पीठ-पीछे से छुरा घोंपने वाले यानि वह लोग जो मार्शल फील्ड व् आर्ट में कमजोर हैं व् आमने-सामने की लड़ाई नहीं लड़ सकते|
पीठ-पीछे से छुरा नहीं घोंपने वाले यानि वह लोग जो तथाकथित युद्ध-कौमें कहलाती हैं; वह इन पीठ पीछे से छुरा घोंपने की अवधारणा वालों से इसी फ्रंट पर पिछड़ रही हैं; क्योंकि यह इस कार्य को सही नहीं मानती| परन्तु यह कौमें ही यह बात भूल रही हैं कि जब-जब जुर्म-अन्याय की प्रकाष्ठा होती आई; तब-तब इन्हीं कौमों ने छापेमार युद्ध नीतियां भी अपनाई; सिख जैसी कौम तो रात को 12 बजे हमले करती थी|
तो बस यही "छापामार वॉर" चलेगी तभी जा के यह पीठ पीछे से छुरा घोंपने की अवधारणा वाले काबू आएँगे| अन्यथा यह बंद कमरों में आपके कत्लों का कारवां सजाते रहेंगे व् आप कत्ल होते ही चले जाओगे|
तो इस बात को गलत ना मानो कि किसी को पीठ-पीछे छुरा नहीं घोंपना चाहिए; जब धर्म-कर्म में हर जगह बढ़चढ़कर भी दान-दहेज से सब आदर-मान दिखाने पर भी कोई आपको आपका यथोचित सम्मान ना देवे तो यह रास्ते अख्तियार करना ही नीति है व् यह नीति "छापेमार युद्धों" के लम्बे इतिहास के रूप में आपके पुरखों ने स्थापित की हुई है|
जय यौधेय!
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