अपने intellect heritage के ही विरुद्ध, भावनावश या अल्पज्ञानवश ही सही जा कर व् उनके व् अपने बीच कोई बाड़ निर्धारित ना करके; जब किसी सामंती स्वर्ण-शूद्र वर्णी व्यवस्था को पोषित करोगे या उसमें फिट होने की कोशिश करोगे तो कहीं-ना-कहीं जा के तो टकराव होगा ही, 'पहलवानों का धरना इसका ताजा उदाहरण है":
विशेष: यह पोस्ट उसी को समझ आएगी जो "genetical ideological and psychological intellectaul heritage" जैसे कॉन्सेप्ट्स समझता/ती होगी| ऊपरी तौर पर इसका मंतव्य है कि कोई भी समाज अनुवांशिक तौर पर किस मनौविज्ञान व् विचारधारा के आधार पर खड़ा है| यह क्या, कितनी प्रकार की होती हैं का अध्याय खोलने की बजाए, ऐसे एक-दो और उदाहरण देते हुए सीधा विषय पर आता हूँ| एक-दो और उदाहरण हैं सत्यपाल मलिक जी ने जो पुलवामा व् भ्र्ष्टाचार खोला ((खोला पहले भी था, परन्तु रिटायरमेंट के बाद सिक्योरिटी छीनने से आंतरिक तौर पर जब अपमान मिला तो intellect heritage ज्यादा जागृत हुआ व् अति-मुखर हो गए), 13 महीने जो किसान आंदोलन हुआ| इन सब में एक बात कॉमन है; तीनों में ही खाप भी थी और हैं व् जो भूमि इनका उद्गमबिंदु रही वह है मिसललैंड (पहले खापें ही थी, सिख धर्म बनने के बाद मिसल कहलाई) व् खापलैंड| और कई तो जलते-बलते-चिढ़ते यह भी कह देते हैं कि इनमें भी बस एक जाति-विशेष वालों को ही चूल रहती है|
आगे बढ़ने से पहले सलंगित चार्ट को पढ़ें, तो आगे की पोस्ट ज्यादा सलरता से समझ आएगी|
दरअसल, जैसे "ट्रेडिशनल-व्यापारियों" व् "मोहन-भागवत जी की परिभाषा वाले पंडितों" का एक मूक समझौता रहता है जिसके तहत व्यापारी धर्म के नाम पर पंडित के लिए धर्मस्थल इत्यादि बनाता है; पंडित इसको जैसे प्रचारित-प्रसारित करे; व्यापारी करने देता है| व् बदले में व्यापारी को पंडित से मिलता है धर्मस्थलों के जरिए व्यापार, मनोवैज्ञानिक रूप से व्यापारी की दुकानों की तरफ मोड़ दिया गया क्षत्रिय व् शूद्र वर्ण का ग्राहक व् इन दोनों से भी सबसे जरूरी चीज जो अगर पंडित ना करे तो ट्रेडिशनल-व्यापारी व् पंडित का समझौता एक दिन में टूट जाए| और वह है व्यापारी की सोशल आइडेंटिटी, रेपुटेशन व् सिक्योरिटी की गारंटी| और यही वजह है कि आपने ट्रेडिशनल-व्यापारी समाज के "सामाजिक पहलुओं व् जीवन-शैली की खामियों" पर कभी भी प्रिंट से ले इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में कभी ऐसी "मीडिया-ट्रायल्स" होती नहीं देखी होंगी जैसी 2000 व् 2010 के दशकों में "खाप", "जाट" व् "हरयाणवी" शब्दों की हुई| व्यापारी व् पंडित आपस में इस तालमेल से चलते हैं जो कि बहुत अच्छी बात है और कोई दो समाज आपस में इतना तालमेल से चलते हैं तो यह अनुसरणीय भी है| परन्तु इस दर्शनशास्त्र का अंत रिजल्ट निकलता है "सामंतवाद", जो कि बाकी दो वर्णों क्षत्रिय व् शूद्र को दबा के रखता है| आप कहोगे कि शूद्र की तो समझ है कैसे दबाता है परन्तु क्षत्रिय को भी? जी, क्षत्रिय को भी, क्योंकि पंडित की मर्जी व् निर्देश के बिना क्षत्रिय एक शब्द नहीं बोल सकता पब्लिक में व् ना ही वह कोई विरोध कर सकता; भले; क्षत्रिय के घरों के आगे से क्षत्रियों को बार-बार मारने वाले क्षत्रियों के पुरखों के कातिल की झांकियां ही क्यों ना निकाले| हालाँकि क्षत्रिय को, अपना यह फ़्रस्टेशन शूद्रों पर निकालने का अधिकार पूरा है| तो यह तो है इनकी सामंती व्यवस्था|
अब बात करते हैं इसके विपरीत एक "उदारवादी" व्यवस्था की, जो दबंग पर दबंग है परन्तु मानवता को सर्वोपरि रखती है| "दबंग पर दबंग" जैसे कि तीन काले कृषि कानून लाने वाले "दबंगों पर दबंग", सत्यपाल मलिक जी ने जो दबंगों का पुलवामा खोला वह "दबंगों पर दबंग" या अभी जो पहलवान धरना दे रहे हैं "दबंगों पर दबंग"| और इनमें से जो ऊपरी पहरे में बताई "सामंती व्यवस्था" में पड़ गया वह "क्षत्रिय की शूद्र" पर होने वाली अमानवीय दबंगई करता इनमें भी पाया जाता है|
सलंगित चार्ट पढ़ा होगा तो पाया होगा कि "ट्रेडिशनल व्यापारी + पंडित" जैसा समझौता "खाप-खेड़ा-खेत" वालों का भी हुआ था व् वह कब तक चला, कैसे टूटना शुरू किया गया व् कब-कैसे टूटा आपने चार्ट में पढ़ ही लिया होगा|
तो बस यह जो आजकल एक क्षेत्र विशेष, एक थ्योरी विशेष की तरफ से जो यह इतने धरना-प्रदर्शन-पटाक्षेप-आवाजें उठ रही हैं इन सबकी की मूल में यही "उदारवादी पुरख इंटेल्लेक्ट" है; जिसको समझ के जब तक साफ़-साफ़ दायरा नहीं समझा जाएगा; यह जद्दोजहद चलेगी ही चलेगी| और इसका सबसे बड़ा दोषी खुद "उदारवादी खाप-खेड़े-खेतों का समाज" है; वह या तो इनसे बैठकर अपने "पुरख इंटेल्लेक्ट" की "सामाजिक सुरक्षा, सम्मान व् पहचान" को फिर से सुनिश्चित व् दृढ़ करे; अन्यथा हल नहीं मिलेंगे; बल्कि ऐसे ही समाज का कोई न कोई तबका रोड़ों पर निकलता ही रहेगा| क्योंकि दबेंगे ये नहीं व् दबाने वाले दबाने से बाज आएंगे नहीं|
और आज जिस हालत में समाज का "पहलवान वर्ग" आ चुका है, यह इसीलिए हुआ है कि सामंती चीजों को बेइंतहा छूट देते गए व् अब जा के घुटन महसूस होने लगी है; (घुटन तो उनको भी है जो सामंती हैं, परन्तु वो तो इस मॉडल में फिट हैं, बोलेंगे ही नहीं या "विशेष-जाति" की मूढ़मति वाली पट्टी पकड़ के "बिल्ली की तरह, आँख मूँद लेंगे)| यहाँ पहलवान वर्ग को भी अपना यह intellect-heritage पढ़ाये जाने की जरूरत है व् समाज को भी इसको रिवाइज करने की जरूरत है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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