किसी भी कल्चर में कोई शब्द वास्तव में कितना प्रचलित होता है, इसका अध्ययन उसके लोककलाकारों के सम्बोधनों व् अभिव्यक्तियों से सबसे सहजता से लगाया जाता है| जैसे इस वीडियो में देखें ; हरयाणवी लोक-कलाकार आज से करीब 15-17 साल पहले एक रागनी की प्रस्तुति दे रही हैं, एक हरयाणवी रागनी कार्यक्रम में| व् नोट करें वह अपने पब्लिक-सम्बोधन में पब्लिक को नमस्कार बोल रही हैं, "राम-राम" या कुछ अन्यथा नहीं| व् ऐसे ही अन्य तमाम ऐसे कलाकारों के आज से इतने ही पुराने सम्बोधन नोट किए जाने चाहिएं; तो पता लगेगा कि "हरयाणवी भाषा में "राम" का अर्थ "आराम" व् "आकाश" रखने वाले शब्द की एक पौराणिक चरित्र से समानता होने के चलते; उसकी बेहताशा मार्केटिंग करके उस शब्द को इस शब्द के साथ बदलने की कोशिश हुई है| व्यक्तिगत तौर पर मेरे दादा जी, मरने मर गए परन्तु जब भी दादा जी से फ़ोन पे बात करता था, या छुट्टियों में घर जाता था तो कभी भी "राम-राम" शब्द उनके मुंह से अभिन्दन-स्वरूप नहीं सुना; हमेशा आगे से "नमस्ते फूल", "नमस्ते बेटा/पोता फूल" ही सुना|
यहाँ यह किसी पौराणिक चरित्र के विरोध-अवरोध की बात नहीं है; अपितु अपने कल्चर-किनशिप की शुद्धता को सही से जानने व् समझने की बात है| समझना इसलिए कि अगर नहीं चाहते कि कोई खटटर जैसा हरयाणवियों को "कंधे से नीचे मजबूत व् ऊपर कमजोर न बतावे" तो| आप लोग इन बातों को सहजता में ऊड़ा देते हो; इसलिए आज आपकी कल्चर व् भाषा की यह दुर्गति हुई पड़ी है व् हर बौद्धिक स्तर से घिरे बैठे हो|
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