अक्सर सर्वसमाज के फंडियों के (सनद रहे सर्वसमाज लिखा है, कोई समाज या जाति विशेष नहीं) विरुद्ध रहने के चलते लोग मुझे यह मान लेते हैं कि यह तो ढोंग-पाखंड-आडंबर आदि के नहीं अपितु किसी जाति विशेष के ही खिलाफ है| अब इसमें या तो दोष ऐसे समाज का जो इन बातों का पर्याय माना जाता हो या समझने वाले की सोच ऐसी, वरना मैं सिर्फ फंड व् फंडी पर आक्रामक रहता हूँ| और इसमें मेरा कोई कसूर नहीं क्योंकि बचपन से मेरे सगे दादा से ले सारे चचेरे दादाओं, पड़दादाओं को फंडियों की रेल बनाते देखा है वो भी पिण्डियों पे लठ-कामची मार-मार के और बस इसीलिए इस फंडी शब्द से तो ऐसा बैर है जैसा बाजी-बाजी भैंस-गाय को लाल लत्ते से होता है| चलिए, आज के विषय पर आते हैं|
अपने कल्चर के मूल्यांकन का अधिकार दूसरों को मत लेने दो अर्थात अपने आईडिया, अपनी सभ्यता और अपने कल्चर के खसम बनो, जमाई नहीं!
Friday, 30 April 2021
ब्राह्मण समाज की ऐसी बातों से सीखना चाहिए!
आईये जानते हैं जिंद (जींद शहर) के नाम, रियासत-बसासत, फैलाव व् इसकी सम्पदा बारे!
पोस्ट में सलंगित यूट्यूब के गाने, "जिंद ले गया वो दिल का जानी, ये बुत बेजान रह गया" में जिंद का जो मतलब है वही मेरे होमटाउन जिंद यानि जींद का मतलब है|
जमींदारी आस्था के समक्ष मनुस्मृति का विश्लेषण!
पुस्तक संस्करण: 1917 में पंडित गिरिजाप्रसाद द्विवेदी द्वारा हिंदी में अनुवादित|
अध्याय 1:
1) पृष्ठ 2 - उत्पत्ति से पूर्व संसार अंधकारमय था| - तथ्यात्मक बात नहीं है, मान लिया गया है| इस पर आजतक कुछ तथ्यात्मक सिद्द हुआ हो तो जरूर जानना चाहिए|
2) पृष्ठ 3 - ब्रह्मा ने संसार के तीन टुकड़े किये, धरती, आकाश व् स्वर्ग| - इसकी संभावना पर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसा किस विज्ञानं के तहत सम्भव है?
3) पृष्ठ 4 - किसान-जमींदार जिसको प्रकृति कहता है उसको मनुस्मृति परमात्मा कहती है| - क्या यहाँ किसान-जमींदार को इस शब्द का क्रेडिट नहीं देना चाहिए था? आखिर जब यह वार्तालाप हो रही है उस वक्त सब अन्न-फल तो खा ही रहे होंगे, तभी बैठ के यह बातें कर रहे होंगे? क्योंकि डार्विन की "इंसान से पहले बंदर" वाली थ्योरी यहाँ विरोधाभाष भी खड़ा करती है|
अहंकार व् पंचभूतों द्वारा ब्रह्मा की बनाई मूर्ती को शरीर कहते हैं| - यहाँ इंसान के पैदा होने की प्राकृतिक जनन प्रक्रिया के साथ इस बात का कड़ा विरोधभास है| आखिर बिना मर्द-औरत के अकेला पुरुष शरीर कैसे बना सकता है?
4) पृष्ठ 8 - ब्रह्मा यानि परमात्मा ने ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र पैदा किये| - डार्विन कहता है पहले इंसान पहले बंदर थे और मनुस्मृति कहती है कि नहीं सीधे इंसान बनाये गए? यह तथ्य इस बात के विरोधाभाष का भी है कि वर्ण जन्म से नहीं अपितु कर्म से निर्धारित होते हैं| क्योंकि मनुस्मृति का यह पृष्ठ साफ़ कह रहा है कि मनुष्य का वर्ण जन्म से ही निर्धारित होता है कर्म से नहीं| ज्ञानी-विद्वानों का हस्तक्षेप चाहूंगा इस बिंदु पर, जो इस पर अन्यथा स्पष्टीकरण रखता हो कृपया सामने रखे|
5) पृष्ठ 13, प्रथम पहरा - प्रजापति ने सृष्टि के पूर्व इस धर्मशास्त्र को बनाकर मेरे को उपदेश दिया| - क्या ऐसा सम्भव है कि मनु के अनुसार ही जब सृष्टि बनी ही नहीं थी, उस वक्त यह धर्मशास्त्र बना लिया गया?
द्वितीय पहरा - स्वायम्भुव मनु के वंश में छह मनु और हैं| - स्वायम्भुव शब्द तो नकारात्मक शब्द हुआ ना? यानी धक्काशाही जो करे वह स्वायम्भुव कहलाता है, नहीं? तो क्या मनु खुद को स्वायम्भुव बता रहे हैं?अध्याय प्रथम, पृष्ठ 18, प्रथम पहरा - पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, यह छह कर्म ब्राह्मण के हैं| प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और इन्द्रियों के विषयों में न फंसना, यह क्षत्रियों के कर्म हैं| पशुओं को पालना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना , ब्याज लेना और खेती करना, यह सब काम वैश्य के हैं| परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बतलाया है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की भक्ति से सेवा करना|
इससे कई बातें और कई सवाल निकलते हैं:
1) यानि इसके अनुसार सिर्फ व्यापर करने वाले ही नहीं अपितु खेती और पशुपालन करने वाले जाट-यादव-गुज्जर आदि भी वैश्य हैं| तो पहले झटके तो जो बहुत से जाट-यादव-गुज्जर को शूद्र-शूद्र चिल्लाते रहते हैं, वह अपने तथ्य ठीक कर लें, यह सब शूद्र नहीं अपितु न्यूनतम वैश्य हैं| दूसरा शासक वर्ग होने की वजह से यह क्षत्रिय भी हैं| और तीसरा जाट को तो खुद महर्षि दयानन्द जैसे ब्राह्मण "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते हैं यानि खुद से ऊपर ही मानते होंगे जाट को तभी "जी" लगा के लिखा| यानि शूद्र का कांसेप्ट जाट-गुज्जर-यादव जैसी जातियां अपने ऊपर से आज के बाद हटा लें|
2) दूसरा तथ्य यह निकलता है कि शूद्र कौन है? यह मैं नहीं जानता कि मनुस्मृति ने शूद्र किसको कहा| वह आप खुद निर्धारित कर लें|
6) पृष्ठ 18, प्रथम पहरा - पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना, दान लेना, यह छह कर्म ब्राह्मण के हैं| प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और इन्द्रियों के विषयों में न फंसना, यह क्षत्रियों के कर्म हैं| पशुओं को पालना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना, व्यापार करना , ब्याज लेना और खेती करना, यह सब काम वैश्य के हैं| परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बतलाया है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की भक्ति से सेवा करना|
इससे कई बातें और कई सवाल निकलते हैं:
यानि इसके अनुसार सिर्फ व्यापर करने वाले ही नहीं अपितु खेती और पशुपालन करने वाले जाट-यादव-गुज्जर आदि भी वैश्य हैं| तो पहले झटके तो जो बहुत से जाट-यादव-गुज्जर को शूद्र-शूद्र चिल्लाते रहते हैं, वह अपने तथ्य ठीक कर लें, यह सब शूद्र नहीं अपितु न्यूनतम वैश्य हैं| दूसरा शासक वर्ग होने की वजह से यह क्षत्रिय भी हैं| और तीसरा जाट को तो खुद महर्षि दयानन्द जैसे ब्राह्मण "जाट जी" व् "जाट देवता" लिखते हैं यानि खुद से ऊपर ही मानते होंगे जाट को तभी "जी" लगा के लिखा| यानि शूद्र का कांसेप्ट जाट-गुज्जर-यादव जैसी जातियां अपने ऊपर से आज के बाद हटा लें|
दूसरा तथ्य यह निकलता है कि शूद्र कौन है? यह मैं नहीं जानता कि मनुस्मृति ने शूद्र किसको कहा| वह आप खुद निर्धारित कर लें|
"परमात्मा ने शूद्रों का एक ही काम बतलाया है - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की भक्ति से सेवा करना|" - मुझे यह पंक्ति बड़ी विचलित कर रही है| क्या आपको लगता है परमात्मा यानि भगवान ऐसे भेदभाव वाले कृत्य करेंगे? परन्तु यह पुस्तक तो कम से कम यही कह रही है|
जैसे कि अध्याय एक के अध्ययन से निम्नलिखित ऐसी बातें सामने आई जो समाज में मनुस्मृति के बिलकुल विपरीत प्रसारित है: 1) मनुस्मृति इंसान का वर्ण कर्म से नहीं अपितु जन्म से निर्धारित कर देती है| 2) किसान और पशुपालक शूद्र नहीं वैश्य वर्ण में आते हैं| 3) जमींदार जिसको प्रकृति कहता है मनुस्मृति उसको परमात्मा कहती है व् दो अन्य 1) ब्रह्मा ने अप्राकृत जनन प्रक्रिया यानि बिना औरत के ही चार वर्णों के प्रथम-पुरुषों को स्वयं ही जना है, परन्तु उन प्रथम चार पुरुषों के नाम नहीं बता रखे| 2) शूद्र सिर्फ ऊपर वाले तीन वर्णों की सेवा-दासत्व के लिए बना है|
अध्याय 2:
पृष्ठ 24, प्रथम पहरा: "संसार में कोई काम बिना इच्छा के होते नहीं देखा गया|" सब कामों का मूल संकल्प है, संकल्प यानि कर्म की इच्छा-आकांक्षा-संकल्प के बिना कोई कर्म हो ही नहीं सकता| - जबकि गीता कहती है कि कर्म की इच्छा मत करो, इष्टफल की चिंता-अभिलाषा बिलकुल नहीं करनी है| अब किसकी मानी जाए, मनुस्मृति की या गीता की या फिर अपने पुरखों की?
तृतीय पहरा: जो पुरुष वेद और स्मृतियों में कहे धर्मों का पालन करता है, वह संसार में कीर्ति पाकर, परलोक में अक्षय सुख पाता है| - यह पंक्ति आगे के अध्यायों के लिए याद कर लीजिये, इसका जिक्र तब करेंगे जब कहीं ऐसा जिक्र आएगा कि कौन इनको पढ़ सकता है और कौन नहीं|
पृष्ठ 25 प्रथम पहरा: धर्मशास्त्र निर्विवाद, तर्क-कुतर्क से रहित हैं| कुतर्कों से इनकी निंदा करने वाले को शिष्टसमाज से निकाल देना चाहिए| - अकेली रामायण के विश्व में 300 से अधिक वर्जन हैं, उदाहरणार्थ बाल्मीकि की रामायण, तुलसीदास की रामायण आदि-आदि| इनमें से तो किसी को शिष्टसमाज से निकाला नहीं दिया गया और ना यह बताया गया कि तुलसी वाली पढ़ो या बाल्मीकि वाली? और ऐसे करते करते एक दूसरे से आशिंक या पूर्णत: असहमत होते हुए 300 वर्जन बन चुके रामायण के, परन्तु क्या कभी किसी पर कोई एक्शन हुआ? कृपया किसी को जानकारी हो तो जरूर बतावें|
द्वितीय पहरा: जो पुरुष, अर्थ-प्रयोजन, काम-अभिलाष में नहीं फंसे हैं उनको धर्म-ज्ञान होता है| - है कोई बाबा-संत-साधु जो इस परिभाषा को पूरी करता हो? और नहीं है तो इनको धर्मपालन नहीं करने पर किसी सजा, अनुशासन में रखने या सुधारने का विधान क्या है?
अध्याय 2, पृष्ठ 29: ब्राह्मण का नाम मंगलवाचक, क्षत्रिय का नाम थलवाचक, वैश्य का नाम धनयुक्त और शूद्र का नाम दासयुक्त होना चाहिए| - यहां उन विद्वानों से सवाल है जो यह कहते हैं कि मनुस्मृति या गुरुकुल परम्परा में ऋषि यानि अध्यापक बच्चे की शिक्षा पूरी होने पर उसके गुण-कर्म के आधार पर उसका वर्ण निर्धारित करते हैं? क्या बच्चे के नामकरण के वक्त उसकी आयु इतनी होती है कि उसकी भी शिक्षा पूरी हो चुकी होती है? अत: सिद्ध है कि मनुस्मृति व् सनातन धर्म में आपका वर्ण जन्म से निर्धारित होता है ना कि गुण-कर्म से| पहले अध्याय के बाद यह दूसरा तथ्य है जो इस बात को पुनर्स्थापित करता है|
अध्याय 2, पृष्ठ 30: वेदाध्यन और उसके अर्थज्ञान से बढ़ा तेज ब्रह्मवर्चस है| उसकी इच्छावाले ब्राह्मण का पांचवें वर्ष, बलार्थी क्षत्रिय का छठे वरह, धनी होना चाहने वाले वैश्य का आठवें वर्ष यज्ञोपवीत संस्कार करें|- यानि फिर से साबित होता है कि आपका वर्ण कर्म-गुण से नहीं जन्म से निर्धारित होता है|
अध्याय 2, पृष्ठ 31, प्रथम पहरा: कृष्णमृग, रुरुमृग और अज इनसे चरम को कर्म से तीनों वर्ण के ब्रह्मचारी धारण करें और सन, क्षौम (अलसी) और उन का वस्त्र धारण करें| - लीजिये फिर से सिद्ध हो गया कि आपका वर्ण जन्म से निर्धारित हो चुका है, जरा पुछवाईये उनसे जो कहते हैं कि मनुस्मृति या हिन्दू धर्म आदमी का वर्ण जन्म की बजाये कर्म से निर्धारित करते हैं? और शूद्र का तो इन चीजों में स्थान ही नहीं है|
अध्याय 2, पृष्ठ 31, द्वितीय पहरा: ब्राह्मण का यज्ञोपवीत (जनेऊ-धारण यही होता है ना मेरे ख्याल से, कृपया पाठक में कोई कन्फर्म करे) सूत का, क्षत्रिय का सन का और वैश्य का भेद की ऊन का बंटा हुआ तीन लर का होना चाहिए| - इसमें भी आपका वर्ण जन्म से निर्धारित होना साबित होता है, कर्म से नहीं| और शूद्र इसमें भी गायब है|
अध्याय 2, पृष्ठ 34, प्रथम पहरा: इसमें आचमन प्रक्रिया में भी भेद है| यह कहता है कि आचमन जल हृदय तक पहुँच जाने से ब्राह्मण, गले तक क्षत्रिय, मुख गीला होने से वैश्य और शूद्र तो होंठ स्पर्श करने से ही पवित्र हो जाता है|
अध्याय 2, पृष्ठ 35, प्रथम पहरा, द्वितीय पंक्ति: स्त्रियों के केशान्त संस्कार के वक्त वेदमन्त्रोच्चारण नहीं होना चाहिए| विवाह-संस्कार ही स्त्रियों का उपनयन संस्कार है, पतिसेवा ही गुरुकुल वास है, घर का काम-काज ही हवनकर्म है| - स्त्री के बारे मनुस्मृति की इस सोच का विश्लेषण पाठक के लिए छोड़ा जाता है|
अध्याय 4, पृष्ठ 39 व् 40 का निचोड़: 11 इन्द्रियों यानि पांच ज्ञानेन्द्रियों (कान, आँख, नाक, जीभ व् खाल), पांच कर्मेन्द्रियों यानि (गुदा, मूतेन्द्रिय, हाथ, पैर व् वाणी) और ग्यारवहिं मन| पहली दसों को ग्यारहवें मन को रथ के सारथी की भांति काबू रखना चाहिए| मन को इन्द्रियों के विषय यानि काम, वासना आदि को भोगने की इच्छा में छोड़ देने से यह विषय उसी तरह कभी भी शांत नहीं होते जैसे आग में घी डालने से आग शांत नहीं होती| इसलिए इनका उत्तम उपाय है इन विषयों का मन के जरिये किये जाने से त्याग| - यही अब तक के ४० पन्नों के अध्ययन में सबसे काम की बात लगी, परन्तु इसको बताते हुए भी मन तब खट्टा हो जाता है; जब ऊपर की लय में पढ़ी हुई चीजें वर्ण के आधार पर करने में भी भेद है|
द्वितीय अध्याय के 29 से 40 पन्नों में यही सवाल बिंदु ख़ास लगे, जिन पर सार्वजनिक चर्चा होनी चाहिए| मैंने इनको गलत ना समझा हो और गलत अर्थ ना निकाला हो इसलिए इन पन्नों की प्रतिकोपी पोस्ट के साथ सलंगित कर रहा हूँ|
पृष्ठ 47, पहरा 1 - दस वर्ष के ब्राह्मण को, सौ वर्ष का क्षत्रिय भी पिता माने और अपने को पुत्र माने| - यानि राजपूत क्षत्रिय 100 वर्ष का भी हो तो उसको १० वर्ष के ब्राह्मण को भी पिता कहना चाहिए|
पृष्ठ 48, पहरा 1, पंक्ति 6 - आचार्य उपाध्याय से दशगुणा, पिता आचार्य से सौ गुना और माता पिता से 1000 गुना अधिक पूज्य है| - यानि सामान्यत: जो गुरु-माता-पिता का बराबरी से सम्मान करने की बात सिखाई जाती है वह गलत है या यह सही?
मेरे द्वारा किये आंकलन व् विश्लेषण में कुछ गलती हुई होगी तो मैं उसको संज्ञान करवाते ही ठीक करने को तत्पर रहूँगा|
उद्घोषणा: इन ग्रंथों के पठन-पाठन-विश्लेषण के जरिये मेरा मकसद किसी की आलोचना करना नहीं है और ना ही पाठकों को इन किताबों या मेरे विश्लेषणों में अपने फिट ढूंढने की जरूरत अपितु सिर्फ इतना मकसद है कि जमींदारी मान-मान्यताओं के मेल का इन पुस्तकों में क्या और कितना जिक्र है और उसका क्रेडिट इन्होनें जमींदारों को दिया है या नहीं| और जो इन पुस्तकों के हवाले से समाज में फैलाया हुआ है वह कितना सच है और कितना झूठ|
फूल मलिक