असल में कोई बाल्मीकि नमक महर्षि ने इसे नहीं लिखा इसके मूल लेखक निषाद जनजाति के एक विभाजित जाती समूह "कायस्य बाल्मीकि" श्री श्रीकर के पुत्र श्रीगोपति हैं.
वर्तमान देश के सम्परदायिक संगठनों की एकता और उनके एकजुट सहयोग से इस साम्प्रदायिक लड़ाई के संघर्ष, इस विजय के लिए बहुत बहुत शुभकामनाए. मूर्तिकार ने बहुत ही उत्तम कला के प्रयोग से एक जीवंत मूर्ति का निर्माण किया हैं उनकी कला को नमन.
रामायण के जो संस्करण बाजार में उपलब्ध है, वह बहुत पुराना नहीं है. छपी हुई पुस्तकों में से जो सबसे पुरानी है वह 1806 ई. की है, यानी आज से मात्र 214 साल पुरानी है. यह मूल बाल्मीकि रमायुन की पांडुलिपियों, इसकी एक पाण्डुलिपि 1020 ई. की है, जो नेपाल दरबार लाइब्रेरी में सुरक्षित है, से प्रकाशित की गई है. इस पाण्डुलिपि में राम के पात्र को भगवान की तरह नहीं बल्कि इस रमायुन (नेपाली शब्द ) काव्य का जनजातीय विशेष शौर्य पात्र बनाया गया. कहानी का प्लॉट बहुत ही सार्थक और रचनात्मक हैं. लेकिन वर्तमान में छापी गई रामायणो के सभी संस्करण अतिश्योक्तिपूर्ण हैं और मूल कहानी के साथ अनेको प्रकरण जोड़ दिए गए हैं. इसके कारण राम के पात्र को एक दैवीय पात्र बना दिया गया हैं जबकि मूल रामायण ज्यादा प्रभावी और नैतिकता के साथ उत्तम रचना हैं. आस्चर्य की बात तो ये है - जो मुंबई संस्करण- वर्तमान में गीता प्रेस से प्रकाशित है और उसमे श्रीलंका में लंका को दर्शाया जाता है. वो लंका आज के श्री लंका स्थान पर कहीं नहीं हैं. इन संस्करणों में राम और रावण के अनेको प्रसंगो को बदल दिया गया हैं इसलिए ये मूल रामायण से बिलकुल विपरीत हो जाते हैं.
अभी सबसे पुरानी पाण्डुलिपि जो उपलब्ध है, वह नेपाल में उपलब्ध है। इसकी पाण्डुलिपि तिरहुत में आज से 1000 वर्ष पहले 1020 ई.मे लिखी गयी थी. इस पाण्डुलिपि में लिखा हैं - 1020 ई. में आषाढ़ चतुर्थी तिथि को महाराजाधिराज, पुण्यावलोक, चन्द्रवंशी, गरुडध्वज उपाधिधारी राजा गांगेयदेव के द्वारा शासित तिरहुत में कल्याणविजय राज्य में, नेपाल देश के पुस्तकालयाध्यक्ष श्रीआनन्द के लिए गाँव के एक टोला ( समूह ) में रहते हुए कायस्थ श्री श्रीकर के पुत्र श्रीगोपति ने इसे लिखा ”
यह तालपत्र में लिखित 800 पत्रों का ग्रन्थ नेवारी लिपि में है, जिसमें सातों खंड हैं. यह काठमाण्डू के वीर पुस्तकालय (राजकीय अभिलेखागार) में है, जिसकी फोटोप्रति बड़ौदा में ग्रन्थ सं-14156 है. इसके अन्तमें एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पुष्पिका (समाप्तिसूचक लेखीय वाक्य) है.
इसक अर्थ - संवत् 1076=1020ई., आषाढ़ मास में कालपक्ष की चतुर्थी तिथि में महाराजाधिराज पुण्यावलोक (पुण्य दृष्टि वाला) चन्द्रवंश में उत्पन्न गरुडयुक्त ध्वजा वाले श्रीमान् गांगेयदेव के द्वारा भोग किये जाने वाले देश तिरहुत (मिथिला)) में, प्रजा के कल्याण के लिए विजित राज्य में, नेपालदेश के भाण्डागारिक (भण्डारपाल) श्रीआनन्दकर के लिए, पाटक नामक गाँव में स्थित कायस्य श्री श्रीकर के पुत्र श्रीगोपति ने इसे लिखा.
इसे एक कायस्थ (बाल्मीकि) जाती के व्यक्ति ने लिखा इसलिए इसे बाल्मीकि रामायण कहते हैं. साहित्यकारों ने यह छुपा लिया कि यह एक कायस्थ श्रीकर ने लिखी हैं और बाल्मीकि शब्द का महर्षि लगाकर प्रचार कर झूठ परोसा गया. जनजातियों में भी गजब के रचनाकार हुए हैं - लेकिन इन्हे इनकी जातियों कि वजह से साहित्य में स्थान नहीं दिया गया और कपोल कल्पनाओ के लेप लगाकर पाठको को गुमराह किया जाता रहा हैं.
इससे भी पुरानी एक पांडुलिपि छटी शताब्दी की है जो बंगला भाषा में हस्त लिखित हैं, यह Asiatic Society of Bengal कोलकाता में सुरक्षित हैं. इसमे भी राम को एक सामन्य पात्र की तरह दर्शाया गया गया हैं, यह राम के एक वनवासी से राजा बनने की कहानी के साथ समाप्त होती है. इसमे लेखक यह बताना चाहता है कि जब एक जनजाति का व्यक्ती संघर्ष करता हैं तो वो राजा बन सकता हैं. यह कहानी एक सामन्य व्यक्ति से विशेष उपलब्धियों को प्राप्त करने की प्रेरणा से भरी हुई हैं.
गीता प्रेस वालो ने जो अनर्थ किये है - वो देश का दुःर्भाग्य है.
Sorce - Asiatic Society of Bengal
Publication date 1806
Publisher Serampore
Collection Americana
Book from the collections of Harvard University
Language English
Volume 2
~Rajesh Dhull
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