दोनों 65+ की उम्र में जा चुके हैं| फूफा ने
बताया कि ऑस्ट्रेलिया में रोज 7-8 किलोमीटर पैदल चल लेता था तो भी थकावट
महसूस नहीं होती थी| और जिंद आ के हफ्ते भर तो रूटीन कायम रखने की कोशिश
करी परन्तु इतने ही वक्त में रूटीन 1-2 किलोमीटर पर सिकुड़ गया है| बुआ ने
बताया कि वहाँ घी-दूध खूब खा लेती थी फिर भी लगता था कि कुछ खाया ही नहीं
और यहाँ आ के फिर से वही जोड़ों के दर्द व् अलकस शुरू| एक चम्मच भी घी खा
लूँ तो कलेजे में रखा रहता है|
दोनों जगह के अनुभव का फर्क बताते हुए दोनों बोले कि एक तो वहां की वायु शुद्ध और दूसरा खाना आर्गेनिक यानि बिना खाद-दवाईयों का है और यहाँ दोनों ही बातें उसके विपरीत| कह रहे थे कि हम तो वहीँ जा रहे हैं जल्द-से-जल्द और वो भी हमेशा के लिए| कजिन रहता है वहां सपरिवार उसके पास|
उनसे बातें होने के बाद मैं चिंतनीय सोच में पड़ गया कि जिनका ब्योंत है वह तो इंडिया से ऊड़ जायेंगे ऑस्ट्रेलिया जैसी जगह पर, परन्तु जिनका ब्योंत नहीं या जो स्वेच्छा से रहना ही हरयाणा-एनसीआर में चाहता है उनका क्या होगा या उनके स्वास्थ्य व् जीवन के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ हो रहा है, इसका क्या? आखिर इसका क्या हल होगा और कौन निकालेगा?
क्योंकि जब से किसान-राजनीति को हासिये पर धकेला गया है तब से यह वायु व् खाने में जहर की समस्या विकराल ही विकराल होती जा रही है| ना शहरों में दुकानों में बैठ जहरी पेस्टिसाइड्स बेचने वाले दुकानदारों को समाज के स्वास्थ्य की चिंता और पहले से ही एमआरपी तक के फसलों के दाम पूरे नहीं मिलने वाले किसान (उसको कब खुद फैक्ट्री वालों की तरह अपनी फसल रुपी प्रोडक्ट के दाम खुद निर्धारित करने का अधिकार होगा, यह तो बातें ही कोसों दूर जाती जा रही है) को तो परिवार पालने के ही लाले पड़े रहते हैं तो उसके हालात वैसे ही नहीं छोड़े सरकारों ने इन पहलुओं पर सोचने लायक|
और ऊपर से दुनिया के सबसे वाहियात फंडी लोगों का हमारे यहाँ आम किसान-मजदूर-व्यापारी व् आमजनता पर जाल, ऐसा जाल जिससे कि अब तो जनता को वैसी ही सहूलियत सी लगने लगी है जैसे बेल-जंजीर से बंधे जानवर को लगने लगती है और वह उससे छूटने-छुड़वाने की कोशिशें करना भी धर्मद्रोह या राष्ट्रद्रोह समझने लगता है|
ना ही कोई मूवमेंट इस दिन-प्रतिदिन हरयाणा-एनसीआर में बाकी के इंडिया से बढ़ते ही जा रहे जनसंख्या पलायन पर इसको रोकने या डाइवर्ट करने हेतु दीखता| कोई नहीं कहता कि बहुत हुआ, बस करो क्या सारा इंडिया हरयाणा-एनसीआर में लाकर बसाओगे; बल्कि वहीँ फैक्ट्रियां-रोजगार क्यों नहीं ले जाते जहाँ से सबसे ज्यादा बेरोजगारी व् फंडियों के नश्लवाद की प्रताड़ित जनता का यहाँ पलायन हो रहा है|
धरातल पर बैठे हुओं की क्या, 99% एनआरआई तक इन चीजों बारे लोगों को जागरूक करना, अपने धर्म-देश की तौहीन मानने वाली जंजीर में जकड़े पड़े हैं| वह तक यह बातें लिखते-फैलाते नहीं कि अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया आदि जैसे देश वाकई में रहने लायक हैं तो क्यों हैं| बल्कि वह "यूरोप वाले तो काले कोट-पेण्ट-टाई तो वहां अधिक सर्दी की वजह से पहनते हैं तुम हिंदुस्तानी क्यों ढोते हो इनको?" जैसी पोस्ट्स वायरल करते बहुतेरे एनआरआई ही देखे हैं| इनमें बहुतों को देख के तो यह लगता है कि यह तो धरातल पर बैठे भक्तों के भी फूफे हैं|
निसंदेह, अगर ऑस्ट्रेलिया-यूरोप जैसे देश ऐसा कर पाए तो उसकी सबसे बड़ी वजहें रही कि सबसे पहले तो इन्होनें अपने-अपने धर्मों के फंडियों को लिमिट में बाँधा (चर्च-मस्जिद से बाहर कोई धार्मिक प्रोग्राम नहीं कर सकता यहाँ; जो करना है अपने धर्म-स्थलों के परिसर में करो, जिसको तुम्हारी बिड़क यानि जरूरत होगी वह खुद चला आएगा तुम्हारे पास), फिर सरकारों व् सिस्टम को जवाबदेह बनाया तो ही ऐसा हो पाया|
खैर, लिखते हुए उदासीन हूँ क्योंकि क्या मेरे जैसे जो खुद यूरोप जैसे न्यूनतम प्रदूषित वातावरण व् लगभग आर्गेनिक फ़ूड खाने वालों के देश में रहते हैं उनके यह लेख इन मुद्दों पर किसी भी तरह की जागरूकता या चीजों में गति लाने हेतु काफी होंगे? लगता है खामखा ही कलम घिसाई हो रही है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
दोनों जगह के अनुभव का फर्क बताते हुए दोनों बोले कि एक तो वहां की वायु शुद्ध और दूसरा खाना आर्गेनिक यानि बिना खाद-दवाईयों का है और यहाँ दोनों ही बातें उसके विपरीत| कह रहे थे कि हम तो वहीँ जा रहे हैं जल्द-से-जल्द और वो भी हमेशा के लिए| कजिन रहता है वहां सपरिवार उसके पास|
उनसे बातें होने के बाद मैं चिंतनीय सोच में पड़ गया कि जिनका ब्योंत है वह तो इंडिया से ऊड़ जायेंगे ऑस्ट्रेलिया जैसी जगह पर, परन्तु जिनका ब्योंत नहीं या जो स्वेच्छा से रहना ही हरयाणा-एनसीआर में चाहता है उनका क्या होगा या उनके स्वास्थ्य व् जीवन के साथ कितना बड़ा खिलवाड़ हो रहा है, इसका क्या? आखिर इसका क्या हल होगा और कौन निकालेगा?
क्योंकि जब से किसान-राजनीति को हासिये पर धकेला गया है तब से यह वायु व् खाने में जहर की समस्या विकराल ही विकराल होती जा रही है| ना शहरों में दुकानों में बैठ जहरी पेस्टिसाइड्स बेचने वाले दुकानदारों को समाज के स्वास्थ्य की चिंता और पहले से ही एमआरपी तक के फसलों के दाम पूरे नहीं मिलने वाले किसान (उसको कब खुद फैक्ट्री वालों की तरह अपनी फसल रुपी प्रोडक्ट के दाम खुद निर्धारित करने का अधिकार होगा, यह तो बातें ही कोसों दूर जाती जा रही है) को तो परिवार पालने के ही लाले पड़े रहते हैं तो उसके हालात वैसे ही नहीं छोड़े सरकारों ने इन पहलुओं पर सोचने लायक|
और ऊपर से दुनिया के सबसे वाहियात फंडी लोगों का हमारे यहाँ आम किसान-मजदूर-व्यापारी व् आमजनता पर जाल, ऐसा जाल जिससे कि अब तो जनता को वैसी ही सहूलियत सी लगने लगी है जैसे बेल-जंजीर से बंधे जानवर को लगने लगती है और वह उससे छूटने-छुड़वाने की कोशिशें करना भी धर्मद्रोह या राष्ट्रद्रोह समझने लगता है|
ना ही कोई मूवमेंट इस दिन-प्रतिदिन हरयाणा-एनसीआर में बाकी के इंडिया से बढ़ते ही जा रहे जनसंख्या पलायन पर इसको रोकने या डाइवर्ट करने हेतु दीखता| कोई नहीं कहता कि बहुत हुआ, बस करो क्या सारा इंडिया हरयाणा-एनसीआर में लाकर बसाओगे; बल्कि वहीँ फैक्ट्रियां-रोजगार क्यों नहीं ले जाते जहाँ से सबसे ज्यादा बेरोजगारी व् फंडियों के नश्लवाद की प्रताड़ित जनता का यहाँ पलायन हो रहा है|
धरातल पर बैठे हुओं की क्या, 99% एनआरआई तक इन चीजों बारे लोगों को जागरूक करना, अपने धर्म-देश की तौहीन मानने वाली जंजीर में जकड़े पड़े हैं| वह तक यह बातें लिखते-फैलाते नहीं कि अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया आदि जैसे देश वाकई में रहने लायक हैं तो क्यों हैं| बल्कि वह "यूरोप वाले तो काले कोट-पेण्ट-टाई तो वहां अधिक सर्दी की वजह से पहनते हैं तुम हिंदुस्तानी क्यों ढोते हो इनको?" जैसी पोस्ट्स वायरल करते बहुतेरे एनआरआई ही देखे हैं| इनमें बहुतों को देख के तो यह लगता है कि यह तो धरातल पर बैठे भक्तों के भी फूफे हैं|
निसंदेह, अगर ऑस्ट्रेलिया-यूरोप जैसे देश ऐसा कर पाए तो उसकी सबसे बड़ी वजहें रही कि सबसे पहले तो इन्होनें अपने-अपने धर्मों के फंडियों को लिमिट में बाँधा (चर्च-मस्जिद से बाहर कोई धार्मिक प्रोग्राम नहीं कर सकता यहाँ; जो करना है अपने धर्म-स्थलों के परिसर में करो, जिसको तुम्हारी बिड़क यानि जरूरत होगी वह खुद चला आएगा तुम्हारे पास), फिर सरकारों व् सिस्टम को जवाबदेह बनाया तो ही ऐसा हो पाया|
खैर, लिखते हुए उदासीन हूँ क्योंकि क्या मेरे जैसे जो खुद यूरोप जैसे न्यूनतम प्रदूषित वातावरण व् लगभग आर्गेनिक फ़ूड खाने वालों के देश में रहते हैं उनके यह लेख इन मुद्दों पर किसी भी तरह की जागरूकता या चीजों में गति लाने हेतु काफी होंगे? लगता है खामखा ही कलम घिसाई हो रही है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
No comments:
Post a Comment