हरयाणवी में कहावत है ना कि, "घणी स्याणी दो बै पोया करै" - वही बनी है इस फिल्म को बनाने वाले व् बनवाने वाले, दोनों साथ|
महाराजा सूरजमल का अपमान है, उनका किरदार निम्न स्तर का दिखाने की कोशिश करी यह तो होना ही था बल्कि जिस दिन पहली बार इस फिल्म बारे सुनी थी उसी दिन जंच गई थी कि बिना महाराजा के योगदान में दंश किये यह बाज आएंगे ही नहीं| परन्तु मैं उस बात पर आपका ध्यान दिलाता हूँ जो खुद इनकी ही पोलपट्टी खोलती है, इनकी छद्म राष्ट्रवाद की बैंड बजाती है|
1 - महाराजा सूरजमल ने आगरा नहीं दिल्ली मांगी थी|
2 - इस फिल्म में महाराजा सूरजमल से मुलाकात के वक्त सदाशिव राव कहता है कि, "हम दिल्ली में बतौर शहंशाह शाहजहाँ-3 की ताजपोशी करेंगे"|
और इसी बात पर महाराजा सूरजमल का असली विवाद हुआ था इनसे कि जब दिल्ली रखनी ही मुग़लों के पास थी तो छुड़वाने किस से आये हो? अब्दाली भी तो पठान-मुग़ल ही था? शाहजहाँ-3 मुग़ल था तो फर्क क्या?
फर्क यह था कि दिल्ली पर पुणे-पेशवे अपनी खुली मंशा व्यक्त करना नहीं चाहते थे कि हमें खुद यहाँ आ के बैठना है और थोथा राष्ट्रवाद व् हिन्दुवाद जो यह फिल्म दिखाती है उसमें बहला के जाट-राजपूत-सिख आदि की ताकत प्रयोग कर यहाँ बैठना चाहते थे|
जो कि साधारण बुद्धि वाले को भी यह फिल्म देख के स्पष्ट समझ आ रहा है|
महाराजा सूरजमल इनकी यह नियत भांप गए थे, जिस पर जाते वक्त इन्होनें महाराजा को बंदी बनाने की भी कोशिश करी थी परन्तु बना नहीं पाए थे|
धन्य हो महाराजा सूरजमल जैसे विलक्षण बुद्धिवान, जिन्होनें इनकी यह मंशा भाँपी भी और और इनका साथ नहीं दिया| इनके अपने दम्भ-घमंड में अब्दाली के हाथों हेकड़ी तो निकली ही साथ-ही बाद में महाराजा सूरजमल ने घायल पेशवाओं की मरहमपट्टियाँ करने का इन पर अहसान करके सदियों-सदियों तक पुणे के चितपावनी पेशवे ब्राह्मण, जाटों के कर्जदार बना दिए| अपने झूठ दम्भ व् अहम् में यह इसको स्वीकार करें ना करें; इस किस्से के गवाह मुग़ल-पठान ही नहीं अंग्रेज-फ्रेंच-डच-पुर्तगीस सब रहे हैं| और वह गवाह रहे हैं इसीलिए यह इस किस्से को दबा भी नहीं पाते, वरना तो कब का दबा दिया होता| ऐसी ही बुद्धिमत्ता के चलते तो महाराजा सूरजमल "जाटों के प्लूटो" व् "एशिया के ओडीसूस" कहलाते हैं|
तो आप इस फिल्म के इस पहलु को उठाइये कि यह फिल्म तो खुद ही इनके छद्द्म राष्ट्रवाद व् थोथी हिन्दू एकता व् बराबरी की बैंड बजा रही है|
जो भाऊ जीतने पर एक हिन्दू राजा को दिल्ली तक देने को तैयार नहीं था और जिनका डर दिखाकर यानि मुग़लों का (आज भी तो यही कर रहे हैं यह) साथ चाहता था उन्हीं को दिल्ली का शहंशाह बनाना मंजूर था? अजी छोडो, बच्चे-से-बच्चे को इतनी तुच्छ बातें पल्ले पड़ती हैं; और यह इसको ही तथाकथित चाणक्य-टाइप कूटनीति और राजनीती बोलते समझते थे|
ध्यान रहे, मैं मुस्लिमों का विरोधी नहीं हूँ क्योंकि मैं सर छोटूराम का अनुयायी हूँ परन्तु यह बात बतानी जरूरी है इसलिए यह किस्सा यूँ-का-यूँ बताना जरूरी है|
महाराजा सूरजमल के जाने के बाद फिल्म में भाऊ कह रहा है ना कि "तो और क्या आगरा दे दूँ"?
ना एक हिन्दू को आगरा या दिल्ली मत दे परन्तु दिल्ली को शाहजहाँ-3 को दे दे; छोरी ब्याह राखी थी क्या शाहजहाँ-3 के यहां थारी?
जाटो व् समस्त जाट के मित्र समाजो, फिल्म का पुरजोर विरोध करो परन्तु साथ ही इसी फिल्म की यह रिफरेन्स दिखा-दिखा, बता-बता के इनके छद्म राष्टवाद व् हिन्दू एकता और बराबरी की पोल-पट्टी भी जम के खोलो|
घणे स्याणे बनते-बनते, दो बार पो गए|
भारत का जो इतिहास पुर्तगीस-डच-फ्रेंच-अंग्रेज-मुग़ल-पठान आदि आने के बाद का है इसमें भी खासकर 1600 के बाद का, वह इतिहास फंडी जितना चाहें तोड़-मरोड़ लें, जितना चाहें गपोड़ भर लें; ढूंढने वालों को उसकी सच्चाई इराक-ईरान-तुर्की से ले "ब्रिटिश लाइब्रेरी - लंदन" तक में मिल जानी हैं| यही बात पानीपत फिल्म वाले किस्से की है, तुम कितना तोड़ो-मरोड़ोगे? इराक-ईरान से ले के इंग्लैंड तक के रिकार्ड्स में डॉक्युमेंटेड पड़ा है| और आज के दिन राजपूत हो, जाट हो, दलित हो या कोई अन्य जात-बिरादरी हो; सब अपने इतिहास को इंटरनेशनल रेफरेन्सेस के साथ मिला के सच्चाई स्थापित कर रहे हैं| इसलिए वही दिखाओ जो सच है, अन्यथा तुम यह "पानीपत" जैसी फिल्मों के जरिये अपना कोई फायदा या औरों का कोई नुकसान करने की अपेक्षा अपनी ही क्रेडिबिलिटी खो रहे हो समाज में| और यूँ ही जारी रहे तो सन:-सन: जल्द ही वह वक्त आएगा कि तुममें और भोंकते हुए कुत्ते में लोग कोई फर्क नहीं समझेंगे| इनफैक्ट, तुम्हारे को सीरियस लेना व् सुनना ही छोड़ देवें शायद|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
महाराजा सूरजमल का अपमान है, उनका किरदार निम्न स्तर का दिखाने की कोशिश करी यह तो होना ही था बल्कि जिस दिन पहली बार इस फिल्म बारे सुनी थी उसी दिन जंच गई थी कि बिना महाराजा के योगदान में दंश किये यह बाज आएंगे ही नहीं| परन्तु मैं उस बात पर आपका ध्यान दिलाता हूँ जो खुद इनकी ही पोलपट्टी खोलती है, इनकी छद्म राष्ट्रवाद की बैंड बजाती है|
1 - महाराजा सूरजमल ने आगरा नहीं दिल्ली मांगी थी|
2 - इस फिल्म में महाराजा सूरजमल से मुलाकात के वक्त सदाशिव राव कहता है कि, "हम दिल्ली में बतौर शहंशाह शाहजहाँ-3 की ताजपोशी करेंगे"|
और इसी बात पर महाराजा सूरजमल का असली विवाद हुआ था इनसे कि जब दिल्ली रखनी ही मुग़लों के पास थी तो छुड़वाने किस से आये हो? अब्दाली भी तो पठान-मुग़ल ही था? शाहजहाँ-3 मुग़ल था तो फर्क क्या?
फर्क यह था कि दिल्ली पर पुणे-पेशवे अपनी खुली मंशा व्यक्त करना नहीं चाहते थे कि हमें खुद यहाँ आ के बैठना है और थोथा राष्ट्रवाद व् हिन्दुवाद जो यह फिल्म दिखाती है उसमें बहला के जाट-राजपूत-सिख आदि की ताकत प्रयोग कर यहाँ बैठना चाहते थे|
जो कि साधारण बुद्धि वाले को भी यह फिल्म देख के स्पष्ट समझ आ रहा है|
महाराजा सूरजमल इनकी यह नियत भांप गए थे, जिस पर जाते वक्त इन्होनें महाराजा को बंदी बनाने की भी कोशिश करी थी परन्तु बना नहीं पाए थे|
धन्य हो महाराजा सूरजमल जैसे विलक्षण बुद्धिवान, जिन्होनें इनकी यह मंशा भाँपी भी और और इनका साथ नहीं दिया| इनके अपने दम्भ-घमंड में अब्दाली के हाथों हेकड़ी तो निकली ही साथ-ही बाद में महाराजा सूरजमल ने घायल पेशवाओं की मरहमपट्टियाँ करने का इन पर अहसान करके सदियों-सदियों तक पुणे के चितपावनी पेशवे ब्राह्मण, जाटों के कर्जदार बना दिए| अपने झूठ दम्भ व् अहम् में यह इसको स्वीकार करें ना करें; इस किस्से के गवाह मुग़ल-पठान ही नहीं अंग्रेज-फ्रेंच-डच-पुर्तगीस सब रहे हैं| और वह गवाह रहे हैं इसीलिए यह इस किस्से को दबा भी नहीं पाते, वरना तो कब का दबा दिया होता| ऐसी ही बुद्धिमत्ता के चलते तो महाराजा सूरजमल "जाटों के प्लूटो" व् "एशिया के ओडीसूस" कहलाते हैं|
तो आप इस फिल्म के इस पहलु को उठाइये कि यह फिल्म तो खुद ही इनके छद्द्म राष्ट्रवाद व् थोथी हिन्दू एकता व् बराबरी की बैंड बजा रही है|
जो भाऊ जीतने पर एक हिन्दू राजा को दिल्ली तक देने को तैयार नहीं था और जिनका डर दिखाकर यानि मुग़लों का (आज भी तो यही कर रहे हैं यह) साथ चाहता था उन्हीं को दिल्ली का शहंशाह बनाना मंजूर था? अजी छोडो, बच्चे-से-बच्चे को इतनी तुच्छ बातें पल्ले पड़ती हैं; और यह इसको ही तथाकथित चाणक्य-टाइप कूटनीति और राजनीती बोलते समझते थे|
ध्यान रहे, मैं मुस्लिमों का विरोधी नहीं हूँ क्योंकि मैं सर छोटूराम का अनुयायी हूँ परन्तु यह बात बतानी जरूरी है इसलिए यह किस्सा यूँ-का-यूँ बताना जरूरी है|
महाराजा सूरजमल के जाने के बाद फिल्म में भाऊ कह रहा है ना कि "तो और क्या आगरा दे दूँ"?
ना एक हिन्दू को आगरा या दिल्ली मत दे परन्तु दिल्ली को शाहजहाँ-3 को दे दे; छोरी ब्याह राखी थी क्या शाहजहाँ-3 के यहां थारी?
जाटो व् समस्त जाट के मित्र समाजो, फिल्म का पुरजोर विरोध करो परन्तु साथ ही इसी फिल्म की यह रिफरेन्स दिखा-दिखा, बता-बता के इनके छद्म राष्टवाद व् हिन्दू एकता और बराबरी की पोल-पट्टी भी जम के खोलो|
घणे स्याणे बनते-बनते, दो बार पो गए|
भारत का जो इतिहास पुर्तगीस-डच-फ्रेंच-अंग्रेज-मुग़ल-पठान आदि आने के बाद का है इसमें भी खासकर 1600 के बाद का, वह इतिहास फंडी जितना चाहें तोड़-मरोड़ लें, जितना चाहें गपोड़ भर लें; ढूंढने वालों को उसकी सच्चाई इराक-ईरान-तुर्की से ले "ब्रिटिश लाइब्रेरी - लंदन" तक में मिल जानी हैं| यही बात पानीपत फिल्म वाले किस्से की है, तुम कितना तोड़ो-मरोड़ोगे? इराक-ईरान से ले के इंग्लैंड तक के रिकार्ड्स में डॉक्युमेंटेड पड़ा है| और आज के दिन राजपूत हो, जाट हो, दलित हो या कोई अन्य जात-बिरादरी हो; सब अपने इतिहास को इंटरनेशनल रेफरेन्सेस के साथ मिला के सच्चाई स्थापित कर रहे हैं| इसलिए वही दिखाओ जो सच है, अन्यथा तुम यह "पानीपत" जैसी फिल्मों के जरिये अपना कोई फायदा या औरों का कोई नुकसान करने की अपेक्षा अपनी ही क्रेडिबिलिटी खो रहे हो समाज में| और यूँ ही जारी रहे तो सन:-सन: जल्द ही वह वक्त आएगा कि तुममें और भोंकते हुए कुत्ते में लोग कोई फर्क नहीं समझेंगे| इनफैक्ट, तुम्हारे को सीरियस लेना व् सुनना ही छोड़ देवें शायद|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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