Wednesday, 19 August 2020

आज पंजाबी फिल्म "मंजे-बिस्तरे" देखी और ऐसी देखी कि बचपन की सौधी से ले फ्रांस आने तक की तमाम बारातें जेहन में घूम गई, वो भी जिनमें बाराती बन के गए और वो भी जो अपने गाम-रिश्तेदारियों में आई|

और एक चीज बड़ी जंची कि आज वाले तथाकथित मॉडर्न लोग, इकनोमिक मॉडल के नाम के सबसे बड़े गधे हैं| बारातों की इकॉनमी तो पुराने पुरखे मैनेज करते थे, आज वाले तो बोर और चौड़ के भूखे, ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरों के कारोबार चलवाते हैं, ब्याह-शादी के नाम पर अपने घर का धोना सा धर के| देखो पहले पुरखों के ब्याह-शादियों के इकनोमिक मैनेजमेंट और तुम आज वाले तथाकथित अक्षरी ज्ञान से पढ़े-लिखे परन्तु दिमाग से पैदलों के मैनेजमेंट:


1) पहले वाले बूढ़े पूरा ब्याह-वाणा का इवेंट-मैनेजमेंट खुद करते थे और आज वाले इवेंट कंपनी हायर करते हैं; स्याणे व् बढ़िया इवेंट मैनेजर तुम अक्षरी व् डिग्री ज्ञान वाले हुए या वो अक्षरी ज्ञान में कम परन्तु इवेंट मैनेजमेंट के गुरु पुरखे होते थे?
2) तुम्हारा इवेंट मैनेजमेंट "घर फूंक तमाशा देख", तुम्हारे पुरखों का इवेंट मैनेजमेंट "घर व् भाईचारा बाँध, दिल बल्लियां करने वाले इवेंट"|
3) पुरखों के ब्याह-वाणे के इवेंट भाईयों-सगारों को मनाने-जोड़ने के इवेंट, तुम्हारे वाले आपस में जलन-अकड़-हैसियत-बोरपन-महाभारत टाइप छेछर भरे इवेंट, जिनमें सगे भाईचारे बेशक रूसे रहो परन्तु तथाकथित बिरादरियों के भाईचारे निभांदे हांडै; जाणू हों भांड किते के|
4) पहले वालों के परस-चौपालों-चुपाड़ों जैसे भव्य-आलिशान फ्री के बारात घर और आज तुम्हारे ये लाखों-लाख किराए के बिसाहे तथाकथित "मैरीज हॉल"|
5) पुरखों के खाट (मंजे)-बिस्तरे फ्री में मैनेज हो जाते थे और आज वालों थारे, ये महंगे-महंगे किराए के सिर्फ बिस्तरे, खाट तो बिछाणी ही भूल गए हो|
6) गाम के चौगरदे को केसूहड़े फिर के आया करदे, तुम आज वालो घर से सिर्फ 100 मीटर तक में गेड़ा मार के वापस घर में|
7) पहले वाले गाम-की-गाम में गाम की बिरादरियों को रोजगार देते, जैसे बैंड-बाजा गाम का होता, नाई गाम का होता, ब्याह-फेरे करवाने वाला दादा खुद के घर का बड़ा बूढा होता, दर्जी गाम का होता, सुनार गाम का, खाती गाम का और आज थारा गाम में होते हुए भी सब कुछ बाहर का| ब्याह के जरिये साथी-बिरादरियों के रोजगार सारे तथाकथित शहरियों के पढ़न बैठा दिए, वो भी पता नहीं कहाँ-कहाँ के पिछोके के लोगों के यहाँ| भाईचारे तो टूटेंगे ही ऐसे में|
8) पुरखों के वक्त ब्याह-वाणे का मतलब होता था पूरा इवेंट पूरे रंग-चाया चढ़, ले घर-कुनबे-गाम-ठोले को साथ अपने हाथों करने-करवाने का, जिसमें ना खर्चे का पता लगता था और ना थकावट का| और आज तुमने सब कुछ सिकोड़ के टोटल "इवेंट मैनेजमेंट कंपनियों" के यहाँ गिरवी रख दिया और फिर भी वो लहरे-गाजे-बाजे-गूँज-रंग-चा नहीं|

और इस सब पे खुद के साथ अंजानपणा और बनावटपणा इतना कि खुद ही कहेंगे कि, "इब वें ब्याह-वाणे-रंग-चा कित रहे"? कित रहन नैं किते दूसर कै चाल कें जा रे सें अक छूछक कै चले गए? थम राखनिये, थम ल्यावनिये; और थम ही खुद के मखौल बना रहे इन मसलों के| बर्बाद तो थम यूँ ना हुए हो और के थारै लोग रात्यां नैं उठ-उठ खावैं सैं|

"मंजे-बिस्तरे" फिल्म देख के मुझे तो दर्जनों वह बारातें याद आ गई कि जिनके बारे मित्र-प्यारे आज भी याद करते हैं| किसी के बारात में गए तो वें नजारे नहीं भूलते और म्हारे गाम में किसी बुआ-बहन-भतीजी की बारातें आई तो उनके मैनेजमेंट करने आज भी आँखों आगै घूम ज्यावें सें| सबसे ज्यादा मजा तो बारात में आये बिगड़ैल बारातियों को सीधा करने की जब ड्यूटी लगती थी तो उसमें आता था या गाम की परस में खाट-बिस्तरे इकठ्ठे करने में| बड़े किस्से हैं बिगड़ैल बारातियों को बिना-रोला रब्दा होने देने के सीधा करने के, अलग से लेख बनेगा इनपे|

इहसे फ्रांस में आ के चढ़े कि 15 साल हो गए ऐसी किसी बारात में गेस्ट बने या किसी ऐसी बारात का होस्ट बने| इन 15 सालों में बस एक सगी बहणों के ब्याह जरूर मैनेज किये, नहीं तो ब्याह-वाणों-बारातों में कूदने-रचने-रमने-रंगने के नाम की तो जाणूं बेमाता ने आगै की लकीर ही मिटा दी| डब्बी बाट देख्या करते अक वो आवैगा तो कीमें रंग चढ़ेगा, सुसरा इहसे फ्रांस की पैड़ां चढ़े सब पाछै छूट गया; नहीं तो हम न्यूं बंध के बैठनीयां तो कदे रहे ही नहीं| वो ऊँचे महल-अटारियों-दरवाजों-नौहरों-घेरों-परस-चौपालों के ब्याह-वाणे और वो मस्त मेळ-माण्डों से ले रातजगों के गीत, केसूहड़े-बारोठी और हर बारात में अलग छाप छोड़ के आने के ढकोसले|

और इतनी मस्ती से यह इसलिए कर लिया करते थे क्योंकि इनके इवेंट मैनेजर दादे होते थे; हाँजी दादे, बाप-काके-ताऊओं का तो साइड में बैठने का नंबर हुआ करता था| वो मण्डासों वाले चौधरी, वो खंगारों वाले चौधरी वो डिठौरों वाले चौधरी; ईब वालों को तो सर पे खंडका धरते हाणें भी शर्म आवै| ऐसे बैठेंगे ब्याहों में सरफुल्ले जणूं मोहकान आ रे हों| बाजे-बाजे को तो यह चिंताएं तो सताने लग गई कि औरतों के घूंघट उतर रहे हैं, रै थमनें ना दिखती कि थारे सरों से पगड़ी-खंडके भी उतर के जा लिए? लुगाइयों के घूंघट चाहियें पर खुद के खंडके-पगड़ियों-पगों का ठिकाना मालूम ना रह रह्या|

लब्बोलवाब लेख का यही है कि घने चौड़े मत हुआ करो खुद को अक्षरी ज्ञान का चुघड़ा समझ के, थारे पुरखे कम अक्षरी-ज्ञान वाले होते हुए भी तुम से भी बड़े-बड़े इवेंट चुटकियों में मैनेज कर लिया करते थे| उनके लिए ब्याह-वाणे बोर-अकड़ आदि दिखाने के नहीं अपितु भाईचारे मनाने-मनवाने व् मिलके ब्याह निबटाने के प्रतीक हुआ करते थे| अब देख लो थम म्ह कित तैं और कब तैं डूबा पड़ी और क्यूकर इस्ते बाहर आओगे|

कड़वी सच्चाई यही है कि तुम इवेंट मैनेजरों की औलाद हुआ करते थे एक जमाने में, आज इवेंट मैनेजमेंट वालों के कंस्यूमर (ग्राहक) बन के रह गए हो 90%|

और हाँ, झूठ नहीं सच कहूंगा, जबसे ये फंडी जरूरत से ज्यादा सर पर धरे हैं तब से थारे धोने से दुहते आ रह हैं| वही पुरखों वाली इवेंट मैनेजरी व् डिठोरे चाहियें तो इन फंडियों को उसी औकात में रखो जिसमें पुरखे रखते थे; फिर चाहे थम लुगाई हो या माणस| ये फंडी माणस-खाणे हों सैं, बचो और बचाओ अपनी ऊजा-ज्यात-उलाद सब क्याहें नैं इनकी गिद्द नजरों से|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

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