पहले तो "नगर खेड़ों वालों" में नगर शब्द नोट करो; तुम्हारे गाम थे ही नगर, बस तुम उस प्रोपगंडा वाले प्रचार का मुकाबला नहीं कर पाए; जिसके तहत तुम में धक्के से ग्रामीण होने की भावना ठूंसी गई; वरना तुम नगर वालों से पहले ही नागरिक व् नगर वाले थे|
दूसरा आज की शहरों में RWA सोसाइटी में कोई मंगता-भिखारी-फंडी-फलहरी-बाबा रंगा घुसता देखा है क्या? झाँक भी नहीं सकते? जो-जो आज के दिन 30-40 या इससे ऊपर की उम्र के हैं, क्या तुमने यही सिस्टम थारे गामों के बगड़ों का नहीं देखा? मंगता-भिखारी तो खापलैंड के गामों में वैसे ही नहीं होता आया, कोई फंडी-फलहरी-पाखंडी-बाबा रंगा आता था तो बगड़ के बाहर तक ही आ पाता था; क्या मजाल जो वो बगड़ में पैर धर जाता? वो तो क्या चूड़ी बेचने वाला मनियार तक बगड़ में घुसने से पहले, बगड़ के बूढ़ों की इजाजत लेता था; जैसे RWA की कमिटी वाले बूढ़े यह तय करते हैं कि RWA में कौन घुसेगा और कौन नहीं?
यह कैसी हंगाई लगी तुम "बगड़ के कल्चर" वालों को कि ऐसे पहले से ही सदियों के विकसित मॉडर्न सिस्टम्स को धत्ता बता के; इन फंडियों ने जो मॉडर्न बता दिया बस "भेड़ दौड़" में उसी को गले लपेटते रहे? हर समाज, हर कल्चर अपनी लाइन पे है, एक तुम "दादा नगर खेड़ों" वालों को छोड़ के; बस इसी वजह से 35 बनाम 1 भी भुगत रहे हो व् थारी धरती तुम्हें छोड़, सबको चैन से बसाने का अड्डा बन चुकी है; बेचैन हो तो सिर्फ तुम|
देखो जरा इस "बगड़ कल्चर" जैसी चीजों को रिएलाइज करके, इनपे ठहर के, क्या पता चैन आ जाए| दिमाग-सोच में स्थाईत्व आ जाए? कम-से-कम यह थोथी फील तो निकलेगी कि तुमने अपने पुरखों से कुछ अच्छा कल्चर डेवेलोप किया है? किया करो ऐसे-ऐसे तुलनात्मक एनालिसिस; पता लगेगा कि वो तुम्हारी अपेक्षा तथाकथित अक्षरी ज्ञान से अनपढ़ व् तथाकथित ग्रामीण होते हुए भी, कितने बड़े कम्युनिटी मैनेजर (community manager) थे और तुम कितने बड़े कम्युनिटी डिस्ट्रॉयर (community destroyer) साबित हुए हो या होते जा रहे हो|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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