Tuesday, 25 January 2022

सावधान: हिन्दू-मुस्लिम फ़ैल होने के बाद, भूमिहीन जातियों को भूमिवान जातियों के खिलाफ भिड़ाने की साजिश पर फंडियों का संघठन दिन-रात काम कर रहा है!

यूपी-पंजाब-उत्तराखंड फंडी हारे या जीते, परन्तु फंडियों के संघठन का समाज में तोड़फोड़ मचाए रखने का अगला एजेंडा तैयार है| अगर हारे तो यह एजेंडा पूरे देश में आजमाया जाएगा, अगर जीते तो इसकी सबसे पहली प्रयोगशाला हरयाणा को बनाया जाएगा| जिसके कि लिटमस-टेस्ट शुरू भी किए जा चुके हैं|


और इसमें ख़ास टारगेट पर हैं खाप पंचायतों के चौधरी| चौधरियों के बोले एक-एक शब्द में विवाद तलशवाये जा रहे हैं|

2024 के चुनाव आने तक फंडियों के संघठन से जुडी सारी फंडी बिरादरियों को, हरयाणा में 35 बनाम 1 लगभग खत्म होने की कगार पर पहुँचने के बाद (किसान आंदोलन की बदौलत), व् राष्ट्रीय स्तर पर "हिन्दू-मुस्लिम" मृतपर्याय (यूपी इलेक्शन इसको साबित कर रहे हैं) होने के बाद, अब आजमाया जाना है "भूमिहीन बनाम भूमिवान"| ध्यान से पढ़िए, "मंदिरहीन बनाम मंदिरवान" या "फ़ैक्टरीहीन बनाम फ़ैक्टरीवान" नहीं अपितु "भूमिहीन बनाम भूमिवान"|

और इनके इस एजेंडा की काट इसी फार्मूला में छुपी है| इससे पहले यह "भूमिहीन बनाम भूमिवान" को इतना विशाल बना दें कि भूमिवान फिर हाथ मलने के अलावा कुछ ना कर सकें; भूमिवानों को 3 पहलुओं को ले कर भूमिहीनों को स्पष्ट करने की मुहिमें चलानी होंगी|

मुहीम एक: वर्णवाद के चलते मंदिरों में वर्ग-विशेषों का कब्जा क्यों है? समाज के पैसे से यह बनते हैं परन्तु इनकी कमाई सर्वसमाज की बजाए वर्ग विशेष ही क्यों खाता है? उसपे वर्ण के नाम पर इनमें सबसे ज्यादा नश्लीय शोषण दलित व् पिछड़े का क्यों है? भूमिवानों को फंडियों द्वारा समाज में फैलाई इस असमानता पर वक्त रहते; गाम-गाम बातें कर, दलित-पिछड़ों को मंदिरों में उनके प्रतिनिधित्व की बात उठानी होगी| अन्यथा फंडी तो फिर भूमिवानों को घेरने निकल ही चुका है| जो कि दोहरे तौर से अन्यायसंगत है; एक तौर पर यह नश्लवाद यानि वर्णवाद फैलाएंगे; दूसरे तौर पर "नेक कमाई व् अथक मेहनत (दान नहीं) से भूमि जोड़ने वाले यानि भूमिवानों के लिए मुसीबतें खड़ी करेंगे|

मुहीम दो: भूमिहीनों को यह कह के भूमिवानों के खिलाफ भड़काया जा रहा है कि तुम जमीनों पे मजदूर ही क्यों? और इसमें फंडियों की व्यापारी बिरादरी नीचे-नीचे सबसे ज्यादा आग लगा रही है| किसी को यह बात टेस्ट करनी है तो भूमिहीन तबके का बन के किसी फंडी की दुकान पर इसके इर्दगिर्द बात करके चेक कर ले| इस पर भूमिवानों को चाहिए होगा कि वह इनकी बातों में आने वालों में प्रचारित करवाएं कि मजदूर तो फैक्ट्री व् दुकान में भी होते हैं तो क्या करेंगे फैक्टरियों वाले फैक्टरियों में मजदूरों की मलकियत या हिस्सेदारी? खेती की मजदूरी से तो ज्यादातर आसान व् आरामदायक ही होती है फैक्ट्री की मजदूरी (फिर चाहे वह मैनेजर की पोस्ट पे बैठा मजदूर हो या सबसे नीचे स्तर वाला तकनीशियन या दिहाड़ीदार)?

मुहीम तीन (पहले दो से भी जरूरी): प्रचारित करवाया जाए कि कैसे भूमिवानों के पुरखों ने अपनी मेहनत से जमीनें कमाई हैं| व् मुग़ल रहे या अंग्रेज या आज वाले; हर जमाने में इन जमीनों के टैक्स, खिराज, मालदरखास सब भरी हैं; तब जमीनें थमीं हैं| साथ ही यह भी बताएं कि सबसे ज्यादा भूमिहीनों में जमीनें भी सर छोटूराम सरीखे लोगों ने बंटवाई हैं, 100-100 गज के प्लॉट पंचयती जमीनों पे दिए हैं (फंडियों की सरकार ने बाँटें क्या कभी?)| व् जब-जब इतिहास में भूमिहीनों को जमीनें देने पर सरकार की पॉलिसियाँ बनी, भूमिवानों ने हमेशा उनका समर्थन किया है| उदाहरण के तौर पर 1980 के दशक में एक पालिसी आई थी भूमिहीनों को किसान-जमींदार बनाने की, जिसके तहत पंजाब-हरयाणा-वेस्ट यूपी के हर गाम में बहुत से दलित परिवारों में प्रति-परिवार पौने-दो एकड़ जमीन दी गई थी| इस पालिसी के तहत लेखक के गाम में 84 किल्ले धरती आवंटित हुई थी| कभी इसका विरोध नहीं किया किसी ने|

गाम-गाम गेल "धरती-उत्सव", "उदारवादी जमींदारी उत्सव" करवाइए; इनसे भला होगा भूमिवानों का, ना कि फंडियों के बताए उत्त्सवों से|

अब इस नए एजेंडा के जरिए ऐसी भूमिवान जातियां फिर से फंडियों के निशाने पर हैं, जिन्होनें हमेशा अपने सीरी-साझियों के ब्याह-वाणे तक ओटने के भाईचारे निभाए| इसलिए सावधान हो जाईए; वरना नर-पिसाच फिर आ लिए हैं|

जय यौधेय! - फूल मलिक 

Sunday, 23 January 2022

​​इंडिया गेट के नीचे से "अमर-जवान ज्योति" को हटाए जाने ​के​पीछे "mercenaries" वाला कारण देना; बहुत ही बेहूदगी भरे अंध-अहंकार की प्रकाष्ठा है!

वैसे तो नहीं बोल रहा था इस ज्योति को नेशनल वॉर मेमोरियल में समाहित करने बारे; एक अच्छी भावना से ही देख रहा था| परन्तु जब आर्मी के ही दो बड़े अधिकारीयों के ट्वीट्स का सलंगित स्क्रीनशॉट ​(see attachment) ​देखा तो माथा ठनका कि यह फंडी इस देश की आत्मा को खोखला करने की कौनसी अप्रत्याशित ​व् ​अमर्यादित हदों के पार जा चुके हैं|


क्योंकि किसी भी देश की सेना उसकी सरकार के हुक्म की पाबंद होती है; फिर चाहे वह किसी भी काल के शासक-सरकार का युग रहा हो; आज़ाद युग रहा हो अथवा गुलाम युग| आज भी तो पता नहीं कहाँ-कहाँ अरब-अमेरिका-अफ्रीका में कभी नाटो के कहे पे तो कभी किसी अन्य शांति-बहाली के नाम पर भारतीय ​​सेना जाती रहती है; तो क्या कल को उनको भी यही बोल दिया जाएगा कि यह देशभक्त नहीं थे अपितु "पैसे के लिए​​ भाड़े पे गए लोग थे"?  ऐसे ही विश्व युद्ध ​- 1 व् ​2 में सेना​ ​गई थी|

​ऐसे तो फिर क्या ​अकबर के दरबार के नौ रत्नों में जो 4 या 5 हिन्दू बताए जाते हैं; उनको यही लोग महान, रत्न आदि कहना-लिखना-बताना बंद कर चुके हैं? अंग्रेजों से प्राप्त 300 से ज्यादा "सर" की उपाधि वाले लोगों में 98 से ले 99% फंडी वर्ग से आते हैं; क्या उनको भी यह इस विकृत मानसिकता के लोग​,​ इसी ​"mercenaries" ​वाली श्रेणी में रखेंगे? यह लोग महानिकम्मे व् मक्कार लोग हैं; इनसे समाज जितना जल्दी पिंड छुड़वा ले उतना बेहतर|

और "पैसे के लिए" इस दुनिया कौनसी नौकरी नहीं की जाती है, जो यह लोग इस चीज को एक "निंदनीय अतिश्योक्ति" के रूप में बयाँ कर रहे हैं?​ इस हिसाब से तो इनके ही एक बड़े नेता अमित शाह ने ब्यान दिया था कि, "व्यापारी भी बड़ा देशभक्त होता है"? क्यों भाई, किस बात का देशभक्त व्यापारी; वह तो अपने नफे-नुकसान यानि पैसे के लिए काम करता है; खटता है; या नहीं? तो कहें फिर हर व्यापारी को भी mercenary?

सेना वालों की देशभक्ति देश की सरकारों के हुक्म से निर्धारित होती है| सरकार उनको जहाँ कहेगी, उनको वहां खड़ना होता है| यह किसी पोलिटिकल पार्टी, किसी नेता विशेष या फंडियों की मनमाफिक परिभाषाओं की पाबंद कैसे हो जाएगी? यह लोग ऐसा करके ना सिर्फ डिफेंस वेटरंस में तनाव पैदा करना चाहते हैं अपितु विदेशों में बसने वाले WW-1 व् WW-2 की पीढ़ियों की NRI फैमिलीज़ में को भी शर्मिंदा व् हताश करना चाहते हैं| स्थानीय वॉर-वेटरंस तो इनके निशाने पर हैं हीं|  

कितनी आसान स्टेटमेंट बना दिया है इन्होनें डिफेंस में काम करने को, कि उसको मात्र पैसे पे ला के तोल दिया है? उस भावना, उस वीरता, उस जिगरे​,​ उस शारीरिक फिटनेस की कोई कीमत नहीं, जिसपे कि पास होने को फंडियों के तो 99% बच्चे, भर्ती लाईनों में खड़ा होने तक की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं?

अरे फंडियों, और नहीं तो उस इजराइल से ही सीख लेते; ऐसे जहर फैलवाने से पहले, जिनको तुम हर बात में आदर्श मान फॉलो करते दीखते हो? सीख लेते कि क्यों वह अपने हर सिटीजन को न्यूनतम 2 साल सेना में लगवाते हैं?​ लगता है अब मुद्दा यह उठना चाहिए कि देश का हर नागरिक न्यूतम 2 साल डिफेंस में लगाएगा; तब जा कर ऐसे लोगों को पट्ट खुलेंगे| ​

फंडी अपनी बेशर्मी व् बदनीयती के चरम पर है| अगर इनको नहीं रोका गया तो समझो इनका क्रूरतम तो अभी देखना बाकी है|

जय यौधेय! - फूल मलिक  



Friday, 14 January 2022

​संकरात: त्यौहार देसी, तारीख अंग्रेजी (14 जनवरी); ऐसा क्यों?

या फिर यह 14 जनवरी 1761 को पुणे के पेशवाओं की घायल सेना पर सर्वखाप द्वारा की गई मानवीय उदारता की प्रकाष्ठा ​​के "सर्वखाप मानवता दिन" ​को समाज से छुपाने का चोला है? या यह दो त्यौहार हैं व् पड़ते एक ही तारीख को हैं? 


विषय विवेचना:
1) अंग्रेज उनकी ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ भारत आए 1600 में; तो इससे पुराना तो अंग्रेजी कैलेंडर हो नहीं सकता भारत में; या था?
2) अगर संकरात देसी त्यौहार है तो यह अंग्रेजों से पहले कौनसी तारीख को मनता था? मनता था तो कोई देसी तारीख ही रही होगी? वह देसी, इस अंग्रेजी तारीख से क्यों, कब से व् किसलिए बदली गई?
3) तर्क आते हैं कि सर्वखाप तो सिर्फ उत्तरी भारत में है परन्तु यह त्यौहार तो लगभग पूरे ही भारत में मनता है| यह तो फैलाया गया भी हो सकता है, जैसे सन 1891 में गंगाधर तिलक द्वारा मुंबई से शुरू किया गया "गणेश चतुर्थी" लगभग सवा एक सदी में ही इतना फ़ैल गया| 1947 में पाकिस्तान से आया त्यौहार "नवरात्रे" व् "करवा-चौथ" हो या बिहारी प्रवासी मजदूरों के साथ आया नया-नया "छट पूजा" या बंगालियों के साथ ​आई ​"दुर्गा पूजा" यह तो अभी हाल ही के ताजा उदाहरण हैं; जो इतने कम समय में इतने फ़ैल गए, तो संकरात तो 14 जनवरी 1761 से शुरू हुआ; वह तो फ़ैल ही जाएगा| तो यह तर्क भी इसका जवाब नहीं|
4) और इसको सूर्य के उत्तरार्द्ध में आने से जोड़ के और पुख्ता सा बनाने की कोशिश भी सही नहीं लगती| क्योंकि अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार तो सूर्य 25 दिसंबर (उनका बड़ा दिन कहते हैं इसको) से उत्तरार्ध में आना शुरू हो जाता है|

हालाँकि यह ऐसी विवेचना है जिससे लोगों की धारणाएं चैलेंज होती हैं जो कि लेखक का उद्देश्य कतई नहीं है| लेखक सिर्फ इतना चाहता है कि इस तारीख के दिन ही इतिहास में सर्वखाप-किनशिप का वह सबसे महान दिन हुआ था जिस दिन मानवता सबसे ज्यादा बरसी थी​ (शायद विश्व भर की तारीखों में सबसे ज्यादा मानवता वाली तारीख हो यह)​; उस दिन को भी मनाया जाए| मनाया जाए अगर "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर" के तंज नहीं सुनने व् "35 बनाम 1" नहीं झेलना तो|  

तो क्या है हर साल 14 जनवरी को मनाया जाने वाला "सर्वखाप मानवता दिन"?:​​

किस्सा जुड़ता है 14 जनवरी 1761 को हुई पानीपत की तीसरी लड़ाई से| ज्यादा डिटेल्स में नहीं जाऊंगा परन्तु इतना जानते हुए चलते हैं कि इस लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली ने पुणे की पेशवाई सेना को हरा दिया था| यह सेना यहाँ के स्थानीय राजाओं को हटा, खुद राज करने आई थी; जैसे अब्दाली आया था| और इनकी इस छुपी बदनीयत का परिचय इसके सेनापति सदाशिवराव भाऊ ने उस वक्त के उत्तर भारत सबसे ताकतवर शासक महाराजा सूरजमल ​(जो कि ​इनसे मिलकर पानीपत लड़ने हेतु संधि बनाने को इनके कैंप में इनसे मिलने आए थे) ​को ही बंदी बनाने की अपनी कोशिशों से जाहिर कर दी थी| जाहिर सी बात है कि ऐसा दम्भी व् अल्पमति इंसान फिर अकेला ही रह जाता है व् ऐसा ही हुआ; यानि पानीपत की लड़ाई पेशवा हार गए| 

इसकी हारी हुई सेना, जनवरी की कंपकपाती ठंड में घायल-मूर्छित अवस्था में तीतर-बितर आसरा ढूंढ रही थी| अब्दाली के डर से कोई राजा-नवाब इनको शरण नहीं दे रहा था| तब यहाँ​ चारों तरफ पाई जाने वाली सर्वखाप की जनता खासकर जाट आगे आए व् इनके घायल सैनिकों-घोड़ों को रसद-मरहमपट्टी-आसरा दिया| घायलों ​को ​कंबल-खेस-चद्दर ओढ़ाए गए| और ऐसे उतरी थी उस दिन इस धरती पर मानवता की उदारता की सबसे दयालु मूरत कि उनके ही महाराजा को बंदी बनाने वाली सेना को हारने पर यह मदद इनायत की गई| साथ ही यह बात धोई गई कि हम अब्दाली से डरते नहीं हैं अपितु पेशाओं की हमारे ही प्रति बदनीयती के चलते, पेशवाओं ने ही हमारी मदद लड़ाई में नहीं ली| 

​इस सेना का कुछ हिस्सा भागकर भरतपुर भी पहुँच गया था; जहाँ महाराजा सूरजमल ने भी अपनी सर्वखाप किनशिप वाली उदारता से ही इनका इलाज करवाया| व् बाद में इनको जाट सेना भेज वापिस पुणे-नासिक आदि छुड़वाया| हालाँकि इस उदारता को देख तो पेशवे पसीजे और इनको छोड़ने गई जाट सेना को वहीँ नासिक में बसा लिया; वापिस नहीं आने दिया| जितने जाट परिवार वाले थे, उनके परिवार नासिक बुला लिए गए व् जो अनब्याहे थे, उनको स्थानीय पेशवा-मराठी लोगों ने अपनी बेटियां ब्याह दी| यहाँ भी जाटों ने अपनी किनशिप के स्वभावरूप खाप बनाई जिसको "जाट बाईसी" के नाम से जाना जाता है|  

यहाँ सनद रहे, हरयाणा में पाई जाने वाली रोड बिरादरी, जिसको कि अक्सर इन्हीं में से उस वक्त यहाँ रहे लोग मान लिया जाता है; यह ये नहीं हैं अपितु यह यहाँ की स्थानीय जाति है|

​14 जनवरी 1761 को क्योंकि इस मानवता की शुरुवात हुई थी तो स्थानीय लोग इसको एक याद एक रूप में उसी अंदाज में मनाने लगे| और ​धीरे-धीरे इस बात ने एक त्यौहार का रूप ले लिया व् हर साल 14 जनवरी को ठंड में ठिठुरते लोगों को गर्म वस्त्र व् खाने की सामग्री देने से चलता-चलता घर के बड़ों को मानाने हेतु भी ऐसे कंबल-खेस-शॉल देने का चलन बढ़ चला|

अब फंडियों को इससे कुलमुलाहट हुई; क्योंकि यह ठहरे "बदले की भावना" से काम करने वाले जींस के लोग; आप इनके लिए गर्दन भी काट के रख दो तो यह उसको आपका अहसान की बजाए इनका हक मानते हैं तो इनको कहाँ यह अहसान सदियों-सदियों ज्यों-का-त्यों याद रहने देना था| इसलिए चढ़ा दिया इस  यह दूसरा लेप; जिसमें ना सर्वखाप की महानता बताई जाती ना उसका जिक्र ही होने दिया|

परन्तु खैर कोई नहीं, यह चीजें कब तक छुपेंगी| हम हैं ना सर्वखाप के बेटे-बेटी| ​जो आ गए हैं अपनी "किनशिप" की चीजों को संजों के रखने की महत्वता को समझने की मति लिए| ​इनको बिना शिकायत किये, बिना उलाहना दिए; हम मनाएंगे इसको "सर्वखाप मानवता दिन" के रूप में| तो आप सभी को ​​"सर्वखाप मानवता दिन" की भी बधाई| 

​जय यौधेय! - फूल मलिक ​

Monday, 3 January 2022

अधिनायकवाद, सबसे बड़ी मूर्खता है; जिसको फंडी सिद्द्त से पालते हैं!

और खुद तो लोकनिंदा का सबब बनते ही हैं साथ ही देश-समाज-सभ्यता का स्तर भी दुनिया में गिरा देते हैं| मेघालय के राज्यपाल महामहिम सत्यपाल मलिक ने भक्तों के अधिनायक से मुलाकात बारे कल जो कहा है अगर यह सत्य है तो यह अधिनायक अब एक ऐसा बेलगाम घोडा बन चुका है जो अब ना तो इसको बनाने वाली आरएसएस के काबू का रहा और ना किसी शंकराचार्य के बस का| इनके बस का होगा भी तो यह काबू नहीं करना चाहेंगे क्योंकि इनकी अल्पमति अनुसार अब इसको रोकना, इनके लिए इन सबके सर्वविनाश तुल्य यह मानते हैं| अधिनायक नाम का जिन्न खड़ा करते-करते इन्होनें अपनों के ही इतने टेटवे दबाए हुए हैं (वो भी लम्बे समय से) कि इसको रोकने में सक्षम होते हुए भी यह यूं डरते हैं कि अगर इसको रोका तो नीचे वाले भी बोलने लग पड़ेंगे व् इनका खड़ा किया तथाकथित स्वयंसेवकों का जखीरा ताश के पत्तों की भांति बिखर जाएगा| लखीमपुर खीरी वाले अपराधी गृह-राजयमंत्री को नहीं हटाने के पीछे भी तो यही डर है| इसलिए देश डूबो-बिको या बंटों, देश की विश्वपटल पर हंसी उड़े या ठिठोली; इन गिरोह बना के लूट करने वालों को चुप रहना बेहतर लगता है बस इतना ही खोखला राष्ट्रवाद इनका| 


इसी एपिसोड में अमितशाह ने मोदी बारे जो महामहिम को कहा अगर यह भी सत्य है तो अब यह घोडा अपने घनिष्टम मित्र के कहे से भी बाहर जा चुका है| यानि आरएसएस व् शंकराचार्यों को तो छोडो, खुद अमितशाह इसके आगे असहाय हो चुका दीखता है| 


ऊपर से यह सर्वखाप जैसी मध्य-मार्गी संस्था के उभार से इतना घबराते हैं कि दादरी दौरे में कुछ ही किलोमीटर दूर उसी दौरे के दौरान हुई सर्वखाप पंचायत में महामहिम द्वारा शामिल होने बारे पहले मंजूरी दे कर फिर दूरी बनावाना भी इन्हीं फंडियों की चाल की साजिश लगती है| अन्यथा महामहिम को नहीं आना होता तो वह आना स्वीकार ही क्यों करते? फंडियों ने ऐसा करवाया होगा ताकि इनके शामिल होने से सर्वखाप की साख और ज्यादा ना बढ़ जाए, जो कि फंडियों के लिए परेशानी का सबब हो सकती थी| दूसरा इन्हीं ताकतों ने इनको धर्म के डेरे पर जाने से नहीं रोका, क्योंकि यहीं से इनके एजेंडा समाज में उतरते हैं| व् यह जगहें समाज की नजरों में ऊंचीं ले जाना इनका उद्देश्य है| वरना जो तर्क दे कर राजयपाल ने खाप की पंचायत में आने से मना किया, वही तर्क धर्म कीजगह पर जाने बारे बल्कि ज्यादा सटीक बैठता था| 


परन्तु यह 10% वैचारिक भिन्नता को आपसी दूरी की 100% वजह बना के अलग-अलग चलने की आदत इस सर्वखाप फिलॉसोफी को सबसे ज्यादा तंग कर रही है; 90% समान विचार होते हुए भी, यह 10% भिन्नता वाले मिलकर इस बात की वजह ढूंढने व् भविष्य में ऐसा फिर कभी ना हो इसके लिए जरूरी मंत्रणा कर कदम उठाने की बजाए इस सर्वखाप पंचायत में राजयपाल के नहीं आने का मन-ही-मन ठीकरा इस पंचायत के आयोजकों फोड़ राजी हो रहे होंगे| यह शायद ही कोई सोच रहा होगा कि यही कल को तुम्हारे आयोजित कार्यक्रम के साथ बनी तो? यही आदत इस फिलोसॉफी वालों से 35 बनाम 1 झिलवाती है| 


 लेकिन यह कमी ठीक कर ली जाए तो कुल मिलाकर मार्ग खाप-खेड़े-खेतों वाले पुरखों वाले ही सबसे उपयुक्त हैं| "सर छोटूराम मार्ग" अगर चंद शब्दों में कहूं तो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक