यूपी-पंजाब-उत्तराखंड फंडी हारे या जीते, परन्तु फंडियों के संघठन का समाज में तोड़फोड़ मचाए रखने का अगला एजेंडा तैयार है| अगर हारे तो यह एजेंडा पूरे देश में आजमाया जाएगा, अगर जीते तो इसकी सबसे पहली प्रयोगशाला हरयाणा को बनाया जाएगा| जिसके कि लिटमस-टेस्ट शुरू भी किए जा चुके हैं|
और इसमें ख़ास टारगेट पर हैं खाप पंचायतों के चौधरी| चौधरियों के बोले एक-एक शब्द में विवाद तलशवाये जा रहे हैं|
2024 के चुनाव आने तक फंडियों के संघठन से जुडी सारी फंडी बिरादरियों को, हरयाणा में 35 बनाम 1 लगभग खत्म होने की कगार पर पहुँचने के बाद (किसान आंदोलन की बदौलत), व् राष्ट्रीय स्तर पर "हिन्दू-मुस्लिम" मृतपर्याय (यूपी इलेक्शन इसको साबित कर रहे हैं) होने के बाद, अब आजमाया जाना है "भूमिहीन बनाम भूमिवान"| ध्यान से पढ़िए, "मंदिरहीन बनाम मंदिरवान" या "फ़ैक्टरीहीन बनाम फ़ैक्टरीवान" नहीं अपितु "भूमिहीन बनाम भूमिवान"|
और इनके इस एजेंडा की काट इसी फार्मूला में छुपी है| इससे पहले यह "भूमिहीन बनाम भूमिवान" को इतना विशाल बना दें कि भूमिवान फिर हाथ मलने के अलावा कुछ ना कर सकें; भूमिवानों को 3 पहलुओं को ले कर भूमिहीनों को स्पष्ट करने की मुहिमें चलानी होंगी|
मुहीम एक: वर्णवाद के चलते मंदिरों में वर्ग-विशेषों का कब्जा क्यों है? समाज के पैसे से यह बनते हैं परन्तु इनकी कमाई सर्वसमाज की बजाए वर्ग विशेष ही क्यों खाता है? उसपे वर्ण के नाम पर इनमें सबसे ज्यादा नश्लीय शोषण दलित व् पिछड़े का क्यों है? भूमिवानों को फंडियों द्वारा समाज में फैलाई इस असमानता पर वक्त रहते; गाम-गाम बातें कर, दलित-पिछड़ों को मंदिरों में उनके प्रतिनिधित्व की बात उठानी होगी| अन्यथा फंडी तो फिर भूमिवानों को घेरने निकल ही चुका है| जो कि दोहरे तौर से अन्यायसंगत है; एक तौर पर यह नश्लवाद यानि वर्णवाद फैलाएंगे; दूसरे तौर पर "नेक कमाई व् अथक मेहनत (दान नहीं) से भूमि जोड़ने वाले यानि भूमिवानों के लिए मुसीबतें खड़ी करेंगे|
मुहीम दो: भूमिहीनों को यह कह के भूमिवानों के खिलाफ भड़काया जा रहा है कि तुम जमीनों पे मजदूर ही क्यों? और इसमें फंडियों की व्यापारी बिरादरी नीचे-नीचे सबसे ज्यादा आग लगा रही है| किसी को यह बात टेस्ट करनी है तो भूमिहीन तबके का बन के किसी फंडी की दुकान पर इसके इर्दगिर्द बात करके चेक कर ले| इस पर भूमिवानों को चाहिए होगा कि वह इनकी बातों में आने वालों में प्रचारित करवाएं कि मजदूर तो फैक्ट्री व् दुकान में भी होते हैं तो क्या करेंगे फैक्टरियों वाले फैक्टरियों में मजदूरों की मलकियत या हिस्सेदारी? खेती की मजदूरी से तो ज्यादातर आसान व् आरामदायक ही होती है फैक्ट्री की मजदूरी (फिर चाहे वह मैनेजर की पोस्ट पे बैठा मजदूर हो या सबसे नीचे स्तर वाला तकनीशियन या दिहाड़ीदार)?
मुहीम तीन (पहले दो से भी जरूरी): प्रचारित करवाया जाए कि कैसे भूमिवानों के पुरखों ने अपनी मेहनत से जमीनें कमाई हैं| व् मुग़ल रहे या अंग्रेज या आज वाले; हर जमाने में इन जमीनों के टैक्स, खिराज, मालदरखास सब भरी हैं; तब जमीनें थमीं हैं| साथ ही यह भी बताएं कि सबसे ज्यादा भूमिहीनों में जमीनें भी सर छोटूराम सरीखे लोगों ने बंटवाई हैं, 100-100 गज के प्लॉट पंचयती जमीनों पे दिए हैं (फंडियों की सरकार ने बाँटें क्या कभी?)| व् जब-जब इतिहास में भूमिहीनों को जमीनें देने पर सरकार की पॉलिसियाँ बनी, भूमिवानों ने हमेशा उनका समर्थन किया है| उदाहरण के तौर पर 1980 के दशक में एक पालिसी आई थी भूमिहीनों को किसान-जमींदार बनाने की, जिसके तहत पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी के हर गाम में बहुत से दलित परिवारों में प्रति-परिवार पौने-दो एकड़ जमीन दी गई थी| इस पालिसी के तहत लेखक के गाम में 84 किल्ले धरती आवंटित हुई थी| कभी इसका विरोध नहीं किया किसी ने|
गाम-गाम गेल "धरती-उत्सव", "उदारवादी जमींदारी उत्सव" करवाइए; इनसे भला होगा भूमिवानों का, ना कि फंडियों के बताए उत्त्सवों से|
अब इस नए एजेंडा के जरिए ऐसी भूमिवान जातियां फिर से फंडियों के निशाने पर हैं, जिन्होनें हमेशा अपने सीरी-साझियों के ब्याह-वाणे तक ओटने के भाईचारे निभाए| इसलिए सावधान हो जाईए; वरना नर-पिसाच फिर आ लिए हैं|
जय यौधेय! - फूल मलिक