1) डरावा नंबर 1: संयुक्त किसान मोर्चा की स्टेजों व् प्रेस कॉन्फरेंसों से यह बात यदाकदा याद दिलाई जाती रहनी चाहिए कि हम तो रामलीला मैदान जाना चाहते हैं, दिल्ली के बॉर्डर्स तो सरकार ने ब्लॉक किये हुए हैं| बल्कि मुख्य स्टेजों के फ्लेक्सों पर यह बात स्थाई तौर से लिखवा दी जाए तो और भी बेहतर|
2) डरावा नंबर 2: हर किसान जत्थेबंदी अपने-अपने फैलाव के गामों से "ग्राम-सभाओं" में इन 3 कृषि कानूनों के विरुद्ध व् MSP गारंटी कानून के पक्ष में रेसोलुशन की 3-3 कॉपियां पास करवा के, एक उस जिले के डीसी को सौंपें, एक स्टेट के मुख्यमंत्री को व् एक सिंघु बॉर्डर किसान आंदोलन के हेडक्वार्टर पर भिजवा देवें| इन कॉपियों को फिर संयुक्त मोर्चा लीगल सेल सुप्रीम कोर्ट में पेश कर दे| इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा तो सरकार से ले सुप्रीम कोर्ट नैतिक प्रेशर में रहेगा क्योंकि "ग्राम-सभा" में पास रेसोलुशन की ताकत इतनी है कि राष्ट्रपति भी उसको यूं ख़ारिज नहीं कर सकता|
3) डरावा नंबर 3: जिस किसी भी धर्म की धार्मिक गुरुद्वारा-मस्जिद-चर्च-मठ-संस्थाएं-संघ-संगठन इस आंदोलन को सपोर्ट नहीं कर रहे या लंगर-दावत-भंडारा तक में सहयोग नहीं कर रहे, उनको बार-बार कॉल देती जाती रहे| इसको योगदान व् समर्थन नहीं माना जा सकता कि किसी धार्मिक संस्था या हस्ती ने ट्रैक्टर्स के बैनर्स पर अपनी फोटो लगवा दी और हो गया योगदान; बाकायदा उनके खजाने के खर्चे से, उनकी खुद की टीमें आ के लंगर लगावें; जैसे गुरूद्वारे व् मस्जिदों वाले लगा रहे हैं| इससे और कुछ ज्यादा नहीं भी होगा तो इनको अंदर से आत्मा सालती रहेगी कि कितने दुष्ट-बेगैरत-कृतघ्न हो तुम कि ताउम्र जिस अन्न-उत्पादक (इन्हीं की भाषा में अन्नदाता) के यहाँ से तुम्हें सबसे ज्यादा दान-चढ़ावे मिलते हैं, मुसीबत की घड़ी में उसी के साथ नहीं खड़े| इनको ऐसे पल्ला मत झाड़ने दो, वरना बर्बाद कर देंगे यह नश्ल की नश्लों को|
4) डरावा नंबर 4: किसान धरनों के जयकारों में अब बाबा टिकैत के नारों को वापिस लौटवाईये व् यह तीनों नारे एक साथ लगाईये-लगवाईये: हर-हर महादेव, अल्लाह-हू-अकबर, जो बोले सो निहाल, शत-श्री-अकाल| तब जा के मनोवैज्ञानिक रूप से कांपेंगे ये| आपके अपने पुरखों के दुरुस्त आजमाए हुए अकाट्य फार्मूला हैं ये, इनको दागिए इन पर|
5) डरावा नंबर 5: अडानी-अम्बानी कॉर्पोरेट के साथ-साथ जो भी अख़बार-टीवी-फ़िल्मी हस्ती - खिलाडी आदि किसान आंदोलन के खिलाफ कोई टिप्पणी करे या सही खबरें ना दिखावे; उनको घोषित बॉयकॉट घोषित कीजिये| इसमें आप यह सोच के ढील देते होंगे कि क्या फर्क पड़ता है बोलते रहेंगे, डेमोक्रेसी है; सही बात है परन्तु इसी डेमोक्रेसी में यह भी कहावत चलती है कि, "अगला शर्मांदा भीतर बढ़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया"| इसलिए इनका डेमोक्रेटिक तरीके से ही बोल के प्रतिकार करना, आर्थिक मार से प्रतिकार करना भी उतना ही डेमोक्रेटिक है जितना कि इनका किसान से पक्षपात करना|
6) डरावा नंबर 6: किसानों के ऐतिहासिक आंदोलनों की गाथाएं मंचों से चलवाईये; फिर चाहे वह खालसा व् मिसलों के संघर्ष की हों या सर्वखाप (खाप/पाल) की किसान क्रांतियों के किस्से हों| सर्वखाप, फंडी के लिए बहुत बड़ा मनोवैज्ञानिक एंटी-वायरस है जिसका कि मात्र नाम सुनते ही फंडी को सुनपात होने लगता है| जब इनको धरना स्थलों की स्टेजों से इनके किस्से कथाओं-कहानियों-गानों-गीतों के रूप में सुनाई देंगे तो इनके कानों में रहद पड़ जाएगी व् बुद्धि चक्र जाएगी| इसलिए यह साइकोलॉजिकल मार मारिये इनको व् इन किस्सों को न्यूनतम सुबह-शाम दो बार रोज शुरू करवाइए|
7) डरावा नंबर 7: जिस-जिस भी राज्य में नजदीकी वक्त में विधानसभा चुनाव, जिला-परिषद या ग्राम-पंचायत चुनाव होने हैं; वहां-वहां किसान यूनियनों को किसानों को अपनी मांगों बारे जागरूकता अभियान युद्धस्तर पर चलवाइए व् सरकार के अड़ियल रवैये से अवगत करवाइये| इस मुहीम में लोकल सामाजिक संस्थाओं जैसे कि पंजाब में खालसा-मिसल, हरयाणा-दिल्ली-वेस्ट यूपी-उत्तराखंड-राजस्थान आदि में खाप/पाल की मदद भी ली जा सकती है|
8) डरावा नंबर 8: न्यूनतम 3 दिन में सिंघु बॉर्डर पर 40 के 40 किसान अग्गुओं का मिलना व् मिल बैठ के मंत्रणा करना आवश्यक किया जाए व् सयुंक्त किसान मोर्चा की प्रेस कांफ्रेंस में आपकी एकता का प्रदर्शन संख्याबल व् शब्दबल दोनों प्रकार से दिखाया जाता रहना चाहिए| किसान लीडरों के लोकल कार्यक्रमों की सूची भी सिर्फ यहीं से जारी हो, एक अकेला कोई भी नेता अपने कार्यक्रम खुद से घोषित ना करे भले ही उसके निर्णय संयुक्त किसान मोर्चा से मंजूरी के ही क्यों ना हों|
9) डरावा नंबर 9: किसी भी निर्वाचित MLA, MP, राजनैतिक पार्टी, हस्ती (सरकार के पक्ष-विपक्ष दोनों), किसी भी पार्टी के कार्यकर्ता के कार्यक्रमों में किसी भी किसान लीडर को ना जाने दिया जाए|
10) डरावा नंबर 10: बेशक आप अक्टूबर तक की स्ट्रेटेजी बना के रखें परन्तु सरकार पर समय का प्रेशर जरूर बना के रखें कि जल्द-से-जल्द निबटारे पे आवे| क्योंकि इनको यूँ वक्त की ढील दोगे तो यहाँ सुप्रीम कोर्ट तक सालों-साल निबटारे करके नहीं देता, उसी की संवेदनशीलता इतने घटिया लेवल की है तो सरकार में तो अव्वल दर्जे के निखट्टू बैठे हैं| इसलिए इनको समय की ढिलाई ना देवें, एक जायज व् तयबद्ध वक्त में निबटारा करवाने का दबाव जरूर होना चाहिए| क्योंकि जब इन कानूनों को बनाते वक्त सिर्फ 2 महीने लगे व् लागू करते वक्त 2 दिन तो जब लाखों-लाख किसान सड़कों पर बैठे हों तो स्पेशल सेशंस से निबटारे क्यों नहीं हो सकते? एक तरफ तो यह आंदोलन के बढ़ने से देश-धर्म की सम्प्रभुता के खतरे की पीपनी बजाते यहीं और दूसरी तरफ इतनी असंवेदनहीनता कि जैसे कानों पर जूं ही नहीं रेंग रही| यह गैर-जरूरी देरी ना आंदोलन की सेहत के लिए अच्छी ना देश के लिए| अत: कहिये कि बेशक दिन-रात चर्चाएं करवाएं, हम तैयार हैं| चर्चाएं करवाएं व् साथ यह डरावा भी बना के रखें कि कानून लोकसभा-राज्यसभा में ही रद्द करने होंगे व् MSP गारंटी कानून भी वहीँ से बना के देना होगा, कोई कमेटी बना देने या राजपत्र पर लिख के देने भर से आंदोलन खत्म नहीं होगा|
ये इतने साधारण लोग नहीं हैं, यह "चमड़ी जाए पर दमड़ी ना जाए" वाले लोग हैं; पैसे के आगे राष्ट्रभक्ति नहीं लगती इनकी फूफी भी| इसलिए इनको साइकोलॉजिकल प्रेशर हेतु ऊपरलिखित डरावे खड़े किये रखने होंगे, तभी जायज समय में कुछ देंगे ये| वरना तो यह भी मत भूलिए कि इनके पीछे जो सोच इनको पोषित करती है वह वर्णवाद वाली नीचतम अलगाववाद व् नश्लवाद के लोगों की है, उनको फर्क नहीं पड़ता कि आप यहाँ 10 महीने बैठो या 10 साल|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक
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