जिस जाति का आर्थिक प्रभुत्व नहीं होता, उसके खिलाफ कभी भी लामबंदी नहीं होती, चाहे उसकी संख्या कितनी भी क्यूं न हो। एक जाट ही नहीं राजपूतों के खिलाफ भी ध्रुवीकरण होता है, आप बाड़मेर, जैसलमेर, शिव ऐसी अनेक जगह देखेंगे जहां राजपूतों के खिलाफ ध्रुवीकरण होता है, हरियाणा में अटेली विधानसभा क्षेत्र देखिए, वहां यादवों के खिलाफ तगड़ा ध्रुवीकरण हुआ, हरियाणा के नांगल चौधरी में यादवों के खिलाफ तगड़ा ध्रुवीकरण हुआ और यह तो यदि कांग्रेस बादशाहपुर में किसी ब्राह्मण व रेवाड़ी में किसी बणिए को टिकट दे दे तो वहां भी तगड़ा ध्रुवीकरण हो जाए... तो जो भी जाति जिसके पास संसाधन होंगे, उसके खिलाफ ध्रुवीकरण होगा ही, यह अकेले जाटों की समस्या नहीं...
अगर हम मीणों की बात करें, तो उनके खिलाफ मीणा बहुल इलाकों में भी वैसा ध्रुवीकरण देखने को नहीं मिलता जैसा जाट इलाकों में जाटों के खिलाफ... क्यों? इसका कारण है, मीणा आपको नौकरियों में तो दिखेंगे, लेकिन अभी इनका बाजारों, दुकानों पर वैसा कब्जा नहीं है, जैसा जाटों का है। दौसा, सिकंदरा जैसे इलाकों में भी मीणाओं की कोई तगड़ी दुकानें नहीं मिलेंगी आपको, बिजनेस में कोई खास भागीदारी नहीं मिलेगी आपको मीणा लोगों की, यहां तक कि ये प्रोपर्टी डीलर भी नहीं हैं, प्रोपर्टी भी ये खरीद जरूर लेते हैं इनके अफसर, कर्मचारी वगैरह ऑनलाइन कहीं किसी कॉलोनी में कोई प्लॉट वगैरह, वो एक अलग बात है... लेकिन ये जाटों की तरह कोई कॉलोनाइजर हैं या इनका रियल एस्टेट का कोई बिजनेस है, ऐसा कोई लफड़ा नहीं है... जबकि जाट कॉलोनाइजर आपको हर छोटे-बड़े शहर में नजर आ जाएंगे, डीएलएफ, इंडिया बुल्स जैसी जाटों की रियल एस्टेट कंपनियां शेयर बाजार तक में लिस्टेड हैं... या कि दौसा से चलने वाली एसी कोच मीणा लोग चलाते हैं, ऐसा भी कुछ नहीं है जबकि इससे इतर जाट लोग ट्रांसपोर्ट के मामले में भी खासी दखल रखते हैं... एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स की बात करें तो आपको नीट-आईआईटी में बणियों के प्रभुत्व वाली एलन कोचिंग के पैरलल जाटों का आकाश एजुकेशनल इंस्टीट्यूट हर शहर में दिखेगा..., सीएलसी, गुरूकृपा जैसे छोटे-मोटे तो कई कोचिंग बन गए जाटों के... तो मीणा लोगों के खिलाफ ध्रुवीकरण इसलिए नहीं होता कि इनका सारा फोकस नौकरियों पर है...
अब जाटों के साथ समस्या क्या है कि वो फर्नीचर की दुकान भी खोल लेगा, नाई का सैलून भी खोल लेगा, माली वाला काम भी कर लेगा (नर्सरी या सब्जी की दुकान), मिठाई की दुकान भी खोल लेगा,... तो मूल कारण यह है जाटों के विरोध का, जो भी जाति सामाजिक तौर पर, आर्थिक तौर पर वर्चस्वशाली होगी, उसका विरोध होगा ही... अब इससे इतर राजपूत आपको कहीं नहीं मिलेगा जो मिठाई की दुकान खोल लेगा या सब्जी की दुकान खोल लेगा तो राजपुरोहित से या माली से राजपूत का टकराव क्यों होगा? तो ये जो जाटों की समस्याएं हैं, वे आर्थिक वर्चस्व की समस्याएं हैं और ये रहेंगी ही, इस विरोध का अब कोई उपाय नहीं है, इसको आपको अब झेलना ही पड़ेगा, स्वीकार करना ही पड़ेगा...
मतलब बात आ गई दूसरों के अङने वाली, जैसे बणिए हैं, बाजार में हैं, अपना व्यापार कर रहे हैं, उनकी पुरानी दुकानें हैं... दूसरों के अङना कब होता है? जब आप उनके क्षेत्र में जाकर उनकी संपत्ति खरीदो... अब बणिए हैं तो वो अपनी जगह हैं, ऐसे थोड़े ही कर रहे हैं कि वो गांवों में आ गए, वहां जाटों की जमीनें खरीदने लग गये, ट्यूबवेल लगा लिए, ऐसा तो नहीं हुआ न, मतलब जो परंपरागत सामाजिक व्यवस्था है, आर्थिक व्यवस्था है, उसमें असंतुलन जाट पैदा कर रहे हैं, विरोध का मूल कारण यह है... और मुझे नहीं लगता कि इसका कोई इलाज भविष्य में निकलेगा...
इस विरोध से बचने का उपाय तो सिर्फ एक ही है कि या तो जाट भी 5-5 बच्चे पैदा करें, कोई पुचके बेच रहा, कोई बसों में खलासी बन रहा, इस तरह की जेनरेशन पैदा करो या फिर वस्तुस्थिति स्वीकार कर लो...
बाकी जाट बोलने में अक्खड़ है, उस वजह से विरोध है, ऐसा कुछ नहीं है, वो चीजें तो बहुत पीछे छूट चुकी...
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