Sunday 18 October 2015

कित-कित तैं रो ल्यूं इन घुन्नों को!

पंचायतों और खाप पंचायतों से एलर्जी रखने वाले और शायद इनसे घृणा करने वाले मीडिया के कार्यक्रमों के नाम तो देखो "पांच की पंचायत", "चार की चौपाल", "पंचायत", "चुनाव की पंचायत" आदि-आदि|

म्हारे हरयाणे में जो इशारों-इशारों में किसी से कोई बात निकलवा ले उसको "जूत झाड़-झाड़ के बुलवाना" कहते हैं, परन्तु यह मीडिया वाले तो ऐसे घुन्ने हैं कि जूत झाड़निये की गरद उतर जाएगी परन्तु ये लोग यह नहीं बता पाएंगे कि यह दोगलापन क्यों?

गाँव-गुहांड-गौहर में पाई जाने वाली पंचायतों और खापों के शब्दों और इन वाले शब्द में ऐसे कौनसे फ्लेवर का फर्क है जो जब इसको गाँव वाले प्रयोग करें तो मीडिया के द्वारा ही तालिबानी-रूढ़ी ठहरा दिए जावें और वही शब्द इनके हाथ पड़ें तो ऐसे शुद्ध और मॉडर्न हो जावें कि जैसे मीडिया के हाथ ना पड़ गए हों अपितु गंगाजल में डुबो दिए हों?

खाएंगे यह भीरु लोग इस देश की संस्कृति को भी और आकृति को भी।

कित-कित तैं रो ल्यूं इन घुन्नों को!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


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