखा हुआ शूरवीर था। ईश्वरी सिंह की सेना के अग्र भाग का नेतृत्व संभालने वाला सीकर का सरदार शिव सिंह युद्ध के दूसरे दिन युद्ध के मैदान में ढेर हो गया। तब तीसरे दिन हरावल (अग्रभाग) का नेतृत्व सूरजमल को सौंपा गया। मराठा सरदार मल्हारराव होलकर ने गंगाधर टांटिया को एक शक्तिशाली सैन्य दल के साथ ईश्वरी सिंह की तैनाती वाले सेना के पृष्ठ भाग पर अचानक धावा बोल देने के लिए भेज दिया। युवा सूरजमल ने आगे बढ़ते हुए शत्रु-सेना के पार्श्व भाग पर धावा बोल दिया। दो घंटे तक भीषण युद्ध हुआ। अंत में गंगाधर को पीछे धकेल दिया। सूरजमल ने छिन्न-भिन्न पृष्ठभाग को फिर व्यवस्थित किया। उस घोर संकट के समय सूरजमल ने लड़ाई में जबरदस्त शौर्य दिखाया। सूरजमल की वीरता ने हारती बाजी को पलट दिया। ईश्वरीसिंह को राजगद्दी पर आसीन करवाने में वह सफ़ल हो गया। रण-भूमि में इस जीत ने सूरजमल को विख्यात कर दिया।
"सूरजमल की नेतृत्व शक्ति और उसके सैनिकों के पराक्रम की ख्याति तेजी से फैल गई, और देश के उच्चतम शासकों की ओर से बार-बार उसके पास सैनिक सहायता की मांग आने लगी।"( गंगासिंह, यदुवंश ,पृष्ठ 156)
2 . मुगलों से मुकाबला
20 जून 1749 को जोधपुर नरेश महाराजा अभयसिंह की मृत्यु के बाद महाराजा की गद्दी पर आसीन हुए रामसिंह को उसके मामा बख़्त सिंह ने चुनौती दी। रामसिंह ने आमेर के तत्समय राजा ईश्वरीसिंह से सहायता मांगी। मुगल सम्राट अहमदशाह ने बख़्त सिंह का समर्थन करते हुए नवंबर में मीर बख्शी सलाबतजंग को 18000 सैनिकों के साथ उसकी सहायता के लिए भेजा। मीर बख्शी ने जाट राजा के अधीन मेवात के रास्ते जोधपुर जाने का निश्चय किया। योजना यह थी कि मीर बख्शी जाटों से आगरा और मथुरा सूबे के उन भागों को भी वापस छीन लेगा, जिन पर उन्होंने कब्जा कर लिया था। जाटों से निपटने के बाद मीर बख्शी को मारवाड़ पहुँचकर बख़्तसिंह से जा मिलना था।
मीर बख्शी ने जाट-राज्य में मेवात को लूटा और नीमराना के मिट्टी से बने किले पर 30 दिसम्बर 1749 को अधिकार कर लिया। अभिमान से चूर हो चुके मीर बख्शी ने सूरजमल को सबक सिखाने की ठान ली और सराय शोभचंद आ धमका। सूरजमल ने अपने छ हज़ार सैनिकों का नेतृत्व करते हुए सन 1750 के नववर्ष के दिन मुगल-सेना को चारों ओर से घेर लिया। सूरजमल के साथ जाट सरदार थे। मीर बख्शी चारों तरफ से घिर गया था। आक्रमण में सैनिकों के साथ दो प्रमुख मुगल सेनाध्यक्ष अली रुस्तम खां और हकीम खां भी मारे गए। मीर बख़्शी अब सूरजमल के वश में था। तीन दिन बाद उसने लड़ाई की जिद्द छोड़कर सूरजमल से संधि की याचना की। सूरजमल ने संधि के लिए निम्नलिखित चार शर्तें रखीं और मीर बख्शी ने इन्हें स्वीकार कर लिया:
1. सम्राट की सरकार पीपल के वृक्षों को न कटवाने का वचन देगी;
2. इस वृक्ष की पूजा में कोई बाधा नहीं डालेगी;
3 . इस प्रदेश के हिंदू मंदिरों का अपमान या नुकसान नहीं करेगी;
4. सूरजमल अजमेर प्रांत की मालगुजारी के रूप में राजपूतों से 15 लाख रुपए लेकर शाही खजाने में दे देगा, बशर्ते मीर बख्शी नारनोल से आगे न बढ़े ...।
इस सफलता से सूरजमल और जाटों में नया आत्मविश्वास भर गया। जाटों का सैनिक सामर्थ्य प्रमाणित हो गया। इस संधि की शर्तों में स्पष्ट रूप से ब्रज- मंडल में भरतपुर के शासकों की उत्कृष्ट स्थिति को मान्यता दी गई थी, जिससे 'बृजराज'उपाधि का औचित्य सिद्ध होता है। सूरजमल के अलावा दूसरा कोई राजा नहीं हुआ जो ऐसी शर्तें मुस्लिम शासकों से मनवा सका।
3. दिल्ली में सूरजमल की धमक
सन 1748 में मुगल सम्राट मुहम्मदशाह की मृत्यु के बाद शहज़ादा अहमदशाह शाहंशाह और अवध का सूबेदार सफ़दरजंग वजीर बना। मुगल दरबार में आपसी कलह से घोर अव्यवस्था का दौर शुरू होना लाज़िम था। सफदरजंग को उसकी निजी जागीर बल्लभगढ़ व रुहेलखंड में विद्रोह का सामना करना पड़ा। इनमें से पहले संग्राम में सूरजमल ने उसका विरोध किया और दूसरे में उसका समर्थन किया। मुगल दरबार में सफदरजंग के काफी शत्रु थे और रुहेलों ने भी उसके खिलाफ मोर्चा खोल दिया। ऐसी स्थिति में उसने सूरजमल का नाम अपने विरोधियों की सूची में जोड़ना ठीक नहीं समझा। दोनों में हुए समझौते के तहत झगड़ा खत्म हो गया। रुहेले जब सफदरजंग के प्रभुत्व को खुली चुनौती देने लगे तो बंगश पर चढ़ाई करने के अभियान में सफदरजंग के साथ सूरजमल था। उसने अहमद बंगश की राजधानी फर्रुखाबाद पर अधिकार कर लिया।
रुहेलों के विरुद्ध संग्राम में जाटों ने जो सराहनीय वीरता दिखाई उससे बल्लभगढ़ की समस्या का हल सूरजमल ने अपनी इच्छा के अनुकूल करवा लिया। रुहेलों का दमन करने के लिए दूसरी बार प्रस्थान करने से पहले सफदरजंग ने मराठों से मैत्री- संधि कर ली। जाट और मराठा सैनिकों ने रुहेला प्रदेश को तहस-नहस कर डाला। दिल्ली लौटकर सफदरजंग ने रुहेलों के विरुद्ध अपने दो संग्रामों में सूरजमल द्वारा दी गई सहायता को कृतज्ञतापूर्वक याद रखा। 20 अक्टूबर 1752 को जब वज़ीर सफ़दरजंग के साथ सूरजमल दरबार में उपस्थित हुआ तो सम्राट ने सूरजमल को 'राजेंद्र' की उपाधि देकर 'कुंवर बहादुर' और उसके पिता बदनसिंह को 'महेंद्र' की उपाधि देकर 'राजा' बना दिया।
कालांतर में मुग़ल दरबार में कलह का खेल कुछ ऐसा चला कि सफदरजंग और सम्राट के बीच तनातनी चरम पर पहुंच गई। सम्राट ने सफदरजंग को पदच्युत कर उसकी जागीरें ज़ब्त कर लीं। सफदरजंग ने अपने अहसान फ़रामोश बादशाह को सबक सिखाने के लिए दिल्ली पर घेरा डाल दिया और सूरजमल से सहायता की गुहार की। मार्च से नवंबर 1753 तक दिल्ली में गृह- युद्ध के हालात बने रहे। सफदरजंग की पुकार पर सूरजमल मई के पहले सप्ताह में विशाल सेना तथा 15 हज़ार घुड़सवार लेकर दिल्ली जा धमका। तत्कालीन नवाब गाजीउद्दीन( इमाद ) से जोरदार लड़ाई लड़ी। 9 मई और 4 जून1753 के बीच जाटों ने पुरानी दिल्ली में अपनी मनमर्जी चलाई। 16 मई को तो उन्होंने वहाँ खूंखार तरीके से उधम मचाई। बादशाह की सेना लाचार बनी रही; कुछ नहीं कर सकी।
'तारीख़-ए- अहमदशाह' के लेखक ने यह लिखा है: "जाटों ने दिल्ली के दरवाजे तक लूटपाट की ; लाखों- लाख लूटे गए; मकान ढहा दिए गए; और सब उपनगरों ( पुरों ) में और चुरनिया और वकीलपुरा में तो कोई दीया ही नहीं दीखता था।" उसी समय से 'जाट- गर्दी' शब्द प्रचलन में आया। परंतु यह भी याद रखना होगा कि इसके तत्काल बाद अहमदशाह अब्दाली की 'शाह-गर्दी' और मराठों की 'भाऊ-गर्दी' के सामने सूरजमल के सैनिकों द्वारा की गईं ज्यादतियां फीकी पड़ गई थीं।
सूरजमल ने जब तक अपनी तलवार म्यान में रखने से इंकार कर दिया जब तक कि उसके मित्र सफदरजंग को अवध और इलाहाबाद के उपराजत्व वापस न दे दिए जाएं। अंत में इन शर्तों पर संधि हो गई। सूरजमल ने सफ़दरजंग से मित्रता-धर्म निभाते हुए उसे विनाश से बचा लिया, चाहे इसके कारण उसे गाजीउद्दीन की कट्टर शत्रुता मोल लेनी पड़ी। दिल्ली की हार का बदला लेने एवं सूरजमल को डराने के लिए नवाब गाजीउद्दीन (इमाद ) ने दक्षिण से मराठा मल्हारराव होलकर को सूरजमल पर आक्रमण करने के लिए न्योता दिया।
4. मुग़ल-मराठा संयुक्त सेना से मुकाबला
सूरजमल सतर्क एवं चतुर पुरुष था। वह संघर्ष के रास्ते पर आगे बढ़ने से पहले सब शांतिपूर्ण उपायों को आजमाए जाने के पक्ष में रहता था। वह अपने पांव रखने से पहले जमीन को जांच लेता था। साहस और धैर्य दोनों ही गुण उसमें थे। मराठों के विपरीत, सूरजमल अपनी चादर से बाहर पांव पसारने या अपने सामर्थ्य से अधिक जिम्मेदारी अपने सिर लेने से बचता था।
सूरजमल मराठों के साथ तनातनी से बचने का प्रयास करता रहा। परंतु मराठों के मन में संधि नहीं, लूट का लालच भरा था। फलता-फूलता जाट- राज्य उनकी खीझ व लोभ का कारण बन गया था। मराठों द्वारा सूरजमल को नीचा दिखाने की कुटिल चालें चली जा रहीं थीं। सन 1753 के दिसंबर के अंत में खांडेराव ने दिल्ली में मुगल सम्राट तथा इमाद के सम्मुख यह बात स्पष्ट कर दी थी --'मैं अपने पिता के आदेश से यहां सूरजमल के विरुद्ध आपके अभियान में सहायता देने आया हूं... ।'
सूरजमल के राज्य के केंद्र में स्थित सामरिक महत्व के कस्बे कुम्हेर में मुगल- मराठा की सम्मिलित सेना ( 80 हजार से अधिक सैनिक जिनमें जयपुर-नरेश द्वारा मल्हारराव के साथ भेजी गई छोटी-सी सेना भी शामिल थी। ) ने जनवरी 1754 में घेरा डाल दिया। कुछ समय बाद मीर बख्शी अर्थात मुग़ल सम्राट की सेनाओं के प्रधान सेनापति गाजीउद्दीन खां शाही सेनाओं के साथ मराठों की सहायता के लिए आ पहुंचा। इस विशाल सेना के सम्मुख भी सूरजमल ने हिम्मत नहीं हारी और उसने मई 1754 तक चार माह तक डटकर मुकाबला किया।
सूरजमल संकट और संग्राम की स्थिति में काल और परिस्थिति के हिसाब से चाल चलने में माहिर था। कुम्हेर पर चढ़ाई के दौरान मल्हारराव का रूपवान वीर पुत्र खंडेराव जाटों की एक हल्की तोप के गोले से 15 मार्च 1754 को मारा गया। खाँडेराव का पिता मल्हारराव 'शोक से बिल्कुल पागल सा हो गया और उसने प्रतिज्ञा की कि वह इसका बदला जाटों का समूल नाश करके लेगा।'
मल्हारराव ने आक्रमण का दबाव बढ़ाया। सूरजमल की सहायता के लिए कोई नहीं आया। रानी हंसिया ने मराठा शिविर की फूट और गुटबंदियों की जानकारी प्राप्त कर जियाजीराव सिंधिया के पास एक पत्र भिजवाया। सिंधिया और सिनसिनवार शासकों के मध्य हुए इस संपर्क के समाचार का पता चलते ही मल्हारराव होल्कर के हौसले टूट गए। उसने परिस्थितियों का मूल्यांकन करते हुए 18 मई 1754 को सूरजमल से संधि कर ली। इस घेरे की समाप्ति के समय सूरजमल का राज्य ज्यों का त्यों था और उसकी प्रतिष्ठा में भी वृद्धि हुई।
"सूरजमल की धाक इस घेरे के दिनों में और भी बढ़ गई थी और सारे हिंदुस्तान भर छा गई थी; अब उसे यह यश और प्राप्त हो गया कि वह उन दो सरदारों से, जो अपनी -अपनी सेनाओं में उसके पद के समकक्ष थे, सौदेबाजी करने में और उनसे अपनी मनचाही शर्तें मनवाने में सफल हुआ।"( फ़ादर वैन्देल , और्म की पांडुलिपि )
कुम्हेर के घेरे से सूरजमल के कुशल और अक्षत बच जाने में चरित्र बल एवं सौभाग्य के साथ-साथ रानी हंसिया के साहसपूर्ण प्रयत्न और उनके सुयोग्य सलाहकार/विश्वसनीय मंत्री रुपाराम कटारिया के संधि वार्ता कौशल से भी बहुत सहायता मिली।
5. अहमदशाह अब्दाली से मुकाबला:
18 वीं शताब्दी के मध्य में मुगल साम्राज्य दुर्बलता, अराजकता और दरिद्रता की चपेट में आ चुका था। अफगानी आक्रांता अहमदशाह अब्दाली ने सन 1756 में पंजाब को जीतकर दिल्ली की ओर कूच कर दिया। 27 जनवरी 1757 को अब्दाली आतंक मचाने की नीयत से दिल्ली के बाहरी अंचल में आ धमका। 29 जनवरी को मुगल सम्राट आलमगीर द्वितीय अब्दाली के समक्ष नतमस्तक हो कर उपस्थित हो गया। क्रूर स्वभाव के लिए कुख्यात अब्दाली ने एक महीने तक दिल्ली में आतंक मचाए रखा। 22 फरवरी 1757 को 'दिल्ली में अपना काम निपटा कर और आलमगीर द्वितीय को उसका राजसिंहासन दुबारा देकर अहमदशाह दुर्रानी ने जाट राजा से राज-कर वसूल करने के लिए दक्षिण की ओर कूच किया'।( जदुनाथ सरकार, 'फॉल ऑफ द मुगल एंपायर', खंड 2 पृष्ठ 80 )
अब्दाली के मन में उस समय हिंदुस्तान में सबसे धनी शासक सूरजमल का धन हड़पने की इच्छा बलवती हो चली। उसने सूरजमल के पास संदेश भिजवाया कि वह राज-कर देने के लिए उसके पास हाजिर हो, उसके झंडे के नीचे रहकर सेवा करे और जिन इलाकों को उस ने हाल ही में हथियाया है, उन्हें लौटा दे। सूरजमल ने इस बुलावे की परवाह नहीं की। मथुरा की रक्षा का भार अपने पुत्र जवाहर सिंह को सौंपकर वह डीग लौट गया। जवाहरसिंह ने उतावलापन दिखाया। फरीदाबाद और बल्लभगढ़ के आसपास लूटमार कर रही एक अफ़ग़ान टुकड़ी पर आक्रमण कर उसे हरा दिया। यह सुनकर अब्दाली का गुस्सा और फूट पड़ा। उसने अपने वरिष्ठ सेनापति अब्दुस्समद खां को जवाहर सिंह पर घात लगाकर हमला करने का आदेश दिया। परन्तु जवाहर सिंह मामूली सा नुकसान उठाकर किसी तरह बच निकला और बल्लभगढ़ पहुंच गया।
जब अब्दाली ने जाट इलाके की ओर प्रस्थान किया, तब सम्राट आलमगीर ने उसे विदाई दी। 25 फरवरी को वह बदरपुर में था; वहां अब्दुस्समद खां ने उसे बताया कि जवाहर सिंह बच निकला है। अब्दाली ने बल्लभगढ़ के घेरे का संचालन ख़ुद करते हुए कत्लेआम किया परन्तु राजकुमार जवाहर सिंह वहाँ से चकमा देकर निकल चुका था।
क्रोध से तिलमिलाए अब्दाली ने नजीबुद्दौला और जहान खां को बीस हज़ार सैनिकों के साथ जाट-राज्य में अलग भेजकर यह हुक़्म दिया: "उस अभागे जाट के राज्य में घुस जाओ; उसके हर शहर और हर जिले को लूटकर उजाड़ दो। मथुरा नगर हिंदुओं का तीर्थ है। मैंने सुना है कि सूरजमल वहीं है। इस पूरे शहर को तलवार के घाट उतार दो। जहां तक बस चले, उसके राज्य में और आगरा तक कुछ मत रहने दो; कोई चीज खड़ी नहीं रह पाए ।"( के. आर. कानूनगो , 'हिस्ट्री ऑफ द जाट्स',पृ.99)
अब्दाली के आदेशों को क्रियान्वित करने में नजीब और जहान खां ने अति उत्साह दिखाया परंतु मथुरा पहुंचने से पहले उन्हें इस नगर से आठ मील दूर उत्तर की ओर चौमुहां में दस हज़ार लड़ाकू जाटों का सामना करना पड़ा। प्रसिद्ध इतिहासकार सर जदुनाथ सरकार ने इसका वृतांत इन शब्दों में प्रस्तुत किया है:
'' यह सत्य है कि दिल्ली- आगरा प्रदेश और यमुना के परले किनारे के दोआब को तीन बरस तक बुरी तरह चूसते रहने के बाद मराठे भाग गए थे। इन पवित्रतम वैष्णव तीर्थों की रक्षा में एक भी मराठे का खून नहीं बहा। परंतु जाट किसानों ने दृढ़ निश्चय किया था कि विनाशकारी लुटेरा उनकी लाशों के ऊपर से गुजर कर ही ब्रज की पवित्र राजधानी तक पहुंच सकेगा।'' (जदुनाथ सरकार, फॉल ऑफ द मुगल एम्पायर, खंड 2 पृ.82 )
महान प्रामाणिक लेखक नीरद सी .चौधरी ने चौमुहां की लड़ाई पर प्रकाश डालते हुए लिखा है :
''सन 1757 में अफगानिस्तान के शाह अहमदशाह अब्दाली ने मथुरा पर चढ़ाई की और आदेश दिया--- 'मथुरा नगर हिंदुओं का पवित्र स्थान है। इसे तलवार के घाट उतार दिया जाए। आगरा तक एक भी इमारत खड़ी न रहने पाए।'
अफगानों की शक्ति को भली -भांति जानते हुए भी ब्रजभूमि के किसान, राजकुमार जवाहर सिंह (सूरजमल का पुत्र) के नेतृत्व में रास्ते में अड़ गए। मथुरा से आठ मील दूर चौमुहां में दस हज़ार जाट नौ घंटे तक लड़े जब तक कि वे पराजित न कर दिए गए।'' ( नीरद सी. चौधरी, 'द कॉन्टिटेंट ऑफ सर्स् पृ.101 )
राजपुताना व अन्य राज्यों के राजा अपनी रियासतों में ही बैठे रहे, तुनुक मिज़ाजी और निठल्लेपन में डूबे हुए; रखैलों और सनकी लोगों से घिरे; दिन में मदिरा में मदमस्त और रात्रि में श्रान्त- क्लान्त।
1 मार्च 1757 को मथुरा की जो लाज लुटनी शुरू हुई, उससे दूसरी रियासतों के शासकों को कोई वास्ता ही नहीं था। पुजारियों से भरे नगर की नींद तोपों की गर्जन की आवाज से खुली। दो दिन पूर्व संपन्न होली के उत्सव पर मथुरा में हिंदुस्तान के सभी भागों से तीर्थयात्री आए हुए थे। वे सब नजीब और जहान खां की तोपों के शिकार हो गए। एक विभत्स रक्त-रंजित होली खेली गई। यह था अफगानी आक्रांताओं की पाशविकता तथा उग्रता का एक नमूना।
अफगानी लुटेरों ने 6 मार्च को अपना रुख वृंदावन की ओर किया और वहां भी कत्लेआम मचाया। उसके बाद अब्दाली की सेनाएं आगरा की ओर बढ़ी। अब्दाली ने पहले आगरा में लूटमार करके सुरजमल के किलों-- भरतपुर ,डीग या कुम्हेर-- को जीतने की योजना बना ली थी। वह सूरजमल से बड़ी राशि भेंट के रूप में ऐंठने का ख़्वाब देख रहा था। 21 मार्च को जहान खां ने 15 हज़ार घुड़सवारों के साथ आगरा पर धावा बोल दिया और निर्दयता से लूट मार की। इसी दौरान हैजे की महामारी की चपेट में आने से अब्दाली के सैकड़ों सैनिक मौत के मुँह में समाने लगे। सूरजमल को पत्र भेजकर अब्दाली ने धमकी दी कि यदि वह कर ( नज़र ) देने में आनाकानी करता रहा तो इसके परिणाम भयंकर होंगे। उसने पत्र में संकेत किया था कि भरतपुर, डीग और कुम्हेर के किलों को भूमिसात कर दिया जाएगा। सूरजमल ने दृढ़ता के साथ चतुराई का,अप्रतिम साहस के साथ खिझाने वाली स्पष्टवादिता का, अभिमान के साथ विनय का मिश्रण दर्शाते हुए बड़ी धीरता से भरा पत्र अब्दाली को भेजा, जिससे अब्दाली को यह बात समझ में आ गई कि सूरजमल अकर्मण्य राजा नहीं है। मार्च 1757 में सूरजमल द्वारा लिखे पत्रों का उल्लेख दिल्ली के तत्कालीन वज़ीर इमाद ने अपनी पुस्तक 'तजि्करा-ए-इमादुल्मुल्क' में किया है। इतिहास की अमूल्य धरोहर इस पत्र में राजमर्मज्ञ सूरजमल ने यह लिखा था:
" ...यह अचरज़ की बात है कि इतने बड़े दिलवाले हुज़ूर ने इस छोटी-सी बात पर विचार नहीं किया और इतनी सारी भीड़ और इतने बड़े लाव-लश्कर के साथ इस साधारण तुच्छ-से अभियान पर स्वयं आने का कष्ट उठाया। जहाँ तक मुझे और मेरे प्रदेश को कत्ल करने और बरबाद कर देने की धमकी-भरे आदेश का प्रश्न है, वीरों को इस बात पर कोई भय नहीं हुआ करता। सभी को मालूम है कि कोई भी समझदार व्यक्ति इस क्षण-भंगुर जीवन पर तनिक भी भरोसा नहीं करता। जहाँ तक मेरी बात है, मैं जीवन की पचास सीढियां पहले ही पार कर चुका हूँ और अभी कितनी और पार करनी बाकी हैं, यह मुझे कुछ पता नहीं। मेरे लिए इससे बढ़कर कोई वरदान नहीं हो सकता कि मैं शहादत/बलिदान के अमृत की घूंट का पान करूँ--यह देर-सवेर बहादुर सैनिकों को युद्ध के मैदान में करना ही पड़ेगा--और यादगार के रूप में युग के इतिहास के पृष्ठों पर मेरा और मेरे पूर्वजों का नाम रह जायेगा कि एक साधारण किसान ने एक इतने बड़े शक्तिशाली सम्राट से, जिसने बड़े -बड़े राजाओं को जीतकर अपना दास बना लिया था, उससे बराबरी से लड़ा और लड़ते- लड़ते वीर-गति को प्राप्त हुआ। ऐसा ही शुभ संकल्प मेरे निष्ठावान अनुयायियों और साथियों के हृदय में विद्यमान है...
मेरे इन तीन किलों (भरतपुर ,डीग और कुम्हेर ) के बारे में, जिन पर हुज़ूर का रोष है और जिन्हें हुज़ूर के सरदारों ने मकड़ी के जाले- सा कमजोर बतलाया है, सच्चाई की परख असली लड़ाई के बाद ही हो पाएगी। भगवान ने चाहा तो वे सिकंदर के गढ़ जैसे हीअजेय ही रहेंगे ।"
प्रोफेसर गंडासिंह ने अहमदशाह अब्दाली की सूरजमल हुई समझौता- वार्ता की चर्चा का संक्षिप्त विवरण इन शब्दों में प्रस्तुत किया है:
" धन से भरपूर राजकोष, सुदृढ़ दुर्गों, बहुत बड़ी सेना और प्रचुर मात्रा में युद्ध- सामग्री के कारण सूरजमल ने अपना स्थान नहीं छोड़ा और वह युद्ध की तैयारी करता रहा। उसने अहमदशाह अब्दाली के दूतों से कहा, 'अभी तक आप लोग भारत को नहीं जीत पाए हैं... अगर आपमें सचमुच कुछ दम है, तो मुझ पर चढ़ाई करने में इतनी देर किसलिए?"
अब्दाली जितना समझौते की कोशिश करता गया, उतना ही सूरजमल का अभिमान और धृष्टता बढ़ती गई। उसने कहा," मैंने इन किलों पर बड़ी धनराशि खर्च की है। यदि अहमद शाह अब्दाली मुझसे लड़े तो यह उसकी मुझ पर कृपा होगी, क्योंकि तब दुनिया भविष्य में यह याद रख सकेंगे कि एक बादशाह बाहर से आया था और उसने दिल्ली जीत ली थी, पर वह एक मामूली से जमींदार के मुकाबले में आकर लाचार हो गया।"
सूरजमल के अभेद्य किलों की भनक मिलने पर अब्दाली वापस कंधार लौट गया। इस प्रकार अब्दाली का संग्राम सैनिक दृष्टि से असफल रहा। सूरजमल ने बाजी जीत ली थी। उसके किलों को हाथ तक नहीं लगाया गया। दोआब में उसे नगण्य से राज्य-क्षेत्र की हानि हुई। चौमुंहा में सूरजमल के पुत्र जवाहर सिंह ने जो वीरता दिखाई, उससे यह साबित हो गया कि हिंदुस्तान में केवल भरतपुर के जाट ही ऐसे लोग हैं, जो अपने धर्म-स्थानों की रक्षा के लिए प्राण न्योछावर करने को उद्यत रहते हैं।
जनवरी 1760 के प्रथम सप्ताह में अहमदशाह अब्दाली दिल्ली फिर पहुंच गया और सम्राट- विहीन तथा वजीर- विहीन राजधानी का मालिक बन बैठा। 14 जनवरी को उसने सूरजमल तथा राजपूताना के अन्य राजाओं को पत्र भेजकर राज-कर देने और उसके सामने पेश होने का फ़रमान भिजवाया। सूरजमल की टालमटोल की चालों से विचलित हो उठे अब्दाली ने फरवरी के शुरू में डीग पर घेरा भी डाला परंतु सूरजमल की कूटनीतिक चाल के कारण घेरा उठाकर उसने अपना ध्यान मराठों की ओर फेर लिया।
6. सूरजमल और पानीपत की तीसरी लड़ाई
पानीपत की तीसरी लड़ाई 14 जनवरी 1761 को मराठों और अहमदशाह अब्दाली के बीच हुई। सदाशिव भाऊ इस लड़ाई के मैदान में बिना किसी गैर- मराठा हिंदू राजा या जागीरदार की सहायता के उतर गया। पेशवा ने राजपूताना के प्रत्येक प्रमुख शासक के पास दूत भेजे परंतु सभी राजपूत राजाओं ने टालमटोल के उत्तर दिए और यह तय किया कि "वे तटस्थ रहकर दोनों पक्षों का खेल तब तक देखते रहें ,जब तक की किसी बड़ी लड़ाई में यह सिद्ध न हो जाए कि दोनों शक्तियों में से कौन- सी निश्चित रूप से अधिक प्रबल है।"(जदुनाथ सरकार, 'फॉल ऑफ द मुगल एंपायर', खंड 2, पृष्ठ 171) राजपूत राजा पानीपत की इस लड़ाई में बिल्कुल तटस्थ रहे। अतीत का भावुकतापूर्ण स्मरण ही उनका प्रधान मनोरंजन रहा।
सूरजमल की धार्मिक सहिष्णुता की अनुपम मिसाल:-
महाराजा सूरजमल के व्यक्तित्व में गुरुत्व था। वह शासन चलाने में अपनी सहायता के लिए अच्छे और योग्य व्यक्तियों का चयन करता था। वह अपने विलक्षण राजनीतिक सलाहकार व दक्ष मंत्री पंडित रुपाराम कटारिया और सुयोग्य खज़ाना/वित्त मंत्री मोहनराम बरसनियां पर पूरा भरोसा करता था। रुपाराम कटारिया बरसाना का बुद्धिमान, सुसंस्कृत तथा निष्ठावान कटारा ब्राह्मण था।
महाराजा सूरजमल उतना धर्मनिरपेक्ष था जितना उस काल में हो पाना संभव था। उसने मस्जिदे नहीं तोड़ी और बिना भेदभाव के मुसलमानों को ऊंचे पदों पर नियुक्त किया। वह विवादों का फैसला बातचीत और समझौते के जरिए करना पसंद करता था न कि इस बात से कि ' किसकी तलवार ज्यादा लंबी है।'
महाराजा सूरजमल का हर निर्णय दूरदर्शितापूर्ण एवं मेलजोल की भारतीय संस्कृति के अनुरूप होता था। वह भाऊ से मिलने मराठा- शिविर में गया और आगरा से मथुरा तक वे दोनों साथ ही आए। वहां भाऊ की दृष्टि नबी मस्जिद पर पड़ी और झल्लाहट में उसने सूरजमल को ताना दिया-- "आप हिंदू होने का दम भरते हैं, फिर आपने इस मस्जिद को इतनी देर खड़ा क्यों रहने दिया?" किसी छिछले मूढ़ व्यक्ति के सिवाय और कौन ऐसी नासमझी का प्रश्न कर सकता है? भाऊ भूल गया था कि कुछ समय पूर्व जब अब्दाली के धर्मांध सैनिकों ने मथुरा पर आक्रमण किया था तब उसकी रक्षा करने के लिए हजारों जाटों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। उस समय तो उस मराठा सरदार भाऊ ने कुछ नहीं किया था। सूरजमल व्यावहारिक और परिपक्व राजमर्मज्ञ था, उसने नपे-तुले शब्दों में शिष्टाचारपूर्वक अर्थगर्भित उत्तर दिया:
" बहुत समय से हिंदुस्तान की राजलक्ष्मी वेश्या की भांति बहुत चंचल रही है। आज रात वह किसी की बाहों में है, तो कल किसी और के आलिंगन में बंधी होती है। यदि मुझे यह पक्का भरोसा होता कि मैं जीवन भर इन प्रदेशों का स्वामी बना रहूंगा, तो मैंने इस मस्जिद को कभी का मिट्टी में मिला दिया होता। पर यदि मैं आज इस मस्जिद को ढहा दूँ और कल मुसलमान आकर बड़े-बड़े मंदिरों को तोड़े और एक ही जगह चार मस्जिदें बना दें, तो उसका क्या लाभ? अब आप हुजूर इस ओर आए हैं, तो यह मामला आपके ही हाथों में है।" भाऊ ने डींग हांकते हुए कहा --"इन अफ़ग़ानों को हराने के बाद मैं सब जगह मस्जिदों के खंडहरों पर एक- एक मंदिर बनवा दूंगा।"
अब्दाली के भयंकर आक्रमण के बाद जिनके पास माया और मान कुछ खोने के लिए था, वे भाग कर भरतपुर आ गए। उस समय भरतपुर पीड़ित हिंदू और मुसलमान, हर जाति वाले के लिए शरणस्थली बन गया। सूरजमल ने किसी भी शरणार्थी को उसने घर की ड्योढ़ी से वापस नहीं मोड़ा। यहां तक कि उसने अपने सबसे बड़े शत्रु इमाद- उल -मुल्क गाजीउद्दीन, जो कि मुग़ल सम्राट का वज़ीर था, को भी शरण दी, जब वह सम्राट आलमगीर द्वितीय और इन्तिज़ाम की नृशंसतापूर्वक हत्या करवाने के बाद अपने कुछ आश्रितों और घुड़सवारों के साथ भागकर सूरजमल के पास चला आया। इस प्रकार उसने महान मुग़लों का वजीर होने का अपना गौरव जाटों को अर्पित कर दिया।
उदारमना:
पानीपत की तीसरी लड़ाई में उदार हृदय सूरजमल ने सैनिक तथा आर्थिक साधन भाऊ की सेवा में प्रस्तुत कर दिए थे, परंतु उन्हें ग्रहण करने की बजाय उसने उनके प्रति तिरस्कार प्रकट किया। उसने सूरजमल की बुद्धिमतापूर्ण सलाह को अनसुना किया और अपने उजड़ बरताव द्वारा उसे अत्यधिक रुष्ट कर दिया। अयोग्य एवं सामरिक कला से अनभिज्ञ सेनानायक भाऊ और उसकी सेना की पानीपत की तीसरी लड़ाई (14 जनवरी 1761) में शर्मनाक शिकस्त हो गई। मराठों के एक लाख सैनिकों में से आधे से ज्यादा मारे गए। यह पूरी पराजय थी और युद्ध से बचे हुए मराठा सैनिक बिना वस्त्र, बिना वस्त्र और बिना भोजन सूरजमल के राज्य- क्षेत्र में पहुंचे। सूरजमल और रानी किशोरी ने उन्हें शरण दी व उन्हें आतिथ्य प्रदान किया। घायलों की तब तक देखभाल की गई जब तक कि वे आगे यात्रा करने योग्य हो गए। उल्लेखनीय है कि एक और तो घायल और पीड़ित मराठों को सूरजमल हर संभव मदद कर रहा था, दूसरी ओर आमेर के माधोसिंह और मारवाड़ के विजयसिंह आदि राजा थे, जो विदेशी आक्रांता अब्दाली की विजय का स्वागत कर रहे थे।
सर जदुनाथ सरकार के अनुसार मराठा शरणार्थियों की संख्या 50 हज़ार थी ,जबकि वैन्देल ने यह संख्या एक लाख लिखी है। शरणार्थियों के साथ सूरजमल के बर्ताव के बारे में इतिहासज्ञ ग्रांट डफ ने यह लिखा है---"जो भी भगोड़े उसके राज्य में आए ,उनके साथ सूरजमल ने अत्यंत दयालुता का बरताव किया और मराठे उस अवसर पर किए गए व्यवहार को आज भी कृतज्ञता तथा आदर के साथ याद करते हैं।"
(ग्रांट डफ़,'ए हिस्ट्री ऑफ द मराठाज'पृ. 30 )
वैन्देल कहता है---" जाटों के मन में मराठों के प्रति इतनी दया थी कि यदि सूरजमल चाहता, तो एक भी मराठा लौटकर दक्षिण नहीं जा सकता था। लोग शायद कहें कि भाग्य को इस जाट पर असाधारण कृपा करने में आनंद आता था।"
सदाशिवराव अगर महाराजा सूरजमल से छोटी सी बात पर तकरार न करके उसे भी पानीपत की तीसरी लड़ाई में साझेदार बनाता, तो आज भारत की तस्वीर कुछ और ही होती।
7. आगरा पर अधिकार:
पानीपत की तीसरी लड़ाई में हुए महाविनाश ने हिंदुस्तान की लगभग प्रत्येक महत्वपूर्ण शक्ति को नष्ट कर डाला था। सूरजमल इसका एक मात्र अपवाद था। अब्दाली के सामने उसने न तो सिर झुकाया, न ही घुटने टेके। दोआब इलाक़े में अपना दबदबा क़ायम करने की नीयत से महाराजा सूरजमल आगरा-किले पर कब्ज़ा करना चाहता था। 3 मई 1761 को सूरजमल की विशाल सेना ( चार हज़ार जाट सैनिक) आगरा की ओर बढ़ी। लक्ष्य था आगरा का लाल किला। यह सचमुच ही शानदार इमारत है। एक महीने के घेरे के बाद 12 जून 1761 को आगरे का लाल किला जाटों के कब्ज़े में आ गया तथा यह सन 1744 तक भरतपुर-शासकों के अधिकार में रहा। इससे सूरजमल को नई शक्ति और प्रभुत्व प्राप्त हो गया तथा वह अब यमुना के इलाक़े का शासक हो गया।
जाटों के लिए आगरा पर अधिकार भावुकता भरा क्षण था। लगभग 90 वर्ष पहले इस किले के फाटक से कुछ ही दूर गोकला की बोटी- बोटी काट कर फेंकी गई थी। अब उसका बदला ले लिया गया था। सूरजमल का स्वप्न था कि ब्रज तथा यमुना प्रदेश के जाटों को पंजाब के जाटों से मिलाकर एक कर दिया जाए। इस स्वप्न को साकार करने के लिए सूरजमल ने हरियाणा और दोआब की ओर जाने वाली सेनाओं की कमान क्रमशः जवाहर सिंह और नाहरसिंह को सौंपी। जवाहरसिंह के अधिकार में रिवाड़ी, झज्जर और रोहतक एक के बाद एक आते गए। फर्रुखनगर में मसावी खां बलोच से कड़ा मुकाबला हुआ। आखिकार 12 दिसम्बर 1763 के असपास फर्रुखनगर पर भी जाटों ने कब्जा कर लिया। फर्रुखनगर में मसावी खां की हार और उसके बाद उसे भरतपुर में कैद किए जाने का मामला पराकाष्ठा पर पहुंच गया। अब नजीब के सामने सूरजमल को चुनौती देने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था। सूरजमल की विजय-यात्रा के अंतिम दौर में उसकी सुविचारित सावधानी और अभ्यास द्वारा अर्जित लचीलापन ग़ायब हो गया।
8. वीर-गति:
वीर की सेज़ समर भूमि होती है। जब आगरा से लेकर दिल्ली के नजदीक तक सूरजमल की तूती बोलने लगी तो वह दुस्साहसी और महत्वाकांक्षी हो गया। उस समय शक्तिहीन मुगल सम्राट का सरंक्षक उसका शक्तिशाली रुहेला वजीर नजीबुद्दौला था, जिसे अहमदशाह अब्दाली का भी समर्थन प्राप्त था। सूरजमल ने कुछ घुड़सवारों के साथ शत्रु सेना के क्षेत्र में घुसने का दुस्साहसपूर्ण कदम उठाया। 25 दिसंबर 1763 को क्रिसमस के दिन शाहदरा में हिंडन नदी (यमुना की एक सहायक नदी ) के किनारे मुग़ल सेना के नवाब नजीबुद्दौला की सैन्य टुकड़ी के साथ मुठभेड़ में महाराजा सूरजमल 56 वर्ष की आयु में वीर-गति को प्राप्त हुआ। एक विवरण के अनुसार सूरजमल अपने कुछ घुड़सवारों के साथ युद्ध-स्थल का निरीक्षण कर रहा था कि अचानक शत्रु सेना से घिर गया। एक अन्य वृत्तान्त के अनुसार सूरजमल को थोड़े से आदमियों के साथ खड़ा देखकर सैयद मुहम्मद खां बलोच, जिसे लोग 'सैयदु' नाम से अधिक जानते थे, व उसके सैनिक सूरजमल पर टूट पड़े। शव का क्या हुआ, किसी को निश्चित जानकारी नहीं। जवाहरसिंह ने कृष्ण की पवित्रभूमि गोवर्धन में अपने पिता की प्रतीकात्मक अंत्येष्टि की। इसके लिए रानी ने सूरजमल के दो दांत ढूंढ निकाले थे। अंतिम संस्कार की रस्म पूरी करने के बाद जवाहरसिंह राजगद्दी पर बैठा।
9.मूल्यांकन
"जाट जाति की आंख और ज्योति महाराजा सूरजमल अपने काम को अधूरा छोड़कर जीवन के रंगमंच से लुप्त हो गया। वह एक महान व्यक्तित्व और एक लोकोत्तर प्रतिभाशाली पुरुष था, जिसे 18 वीं शताब्दी के प्रत्येक इतिहासकार ने श्रद्धांजलि अर्पित की है।"( के .आर .कानूनगो, 'हिस्ट्री ऑफ द जाट्स', पृष्ठ 153)
मुगलों व अफगानों के आक्रमण का प्रतिकार करने में उत्तर भारत मे जिन राजाओं की प्रमुख भूमिका रही है, उनमें भरतपुर के महाराजा सूरजमल का नाम बड़ी श्रद्धा एवं गौरव से लिया जाता है। ब्रज के जाट राजाओं में सूरजमल सबसे प्रसिद्ध शासक ,कुशल सेनानी, साहसी योद्धा, कुशल प्रशासक, दूरदर्शी व कूटनीतिज्ञ था। उसने जाटों में सबसे पहले राजा की पदवी धारण की थी। सूरजमल और उसके पिता बदन सिंह शुरू में सिनसिनी और थून के मामूली जमींदार थे। महाराजा सूरजमल की उपलब्धि थी कि उसने आपस में लड़ने वाले जाट- गुटों में मेल-मिलाप करवाया। उसने जाटों के रक्त एवं धन का न्यूनतम नुकसान करके विस्तृत भू भाग पर जाट- राज्य खड़ा किया। उसका राज्य विस्तृत था, जिसमें डीग, भरतपुर के अतिरिक्त मथुरा, मेरठ, आगरा, धौलपुर, मेवात, हाथरस, अलीगढ़, ऐटा, मैनपुरी,गुड़गांव, रोहतक, रेवाड़ी,बल्लभगढ़, झज्जर, फर्रुखनगर जिले थे। एक ओर यमुना से गंगा तक और दूसरी तरफ चंबल तक का सारा प्रदेश उसके राज्य में सम्मलित था। जिस दौर में अन्य राजा तो मुग़लों से अपनी बहन-बेटियों के विवाह करके रियासतें व जागीरें बचा रहे थे, उस दौर में महाराजा सूरजमल अकेला मुग़लों से लोहा ले रहा था।
18 वीं शताब्दी के इतिहासकारों तथा वृत्तांत लेखकों ने महाराजा सूरजमल की विशिष्ट योग्यता, प्रतिभा तथा चरित्र की दृढ़ता को स्वीकार किया है। सैयद गुलाम नक़वी ने अपने ग्रंथ इमाद-उस-सादात में लिखा है :
"नीतिज्ञता में और राजस्व तथा दीवानी मामलों में प्रबंध की निपुणता तथा योग्यता में हिंदुस्तान के उच्च पदस्थ लोगों में से आसफ़ज़ाह बहादुर, निजाम के सिवा कोई भी उसकी बराबरी नहीं कर सकता था। उसमें अपनी जाति के सभी श्रेष्ठ गुण-- ऊर्जा, साहस, चतुराई, निष्ठा और कभी पराजय स्वीकार नहीं करने वाली अदम्य भावना सबसे बढ़कर विद्यमान थे। परंतु किसी भी उत्तेजनापूर्ण खेल में, चाहे वह युद्ध हो या राजनय, वह कपटी मुगलों और चालाक मराठों को समान रुप से मात देता था। संक्षेप में कहें तो वह एक ऐसा होशियार पंछी था जो हर एक जाल में से दाना तो चुग लेता था पर उसमें फंसता नहीं था।"
महाराजा सूरजमल 18 वीं शताब्दी के हिंदुस्तान में व्याप्त उन पतनकारी दुर्गुणों से पूर्णतय मुक्त था जिन्होंने बड़े -बड़े राजपूत घरानों को बर्बाद कर दिया, स्वास्थ्य और बल को नष्ट कर दिया और बुद्धि को क्षीण कर दिया। राजनीतिक कौशल, संगठन ,प्रतिभा और नेतृत्व के गुणों की दृष्टि से सिर्फ शिवाजी और महाराजा रणजीत सिंह ही सूरजमल से बढ़कर थे।
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