दादा चौधरी दरिया सिंह मलिक: मेरे पड़दादा थे, उम्र में मेरे दादा, असल में कई दादाओं से छोटे; परन्तु नेग में एक पीढ़ी ऊपर| उनको मैंने मेरे ठोळे व् बगड़ (जिनको तुम आज शहरों में RWA कहते हो) की सभी छोटी-बड़ी औरतों की मासिक अथवा तिमाही रूटीन में कॉउंसलिंग मीटिंग लेते हुए देखा है| सभी की समस्याएं सुनी जाती थी, गलत को गलत व् सही को सही बताया जाता था| जो गलत होती थी उसको डांट पड़ती थी| फंडी-फलरहियों से एकमुश्त दूर रहने की सबको हिदायत होती थी| बूढ़े मानते थे कि औरत ही घर की मुदई होती है, उसकी कॉन्सलिंग होती रहे तो छोटे बच्चे, कल्चर-किनशिप सब सही रहता है|
परन्तु वह मेरे बगड़ का आखिरी दादा था; जिसको मैंने ऐसे अपने बच्चों में, औरतों के साथ बैठ, अपनी किनशिप को ट्रांसफर करते देखा था| हालाँकि कई औरतें उनकी ज्यादा सख्ती से खफा भी रहती थी व् इस बात की शिकायतें भी करती थी, अपने बेटे-पतियों को| परन्तु सबको पता होता था कि कल्चर-किनशिप कायम रखनी है तो इतना अनुसाशन तो चाहिए ही| ऐसी औरतों को सख्ती व् अनुसाशन में फर्क बताया जाता था या बताने की कोशिश मैंने देखी हैं|
यही होता है एक "स्वर्ण" समाज| आज किधर खड़े हो तुम, खुद देख लो| स्वर्ण से कितने गिर के शूद्र बन चुके हो; आईना सामने हैं| यही गति से गिरते रहे तो आने वाले जमाने के अति-पिछड़े, महा-शूद्र तुम ही कहलाओगे; फिर बेशक कितने ही चमकते-दमकते महले-दुमहलों में बैठे रहना|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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