Sunday, 28 March 2021

भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का!

भाभियों बिना क्या रंग-चा फाग का,

भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी जो हमारे घर की मूरत है,
घर हमारे की उनसे जन्नत सूरत है|
कोरड़े तो बेचारी से जैसे लगते ही नहीं,
हाथ ऐसे मुड़ते हैं जैसे चलते ही नहीं||
पर इसके पीछे ध्यान देवर का, ज्यूं बेटा भाग का,
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी होती थी खुंखार बड़ी,
फागण आते ही हो जाती विकराल बड़ी!
ले कोरड़ा हाथ, क्या खाल उतारती थी,
छंट जाते सब पानी ज्यूँ, जब ललकारती थी||
ना हुआ कोई सामी, जो उसके आगे टाड ग्या|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी तो थी इतनी मसीह,
उससे ना देवर का दुःख जा सही|
कोरड़े तक भी ऐसे सालती थी,
देवर की खाल नहीं, आरती उतारती थी||
मुलायम देखा दिल बहुत, पर उस भाभी से टाळ का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी कहने को गाँव तिहाड़ की थी,
पर उसके कोरड़ों में मार से ज्यादा बाड़ सी थी|
सबसे बड़ी भाभी वो मेरे घर-परिवार की थी,
उसके कोरडों की मार भी पुचकार सी थी||
वो समां मुड़ आ जाए, बचपना स्वांग का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
एक भाभी अजायब वाली, धमकते सूरज सी छवि निराली,
पूरा फागण कोरड़ा संग रखती, घर-कुआँ या खेत-खलिहानी|
खो गया वो बचपन सारा, पहन दामण पुरुषों की रेल बनानी,
फुल्ले भगत तड़पत है, हुई बंद शीशों में जिंदगानी||
भाभियों को सलाम पहुंचे, लिल्ल बैठे इस ढाक का|
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
भाभियों बिना क्या त्यौहार फाग का,
भाभियाँ तो होती हैं श्रृंगार फाग का|
लेखक: फूल मलिक

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