भारत सरकार में जहाँ 2014 में आ कर तलाक पर स्पष्ट कानून बनता है, वहीँ सर्वखाप व्यवस्था में इसके लिए जमानों से निर्धारित प्रावधान रहे हैं; जिसको "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" गुजारा-भत्ता कहा जाता रहा है| हरयाणवी कल्चर में तलाक शब्द का स्थानीय शब्द है "छोड़ी हुई"| हर "छोड़ी हुई" औरत को "साल का नौ मण अनाज, दो तीळ व् दो जोड़ी-जूती" नियम के तहत तलाक देने वाले खसम से तब तक गुजारा भत्ता मिलता था जब तक:
1) पंचायत केस का पूरा फैसला नहीं कर देती थी|
2) जब तक लड़की दूसरी जगह नहीं ब्याह दी जाती थी|
3) इस अवस्था में बच्चे होते तो बच्चों के स्याणे (खाने-कमाने जोगे) होने तक लालन-पालन का सारा खर्चा पति के यहाँ से आता था|
4) स्याणे होने के बाद औलाद माँ के साथ रहेगी या पिता के साथ इसका फैसला औलाद पर छोड़ा जाता था|
5) हर अवस्था में पिता की प्रॉपर्टी में औलाद का हक़ फिक्स रहता था|
6) अगर छोड़ी हुई औरत आजीवन दूसरा ब्याह नहीं करने का फैसला करती थी तो उसको बाप-भाईयों की तरफ से रहने-कमाने के संसाधन-जायदाद सब दिया जाता था| अगर औलाद भी माँ के साथ माँ के पीहर यानि मामा के यहाँ ही आ कर बसती थी तो उनको पिता का गौत छोड़ माँ के खेड़े का गौत यानि माँ का गौत धारण करना होता था और वो गाम-ढूंग-खूंट के हिसाब से "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद कहलाते थे/हैं" जो कि आज भी खापलैंड के लगभग हर गाम में देखने को मिल जाते हैं| "देहल/ध्याणी/धाणी/बेटी की औलाद" में दूसरी केटेगरी उनकी भी होती है जो पिता समेत भीड़ पड़ी में या किसी मजबूरी आदि में माँ के पीहर आ के बसते हैं| पिता की जगह माँ का गौत भी औलाद का गौत हो सकने का यह अद्भुत, अद्वितीय व् जेंडर सेंसिटिविटी/न्यूट्रैलिटी का नियम पूरे विश्व में बहुत ही कम गिनी-चुनी सभ्यताओं में देखने को मिलता है जिसमें "सर्वखाप" एक है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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