मेरे बाबू नैं कदे उसके बाबू-दादों के पाँव छुए ना; म्हारे दादे नैं कदे उनके बाबू-दादों के पाँव छुए ना और ना कदे हाथ जोड़ नमस्ते करी|
यह सब जो यह पिछली एक-डेड पीढ़ी शहरों में ज्यादा गडी ना, इसमें 80% शुद्ध जाट-बुद्धि छोड़ के शूद्र-बुद्धि में जो तब्दील होते गए व् गाम वालों पे अपने आपको श्रेष्ठ-ज्ञानी व् तथाकथित सभ्य (कल्चर्ड) दिखाने हेतु फंडियों ने जो अड़ंगा इनके पल्ले मढ़ा सारा फैलाते गए. उसकी मचाई खुरगाई है| और इसीलिए फरवरी 2016 तक आते-आते यह तथाकथित जाट-बुद्धि छोड़ शूद्र-मति बने सभ्य इतने बिरान हुए कि जो कदे इनके बाबू-दादे-पड़दादों को "जाट देवता" व् "जाट जी" लिखते-गाते-बिगोते नहीं थका करते, उन्हीं के हाथों 35 बनाम 1 में आन घिर बैठे|
मेरे दादा ने कभी इन पहलुओं पर मुझे दादा होने वाला दम्भ नहीं दिखाया| इंडिया में था तो किसी शहर में पढ़ा या जब विदेश आया, कभी नहीं| जब भी फ़ोन करता था और दादा से बात होती थी तो मेरे बोलने से पहले आगे से रटी-रटाई सी आवाज आती थी दादा की, कि, "नमस्ते फूल, ठीक सै बेटा (कभी-कभी भाई या पोता)"| मतलब मेरे भले पुरख दादे नैं कदे इस बात की बाट ना देखी फ़ोन-कॉल पे अक मैं आगे तैं पहले नमस्ते करूँगा तो ही अगला नमस्ते करेगा| इतने ओपन-माइंड थे म्हारे बूढ़े; ऐसी बातों से ही समझा देते थे कि कोई उम्र, नाते या ओहदे में बड़ा है, उसको सिर्फ इसलिए नमस्ते नहीं करी जाती; बड़ा भी पहले कर सकता है| आह्मा-स्याह्मी भी क़दे हाथ जोड़ के नमस्ते नहीं करी, दादा को; सलूट करने वाली नमस्ते होती थी (थैंक्स टू मिल्ट्री-कल्चर ऑफ़ खापलैंड) व् आगे से दादा का हाथ सीधा सर पे होता था| और यह रीत सिर्फ मेरे सगे दादा की नहीं थी, उस पीढ़ी के सारे बूढ़ों की थी; चाहे वो गाम-गुहांड के थे या रिश्तेदारियों के|
यह देखा-देखी भतेरी हो ली इब; इस देखा-देखी में अपने कल्चर की "गधी आळी लीदरी" सी कढ़वा ली| इसीलिए मोहन भागवत ने जैसे उसकी बात में सुधार किया है, आज से मैं भी कर रहा हूँ; और वह यह कि "अपने कल्चर-किनशिप वाले किसी को भी ना हाथ जोड़ के नमस्ते करूँगा और ना पाँव छुऊंगा; सिर्फ सलूट वाली नमस्ते हुए करेगी| हाँ, कल्चर से बाहर किसी का कल्चर इसकी मांग करता है तो उनके कर देंगे; जो शरीफ होंगे उनके शराफत के साथ व् जो डेड-सयाने होंगे उनको इस भरम में रखने हेतु कि हम उनके भुकाये में ही चलते हैं आज भी हाहाहाहा; ताकि वो इसी भरम में राजी रहें|
वैसे भी म्हारे कल्चर में पांवों की तरफ हाथ ल्फाणे का मतलब होता है अगले को टांगों से उलाणना!
जय यौधेय! - फूल मलिक
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