Thursday, 16 February 2023

यूपी के एक यादव साहब जो अनेक इतिहास खोजते रहते हैं उनकी एक पोस्ट ज्यों की त्यों शेयर कर रहा हूँ!

 

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जाटों का इतिहास कहाँ है..?
इतिहास गवाह है जब तुर्की लुटेरा महमूद भारत आया तो बड़े बड़े क्षत्रिय महाराजा दुम दबाये यहां वहां भागे घूम रहे थे या इस्लाम कबूल कर रहे थे वहां जाटों ने महमूद गज़नी के नाक में दम कर रखा था. एक छोटा सा प्रजातांत्रिक कबीला और उसके सरदारों ने अपनी जान की कीमत चुकाकर वह खौफ पैदा किया कि आगे आने वाले तमाम लुटेरों के दिल में इस काबिल का खौफ बना रहा. जैसा आप जानते हैं कि जाटों ने महमूद गजनवी को भारत से लौटते वक्त लूट लिया था और उसे बहुत तंग किया था। क्योंकि वे उसके ऊपर भटिंडा राज नष्ट करने के कारण तथा देव-मन्दिरों को लूटने के कारण चिढ़े हुए बैठे थे। महमूद उस समय तो जान बचाकर भाग गया था, किन्तु 1027 ई. में उसने बड़ी तैयारी के साथ जाटों को नेस्तनाबूद करने के इरादे से चढ़ाई की। जदु के डूंग में उनका राज्य था, जो अभी तक प्रजातंत्री सिद्धान्तों पर चल रहा था।
लेखक फरीश्ता ने बहुत बाद में इस युद्ध के बारे में लिखा जो कहीं न कहीं पक्षपातपूर्ण था. तार्किक विश्लेषण से उसके द्वारा लिखी गईं गयीं बातें केवल महमूद की महानता सिद्ध करना दिखाई देतीं हैं.कर्नल टॉड ने लिखा है कि महमूद गज़नी के साथ युद्ध में जाटों को बहुत क्षति हुई थी लेकिन इसके साथ ही तुर्कों में एक खौफ फैल गया था. महमूद और उसके साथियों के जाटों ने ऐसे दांत खट्टे किये कि फिर वे हिन्दुस्तान पर चढ़ाई करने की हिम्मत न कर सके.
महमूद ही क्या, उसके उत्तराधिकारी तक उस रास्ते से नहीं आये जिस रास्ते जाट पड़ते थे। जाट महमूद को ही नहीं तैमूर तक के होशों को बिगाड़ते रहे हैं। “वाकए राजपूताना” का लेखक लिखता है - यकीन है कि महमूद से सैकड़ों वर्ष बाद सन 1203 ई. उसके उत्तराधिकारी कुतुब को मजबूरन उत्तरी जंगल के जाटों से बजात खुद लड़ना पड़ा क्योंकि उन्होंने हांसी को स्वतन्त्र राज्य करना चाहा था और फिरोज आजम की लायक वारिस रजिया बेगम ने शत्रु डर से जाटों की शरण ली थी तो उन्होंने रजिया की सहायता के लिए गकरों की फौज जमा करके रजिया की सहायता में उसके शत्रु पर चढ़ाई की थी। वहां दुश्मनों पर विजय पाई गई। जाट इस युद्ध में वीरता के साथ मारे गए। जब 1397 ई. में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था तो मुल्तान-युद्ध के समय जाटों ने उसे भारी अड़चन और कष्ट पहुंचाये। इसी बात से चिढ़कर तैमूर ने भटनेर पर हमला किया था।
जाटों का इतिहास भारत के इतिहास के लिए राजपूतों से कहीं ज्यादा कुर्बानियों से भरा हुआ रहा है लेकिन न जाने क्या कारण रहा कि इतिहासकारों ने इस वीर कौम का इतिहास कभी उजागर नहीं होने दिया....
देशी-विदेशी सभी इतिहासकारों ने इस बात के लिए स्वीकार किया है कि 600 ई. में पहले का पर्याप्त इतिहास नहीं मिलता और 600 ई. से 1000 तक का जो इतिहास प्राप्त होता है, वह भी अपूर्ण है।
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एक कहानी जो बहुत प्रचलित है उसका उल्लेख करना इस पोस्ट में बहुत जरूरी हो जाता है कि जाटों के गांव के पड़ौस में राजपूतों का बापोड़ा नामक गांव था। बापोड़ा वालों ने शाह दिल्ली को खिराज देना स्वीकार कर लिया था और जब धणाणा के जाटों के सामने यही प्रस्ताव पेश हुआ, तब उन्होंने कहा
घनघस जाटों के 900 सैनिक हर समय हैं तैयार- गाजे बाजे के संग लड़ने को,, युद्ध की पोशाक और पगड़ी सहित मारने मरने को..
किलों के बीच युद्ध के बाजे बजते रहते हैं -अपनी मेहनत का खाते हैं,न किसी का लेते हैं न किसी को डर के कुछ देते हैं
“बापूड़ा मत जाणियो, है यह गांव धणाणा।”
""हरियाणा के बीच में एक गांव धणाणा।
सूही बांधे पागड़ी क्षत्रीपण का बाणा।
नासे भेजे भड़कते घुड़ियान का हिनियाना।
तुरइ टामक बाजता बुर्जन के दरम्याना।
अपनी कमाई आप खात हैं नहिं देहिं किसी को दाणा।
बापोड़ा मत जाणियो है ये गांव धणाणा।”"

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