हिंदी मूवमेंट के जैसे हरयाणवी मूवमेंट:
अगर चलाया जाए तो फंडी इस तरह की किल्की तो नहीं मारेंगे कि:
1) यह देखो अलग दिशा निकाल रहे हैं|
2) यह देखो झगड़े के बीज बो रहे हैं|
3) यह देखो समाज को बाँट रहे हैं|
4) यह देखो समाज को पथभृष्ट कर रहे हैं .... आदि-आदि
क्योंकि अगर आपको हरयाणवी कल्चर से प्यार है तो वह बिना भाषा के नहीं बचेगा| किसी भी कल्चर का मूल होती है उसकी भाषा और हिंदी जो है वह हरयाणवी कल्चर के मूल यानि हरयाणवी भाषा को खा रही है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती| आज की हरयाणा सरकार तो इतनी बेगैरत और धूर्त साबित हो रही है कि आजकल हर गाम में लगवाए जा रहे "शौर्य-पट्टों" पर हरयाणा के हरयाणवी गाम होते हुए भी उसकी भाषा सिर्फ "हिंदी" लिखवा रही है, यह नहीं कि चलो हिंदी लिखवाना है कोई नी लिखवा लो परन्तु उसके साथ हरयाणवी भी तो लिखी जाए? यह अवस्था बहुत ही घातक है| एक-दो पीढ़ी बाद बच्चे इन्हीं पट्टों के रिफरेन्स में जब देखेंगे कि हरयाणवी तो कहीं, है ही नहीं, तो क्या मोह, क्या अपनापन पनपेगा उनमें हरयाणवी के प्रति? और कमाल की बात है कि कुछ-एक संस्थाओं, कुछ विशेष हरयाणवी प्रेमियों को छोड़ कर कोई नहीं चुसक रहा है इन पहलुओं पर|
आज तक तो पुरखों के तप का असर था कि चीजें पास होती आई और हरयाणवी अभी तक बची हुई है| परन्तु जिस तरीके से फंडी और फंडियों की सरकारें लगी हुई हैं उसको देख कर तो लगता है कि जैसे यह खुद ही हरयाणवी को खत्म करने का कोई एजेंडा लिए हुए हों; उदाहरण ऊपर दिया है कि कैसे हर गाम में लगाए जा रहे हैं शौर्य पट्टों पर गाम की भाषा सिर्फ हिंदी ही लिखवाई जा रही है| हमें हिंदी से नफरत नहीं, हम हरयाणवी हैं; हम हिंदी तो क्या गैर-हिंदी से भी प्यार करते हैं; परन्तु उस प्यार का यह मतलब तो नहीं हो सकता कि हमारी ही भाषा ऐसे कुचल दी जाए?
और भाषा खत्म तो कल्चर खत्म| यानि ना फिर तीज में कोई स्वाद रहेगा, ना संक्रांत में, ना बसंत पंचमी में और ना बैशाखी/मेख में; जो कि पूर्णत: शुद्ध हरयाणवी-पंजाबी त्यौहार हैं| भाषा का मर जाना यानि तीज-त्यौहारों समेत कस्टम-कॉस्ट्यूम सब कुछ नदारद होते चले जाना|
अत: इन सबको देखते हुए ही ख्याल आता है कि अगर हमें हरयाणवी बचानी है तो इसके लिए 1960-1970 के दशक में जब आज का हरयाणा, पंजाब, हिमाचल एक होते थे, तब यहाँ जो "हिंदी-मूवमेंट" चलाया गया था, वह अब "हरयाणवी" के लिए चलाने की जरूरत आन पड़ी है| आप क्या कहते-सोचते हैं इस पर? और अगर यह सम्भव हो सकता है तो कैसे?
इनकी चिंता मत करना जो आपको कॉर्पोरेट से ले स्कूलों तक में हरयाणवी बोलने पर नफरत करते हैं या आपको दरकिनार करते हैं| यह वही लोग हैं जो मौका मिलते ही व् 2-4 इकठ्ठे होते ही कॉर्पोरेट की हिंदी-इंग्लिश को छोड़, अपनी स्थानीय भाषा में बात करते हुए मिलते हैं, वह भी ऑफिसों में ही, कहीं कोने-खाबों में| यह हरयाणवी से नफरत इसलिए करते हैं क्योंकि एक तो इनमें अधिकतर वो हैं जो माइग्रेट हो के दूसरों राज्यों-कल्चरों से यहाँ आ के बसे हैं| और दूसरा इनको भय रहता है कि ऐसा नहीं करेंगे तो यह इनका कल्चर-राज्य ना भूल जाएँ कहीं| और तीसरा इसलिए कि इनको इस हीन भावना से ऊपर रहना होता है कि इनको यह हरयाणा, इसके हरयाणवी लोग ही भाषावाद, क्षेत्रवाद की शर्तों वाला गुजरात-महाराष्ट्र टाइप का माहौल नहीं देते, यानि हरयाणवी इतने लिबरल होते हुए भी इनको पसंद नहीं| यह आपकी-हमारी लिबरल सोच से चिढ़ते हैं| और बावजूद इसके चिढ़ते हैं कि आपके-हमारे क्षेत्र में बैठ के ही रोजगार से ले कारोबार पाते हैं, रेन-बसेरा पाते हैं; इन सब बुनियादी जरूरतों के लिए सबसे उपयुक्त माहौल पाते हैं| तो ऐसा माहौल, ऐसा लिबरल स्पेस जो कल्चर दे, उस कल्चर की बुनियाद उसकी भाषा बचानी लाजिमी हो जाती है कि नहीं?
विशेष: मुझे माफ़ कीजियेगा कि मैंने यह अपील फ़िलहाल हिंदी में लिखी| लिख हरयाणवी में भी सकता हूँ परन्तु नॉन-हरयाणवी लोगों तक भी यह जरूरत पहुंचे, खासकर उन तक जो पीढ़ियों से हरयाणा में रह रहे हैं और आजतक भी हरयाणा-हरयाणी-हरयाणत-हरयाणवी को तिजारत देते हैं (जो प्यार करने लगे हैं, वो इस लिस्ट में शामिल नहीं हैं), कुछ वह भी सोच सकें| सोच सकें कि क्यों-किस भाषा-माहौल-लिबरलिज्म के चलते वह इतने कम वक्त में इतने समृद्ध बन पाए|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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