Friday, 28 February 2020

1 मार्च 2020: “घणघस सम्मेलन, धनाना” के उपलक्ष्य में आप घणघसों को आपके इस भाणजे का यानि मेरा यह शुभकामनाओं भरा पैगाम पहुंचे!

"अपना चून, अपना पुन" की फिलॉसोफी के गाम धनाणा, जिला भिवानी व् जो कि "जाटू-खाप 84" का हेडक्वार्टर भी है, के गौरवशाली इतिहास बारे महान इतिहासकार ठाकुर देशराज कुछ यूँ लिखते हैं:
देश हरयाणे के बीच में, एक बसै गाम धनाणा,
जित सूही बांधैं पागड़ी, यौद्धेयों का पहराणा,
नौ-सौ नेजे भकड़ते, घुड़ियण का हिनियाणा,
तुरई-टामक बाजते, बुरजण के दरम्याणा
बापौड़ा मत जाणियो, है यो गाम धनाणा|
अर्थात
नौ-सौ नेजे यानि धनाणा गाम की अपनी खाप-आर्मी होती थी, जिसमें 900 घोड़ों का घुड़सवार दस्ता होता था, और जब सजधज कर यह आर्मी पैदल सैनिकों व् घुड़सवारों समेत तुरई-टामकों-धौंसों-नगाड़ों की रणभेरी में हवेलियों-परसों-बंगलों की इस नगरी के बुर्जों-मीनारों के बीच से गुजरती थी तो जो गगनभेदी स्वरलहरी उठती थी उसकी धमक कई कोस के गुहाण्डों तक जाती थी| और क्योंकि धनाणा "अपना चून, अपना पुन" की फिलॉसोफी यानि "अपनी कमाई, अपने हाथ से अपने गाम की सुख-सुविधाओं में लगाई" की थ्योरी पर चलता था, इसलिए फलहरियों, फंडियों को दान-दून या राज-रजवाड़ों को टैक्स-वैक्स कुछ नहीं देता था| मुग़लों से ले अंग्रेजों तक ने जोर लगाए परन्तु जैसे पूरे हिंदुस्तान में एक इकलोती भरतपुर जाट रियासत को अंग्रेज कभी नहीं जीत नहीं पाए, ऐसे ही इस मेरे नानके से अंग्रेज कभी टैक्स नहीं उगाह पाए| जबकि साथ लगता एक्स आर्मी चीफ वीके सिंह का गाम है "बापौड़ा" वहां से बिना रोळे-रब्दे के टैक्स उगाह लेते थे अंग्रेज| तभी अंतिम लाइन में कवि ने कहा है कि "बापौड़ा मत जाणियो, है यो गाम धनाणा"| बापौड़ा टैक्स देता होगा, हमसे ले के दिखाओ? और वाकई में अंग्रेज कभी टैक्स नहीं उगाह पाए मेरे नानके से|

अब बात मेरे इस नानके यानि धनाणे और इसकी परस-बंगलों से मेरे अटूट लगाव की दास्ताँ की:

सलंगित फोटो में जो बँगला यानि परस यानी चौपाल है, इसी में हो रहा है यह सम्मेलन| इससे मात्र 3 हवेली छोड़कर हेडमास्टर ज्ञानेंदर जी (मेरे नानाजी) की हवेली है| यह बंगला 2012 में बना है, इससे पहले दूसरी ब्लैक-एन्ड-व्हाइट फोटो वाला बंगला इसी जगह पर 1856 से 2012 तक रहा| सनद रहे आर्य समाज 1875 में आया, उससे भी 19-20 साल पहले 1856 व् उससे पहले के जमानों से जाट-खाप ऐसे बंगले बनाते आये हैं, यह जानकारी इसलिए जोड़ रहा हूँ ताकि जो यह सोचते हैं कि आर्य-समाज के बाद ही यहाँ तरक्की या जागरूकता आई थी; वह समझें कि भले आर्य-समाज कुछ सुधार लाया समाज में परन्तु जाटों-खापों की यह जागरूकता-धनाढ्यता-प्रतिष्ठा देखकर ही दादा नगर खेड़ों, दादा भैयों से "मूर्ती-पूजा रहित सिस्टम" का कांसेप्ट उठाकर "आर्य-समाज" के नाम से इंट्रोड्यूस किया गया था, वह भी मूर्ती-पूजा नहीं करने का क्रेडिट "दादा नगर खेड़ों" को दिए बिना|

खैर, बताता चलूँ कि यूनियनिस्ट मिशन के झंडे में जो मोरनी है वह इसी ब्लैक-एन्ड-व्हाइट फोटो वाले पुराने बंगले की अटालिकाओं पर लहराती "मोरणियों की फिरकियों" से निकाल के झंडे में डाली गई है|

जब-जब तेज हवाएं चलती थी तो यह फिरकियाँ झर्र-झर्र-चर्र-चर्र-खड़-खड़ की मधुर तालें छेड़ देती थी कि कानों में पड़ते ही नाना की हवेली की अटारी पर खड़ा हो तब तक इनका घूमना-शोर मचाना देखता रहता था, जब तक हवाएँ नहीं थम जाती थी| हवा के साथ अगर बारिश भी आ गई तो भी वहीँ खड़ा रहता था फिर भले नानी-मामी-माँ-मौसी नीचे से रुक्के मारती कि, "बेटा, तले आ ज्या सीलक लाग जागी"| इस कल्चरल हेरिटेज से लगाव इतना अटूट रहा कि एक किनशिप की भाँति पुरखों की इस शान को मिशन के झंडे की शान में लगा लिया| तो जिस जगह से जिंदगी की ऐसी अटूटता जुडी हो, उस नानके में अगर नानकों के पूरे घणघस गौत का सम्मेलन हो रहा हो तो भाणजे में रंग-चा भरणे लाजिमी हैं|

धनाणा रे, रे मेरे नानके, तेरी गलियाँ म्ह बचपन बिताया खूब,
नानी-नाना की कहानियों में, रूआब-रुतबा-रस पाया अटूट|
तेरी हवेलियों-मीनारों-अटारियों-बंगलों में उधम मचाया टूट,
होळ खाये, कुँए-नहर नहाये; आज भी सब याद आवै ज्यूँ महबूब||

अब बात मेरे पैगाम की:
वैसे तो इस सम्मेलन में आप मेरे नानाओ, मामाओं, मामयों आळो; जो भी करेंगे बढ़िया करेंगे और क्योंकि कहीं-ना-कहीं "किनशिप" यानि "एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को अपना कल्चर-कस्टम-इतिहास-हेरिटेज पास करने" की भावना के तहत यह सम्मेलन हो रहा तो ऐसे में इतना ही कहूंगा कि इस "किनशिप" को इन-डायरेक्ट की बजाये डायरेक्ट पेश कीजियेगा नई पीढ़ियों को और बताईयेगा कि क्या-कौन तुम्हारे पुरखे थे, क्या उनका पिछोका था और क्या उनका इतिहास था| इसके अलावा उदारवादी हरयाणवी जमींदारी के यह कुछ बिंदु जो हमारी फिलॉसोफी-कल्चर को इंटरनेशनल लेवल पर अमेरिका-यूरोप के स्टैण्डर्ड पर बैठाते हैं यह जरूर चर्चा होवें, ऐसी आशा करता हूँ| क्या चर्चा होवे कि:

1) यह जो "कम्युनिटी गैदरिंग" हेतु "मिनी-फोर्ट्रेस" टाइप बंगले-परस-चौपाल बनाने का कल्चर है हमारा, यह या तो इंडिया में सिर्फ खापलैंड पर है या फिर सीधा इंडिया से बाहर अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया वगैरह में है|
2) हमारा जो सीरी-साझी कल्चर है यह गूगल जैसी कंपनियों में फ़ॉलो होता है| सीरी-साझी कल्चर यानि नौकर को नौकर नहीं अपितु काम से ले सुख-दुःख का पार्टनर मानना और नौकर की जाति-बिरादरी देखे बिना उसको उसके नाम की बजाये उसके नेग-नाते से पुकारना|
3) यह जो हरयाणवी दामण, इंग्लिश में कहूं तो "बॉल-स्कर्ट" पहनी जाती हैं यह हमारे अलावा अमेरिका-यूरोप में ही है, बस फर्क इतना है कि यहाँ यह लॉन्ग-स्कर्ट या शार्ट-स्कर्ट के रूप में हैं और हमारे यहाँ "बॉल-स्कर्ट" के रूप में|
4) यह जो "खाप-पंचायतें" कर बिना तारीख-पे-तारीख दिए फैसले करने का "सोशल जुडिशरी व् सोशल इंजीनियरिंग सिस्टम" है यह इंडिया में और कहीं भी नहीं, यहाँ के बाद यह अमेरिका-यूरोप जैसी जगहों पर ही मिलता है|
5) यह जो "खाप मिल्ट्री कल्चर" यानि अखाड़े हैं ऐसे गाम-गाम स्पोर्ट्स-क्लब अमेरिका-यूरोप में ही मिलते हैं|
6) यह जो गौत छोड़कर ब्याह करने के कल्चर हैं, यह अमेरिका-यूरोप में भी मिलते हैं|

और जो खापलैंड के अलावा ना इंडिया और ना अमेरिका-यूरोप में भी नहीं मिलती, कुछ ऐसी बातें हमारे उदारवादी जमींदारी कल्चर की:
1) मर्द पुजारी रहित दादा नगर खेड़े यानि दादा नगर भैया या दादा गाम/ग्राम/पट्टी खेड़ा| ऐसा आध्यात्मिक सिस्टम जिसमें 100% धोक-पूजा की अगुवाई औरत को दी गई है वह यह दादे खेड़े हमारे ही कल्चर में मिले हैं आजतक मुझे| जिसमें औरत व्रजसला भी हो तो भी बस सुथरी तरह नहा-धो के बेशक ज्योत-धोक कर आओ, कोई नहीं पूछेगा खेड़े पर चढ़ने से पहले कि तू व्रजसला है या नहीं?
2) "देहल-ध्याणी की औलाद" व् "खेड़े के गौत" के नियमों के तहत "माँ का गौत भी औलाद का गौत" मिल जाना, यह गज़ब जेंडर-सेंसिटिविटी हमारे ही कल्चर में मिली है मुझे आजतक|
3) "ब्याह से पहले पिता व् ब्याह के बाद पति" की प्रॉपर्टी में कन्फर्म तौर पर बराबर की हकदारण औरत न्यूनतम तब से तो कन्फर्म तौर पर रही है जब महाराजा हर्षवर्धन ने सन 643 ईस्वी में खापों को सोशल जूरी आर्गेनाइजेशन के तहत राजकीय मान्यता दी थी, जबकि देश में इस बारे कानून आ के बना है अब 2014 में| और यह कानून सिर्फ कहने भर को नहीं रहा कि जैसे बहुत से समाजों में औरत विधवा हुई और पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर बैठा दी "विधवा-आश्रमों में जिंदगी भर फंडियों की हवस का शिकार होते रहने को"; नहीं अपितु बाकायदा हमारा खाप-सिस्टम दुरुस्त करता आया है कि दिवंगत पति की प्रॉपर्टी वाकई में उसकी पत्नी व् पत्नी के बाद उसके बच्चों की ही रहे| यह सोशल सिक्योरिटी देती आई है "खाप-व्यवस्था" औरतों को| इस बारे और भी सब-कॉलेजेज हैं|

खैर, अकेली खूबियों के जिक्र से इस लेख का मकसद पूरा नहीं होता| कमियाँ भी बहुत आई हैं वक्त के साथ समाज-कस्टम-सिस्टम में| वह तो खैर आप धरातल पर हैं तो मेरे से भली-भाँति परिचित होंगे, उनसे भी नई पीढ़ियों को अवगत करवा, जागरूक कीजियेगा| बस इसी के साथ मेरे पैगाम को विराम देता हूँ|

विशेष: सुनी है आप सम्मेलन तो घणघस जाट गौत का कर रहे हो, परन्तु जीमणवार पूरे गाम-गुहांड की 36 बिरादरी की दे रखी है? रै नानाओं, मामाओं, मामा-आळो; थारी इसी उदारता के कारण ही तो अपनी कौम-खूम-खून-कल्चर पर मरा जियूं सूं कि फरवरी 2016 में 35 बनाम 1 झेल के भी सर्वसमाज को भोज छकाओ सो| काश, कोई ऐसी मशीन या बायोमेट्रिक यंत्र होता जो 36 का 35 बनाम 1 बनाने वाले समाज के 5-10% कीड़ों को छाँट के इस 36 बिरादरी के भोज में आने से अलग कर सकता|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक




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