ताज्जुब की बात है गाय का दूध पी के बड़ा होने वाले बैल पे यह कहावत; कि उसकी बुद्धि मंदबुद्धि का परिचायक मानी गई? जबकि तमाम धर्म के ठेकेदार गाय के दूध से तो तीव्र-विलक्षण बुद्धि का बनना बताते हैं? क्या यह सिर्फ मिथ्या व् कृत्रिम प्रचार मात्र है इनका?
वैसे हमारे पुरखों ने जब-जब भी गाय व् भैंस के दूध व् गुण-अवगुण में तुलना करी तो यह चीजें व्यवहारिक तथ्यों के आधार पर कही:
1 - गोरखनाथ का पिछोका, गौका देखे ना मसोहका: यहाँ इस कहावत में गोरखनाथ के पिछोके से मतलब सांड से है व् गौका यानि गाय व् मसोहका यानि भैंस| और इस कहावत का अर्थ है कि सांड को जब कामेच्छा चढ़ती है तो वह उसके नियंत्रण से इतनी बाहर होती है कि वह गाय व् भैंस में फर्क नहीं कर पाता| व् यह बात हमारे पुरखों की सदियों की इन दोनों पशुओं बारे ऑब्जरवेशन के आधार पर है| पुराने जमाने में व् अब भी जहाँ-कहीं भी पाळी जोहड़ के गोरे पे अपनी गाय-भैसों के इकट्ठे झुण्ड बैठाते हैं तो यह तथ्य प्रैक्टिकल में देखा जाता है| जबकि भैंसा या झोटा, इतना सभ्य व् स्वनियंत्रित तब भी रहता है जब उसको कामेच्छा चढ़ती है; उसको गाय-भैंस का फर्क तब भी रहता है व् वह, वहां भैंस ना भी होगी तो भी गाय पर कभी नहीं जाता| तो इस हिसाब से देखो तो ज्यादा सूझबूझ व् स्वनियंत्रण देने वाला दूध भैंस का कि नहीं? वैसे बता दूँ, आजकल अब वाली हरयाणा सरकार ने गोरख-धंधा शब्द पर कानूनी बैन लगाया हुआ है; जैसे इसके कारिंदों का गोरखधंधा शब्द से सीधा संबंध हो व् यह सुनना इनको अपना अपमान अथवा मजाक लगता हो|
2 - लड़ाई के मामले में भी गाय का दूध, भैंस के दूध की अपेक्षा गर्म बताया गया है: दो सांडों को लड़ते हुए छुड़वाना, दो झोटों को छुड़वाने से ज्यादा दुष्कर है; परन्तु यह भी सच है कि सांड, झोटों की अपेक्षा ज्यादा देर नहीं लड़ सकते; जबकि झोटे पूरी-पूरी रात सर मेळते नहीं थकते| वैसे तो एक झुण्ड में कई सांड शांति से खटा जाते हैं परन्तु एक झुण्ड में दो झोटे निचले नहीं बैठेंगे; वह एक दूसरे से हल्की फुल्की हठखेली से ले तेज-तरार फाइट भी करने लगते हैं| परन्तु सांड जब लड़ाई पर उतरता है तो वह अपना आपा खो के लड़ता है व् जल्दी थकता है| यह तथ्य भी पुरखों की ऑब्जरवेशन से आता है| झोटे कई-कई घंटे भी भिड़ते रहेंगे पर थकेंगे नहीं; जबकि सांड धुआंधार लड़ेंगे और जल्दी थक जाएंगे; जैसे इनको किसी बात की जल्दी हो| झोटों की भिड़ंत की टक्कर की दहल इतनी दूर तक जाती है कि रात को कहीं खेतों में दो गामी झोटे भिड़ रहे होंगे तो कई बार तो सारी-सारी रात उनकी खैड़ों की दहल आसपास के गुहांडों तक में सुनाई दिया करती होती है| मुझे इस परिवेश का होने के चलते, बचपन में यह दहल सुनने का अनुभव् है|
3 - बैल बुद्धि - बैल यानि वह बछड़ा जिसको प्रजनन से ऊना बना दिया जाता था व् सारी उम्र हल-जुताई में निकालता था| इसलिए बैल जितना तपस्वी किसी को नहीं माना गया| इसका सफेद रंग इसको सूर्य की किरणों से प्रत्यर्पण के जरिए बचाता है व् यह जल्दी हांफता नहीं है; जबकि झोटे का काला रंग सूर्य की किरणों को समाहित करता है तो वह जल्दी गर्म हो के हांफने लगता है| लेकिन रात में झोटा भी बैल से भी ज्यादा हल खींचने में सक्षम माना जाता है| हल-बुग्गी में दोनों जोड़े जाते हैं; परन्तु बैल को ऊना करना जरूरी होता है; कारण कि जब उसको कामेच्छा चढ़ती है तो वह कूद-फांद करता है व् बहुतों पार हल की फाल पे पैर दे मारता है, इसलिए हल-बुग्गी जुताई वाले बैल पहले उन्ने किये जाने जरूरी होते हैं; क्योंकि यह अपनी कामेच्छा काबू में रखना नहीं जानते होते| जबकि झोटा इस मामले में ज्यादा समझदार व् परिपक्क्व होता है|
इतने तपस्वी होने के बाद, "बैल की बुद्धि" मंदबुद्धि का परिचायक क्यों बनी; इसपे शायद मोदी के भक्तलोग ही प्रकाश डालें तो बेहतर होगा| और इसको मोदी के साथ जोड़ के तो मोदी के चक्कर में बेचारे बैल की और सामत ला दी|
दो शब्दों में सही निचोड़ दूँ तो बैल/सांड तुनकमिजाज होते हैं जबकि झोटा मूडी होता है| तुनकमिजाजी कुछ पल की होती है जबकि मूड लम्बा व् स्थाई होता है| यह इस बात से भी समझा जाता है कि बुग्गी में जुड़ा बैल, जल्दी बिदकता है; जबकि झोटे में बिदकन आसानी से नहीं आती; परन्तु आती है तो दीवार-बाड़ सबको तोड़ता हुआ जाता है|
सिद्धू मूसेआळा जो झोटे को इतना महान बता गया कि उसके गानों व् ट्रेक्टर तक पे झोटा लिखता-छपता था; तो उसकी यही ऊपर जैसी कुछ वजहें थी; इसलिए इन जानवरों बारे अपनी परसेप्शन, आपके पुरखों से मिले तथ्यात्मक ज्ञान के आधार पर बनाओ ना कि किसी फंडी-पाखंडी के उछाले कृत्रिम प्रचार के आधार पर| गुण-अवगुण दोनों में हो सकते हैं परन्तु उनका सही-सही ज्ञान होना अति लाजिमी है|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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