Tuesday 24 October 2023

जरूरी पुरखाई आत्मविश्वास भरता उज़मा बैठक का "सांझी अंतर्राष्ट्रीय मेळा"!

सन 1986 या 1988 में हरयाणवी इंडस्ट्री के दादा चौधरी सर रघुवेन्द्र मलिक जी ने राजकीय सांझी डलवाई थी| उसके बाद सन:-सन: हालत यह आन पहुंची थी कि सन 2020, जब कोई विरला सांझी को इसके शुद्ध खाप-खेड़ा-खेत रूप में मनाने की परिपाटी से इसको मनाता दीखता था; कोई विरला डालता भी था तो निराशाओं के अँधेरे में टिमटिमाती परंपरा को जारी रखने की आदत से, शायद| आज 2023 की तरह नहीं था 2020 में कि इसके 5-6 तो स्टेट स्तर के आयोजन व् गाम-गाम, शहर-विदेश में फैलना-डलना एक नए जोश व् जुनूनी वादे के साथ उठ खड़ा हुआ है| बात यह भी नहीं है कि सांझी का डलना जरूरी था, बात यह है कि इसका वास्तविक अर्थ व् "पुरख-किनशिप वाला कल्चरल रूप, उससे जुड़े आर्थिक-पारिवारिक व् एथनिक-स्वाभिमान ज्यादा चर्चा में चल निकले हैं| और यही तो उज़मा बैठक ले के चली थी यानि "उदारवादी जमींदारों के दर्शनशास्त्र से भरे पुरख-कल्चर को थके-हारे-टूटे हुए से हौंसलों से नहीं अपितु उसी पुरखी-अणख व् शानो-शौकत से मनाएं; जिसकी वजह से खाप-खेडा-खेत जाने गए"; और यह तपस्या प्रस्तुत करी 2020 में लग के उज़मा बैठक ने| 2020 में 21 टीम, 2021 में 54 टीम, 2022 में 80 टीम व् 2023 में 94 टीमों ने क्वालीफाई किया और उसपे वरदान सोशल मीडिया; जिसने इसने इसको उन मानसिक गलियारों में उतार दिया जहाँ पुरखों वाले अणखी आत्मविश्वास डूब चले थे| तो जिनको वह पुरखों वाले अणखी आत्मविश्वास व् सरजोड़ वापिस चाहियें, वह जुड़ें उज़मा से| बाबा नानक वाली बात, "जुड़े, बसें व् उजडें"| कहोगे कि उजडें क्यों, क्योंकि बाबा नानक कहते थे उजड़ोगे तभी तो दूर-दूर तक फैलो व् फैलाओगे|  


आज इस जुड़ने-उजड़ने का यह शिला रहा कि लोग एक ही समय में आने वाले 5-6 त्यौहारों में फर्क करना सीख गए हैं; हरयाणा सीएम खट्टर जैसों द्वारा "कंधे से ऊपर कमजोर, नीचे मजबूत" के ब्यानों के मायने, इन कल्चरल चीजों को कॉपी-पेस्ट तरीके से मनाने में पाने लगे हैं| पाने लगे हैं कि अगर हम अपने कल्चर की शुद्धता नहीं रखेंगे तो कितने ही उदारवादी बन के जिस किसी को छाती से चिपका लें, वह उसको आपका अपनापन, आपका दर्शशास्त्र, आपकी हृदयविशालता समझने की बजाए, आपकी मंदबुद्धि समझेगा; आपको कंधे से ऊपर कमजोर समझेगा| यह निष्ठुर दुनिया है बाबू, इसके समाज में अपना अस्तित्व समझाये रखने हेतु जरूरी है कि इधर-उधर का कुछ भी उठा के अपने "पुरख-त्योहारों' का रूप बिगाड़ लेने की बजाए उसकी शुद्धता पर अडिग रहेंगे तो ही लोग आपकी मानसिक मजबूती समझेंगे अन्यथा अपने प्रारूपों को अलानी-फलानी में मिक्स करके देखो-दिखाओगे तो वही खटटर वाली बात| 


यहाँ समझने की बात यह भी है कि कल्चर की शुद्धता को कल्चर को मात्र धंधे के तौर पर ले के चलने वाले कायम नहीं रख पाते हैं; वह तो 2-4 रुपये और फ़ालतू कमाने को इसमें दूसरी मूर्त भी घुसा देते हैं, अलानी-फलानी भी जोड़े लेते हैं; जैसे कि आपकी शुद्ध हरयाणवी भाषा में हिंदी घुसा देंगे; कारण देंगे कि इससे ज्यादा लोगों तक चीज जाएगी; परन्तु हद तब हो जाती है जब उस ज्यादा यानि क्वांटिटी बढ़ाने के चक्कर में क्वालिटी कहीं पीछे छूट जाती है वह क्वालिटी जो आती है 'पुरख-किनशिप कॉन्सेप्ट्स' पर कायम रहने से; जो कल्चर के वास्तविक पैशन (passion) वाले ही दे पाते हैं| अगर इस बात पे ऐसे लोग थोड़ा सा ध्यान दे लेवें तो हम मिलके "खाप-खेड़ा-खेत किनशिप" को जो पुरखों ने जिसकी बुलंदी बनाई थी; उससे भी कहीं आगे चढ़ा देवें| 


इसी के साथ आप सभी को सांझी की फिर से बधाई; उज़मा से सीखी यह सीख थामे रखिएगा कि "सांझी कोई अवतार या माया नहीं अपितु सांझी आपकी सांझी बेटी है'| शाब्दिक अर्थों के मेल से भाषाई तौर के तुक्कों से इसको मत समझना, क्योंकि भाषाई शब्दों के तुक्कों से तो मैं भी कह दूंगा कि हरयाणवी शब्द इंडि से इंडिया निकला है| इसलिए देश के अन्य राज्यों में इसकी शाब्दिक समानता भर से हमारी सांझी का दार्शनिक रूप नहीं बदल जायेगा; वह हमेशा वही रखना है जो हमारी पुरख किनशिप से निकलता है और वो है कि, "गाम की बेटी, सबकी सांझी बेटी"| 


बधो-लधो-बसो-उजड़ो!


सलंगित फोटो है उज़मा सांझी कम्पटीशन की "दीदी पूनम गिल नेहरा, कनाडा टीम" की!


जय यौधेय! - फूल मलिक




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