क्योंकि यहाँ का खेती करने का कल्चर यूरोपियन परिपाटी का है (Global Standard, you know) यानि "जमींदार ही खेत में किसान का काम करता है अपने सीरी-साझी के साथ मिल के"| जिसको कि उदारवादी जमींदारी कहते हैं| यह कल्चर 'खाप-खेड़ा-खेत व्यवस्था' से निकल के आता है| क्योंकि यह जमींदार खेत में काम करने से नहीं डरता, व् ना ही शर्माता इसलिए यह इसी कल्चर की वजह से अन्यों से अपेक्षाकृत ज्यादा डेमोक्रेटिक व् स्वछंद नीत का होता है, जो इसको अन्याय नहीं सहने का एक्स्ट्रा जज्बा व् मनोबल देता है| इसके "दादा खेड़ों के कोर सिद्धांतों में वर्ण-धर्म-जाति सब बराबर हैं"| और सिख हों या खाप-खेड़ा-खेत (3ख) को मानने वाले लोग, सिखी से पहले यह सभी "खाप-खेड़ा-खेत" से ही हुए हैं| इसीलिए आप पाओगे कि सिखी के अधिकतर सिद्धांत 3ख से मिलते हैं, कल्चर-रीत-रिवाज-स्वभाव सभी कुछ; सिर्फ भाषा पंजाबी व् हरयाणवी छोड़ के| इसमें भी पाओगे कि पंजाबी-हरयाणवी का 60 से 70% शब्दकोश कॉमन है|
यह बाकी के भारत में पाई जाने वाली सामंती जमींदारी से बिल्कुल विपरीत है| सामंती जमींदार में खेत का मालिक खुद खेती ना करके, मजदूरों से करवाता है; जिसको कि 'नौकर-मालिक' कल्चर बोलते हैं| यह कल्चर वर्णवादी व्यवस्था से निकल के आता है| व् वर्णवादी व्यवस्था में सहना, नीचे बने रहना सिखाया जाता है| यानि स्वर्ण-शूद्र कांसेप्ट इसका मूल है| इस कल्चर में पला-बड़ा व्यक्ति, डरा-दबा के बड़ा किया जाता है, स्वर्ण-शूद्र समझा-बता-थोंप के पाला जाता है| इसलिए यह उदारवादी जमींदारी वालों से अपेक्षाकृत कम डेमोक्रिटिस व् कम निर्भय होता है|
बस यह मूल-कल्चरल भिन्नता ही इसकी सबसे बड़ी वजह है कि उत्तर-पश्चिम भारत में इतने किसान आंदोलन क्यों होते हैं| और फंडियों की असल लड़ाई इस 3ख की फिलॉसोफी को ही मिटाने की है; जो कि मारनी सम्भव नहीं है| यह मारते रहे, परन्तु यह और ज्यादा अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक ख्याति पाती चली जा रही है| और यही फंडियों की असल कुंठा है| यह कल्चर-किनशिप का मूल-अंतर् अपनी पीढ़ियों को बता के रखिए, साथ ही यह भी समझा के रखिए कि फंडियों को आदर-भाव का भरम-बहम देते हुए, अपने कल्चर-किनशिप को कैसे निरतंरता में रखना है| यह बहम के ही तो भूखे हैं, आदर का बहम, सम्मान का बहम; तो जब यह बहम में खुश हैं तो इनको बहम ही देते चलो व् अपनी कल्चर-किनशिप पे कायम रहो| क्यों किसी को रूसाना!
जय यौधेय! - फूल मलिक
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