Thursday, 9 April 2020

आस्था-श्रद्धा-निष्ठां!

हर धर्म पुस्तक की प्रतावना में लिखा मिलेगा कि आपको यह पुस्तक पढ़ने से पहले से इसके प्रति मन में आस्था-श्रद्धा-निष्ठां होनी जरूरी है| और इनमें से जितनी भी वर्णवाद को डिफाइन करती पुस्तकें हैं उनके अंदर जाएंगे तो 99% में किसान को असल तो शूद्र (हल चलाने वाले व् पशुपालन वाले) अन्यथा वैश्य (कृषि संबंधित व्यापार वाले) के रूप में अंकित किया मिलता है| अब विवाद यहीं से खड़ा होता है इन्होनें संसार को अन्न देने वाले के प्रति (जिस पर कि पेट-पूजा को यह खुद निर्भर होते हैं) सारी आस्था-श्रद्धा-निष्ठां कुँए में झोंकी होती है, उसको न्यूनतम स्तर का दिखाया होता है और फिर उम्मीद करते हैं कि किसान-जमींदार वर्ग के लोग इनके लिखे को आस्था-श्रद्धा-निष्ठां से पढ़ें? अरे तुम में बिना अन्नदाता हुए जब इतना दंभ हो सकता है कि तुम अन्न के लिए जिस पे निर्भर हो उसके प्रति तुम अपनी लेखनियों-पुस्तकों में रत्तीभर भी आस्था-श्रद्धा-निष्ठां नहीं दिखाते तो खुद अन्नदाता में कितना होना चाहिए, इस हिसाब से?

ये खामखा की आस्था-श्रद्धा-निष्ठां तो किसान-मजदूर जैसे वर्गों के ऐसे चेपने भागते हो, जैसे कोई कुंवारी कोले लगा दी हो (हिंदी में इसका मतलब घर में ब्याह लायक बेटी होना)| कोई ना इब यें थारी कुंवारी ब्याहने जोगी हो ली, इनको ब्याह-ठाह दो| और किसान के प्रति खुद में आस्था-श्रद्धा-निष्ठां जागृत कर लो उनसे आस्था-श्रद्धा-निष्ठां की अपेक्षा करने से पहले|

इसके बिना यह तुम्हारी पुस्तकें धर्म नहीं हो सकती, कोरी किसान-मजदूर तबके को दबाये रखने के साइकोलॉजिकल षड्यंत्र व् पॉलिटिक्स के अलावा| मैंने नहीं ऐसा घटिया वर्गीकरण पढ़ा किसी अन्य धर्म की पुस्तकों में, जैसा किसान के प्रति तुम रखते हो| किसी और ने पढ़ रखा हो तो मुझे करेक्ट कर दीजियेगा इस पॉइंट पे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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