अपना सिर्फ वैचारिक ओपिनियन, वैचारिक अभियान था, जिससे जिसको जो लाभ मिल सकता था वह जरूर ले गया होगा; जिस सवाल का उत्तर मिलता दीखा होगा, जरूर पाया होगा| आपा ने जो किया उसको कहते हैं एक चीज के बहाने अपनी युवा-पीढ़ी को पुरखों का इतिहास तरोताजा करवाने के मौके का लाभ उठाना; देखें इस फिल्म के बहाने क्या लाभ किये हैं सोसाइटी को अपनी पोस्टों के जरिये:
1) कितने % हरयाणवी समाज की आज की 10 से ले 20 साल की पीढ़ी को "हाऊ" बारे पता था या बताया गया था? शहरी हरयाणवी तो शायद ही बहुत कमों को, गामों में तो फिर भी अभी कहीं-कहीं बचा हुआ था शायद|
2) जब आपका यूथ या अन्य जो कोई भी यूथ ऐसी फ़िल्में देखकर आता है तो बहुत से सवाल जेहन में लिए आता है| उत्तर ढूंढता है, तो मेरी पोस्टों ने वह उत्तर काफी हद तक प्रोवाइड करवाए हैं|
3) जब यूथ को अपने ही समाज के लोगों से अपने ही समाज बारे अपने सवालों के जवाब मिलते हैं तो उसकी अपने समाज बारे आस्था टिकी भी रहती है और बढ़ती भी है| यानि उसका इमोशनल कनेक्शन सस्टेन कर जाता है, वही इमोशनल कनेक्शन जिसको तोडना ऐसी फिल्मों का मकसद होता है|
4) साथी समाजों के लोगों में भी बहुत सारी भ्रांतियां दूर करने-होने में मदद मिलती है खासकर ऐसे लोगों की जो वाकई में आपका पॉजिटिव सोचते हैं|
5) यूथ को समझने में मदद की कि कैसे यह लोग तो इन्हीं के छद्म राष्ट्रवाद व् हिन्दुवाद की खुद ही पोल खोल गए, इसी मूवी में| शाहजहाँ-3 की ताजपोशी वाला सीन|
मेरे फेसबुक के दोनों प्रोफाइल्स पर 12000 फ्रेंड्स एंड फोल्लोवेर्स हैं कुल मिला के| बहुतेरे दोस्तों ने व्हट्स-एप्प व् फेसबुक वाल्स पर भी पोस्टें शेयर की हैं| अगर डायरेक्ट रीडिंग व् फॉरवर्ड की हुई रीडिंग इस 12000 का 10% भी रेट ले गई होगी तो 1000-1200 ने तो पढ़ी? 70% से ज्यादा 15 से ले 25 साल के युवा बैठे हैं फेसबुक पर| तो हुआ ना फायदा| तुम ज्यादा-नफा नुक्सान मत तोला करो जो लॉजिकली ठीक लगे कर दिया करो| नार्मल माहौल में ऐसी पोस्टों की रीडिंग रेश्यो सोचो कितनी होती है और ऐसे बने-बनाये माहौल में कितनी?
कोई कहा रहा है कि विरोध ना करो, पब्लिसिटी होगी इनकी; कोई कह रहा है समाज का बुद्धिजीवी वर्ग गलत दिशा दे रहा है चीजों को| ओ भाई जिन्होनें जितने की यह फिल्म बनाई है ना उसका डबल बजट तो इसकी पब्लिसिटी पर लगा चुके हैं; तुम्हारी-हमारी पोस्टों से घंटा पब्लिसिटी होएगी इसकी| तुम पोस्टें नहीं भी करते तो आज की मार्केटिंग इतनी एडवांस है कि फैब्रिकेटेड विरोध की खबरें चलवा कर भी कर लेते फिल्म वाले इसकी पब्लिसिटी| और गलत दिशा तो तब होती जब यह पोस्टें ऊपर गिनाये 5 बिंदुओं का मकसद पूरा ना करती|
और अब इसी पोस्ट के साथ इस फिल्म पे मेरा एनालिसिस भी खत्म, रिव्यु भी खत्म| और पोस्टें भी खत्म| हाँ बस एक इस छोटी सी पोस्ट को छोड़कर जो मैं बीच-बीच में डालता रहूँगा -
"आं रै रलदू न्यू समझ नहीं आई भाई कि शाहजहाँ-3 इन पुणे-पेशवाओं का फूफा लगता था या जीजा जो यह दिल्ली पर किसी हिन्दू राजा की ताजपोशी की बजाये उसकी ताजपोशी करने चले थे? वैसे मैं सर छोटूराम अनुयायी हूँ मुझे सब धर्मी प्यारे, दो टूक बात भाई| आपा किसी धर्म-इंसान-समाज का या तो विरोध किया नहीं करते और करते हैं तो इन पेशवों की भाँति तो करते ही नहीं कि जिनके खिलाफ समाज को डराकर हिंदुत्व-राष्ट्र्वाद का हवाला देकर लेक्चर पेलो, फिर बाद में उन्हीं की ताजपोशी करते मिलो| ऐसे लोग दुनिया के सबसे अविश्वसनीय व् ब्रेन-वाश करने वाले होते हैं; इनसे 10 फुट दूर हट के चलो|"
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
1) कितने % हरयाणवी समाज की आज की 10 से ले 20 साल की पीढ़ी को "हाऊ" बारे पता था या बताया गया था? शहरी हरयाणवी तो शायद ही बहुत कमों को, गामों में तो फिर भी अभी कहीं-कहीं बचा हुआ था शायद|
2) जब आपका यूथ या अन्य जो कोई भी यूथ ऐसी फ़िल्में देखकर आता है तो बहुत से सवाल जेहन में लिए आता है| उत्तर ढूंढता है, तो मेरी पोस्टों ने वह उत्तर काफी हद तक प्रोवाइड करवाए हैं|
3) जब यूथ को अपने ही समाज के लोगों से अपने ही समाज बारे अपने सवालों के जवाब मिलते हैं तो उसकी अपने समाज बारे आस्था टिकी भी रहती है और बढ़ती भी है| यानि उसका इमोशनल कनेक्शन सस्टेन कर जाता है, वही इमोशनल कनेक्शन जिसको तोडना ऐसी फिल्मों का मकसद होता है|
4) साथी समाजों के लोगों में भी बहुत सारी भ्रांतियां दूर करने-होने में मदद मिलती है खासकर ऐसे लोगों की जो वाकई में आपका पॉजिटिव सोचते हैं|
5) यूथ को समझने में मदद की कि कैसे यह लोग तो इन्हीं के छद्म राष्ट्रवाद व् हिन्दुवाद की खुद ही पोल खोल गए, इसी मूवी में| शाहजहाँ-3 की ताजपोशी वाला सीन|
मेरे फेसबुक के दोनों प्रोफाइल्स पर 12000 फ्रेंड्स एंड फोल्लोवेर्स हैं कुल मिला के| बहुतेरे दोस्तों ने व्हट्स-एप्प व् फेसबुक वाल्स पर भी पोस्टें शेयर की हैं| अगर डायरेक्ट रीडिंग व् फॉरवर्ड की हुई रीडिंग इस 12000 का 10% भी रेट ले गई होगी तो 1000-1200 ने तो पढ़ी? 70% से ज्यादा 15 से ले 25 साल के युवा बैठे हैं फेसबुक पर| तो हुआ ना फायदा| तुम ज्यादा-नफा नुक्सान मत तोला करो जो लॉजिकली ठीक लगे कर दिया करो| नार्मल माहौल में ऐसी पोस्टों की रीडिंग रेश्यो सोचो कितनी होती है और ऐसे बने-बनाये माहौल में कितनी?
कोई कहा रहा है कि विरोध ना करो, पब्लिसिटी होगी इनकी; कोई कह रहा है समाज का बुद्धिजीवी वर्ग गलत दिशा दे रहा है चीजों को| ओ भाई जिन्होनें जितने की यह फिल्म बनाई है ना उसका डबल बजट तो इसकी पब्लिसिटी पर लगा चुके हैं; तुम्हारी-हमारी पोस्टों से घंटा पब्लिसिटी होएगी इसकी| तुम पोस्टें नहीं भी करते तो आज की मार्केटिंग इतनी एडवांस है कि फैब्रिकेटेड विरोध की खबरें चलवा कर भी कर लेते फिल्म वाले इसकी पब्लिसिटी| और गलत दिशा तो तब होती जब यह पोस्टें ऊपर गिनाये 5 बिंदुओं का मकसद पूरा ना करती|
और अब इसी पोस्ट के साथ इस फिल्म पे मेरा एनालिसिस भी खत्म, रिव्यु भी खत्म| और पोस्टें भी खत्म| हाँ बस एक इस छोटी सी पोस्ट को छोड़कर जो मैं बीच-बीच में डालता रहूँगा -
"आं रै रलदू न्यू समझ नहीं आई भाई कि शाहजहाँ-3 इन पुणे-पेशवाओं का फूफा लगता था या जीजा जो यह दिल्ली पर किसी हिन्दू राजा की ताजपोशी की बजाये उसकी ताजपोशी करने चले थे? वैसे मैं सर छोटूराम अनुयायी हूँ मुझे सब धर्मी प्यारे, दो टूक बात भाई| आपा किसी धर्म-इंसान-समाज का या तो विरोध किया नहीं करते और करते हैं तो इन पेशवों की भाँति तो करते ही नहीं कि जिनके खिलाफ समाज को डराकर हिंदुत्व-राष्ट्र्वाद का हवाला देकर लेक्चर पेलो, फिर बाद में उन्हीं की ताजपोशी करते मिलो| ऐसे लोग दुनिया के सबसे अविश्वसनीय व् ब्रेन-वाश करने वाले होते हैं; इनसे 10 फुट दूर हट के चलो|"
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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