गुरूद्वारे-मस्जिदों ने किसान आंदोलन में जब सर्वधर्म के लोगों के लिए लंगर-दावत लगाए तो चौधरी राकेश टिकैत को भी महसूस तो हुआ ही होगा (जब हम जैसे आम लोगों को हुआ तो उनको क्यों नहीं हुआ होगा?) कि गुरुद्वारे व् मस्जिदों द्वारा ऐसी उदारता व् मानवता दिखाने पर जैसे क्रमश: सिख व् मुस्लिम का आम जनमानस इतरा रहा होगा, गौरवान्वित महसूस कर रहा होगा तो मैं भी अपने वालों को यह गौरव दिलवाने से पीछे क्यों हटूं? जैसे सिखों-मुस्लिमों के लंगर-दावत का चर्चा UNO, WTO, UNSECO से ले अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया तक इन धर्मों की उच्चता की दुदुम्भी बजी हुई है तो हिन्दुओं की भी क्यों ना बजे? यही सोच के तो अपने पंडित/पुजारियों को फटकार लगाई होगी या नहीं?
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Monday, 28 December 2020
पंडित जी आप समझे नहीं और उसपे भी एक और नासमझी कर रहे हो!
और अपने धर्म के चौधरी के इस मर्म को समझने की बजाए वही रटी-रटाई काइयाँ राजनीति बरतते हुए "उल्टा चोर कोतवाल को डांटे" की भांति टूट पड़े टिकैत साहब पर? अरे भाई, दलित तुमसे परेशान (50% से ज्यादा तुमको मानना छोड़ चुका), ओबीसी भी बहुत सारा मुंह मोड़ रहा है और उसपे तुम किसान बिरादरियों से भी अहम-अहंकार-बेगैरत से पेश आ रहे हो? या तो बहुत धाप लिए या अहंकार में टूट लिए|
मत नादानी करो ऐसी| "दूध देने वाली गाय की तो लात भी खानी पड़ती है"; खटटर ने जब फरसे से हर्षवर्धन शर्मा का गला काटना चाहा तो यही कह के कन्नी काटे थे ना खटटर से? योगेश्वर दत्त को बरोदा उपचुनाव की टिकट मिलने पे लंगर वाला कुत्ता कहा तो आप चुप थे? जाटों के पुरखों द्वारा हर गाम गेल आपके पुरखों को खेती करके गुजर-बसर को दान में दी जमीनें (धौली की जमीनें बोलते हैं इनको) जब खट्टर ने आप लोगों के नाम से कानूनी उतरवा दी तब भी चुप्पी खींचे| ज्यादा पुरानी नाम नहीं हुई थी, 5 एक साल पहले हुड्डा जी ने ही सीएम रहते हुए नाम करी थी और बाबू-बेटे को क्रमश: सोनीपत-रोहतक से हराने के बाद भी इन्हीं किसान बिरादरी से आने वालों पे मुंह धोये बैठे होंगे आप जैसे लोग कि यह दोबारा सीएम बने तो फिर से करवा लेंगे अपने नाम| वैसे दान में मिली जमीन कभी नाम नहीं हुआ करती, जब तक बरतो तब तक बरतो अन्यथा ओरिजिनल मालिक को वापिस देनी होती है; दुनिया का कोई कानून नहीं जो आपको दान की जमीन की मलकियत दे दे; हुड्डा जी ने ऐसा किया भी होगा तो अपनी जाट-दयालुता के स्वभाव के चलते किया होगा| यकीन मानों टिकैत साहब में भी यही दयालुता का भाव रहा होगा कि मंदिर भी लंगर लगा देंगे तो मेरे धर्म का नाम भी सिख-मुस्लिम धर्म की भांति विश्वख्याति पा लेगा|
और आप इस अवसर को नहीं समझ रहे हो तो कम-से-कम चुप ही रह लो? अन्यथा फरवरी 2016 जैसे घाव खाए बैठा हुआ यही तुमपे सबसे दयालु जाट समाज खार खा गया तो जितना बचा है उसमें कटौती-ही-कटौती करते जाओगे और इसका दोषी आप लोगों का यह व्यर्थ दंभ मात्र ही रहेगा| क्षत्रिय नहीं हैं जाट कि बैठो कहो तो बैठेंगे और लड़ो कहो तो लड़ेंगे| अवर्ण बोली जाने वाली जाट कौम से आता है यह चौधरी जिसने आप लोगों को यह विश्वख्याति पाने की सलाह दी है, आह्वान किया है| खुद की सोच अकड़-घमंड-बहम-अहम् कुंध हो चली है तो आपके ही पुरखे महर्षि दयानन्द से सीख लो कि क्यों वह जाटों को अपने ग्रंथों में "जाट जी व् "जाट देवता" कहते-लिखते-गाते मर गए| 90% गांव के मंदिर इसी जाट समाज के दान-चंदे से चलते हैं| तो मत रूष्ट करो म्हारे चौधरी को, अन्यथा जाट रूठे तो कबूतर-काग बोलेंगे इन 80 फुट ऊंचे खम्बों में|
धर्म मानने वाले को धर्म भतेरे और नहीं तो नगर खेड़े पुरखों के दर रे;
घमंड ना कर ऐ खुद को स्याना कहने वाली कौम, कुछ हमधर्मी की अहमियत भी मान|
हम बड़ी ख़ामोशी से यह विरोध के ड्रामे देख रहे हैं आप लोगों के, कुछ हासिल नहीं होगा इनसे; सिवाए आपस में छिंटक के एक-दूसरे से दूर चले जाने के| इसलिए सविनय निवेदन है कि गलती-पे-गलती मत कीजिये|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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