Thursday, 1 October 2015

हरयाणा के सीएम साहब हरयाणवियों की दरियादिली और हरयाणा की परम्परा को समझें!

हरयाणा के सीएम साहब और आरएसएस के शिष्य जी अगर आप हरयाणवी एथनिक आइडेंटिटी के लोगों को कंधे से ऊपर कमजोर बोलेंगे तो आरएसएस नहीं लगती म्हारी छोटी साली भी (हरयाणवी में इसका मतलब है हमें आरएसएस से कोई मतलब नहीं)|

सीएम साहब, हरयाणवियों ने तो अपने हरयाणा रुपी उपवन को सदा इतना शांतिप्रिय बना के रखा कि नागपुरी पेशवा विचारधारा के तहत मुंबई में मराठी बनाम गैर-मराठी के नाम पे पीट के भगाए गए बिहारी-बंगाली-असामी भाइयों को भी हमारा राज्य भाषावाद-क्षेत्रवाद-नश्लवाद से रहित लगा और इस खापलैंड पे आन बसे| तो फिर "हरयाणवी कंधे से ऊपर कमजोर होते हैं का बयान दे के" आप क्या तस्वीर पेश करना चाहते हैं उनके आगे हरयाणा की?

आज के दिन जितने सौहार्द से हर हरयाणवी अपने पूर्वोत्तरी भाईयों के साथ अपना रोजगार और संसाधन बँटवाता है ऐसे ही हमने आप के समाज के लोगों के लिए इतिहास में कई बार किया है|

याद कीजिये इतिहास में हरयाणवियों ने जो आपका साथ दिया था| 1947 में जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए थे वो हमने सीमा के इस पार हमारी ख़ुशी के लिए नहीं किये थे अपितु जब उन्होंने आप द्वारा उनके लिए जमाने से रखे जाते आ रहे द्वेष वाले व्यवहार (शायद उसी लाइन पे आप अब इधर भी चल रहे हो) की भड़ास निकालने हेतु आप लोगों को जलाना-फूंकना शुरू किया तो उसके जवाब में हमें यह मार-काट सीमा के इस पार मचानी पड़ी थी और तभी आप लोग पाकिस्तान से जिन्दा बचकर भारत आ पाये थे|

फिर जब 1984-86 में पंजाब (वैसे आप खुद को पंजाबी कहते हुए नहीं थकते, जबकि आप वास्तविक पंजाबी होते तो पंजाब वाले भाई आपको वहाँ से भगाते नहीं| और वैसे भी बाई डिफ़ॉल्ट आधा पंजाबी तो मैं भी हूँ, क्योंकि 1966 से पहले हरयाणा-पंजाब एक ही थे) में असली और वास्तविक पंजाबियों ने आपके इसी द्वेषपूर्ण रवैये से तंग आ के आपको हरयाणा की तरफ खदेड़ दिया और हमने दूसरी बार फिर से बड़ा जिगर दिखाते हुए आपको हमारे यहां के अम्बाला-दिल्ली जीटी रोड पे बसासत में मदद की|

तो भाई, अब भाषावाद-क्षेत्रवाद-नश्लवाद के नाम पर हरयाणवियों का तो इतिहास रहा नहीं कि हमने किसी को मारा हो, परन्तु फिर भी नागपुरी पेशवा विचारधारा से आपका चरित्र और गुण हूबहू मेल खाते हैं| तो आप ऐसा क्यों नहीं करते कि वहीँ उनके पास ही शिफ्ट हो जाओ महाराष्ट्र में? ताकि हम हरयाणवियों को तो चैन की सांस मिले कम-से-कम|

हरयाणवी मनमर्जी से तो दे दे भेलि भी परन्तु आई पे देवें ना गन्ना भी| अत:आरएसएस कोई हमारी छोटी साली (हरयाणवी में इसका मतलब है हमें आरएसएस से कोई मतलब नहीं) ना लगती जो अगर आप उसके बहम और शिक्षा के चलते यहां यह द्वेष फैलाने के एजेंट बने हुए हों तो| हरयाणवियों की दरियादिली और हरयाणा की परम्परा को समझो और आरएसएस की शिक्षा छोड़ के अपने हरयाणवी उपवन को हरयाणवी परम्परा के तहत और खुशहाल बनाओ|

आपको समझना चाहिए कि जब आरएसएस इनकी हेडक्वार्टर स्टेट यानी महाराष्ट्र में ही इनके फेवरेट नारे "हिन्दू एकता और बराबरी" को लागू नहीं करवाती या करवा सकती तो हमें क्या खा एकता और बराबरी सिखाएगी| और क्योंकि यह सामाजिक एकता और बराबरी का गुण हर हरयाणवी में बाई-डिफ़ॉल्ट होता है इसलिए हम आरएसएस की विचारधारा से इतने ज्यादा प्रभावित भी नहीं हैं| वही बात आरएसएस की शिक्षा अगर आपको यह भी तमीज नहीं सिखाती कि एक स्टेट की एथनिक आइडेंटिटी का आदर-मान कैसे संजों के रखा जाता है तो आरएसएस नहीं लगती म्हारी छोटी साली भी|

विशेष: हालाँकि मैं खुद भी इस लेख को सीएम साहब तक पहुँचाने की कोशिश में हूँ, फिर भी इसको सीएम साहब तक फॉरवर्ड करने या पहुँचाने वाले का धन्यवाद!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक धर्म विश्व पे कितना और कहाँ तक राज करेगा यह इसपे निर्भर करता है कि अपने धर्म के सबसे नीचे पायदान पे बैठे इंसान के लिए वह कितना करता है!


मुझे क्रिश्चियन्स की यह बात बहुत पसंद है कि वो किसी से डरा-धमका, जादू-टोना या चमत्कार के नाम पर दान-दक्षिणा नहीं लेते या कहो पैसे नहीं हड़पते| अपितु साफ स्पष्ट बता के लेते हैं कि इसको कम्युनिटी के कार्यों में प्रयोग किया जायेगा| और यह लोग वास्तव में करते हैं भी हैं, दान आये हुए पैसे से गरीब तक के लिए सुविधाएँ खड़ी करते हैं| और यही कारण है कि इस धर्म में सबसे कम भिखारी होते हैं, सबसे कम गुरबत और भुखमरी होती है| क्रिश्चियन में जितने भी थोड़े-बहुत भिखारी होते हैं इनकी एक और खासियत होती है वो चर्च के आगे कभी भीख नहीं मांगेंगे, अपितु मार्किट में जा के मांगेंगे|

जबकि हमारे हिन्दू धर्म में सबसे निचले तबके को तो अछूत दलित-शूद्र बना के ऐसे रख छोड़ा जाता है कि उसको इन सुविधाओं के लायक तक नहीं समझा जाता, दरअसल इंसान भी नहीं समझा जाता|

कम से कम मैंने तो आज तक यूरोप में यह चीज कहीं नहीं देखी| असल में चर्च से बाहर और ज्यादा इनका दूसरा धार्मिक स्थान कहो या अड्डा कहो, होता ही नहीं| जबकि हमारे यहां मंदिर के अंदर से काम ना चले तो सतसंग के पंडाल लगा लो, डेरे खोल लो, माता की चौकियां सजा लो| मतलब हिन्दू धर्म इस धक्काशाही वाली तर्ज पर काम करता है कि अगर आप चल के मंदिर नहीं आये तो हम भगवान को ही आपकी गली-मोहल्ले तक ले आएंगे, और कभी जगराते तो कभी आरती कर-कर के आपके कान भी फोड़ेंगे और आपकी जेबें भी लूटेंगे|

यहां तक कि इंसान की हैसियत देख के दान-दक्षिणा जो कि कायदे से एक आदमी की अपनी मर्जी से देने की चीज होती है, वो भी फिक्स होती है| जो जितना बड़ा हैसियत वाला उससे उतनी ज्यादा वसूली|

"मेक इन इंडिया" वालों की सरकार है, जब हर चीज को बनाने के लिए विदेशियों को बुला रहे हो तो अपने धर्म के लोगों के प्रति धर्म का कर्तव्य सिर्फ लेना ही नहीं अपितु उस लिए हुए से धर्म के जरूरतमंद और गरीब तबके के लिए कुछ करना भी होता है इसकी ट्रेनिंग भी दिलवा लो|

कसम से समाज में गरीबी-गुरबत और भिखारी मिटाने का ठेका सिर्फ सरकार-समाज का नहीं होता है अपितु धर्म का भी होता है|

विशेष: यह पोस्ट एक धर्म अपने धर्म के अंदर क्या करता है उस पर है, इस पर नहीं कि एक धर्म दूसरे धर्म के बारे क्या सोचता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गाय और भैंस के दूध के गुणों और स्वभाव को लेकर हरयाणवी समाज में परख आधारित प्रचलित लोकोक्तियाँ व् विचार!

1) "गोरखनाथ का पिछोका, गौका देखे ना मसोहका!" - यानी सांड की वासना कामान्धता के स्तर की होती है, जब चढ़ती है तो वह ना तो गाय देखता है और ना ही भैंस! जो सामने हो उसी पे चढ़ जाता है| जबकि भैंसा किसी भी सूरत में गाय पे नहीं चढ़ेगा यानी वह वासना के वक्त भी अपने होश नहीं खोता और वह उसको सहन कर जाता है| कहने की जरूरत नहीं कि हर दूसरा साधु-मोड्डा-बाबा अवैध संबंधों में लिप्त क्यों पाया जाता है या चेलियों को क्यों पालता या इर्द-गिर्द रखता है|

2) "लोभ लाग्या बणिया, चूंदे लाग्या गौका, रुकें-तो रुकें ना तो चाले-ए-जां!" - चूंदे यानी आपकी खेती खाने की आदत पड़ा हुआ सांड, खेत से सिर्फ पेट भर के बाहर निकल जाए ऐसा नहीं है अपितु वो पेट भरने के बाद उसको उजाड़नी शुरू कर देता है| जबकि भैंसा यानि सरकारी झोटा पेटभर चर के खेत से बाहर निकल जाता है या पानी के जोहड़-तालाब में लेटने चला जाता है या किसी पेड़ के नीचे बैठ के सुस्ताने लगता है|

3) "घामड़ गाय का बाछ्डू, कलिहारी का पूत, तीनूं चीज रलै नहीं, जुणसा लोगड़ का सूत|" - यानि धूप में आवारा घूमने वाली गाय का बछड़ा कभी सामान्य नहीं होता, वो माँ की ही लाइन पे चलता है, सामान्य जानवरों से अलग व्यवहार करता है|

4) "दो लड़ते हुए झोटों (भैंसों) को छुड़वाना आसान परन्तु दो लड़ते हुए सांडों को छुड़वाना मुहाल!" - दो लड़ते हुए झोटों को आसानी से अलग करवाया जा सकता है| जबकि सांड लड़ेंगे तो इस स्तर तक कि उनको छुड़वाना ऊँट को रेल में चढाने जितना कठिन होता है, छुड़वा भी दिया तो फिर बार-बार आ के भिड़ते रहेंगे|

5) भैंसों के झुण्ड पे कोई अटैक करे तो सारी एकजुट हो जाती हैं, जबकि गाय के झुण्ड पे अटैक हुआ तो वो तितर-बितर हो जाता है| गौका ग्रुप में रहना नहीं जानता जबकि मसोहका शांति और मुसीबत दोनों वक्त एक साथ रहता है|

6) "शेर का मनपसंद भोजन गाय है भैंस नहीं!": क्योंकि अटैक के वक्त तितर-बितर हो जाने से शेर के लिए एक गाय को मारना आसान रहता है जबकि भैंसों के झुण्ड तो क्या एक अकेली भैंस पे भी अटैक करने से शेर डरता है|

7) "ऊँटनी के दूध पे आठ मलाई, भैंस के दूध पे चार मलाई और गाय के दूध पे एक मलाई आती है": इसलिए छोटे बच्चे को पिलाने के लिए जहां गाय के दूध में सिर्फ आधा हिस्से का ही पानी डालने से काम चल जाता है, वहीँ भैंस का पिलाने के लिए तीन-चौथाई तक पानी डालना पड़ता है| छ महीने से एक साल तक के बच्चे की पाचनशक्ति भी इतनी ताकतवर नहीं होती है इसलिए उसे इस उम्र में भैंस का दूध हजम नहीं हो पाता, दस्त लग जाते हैं| और क्योंकि गाय का दूध पतला होता है इसलिए यह बच्चों को जल्दी पच जाता है|

8) "जिसके घर काली, उसके घर दिवाली!": यानि इकोनोमिक लिहाज से एक भैंस ज्यादा फायदा पहुँचाती है|

9) "अड़ी और फंसी हुई जगहों पर झोटा ज्यादा कारगर होता है": उदाहरण के तौर पर पश्चिमी यूपी में गन्ने के ट्राले कीचड़ भरे खेतों से निकालने हेतु झोटे प्रयोग किये जाते हैं बैल नहीं|

10) "बैल को हल व् गाड़ी में जोड़ने के लिए उसको ऊना करना पड़ता है जबकि झोटे के मामले में इसकी जरूरत नहीं पड़ती!" - गौके की कामान्धता की वजह से उससे काम लेने हेतु उसको सेक्स से दूर रखने हेतु उसकी वीर्य नली कुंद करनी पड़ती है| यानी बैल एक वक्त में एक ही काम कर सकता है या तो सांड बना के बच्चे पैदा करवा लो या फिर ऊना बना के हल-गाड़ी में जोड़ लो| जबकि झोटा दोनों काम एक साथ बिना किसी अवरोध के मैनेज कर लेता है| वैसे तो गाय यानि बैल भिन्न-भिन्न रंगों के होते हैं जैसे कि काले-सफ़ेद-नीले-पीले परन्तु हल में जोड़ने हेतु सिर्फ और सिर्फ सफ़ेद रंग के बछड़े को ही बैल बनाया जाता है क्योंकि सफ़ेद रंग सूर्य की किरणों को परिवर्तित करता रहता है जिससे बैल का शरीर गर्म नहीं हो पाता और वो धूप में भी हल में चलता रहता है| और यही वजह है कि झोटों को हल में नहीं जोड़ा जाता, बैल को जोड़ा जाता है।

विशेष: मुझे पता है इस लेख को पढ़ के भक्तों को चुरणे लड़ेंगे परन्तु मैंने न्यूट्रल हो के यह बातें लिखी हैं| इसके एक भी तथ्य में कोई त्रुटि मिलती है तो ना सिर्फ उसके लिए क्षमा प्रार्थी होऊंगा अपितु तुरंत प्रभाव से उसको ठीक भी करूँगा| मैं सिर्फ उन खाली गाय की रक्षा करने और उसको पालने की वकालत करने वाले परन्तु खुद कभी गाय ना पालने वाले घुन्नों से कहीं ज्यादा गौ-भक्त हूँ| मेरे परिवार और गाँव दोनों का आर्य-समाजी विचारधारा का होने की वजह से जब से होश संभाला है तब से मेरे घर से नियमित गौशालाओं में अनाज और तूड़े की भरी ट्रॉलियां जाती रही हैं| खुद मैं जब भी घर आता हूँ तो गायों को गौशाला में गुड़ खिला के आता हूँ| लेकिन साथ ही आवारा व् खेतों को उजाड़ने वाली गायों को गाँव-गली-खेत से बाहर भी छोड़ के आता रहा हूँ| और मुझे यह सब करने की प्रेरणा हेतु किसी घुन्ने, भगत या अंधभक्त के प्रवचन की जरूरत नहीं है| इसलिए इस पोस्ट पे अपनी अक्ल की पिटारी खोलते वक्त और कमेंट करते वक्त सेंसिबल कमेंट करें, ज्यादा कणछें (झिंगा-ला-ला हूँ-हूँ ना करें) नहीं क्योंकि अपनी सेहत पे इससे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला| परन्तु हाँ जिनको ज्ञान लेना है, और गाय और भैंस की अनलॉजिकल (analogical) नॉलेज लेनी हो उनके लिए इस पोस्ट में सब कुछ है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

गाय को लेकर अभी हमारे देश को दो कानूनों की सख्त जरूरत है!

1) सरकार गाय पे लेक्चर देने वालों के जूतों-कपड़ों में लैदर जांचने हेतु जिलास्तर पर ऑफिस खोले: सर्दियां आ रही हैं तो सबकी लैदर जैकेट, स्कार्फ़, टोपी, जूते (हालाँकि जूते तो गर्मियों में भी चलते हैं) संदूकों, अलमारियों से बाहर निकलेंगे और गाय पे लेक्चर देने वाले उर्फ़ भक्त भी निकालेंगे। तो क्या है कि हर भक्त के ऊपर बताये हर कपड़े की जाँच शुरू करवाई जाए कि कहीं उसके जैकेट-जूते वैगेरह में गाय का चमड़ा तो प्रयोग नहीं हो रखा? और जिसके में हो रखा हो उसको सबसे पहले और नैतिक जिम्मेदारी के तहत नैतिकता के आधार पर खुद आरएसएस (और इस तरह के तमाम संगठन) उस बन्दे या बंदी को बीच-बाजार चौराहें पे फाँसी तोड़े। 

2) देश में कानून बने कि अगर आपके खुद के घर में गाय नहीं बंधी है तो आप दूसरों को गाय पे किसी भी प्रकार के लेक्चर नहीं झाड़ोगे: और इस कानून के तहत ना सिर्फ व्यक्तिगत अपितु आरएसएस जैसे संगठन भी खुद को शामिल करवावें और वक्तव्य जारी करें कि जब तक आरएसएस के एक भी कार्यकर्त्ता के घर गाय नहीं बंधी है तब तक आरएसएस ना ही तो अपने मंचों से और ना ही अपने कार्यकर्ताओं से गाय संबंधित लेक्चर या प्रचार करवाएगी। पहले खुद बांधों और फिर भारतीय कानून के तहत किसी की निजता और आस्था को प्रभावित किये बिना जो प्रचार करना चाहो, करो।

और मुझे सिर्फ उम्मीद ही नहीं अपितु पूरी आशा है कि आरएसएस जैसे संगठन मेरी इस बात का सहर्ष समर्थन करेंगे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 30 September 2015

सरदार भगत सिंह की फांसी में दादा लालचंद फोगाट का कोई हाथ नहीं था; इस अफवाह से बचें!

विगत 2-3 दिन से सोशल मीडिया पर किसी पूर्वनिर्धारित साजिश के तहत सी प्रतीत होती एक बात बीच-बीच में उछल के आ रही है कि सरदार भगत सिंह की फांसी में राय बहादुर दादा लालचंद फोगाट का हाथ था| यह सिर्फ एक अफवाह मात्र है जिसका मैं इन तथ्यों के आधार पर खंडन करता हूँ:
1) राय बहादुर साहब की पत्नी सिख जाट थी|
2) वो भरतपुर रियासत के शाही दीवान थे, जहां से उनको काफी प्रॉपर्टी इनाम स्वरूप मिली थी व् कुछ उन्होंने अन्य स्त्रोतों से जोड़ी थी| जबकि फैलाया यह जा रहा है कि शोभा सिंह चोपड़ा और शादीलाल की भांति उनको यह प्रॉपर्टी अंग्रेजों से भगत सिंह मामले में मदद करने के ऐवज में मिली थी|
3) राय बहादुर साहब, सर छोटूराम और सेठ छाजुराम की गहरी नजदीकी सपोर्ट थे और सरदार भगत सिंह के कलकत्ता प्रवास के दौरान उनको जब सेठ छाजूराम के कलकत्ता बंगले में छुपाया गया था तो वो इसमें सहयोगी थे|
तो ऐसे में यह तथ्य अपने आप निरस्त हो जाता है कि उनका शहीद-ए-आज़म की फांसी में उनका कोई हाथ था| हालाँकि व्यापार कारोबार को लेकर उन पर कुछ केस जरूर बताये जाते हैं|
हाँ, शोभा सिंह चोपड़ा ने जरूर उनको असेंबली में बम फेंकते हुए देखने की गवाही दी थी और शादीलाल अग्रवाल जज ने उनको फांसी की सजा सुनाई थी| इसके ऐवज में इन दोनों को जरूर अंग्रेजों से इनाम स्वरूप ढेर सारी प्रॉपर्टी, मिल्स और बिल्डिंग प्रोजेक्ट्स मिले थे|
भगत सिंह बारे शादीलाल से लोगों की नाराजगी का तो यह आलम था कि जब वह स्वर्ग सिधारे तो बागपत-शामली इलाके की दुकानों पे किसी दुकानदार ने उनके लिए कफ़न तक भी नहीं दिया था| उनके लड़के दिल्ली से जा के कफ़न लाये थे|
इसलिए इस प्रकार की अफवाह से बचें और जैसा माहौल चल रहा है उसको देखते हुए समझें कि यह अफवाहें कहाँ और किस लॉबी से आ रही होंगी और किसलिए आ रही होंगी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

एक खत्री मनमोहन भी था और एक खत्री मनोहर भी है, तो बोलो दोनों में फर्क क्या?

मनमोहन ने कभी जातीय-वंशीय द्वेष-ईर्ष्या में ना पड़ के सदा तमाम भारतीय वर्गों का प्रतिनिधि बनके दस साल तक बतौर एक प्रधानमंत्री निर्बाध कार्य किया| मनमोहन सिंह के तो खुद जाट इतने कायल थे (और आज भी हैं) कि जब वो पहली बार प्रधानमंत्री बने और उनको राज्यसभा से लोकसभा में लाने हेतु किसी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़वाने की बात हुई तो सबसे पहले उस वक्त के रोहतक के जाट संसद माननीय दीपेंदर सिंह हुड्डा जी ने अपनी सीट खाली करने की घोषणा की| हालाँकि बाद में सरकार ने यह फैसला रद्द कर दिया|
और यह वही जाट थे जिन्होनें ठानी हुई थी कि अब हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज को हमने स्थानीय हरयाणवी निवासी मान लिया है|

परन्तु अब एक मनोहरलाल ने आ के नागपुरी पेशवाओं के इशारे व् प्रेरणा से "जाट लठ के जोर पर हक़ लेते हैं" और "हरयाणवी कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर होते हैं!" का बयान दे के वही भरे हुए गड्ढे फिर से खोद दिए जो इन जनाब के आने से पहले लग रहा था कि भर गए हैं|

कोई साधारण आम आदमी यह कहता तो शायद लोग कानों के ऊपर से मार जाते, परन्तु सीएम की पोस्ट पे बैठा आदमी उसी राज्य की एथनिक (ethnic) पहचान ‘हरयाणवी’ पे अटैक करे तो फिर और कोई हरयाणवी चुप रहे तो रहे पर एक हरयाणवी जाट कैसे चुप रह जाता, और कमांडेंट हवा सिंह सांगवान जी को फिर इन्हें इनका मूल ओरिजिन याद दिलवाना पड़ा|

माननीय मनोहर लाल खट्टर जी अगर नागपुरी पेशवाओं ( जो इनके मूल उद्गम महाराष्ट्र में उत्तरी-पूर्वी भारतीय बिहारी-बंगाली-असामी वैगेरह को मुंबई वैगेरह में मराठी बनाम गैर-मराठी के जहरी विष से डँसते हैं, साथ ही ध्यान दीजियेगा यह करते वक्त यह इनके फेवरेट नारे 'हिन्दू एकता और बराबरी" का भी ध्यान नहीं रखते वहाँ ) को अपना गुरु बना के उनकी काजल की कोठरी रुपी शिक्षा पे चलोगे तो दाग तो लागे ही लागे जनाब|

इसलिए कुछ नहीं रखा है इन नागपुरिया पेशवाओं की सीख पे चल के राज्य को चलाने में| आपको सनद रहना चाहिए कि उत्तरी भारत में

महाराजा रणजीत सिंह (एक जाट) और उनके सेनापति हरी सिंह नलवा (एक खत्री, कई इतिहासकार इनको जाट भी बताते हैं)
व् सरदार मनमोहन सिंह (एक खत्री) और चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा (एक जाट)
की तरह की जोड़ियां ही कामयाब हो सकती है| वरना अगर जैसे चल रहे हो ऐसे चलोगे तो फिर कोई नी

एक सर चौधरी छोटूराम (एक जाट) बनाम लाला नारंग (एक खत्री),
एक संत जरनेल सिंह भिंडरवाला (एक जाट) बनाम लाला जगत नरायण चौपडा (एक खत्री),
एक शहीद-ए-आजम भगतसिंह (एक जाट) बनाम शोभासिंह चौपडा (एक खत्री)
के बाद अब एक पूर्व कमांडेंट हवासिंह संगवान (एक जाट) बनाम सीएम मनोहरलाल खट्टर (एक खत्री) और सही|

और याद रखियेगा जब-जब जाट और खत्री आपस में जुड़े हैं तो सकारात्मक इतिहास बने हैं परन्तु अगर आमने-सामने हुए तो फिर भी इतिहास तो सकारात्मक ही बने हैं परन्तु अकेले जाट के पाले से| उदाहरण ऊपर हैं|

और अगर आप इस बहम में आ गए हो कि मेरे सर पे नागपुरिया पेशवाओं का हाथ है और जो मार्ग वह दिखा रहे हैं वही सही है, तो याद रखना यही नागपुरी पेशवा एक बार जाटों को नजरअंदाज करके और जाट महाराजा सूरजमल द्वारा दी गई "मिलके लड़ने की सलाह" पे पेशवा सदाशिवराव भाऊ जैसे लोग "दोशालो पाट्यो भलो, साबुत भलो ना टाट, राजा भयो तो का भयो, रह्यो जाट गो जाट!" का तान्ना मारते हुए 1761 में पानीपत के मैदान में चढ़े आये थे, परन्तु बाद में कैसे जाटों ने ही वापिस महाराष्ट्र छुड़वाए थे वो भी बाकायदा "फर्स्ट-ऐड" करके, इसका सिर्फ भारत ही नहीं अपितु जिनके राजों में कभी राज के सूर्य अस्त नहीं हुआ करते थे (अंग्रेज) भी साक्षी बने थे|

तो अगर जाटलैंड पे शासन करने की इनकी सदियों पुरानी कशक को पूरी करने के चक्कर में आप स्थानीय जाट-खत्री/अरोड़ा भाईचारे की बलि चढ़ा रहे हैं तो भान रहे आप पहुँच से बाहर की बलि चढ़ा रहे हैं, जो सपना सच नहीं हो सकता उसकी जद्दोजहद में हरयाणा को झोंक रहे हैं| एक पल को हरयाणवी या जाट इनके राज को स्वीकार भी कर लेवें परन्तु उसके लिए इन नागपुरी पेशवाओं को पहले इनके मूलस्थान महाराष्ट्र में अपने बिहारी-बंगाली-असामी और तमाम भारतियों व् हिन्दुओं के साथ मिलके कैसे रहना होता है वो सीखना होगा|
या फिर अगर अमित शाह के "देशभक्ति सिर्फ देश के लिए जान देना ही नहीं होती, अपितु जो हम कर रहे हैं उसको भी देशभक्ति कहते हैं!" वाले बयान के भळोखे (बहकावे) में चढ़ यह सब कर रहे हो तो याद रखना ऐसे सेल्फ-स्टाइल्ड देशभक्तों की देशभक्ति तब तक ही होती है जब तक कि:

1) कोई महमूद ग़ज़नवी सोमनाथ के मंदिर को लूटने ना चढ़ आवे और जब यह सेल्फ-स्टाइल्ड देशभक्ति वाले सेल्फ-स्टाइल्ड देशभक्ति का टोर दिखावे खातिर दुश्मन की सेना को मंदिर में घुसने पे अंधी होने के डर दिखावे तो वो ना सिर्फ अंदर घुस जावे बल्कि सारे मंदिर को तहस-नहस कर करीब 1700 ऊंटों पे उसका खजाना लाद, अरब की ओर काफिले का मुंह करावे तो सिंध के मैदानों में “बाला जी जाट महाराज” ही महमूद ग़ज़नवी का मुंह तोड़ के सारा खजाना छीन के देश से बाहर ना जाने देवे वाली असली देशभक्ति और गाढ़ी देशभक्ति दिखावे|

यहां ध्यान दीजियेगा हमारे देश में बालाजी के नाम से जितने मंदिर हैं वो उन्हीं बाला जी जाट महाराज के हैं, जिनको बाद में इन सेल्फ-स्टाइल्ड देशभक्तों ने अपनी भक्ति चलाने हेतु हनुमान जी का चोला पहना दिया, वरना उससे पहले बाला जी शब्द ना किसी रामायण में और ना किसी महाभारत में लिखा पाया/बताया/गाया जाता| और यही कारण है कि यदा-कदा समाज यह कहता हुआ पाया जाता है कि हनुमान तो जाट थे| क्योंकि तमाम कोशिशों के बावजूद भी यह लोग बाला जी को हनुमान जी का चोला पहनाने वाली बात को कभी दबा नहीं पाये|

2) कोई मोहम्मद गौरी जब दूसरे युद्ध में पृथ्वीराज को हरा उनकी हत्या कर देवे तो चौधरी रामलाल जी खोखर उसको मार गिरावे और असली देशभक्ति व् गाढ़ी देशभक्ति दिखावे|

3) जब कोई तैमूरलंग नपुंसक हो चुकी भारतीय सत्ता पे चढ़ आवे तो सर्वखाप सेना अकेली बिना किसी राजकीय सेना के उसका मुंह तोड़-तोड़ सुजावे और उसकी छाती में भाला ठोंक उसको उसके घर की ओर भगावे और असली देशभक्ति व् गाढ़ी देशभक्ति दिखावे|

खैर यह लिस्ट तो इतनी लम्बी है कि कम-से-कम दो दर्जन उदाहरण की फेहरिस्त बन जावे| फ़िलहाल के लिए इसको इतना ही रखते हुए सौहार्द की बात यही है कि सरकार मत चलाओ हमको नागपुरिया पेशवाओं की राह पे| क्या महाराष्ट्र में अपने बिहारी-बंगाली-असामी भाइयों का हाल देख के मन नहीं भरा आपका, जो हरयाणा को भी उसकी गर्त में धकेलने जैसे रास्ते चुने जाये ही जा रहे हो?

रोको खुद को भी और अपने मंत्री, एमएलए और एम्पियों को भी| वरना आपको इतिहास ऐसे ही याद किया करेगा कि "एक खत्री मनमोहन भी था और एक खत्री मनोहर भी, तो बोलो दोनों में फर्क क्या?"

विशेष: हालाँकि मैं खुद भी इस लेख को सीएम साहब तक पहुँचाने की कोशिश में हूँ, फिर भी इसको सीएम साहब तक फॉरवर्ड करने या पहुँचाने वाले का धन्यवाद!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 27 September 2015

A world’s ancient-most caste-creedless democratic social engineering theory called as “Khapology”!


"इति: यौद्धेय गणतंत्र!"

Analogical similarities to world social theories: A theory which bears global features and characteristics such as:

1) Analogical studies say that they run with the principle of world renowned “Social Jury” system, which is practiced in official way in U.S.A., Canada, Australia, England, France and many other powerful nations of the world and in an unofficial way in India just by Khaps. Where U.S.A. has a “Social Jury” on every case with 11 people, Khaps have it with 5 Panches. A system where in U.S.A. judges only play the role of observatories and delivers the justice of “Social Jury” so is the practice taken up since ages where the president of the Khap Panchayat administers the proceedings while 5 panches deliver the justice as per social and human norms.

2) Analogical studies say that each village in only the “Khapland” region of India has the “Chaupals” which are equivalent of “Hotel de Ville” in France, Community Center or Central Hall in England and U.S.A. Except Khapland area no other region in India has such wonderful pattern of community gathering.

3) Analogical studies elaborates that prohibition of marring in same surname is found in European countries such as France, Romania, Germany, Switzerland, England etc., which in India is only practiced under “Khapology” social theory. No other theory in India advocates this concept.

4) Analogical studies reveals another similarity with fundament of Sikh religion but even before of that. As Sikhs worship only the real-time happened Gurus so is the case with people of Khapology theory. They also worship their very first ancestors of a village establishment called as “Dada Kheda”.

5) Global Corporate World such as Google treats its every affiliate be it owner, employee or vendor as partners only. So is the case of working ethics in agri profession of Khapland. Here owner and employee both are treated on "Seeri-Saajhi" theory i.e. campanion of both cherishing and sorrow. Except Khapland region there is no where in India this practice is practiced. Rest of India works with "Maalik-Naukar" i.e. Owner-Servant working culture.

6) A theory in which one can use mother’s surname too: Perhaps the only social theory in world (nowhere else found so far) whose posterities practice mother’s surname too as prime surname instead of father’s under the aegis of “Got (gotra) of Kheda” concept of Khapology. In every second village of Khapland there are families entitled as “Dhani/Dhyani/Dehal ki aulad” means posterities of daughter. Concept of “Got of Kheda” deliberates that whether it is the posterity of son or daughter of village, in case of their inhibiting in ‘nanihal’ their surname would be the “Got of Kheda”. Further to elaborate a daughter-in-law would left her surname behind while coming to in-laws and her husband’s would be the prime surname of their posterity, and if a daughter is opting to settle down in her parental village (nanihal) then her surname would be their posterity’s prime surname, her husband’s one would be secondary surname or left behind. Life choice and circumstances play vital role in this norm.

12 Ideological Symbols of Sarvkhap:

1) Chaupal: Each village in the Khapland area has been an independent gantantra i.e. democracy run by own people. Just like any city in developed countries worldwide a village in Khap area may not find a temple but a chaupal as a must i.e. a community hall as a must and foremost requisite of its structure. They are found in grand size establishments to mini-fortress to bungalow sizes.

2) Dada Kheda: Each parent village of surrounding diaspora or independent area considers its very first ancestors as its the superior-most and the holiest deity. As Khapology always believes in a balanced human lifeto further keep the humanity and its values prevailing on top of every human aspect they never invest in large buildings for their deities. A simple room of square size with round tomb on top, white in color, void of statue and priest building structure homes the holy Dada Kheda deity in it. It represents people of all caste-creed may have laid the foundation stone of a village. Depending on area “Dada Kheda” carrys with many synonyms such as “Baba Bhoomiya”, “Dada Baiya”, “Gram Kheda”, “Jathera Ji”, “Patti Kheda”, “Baiya Ji”, “Bada Bir”  and “Nagar Kheda” etc.

3) Turban (Pagdi): Needlessly to say that what a place a turban has in almost every community of India expanded over region starting from Vindhyachal to Himachal a minimum. In Khaps it has its special attorney. A multi-purpose wearing with importance labelled from pride, honor, prestige to professions of war, agri and social jury.

4) Official Letterpad: Each Khap is organized through an authentic process called as “Chiththi Faadna” means “calling the panchayat by letter dispatching”. No Khap Panchayat ever held on the spot or on same day of its call. It usually is called upon with advance note of at least 3-4 days or ideally with advance notice of a ten days to fortnight as it needs a certain minimum time to prepare as per its decorum, size and nature.

5) Currency of Khaps: Khaps have had their own coins and currencies. Many manusciprts and coins found in one of five sub-HQ Rohtak (other 4 have been Delhi, Arga, Haridwar and Thanesar, while HQ being at Sorem in Muzaffarnagar, U.P.) and its Jhajjar area. Jhajjar National Gurukul has a sound collection of such coins which usually are termed as “Yoddheya Coins”.

6) YODDHEYs of KHAPS: The official term for warriors of Khaps for both male (Yoddhey) and female (Yoddheya). A warrior with sword riding a horse replicates a Yoddhey.Please be noted that it is a different term to word "Yoddha".

7) Dual Head Spear (Jeli in Hindi): The most crucial multi-purpose weapon of Khapology theories. It is a weapon prepared in a ready to use format both for agriculture and war equally. One need not to remove or add anything to it for agri field or war field.

8) White ‘Chadra’ on Dada Kheda: Only the peace and humanity is the ultimate slogan of Khapology and no color other than white may represent it better way. So each Dada Kheda apex is covered with “white chadra” in style of a flag or wrap.

9) Wheat Spike: Well that is what the real cause of survival for this theory i.e. feeding the nation.

10) Peacock: The symbol of prosperity, cherishing and pleasure in Khapology just like French’s have the cock in their culture. And that is why Khapland is the biggest home to this bird. Luckily it is also the national bird of our nation. The havelies of riches and powerful people on Khapland used to (and/or still use) raise its gig on their attic. Peacock also refers to Buddhism (a onetime most followed religion in Khapology). It also goes with Maharaja Harshwardhana's reign who conferred Khaps the official recognition on pattern of today’s system of social jury found in U.S.A, Australia, and Canada etc. You see a system which world follows today, Khaps have been so since centuries.

11) Bull: You know why people of Khapland don’t adore with idea of cow personification by RSS and VHP? Because we already by virtue are worshipers of Cow, Bull and Buffalo equally. They are the holiest animals considered in Khapology theories.

12) Nagada ‘Drum’: Nagada, Turai, Tamak have been the motivation and courage booster instruments among Khap warriors while going to war field. Even today on big Khap Mahapanchayats they are drummed very profoundly and proudly.

The picture here forms a collage of all these 12 symbols representing a theory called as “Khapology” in unison.

Authentic practices and glory of Khaps:

1) This may be very interesting fact for “Khapophobia” ridden Indian media that there is no Khap ever called without official calling through dispatching letters to interested and affected parties. Never ever any Panchayat held on Khapland out of this portfolio was considered as a Khap Panchayat. Each Khap Panchayat maintains its record of Minutes of Meeting, Decisions, Resolutions and/or Verdicts of every official meeting held under their scrutiny.

2) Perhaps the world only sociology completely void of any caste, creed or gender biasing to its core heart. Though due to tough times of invaders and pre-India Independence times saw limited participation on female gender side due to security reasons, traces of which ends until decades after independence.

3) Each Khap used to have its own “Pahalwan Brigade”, which have the record of fighting and defeating foreign invaders like Mahmood Ghaznavi, Mohmmad Gori, Taimur Lung, Khilji etc. Their loyalty was and has always been to one who weighed and respected their interests and dignity.

4) Khaps only have the honor of getting three almighty Mughal Emporers bowing before Head-Quarter Sorem, Muzaffarnagar of Sarvkhap to express their gratitude i.e. Baber, Sikandhar Lodhi and Razia Sultan. Not even a single temple or other social or religious institution of India is acclaimed of this feather in their cap.

5) Khaps have the mighty history of leading 1857 mutiny of First Indian Independence Movement in north India. Bahadurshah Zafar himself handed over the command of this revolt to them.

6) Each Education Gurukul and various other Education Institutes found on average 10 miles area of Khapland is built by Khaps only. They have been the advanced most flag-bearers of Education movement ever before of RSS. Similar is the case with charity like building cowsheds. No cowshed on Khapland is built without money or land generated and donated by them.

So one can easily understand on why Haryana is the most prosporous state with least gap between poor and rich, dalit and swarn. This theory cares about humanity so it is reckless

Jai Yoddhey! – Phool Kumar Malik

 

जाटो या तो आर्यसमाजी रह के मूर्तिपूजा से निषेध के ही रास्ते पे चलो अन्यथा अपने जाट महापुरुषों की मूर्तियां बना के उनको पूजो!

अगर जाट समाज ने अपना आर्य-समाज का मूर्ती-पूजा विरोधी होने का सिद्धांत त्याग दिया है तो फिर अपने जाटों महापुरुषों, अवतारों और यौद्धेयों की ही मूर्तियां बनवानी और पूजवानी शुरू कर दो; वरना अपने मूर्ती-पूजा विरोधी के स्टैंड पे ही कायम रहो!

वैसे जाट मूर्ती उपासक जरूर रहा है परन्तु पूजक नहीं और यही हमारा आर्य समाज कहता आया है| तो फिर अब अगर उपासक से पूजक बन ही रहे हो तो फिर "गॉड गोकुला" को पूजो, "महाराजा सूरजमल" को पूजो, "जाटवान जी महाराज" को पूजो, "दादिरानी भागीरथी महारानी" को पूजो, "महाराजा हर्षवर्धन" को पूजो, "बाला जी जाट जी" को पूजो, "वीर तेजा जी" को और बड़े स्तर पर पूजो, "रामलाल खोखर जी" को पूजो, "बाबा शाहमल तोमर" जी को पूजो, "सर छोटूराम जी" को पूजो, "बाबा टिकैत" के मंदिर बनवाओ, "चौधरी चरण सिंह" के मंदिर बनवाओ, "ताऊ देवीलाल" के मंदिर बनवाओ, "दादिरानी समाकौर" को पूजो, "दादिरानी भंवर कौर" को पूजो, "धन्ना भगत" जी की भक्ति को और फैलाओ, "दादा भूरा जी और निंघाहिया" जी को पूजो, "जाट हरफूल जुलानी वाले" के मंदिर बनवाओ, "राजा नाहर सिंह" जी को पूजो, "सरदार भगत सिंह" जी को पूजो, "महाराजा रंजीत सिंह जी" को पूजो, "महात्मा गौतम बुद्ध" को पूजो, "भगत फूल सिंह को पूजो|

दिखती सी बात है राजा-महाराजा के नाम पर जब "राजा राम" की पूजा हो सकती है तो हमारे वालों की भी हो सकती है| और जितनी चाहिए लम्बी चाहिए उतनी लम्बी लिस्ट बना देता हूँ, हमारे जाट समाज के ही अपने देवी-देवताओं की, जो कि वासतव में हो के भी गए और हमें और समाज को भी गौरवान्वित करके गए|

कहने का अर्थ यही है जाट-समाज कि या तो अपनी मूर्ती-विरोधी आर्य-समाजी विचारधारा को पकडे रहो अन्यथा हर मंदिर में जाट देवी-देवता बैठा दो| और अपने ही समाज के पुजारी और कर्मचारी बैठा दो|
इससे हिन्दू धर्म को भी आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि हम खुद हिन्दू हो के हिन्दू की मूर्ती बना के उसकी पूजा करेंगे तो कौन हिन्दू ऐतराज करेगा, या करेगा कोई? वैसे भी तैंतीस कोटियों में तैंतीस करोड़ से ज्यादा देवी-देवता हैं, उसमें पचास-साथ, सौ-दो सौ हमारे और सही।

पूर्णत: मूर्तिपूजा निषेध रखा तो सबसे अग्रणी समाज बने; अब मूर्तिपूजा में उतर रहे हो तो फिर अपनों की मूर्तियां बनवा के उनको पूजो| वर्ना वो दिन दूर नहीं जब "धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का" और "कौवा चला हंस की चाल, अपनी ही चाल भूल बैठा वाली बनेगी| जी हाँ मूर्ती पूजा निषेध के हम हंस हैं, परन्तु मूर्ती-पूजा के कव्वे| लेकिन अगर मूर्ती-पूजा के भी हंस बनना है तो अपनों की मूर्तियां बना के पूजो, वर्ना हंस से कव्वे बनने का दिन दूर नहीं| बाकी मूर्ती-पूजा निषेध के तो हम हंस पहले से हैं ही|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

हरयाणा सीएम खट्टर साहब, "व्यापारी को बावन बुद्धि होवें तो जाट को छप्पन होवें!"

लेख का उद्देश्य:
1. हरयाणा सीएम खट्टर साहब की तरह कंधे से ऊपर की मजबूती दिखाने बाबत!
2. हर हरयाणवी किसान का बालक अब सर छोटूराम बन जाओ, जिन्होनें इनकी हर घिनौनी चाल की गाँठ बाँध के रख दी थी। और रोया करते थे एकमुश्त उनकी चालों के आगे!

चौधरी छोटूराम जी की पहली शिक्षा थी कि हमें धार्मिक तौर पर कभी भी कट्टर व रूढ़िवादी नहीं होना चहिये। उस समय संयुक्त पंजाब में 55 हजार सूदखोर थे, जिनमें से लगभग 50 हजार सूदखोर पाकिस्तान के पंजाब में थे और इनमें अधिकतर अधिकतर वहाँ के हिन्दू अरोड़ा/खत्री व्यापारी थे। ये सभी लगभग सिंधी, अरोड़ा-खत्री हिन्दू थे, क्योंकि इस्लाम धर्म में सूद (ब्याज) लेना पाप माना गया है। उस समय पंजाब की मालगुजारी केवल 3 करोड़ थी। लेकिन सूदखोर प्रतिवर्ष 30 करोड़ रुपये ब्याज ले रहे थे। अर्थात् पंजाब सरकार से 10 गुना अधिक। उस समय पंजाब में 90 प्रतिशत किसान थे जिसमें 50 प्रतिशत कर्जदार थे।

जब गरीब किसान व मजदूर कर्जा वापिस नहीं कर पाता था तो उनकी ज़मीन व पशुओं तक यह सूदखोर गहन रख लेते थे। चौ॰ छोटूराम की लड़ाई किसी जाति से नहीं थी, इन्हीं सूदखोरों से थी, जिसमें कुछ गिने-चुने दूसरी जाति के लोग भी थे। ये सूदखोर लगभग 100 सालों से गरीब जनता का शोषण कर रहे थे। उसी समय कानी-डांडी वाले 96 प्रतिशत, तो खोटे बाट वाले व्यापारी 49 प्रतिशत थे। किसानों का भयंकर शोषण था। हिन्दू अरोड़ा/खत्रियों के अखबार चौ. साहब के खिलाफ झूठा और निराधार प्रचार कर रहे थे कि “चौधरी साहब कहते हैं कि वे बनियों की ताखड़ी खूंटी पर टंगवा देंगे।” इस प्रचार का उद्देश्य था कि अग्रवाल बनियों को जाटों के विरोध में खड़ा कर देना। जबकि सच्चाई यह थी कि चौधरी साहब का आंदोलन सूदखोरों के खिलाफ था, जिनमें अधिकतर अरोड़ा/खत्री जाति के थे। उसके बाद यह प्रचार भी किया गया कि चौधरी साहब ने अग्रवाल बनियों को बाहर के प्रदेशों में भगा दिया। जबकि सच्चाई यह है थी कि अग्रवालों का निवास अग्रोहा को मोहम्मद गौरी ने सन् 1196 में जला दिया था जिस कारण अग्रवाल समाज यह स्थान छोड़कर देश में जगह-जगह चले गये थे और यह अभी अग्रोहा की हाल की खुदाई से प्रमाणित हो चुका है कि अग्रवालों ने इस स्थान को जलाया जाने के कारण ही छोडा था। (पुस्तक - अग्रसेन, अग्रोहा और अग्रवाल)।

संयुक्त पंजाब में महाराजा रणजीतसिंह के शासन के बाद से ही इन सूदखोरों ने किसान और गरीब मजदूर का जीना हराम कर दिया था। क्योंकि अंग्रेजी सरकार को ऐसी लूट पर कोई एतराज नहीं था क्योंकि वे स्वयं भी पूरे भारत को लूट रहे थे। एक बार तो लार्ड क्लाइव 8 लाख पाउण्ड चांदी के सिक्के जहाज में डालकर ले गया जिसे इंग्लैण्ड के 12 बैंकों में जमा करवाया गया। इस पर अमर शहीद भगतसिंह ने भी अपनी चिंतन धारा में स्पष्ट किया था कि “उनको ऐसी आजादी चाहिए जिसमें समस्त भारत के मजदूरों व किसानों का एक पूर्ण स्वतंत्र गणराज्य हो तथा इसके लिए किसान और मजदूर संगठित हों।”

इसी बीच जब 1947 में अलग से पाकिस्तान बनने की चर्चायें चलीं तो काफी सूदखोर पाकिस्तान में ही रहने की संभावनायें तलाशने लगे थे, लेकिन अलग पाकिस्तान की घोषणा होते ही मुस्लिमवर्ग में एकदम इन शोषणकारियों के विरुद्ध गुस्सा फूट पड़ा और उन्होंने बदले की भावना से प्रेरित होकर शोषणकारी अरोड़ा/खत्री हिन्दुओं की हत्या करनी शुरू कर दी। उस समय सिक्ख भी हिन्दुओं के रिश्तेदार थे इस कारण वे भी इस गुस्से के शिकार हुये। इस पर हिन्दू और सिखों ने पाकिस्तान से भागना प्रारंभ कर दिया, जिसमें काफी को उनके घरों व रास्ते में मुसलमानों ने कत्ल कर दिया| जिसमें लगभग 1 लाख हिन्दू व सिक्ख मारे गये और लगभग 1 करोड़ बेघर हो गये| जबकि हिन्दुस्तान व पाकिस्तान की सरकारों ने कभी किसी मुस्लिम व हिन्दू को देश छोड़ने का आदेश नहीं दिया। (समाचार पत्रों के अनुसार)

ज्यों ही ये मारकाट के समाचार पाकिस्तान के पंजाब से हमारे पंजाब में पहुंचे तो सिक्ख व् हिन्दू जाटों व अन्य ने इन हिन्दू अरोड़ा/खत्रियों पर हुए अत्याचार की प्रतिक्रिया स्वरूप मुसलमानों को मारना शुरू कर दिया। इस सच्चाई को पंजाब के तत्कालीन गर्वनर मिस्टर ई. एम. जैनकिम्स का पत्र दिनांक 4-8-1947 पूर्णतया सिद्ध करता है कि सबसे पहले दंगे 4 मार्च से 20 मार्च तक लाहौर में भड़के फिर 11 और 13 अप्रैल को अमृतसर में। उसके बाद फिर 10 मई को गुड़गांव जिले में भड़के और इस प्रकार लगभग सारे संयुक्त पंजाब में फैल गए। हिन्दू पंजाबी अखबारों में हिन्दु मृतकों की संख्या लाखों में बतलाई लेकिन राजपाल के इस पत्र के अनुसार पंजाब में कुल 4632 लोग मारे गए और 2573 घायल हुए। जिसमें देहात में 1044 और शहरों में 3588 मारे गए। इससे सिद्ध होता है कि अखबारों के आंकड़े बहुत बढ़ा-चढ़ाकर लिखे गए ताकि अधिक से अधिक मुआवजा व सहानुभूति बटोरी जा सके। गवर्नर ने अपने पत्र में साफ टिप्पणी की है कि “On the morning of March 4th 1947 rioting broke out in Lahore first. Rohtak disturbances were directly connected with those of in western unit provinces” अर्थात् “4 मार्च 1947 को सबसे पहले लाहौर में दंगे भड़के जो रोहतक में सीधे तौर पर दंगे भड़कने का कारण था।” यही इसका प्रमाण है। इसी प्रकार हरयाणा क्षेत्र में हिन्दू जाटों व अन्य ने मुसलमानों को मारना शुरू किया। प्रांरभ में यह किसी भी प्रकार का धार्मिक दंगा नहीं था, यह तो शोषण के विरोध में मुसलमानों की बदले की भावना की प्रतिक्रिया थी जो मारकाट के रूप में परिवर्तित हुई। हमने हिन्दू शरणार्थियों के मुँह से सुना है कि जो मुसलमान उनके घर की दहलीज पर बैठकर उन्हें सलाम करते थे वही हिन्दू व सिखों के सबसे कट्टर दुश्मन बने, इसका स्पष्ट कारण मुसलमानों का शोषण था। यह किसी भी प्रकार से प्रांरभ में हिन्दू मुस्लिम दंगा नहीं था, यदि ऐसा होता तो पड़ोस के कश्मीर में उस समय किसी भी एक हिन्दू या मुसलमान की हत्या क्यों नहीं हुई?

इसको बाद में हिन्दू-मुस्लिम धार्मिक दंगे का रूप दिया गया और इसके बाद इस बारे में आज तक अनेक फिल्में, पुस्तकें व लेखों आदि के माध्यम से इसे दंगा ही प्रचारित किया जाता रहा है क्योंकि पत्रकार व फिल्मकार इसी वर्ग से अधिक रहे हैं। जिससे शरणार्थियों के लिए यहाँ के हिन्दू व सिखों से पूरी-पूरी सहानुभूति बटोरी जाती रही है और वे यहां बसने में तथा लूट मचाने में सफल रहे।

इसी प्रकार हरयाणा क्षेत्र में बेगुनाह मुसलमानों का कत्ल किया गया तथा उन्हें यहाँ से भगाया गया। जबकि उनका कोई भी कसूर नहीं था, वे सभी तो हम हिन्दुओं के ही बीच से कभी मुसलमान बने थे, हमारी भाषा बोलते थे, हरयाणवी संस्कृति के पालक थे तथा सभी हिन्दू त्यौंहारों को हमारी तरह मनाते थे। ये सभी चौ० छोटूराम के कट्टर समर्थक थे और इस सच्चाई को कोई झुठला नहीं सकता। लेकिन हम लोगों ने उनको सदा-सदा के लिए पाकिस्तान में मुहाजिर (शरणार्थी) बना दिया और दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दिया। क्योंकि वे भी हमारी ही तरह सीधे-साधे लोग थे जिनको पाकिस्तानी मुसलमानों ने कभी भी अपने गले नहीं लगाया। क्योंकि वहां भी पूर्व प्रधानमन्त्री नवाज शरीफ सहगल (हिन्दू खत्री) जैसे लोग थे। जबकि हम लोगों ने आने वाले शरणार्थियों का कभी विरोध नहीं किया, क्योंकि हम भी दिल के साफ़ थे, आज तक भी हैं।

पाकिस्तान से आनेवाला लगभग पूरे का पूरा हिन्दू अरोड़ा/खत्री समाज सामान्य वर्ग से सम्बन्ध रखता है, जैसे कि हरयाणा में जाट समाज। जाने वाले मुसलमान लगभग सभी के सभी अनपढ़ व पिछड़ा वर्ग था, लेकिन पाकिस्तान से आनेवाले हिन्दू व सिक्ख अधिकतर पढ़े लिखे थे, क्योंकि अंग्रेजों ने भारत में कलकता, मद्रास, बम्बई तथा इलाहबाद के बाद पांचवां विश्वविद्यालय लाहौर में ही स्थापित किया था। दिल्ली कॉलेज जो सन् 1864 में स्थापित किया गया, को भी सन् 1877 में लाहौर हस्तांतरण कर दिया गया था। इसी प्रकार दिल्ली से पहले लाहौर में सन् 1865 में उच्च न्यायालय स्थापित किया जिसके पीछे अंग्रेजों के अपने स्वार्थ जुड़े थे।

इस प्रकार आने वाले शिक्षित शरणार्थियों ने अपनी जो भी योग्यता बतलाई, उसी को उस समय भारत सरकार व पंजाब सरकार को मानना पड़ा क्योंकि पाकिस्तान से इसकी तसदीक (verification) करना संभव नहीं था। इन्होंने अपनी शैक्षिक योग्यता को झूठा लिखवाकर नौकरियां पाई| क्योंकि दंगों और पलायन का बहाना बनाकर डिग्रियां खोने या गुम हो जाने के बहाने जो चौथी कक्षा तक पास था उसने 8वीं लिखवाई और 8वीं वाले ने 10वीं और 10वीं वाले ने अपने आप को एफ.ए. लिखवाकर आते ही स्थनीय लोगों की नौकरियोंं पर कब्जा कर लिया| यह है इनकी बड़े-बड़े अफसर बनने के पीछे की मेहनत का राज और स्थानीय हरयाणवियों के रोजगार पे झूठ बोल के डाका|

इस प्रकार मुट्ठीभर हिन्दू अरोड़ा/खत्री शरणार्थी आज हरयाणा में लगभग 36.94 प्रतिशत राजपत्रित नौकरियों पर कब्जा किया हुआ है जो लगभग सारे का सारा जाट समाज का हिस्सा है, जबकि प्रचार यह किया जाता रहा कि दलित समाज जाटों की नौकरी हड़प गया। हरयाणा में सामान्य वर्ग में लगभग 32 प्रतिशत जाट (सिख जाट+मूला जाट को मिलाकर) हैं, इस प्रकार मुसलमानों को काटकर जाटों ने अपनी कुल्हाड़ी से अपने ही पैर काट लिये।

सन् 1901 के जमीन एलीगेशन एक्ट के तहत पुराने पंजाब में हिन्दू अरोड़ा/खत्रियों से जमीन लेकर वास्तविक कास्तकारों यानि किसानों को वापिस कर दी गई थी| उसी जमीन को 1947 में हरियाणा में आने पर अपने नाम की बताकर उसके बदले जमीनें ली और फिर उनको बेचकर दिल्ली व् अन्य बड़े शहरों में पलायन कर गए| इस प्रकार वास्तव में जमीन के मालिक ना होते हुए भी झूठ के बल पर जमीनें ली और फिर हरयाणा के किसानों को ही बेच के अमीर बन गए| यह है इनकी मेहनत का नंबर एक रहस्य| जिनकी कोई जमीन नहीं थी उन्होंने भी झूठ बोलकर यहां मुसलमानों की जमीन हथियाई। 4-4 बार मुआवजा लिया और दिल्ली में कई बार मुफ्त में प्लाट लिए। वहां यह लोग लगभग सारे के सारे traders (व्यापारी) थे, यहां आने पर आर्थिक traitors हो गए। यह पूरा घपला उस समय इनके पुनर्वास मन्त्री मेहर चन्द खन्ना के इशारे पर हुआ। वहां यह नारे लगाते थे - सर सिकन्दर - छोटू कन्जर। लेकिन यहां आने पर खुद कन्जर से भी बदतर हो गए।

चौ. छोटूराम ने एक बार पेशावर में कहा था कि पंजाब में अरोड़ा खत्री रहेंगे या जाट और गक्खड़। लेकिन हमने चौ. छोटूराम को भुलाकर अपनी गलती से इनको अपनी ही चौखट पर बुला लिया। चौधरी छोटूराम ने इनको काबू में रखने के लिए "पहलवानी ब्रिगेड" बना रखी थी, क्योंकि यह हिन्दू अरोड़ा/खत्री उनकी हर रैली में विघ्न डालते थे। इसलिए वो रैली के चारों ओर पहलवान खड़े करके तब रैली करते थे, ताकि इनमें से कोई भी रैली में व्यघ्न ना डाल सके। और इसीलिए यह लोग जब कुछ नहीं कर पाते थे तो सर छोटूराम को कभी "छोटू खान" तो कभी "अंग्रेजों का पिठ्ठू" कहते फिरते थे। जबकि इनके शोभा सिंह चोपड़ा शहीद-ए-आज़म सरदार भगत सिंह की फांसी में गवाही देने के बावजूद भी इनके लिए राष्ट्रभक्त रहे।

आपस में मिलके रहना, सहना और निभाना यह लोग क्या जानें, और इसका मैंने मेरे "सॉरी "जय माता दी" वाले लेख में खुल के विवरण किया है। चलते-चलते धन्यवाद सीएम साहब, आपके ओच्छे और गैरजिम्मेदाराना बयान के बहाने जिस इतिहास को मैंने सेल्फ में रख छोड़ा था वो फिर से ताजा हो गया।

Phool Kumar Malik

Friday, 25 September 2015

सॉरी, "जय माता दी" परन्तु आज से मैं आपके आदर और पूजा का परित्याग कर रहा हूँ!

Sorry, "Jai Mata Di" but I am disconnecting myself from you!

जाट समाज में एक देवी के रूप में आपका प्रत्यार्पण ज्यादा नया नहीं है, मात्र 30-40 साल पुराना ही है| हमारे समाज में आपका प्रत्यार्पण भी जब आपके मूल-पूत (हिन्दू अरोड़ा/खत्री) आपको साथ लाये तभी के अड़गड़े हुआ था, उससे पहले जाट समाज में ना तो कोई आपको जानता था और ना ही कोई मानता था| नमस्कार/ राम-राम/जय दादा खेड़ा की जगह "जय माता दी" यही कहा करते थे|

वो क्या है ना "जय माता दी" हम जाट दिल के बड़े कोमल, निर्मल, सामयिक व् सौहार्दी होते हैं| इसलिए हमारे यहां अल्लाह, गॉड, भगवान, वाहे-गुरु सब खप जाते हैं और ऐसे ही आप भी खप गई थी| परन्तु हाँ खपते हैं सिर्फ हमारी मर्जी और अनुकम्पा से ही, जब तक हमें यह लगता है कि जो जिस भगवान को हमारे बीच हमारा और हमारी कौम का आदर-मान रखते हुए इंट्रोड्यूस कर रहा है हम उसको इंट्रोड्यूस करने देते हैं, लेकिन हमारे यहां सिवाय "दादा खेड़ा" और "जाट अवतारों" के बाकी कोई भगवान स्थाई नहीं| इन दोनों कॅटेगरियों को छोड़ के बाकी का भगवान हमारे यहां कितने दिन चलेगा वो निर्भर करता है कि उसको इंट्रोड्यूस करने वाला हमारा और हमारी कौम का कितना आदर मान करता है| इसको एक लाइन में लयबद्ध करूँ तो कुछ यूँ कहूँगा कि, "भगवान और भक्ति की वजह से जाट नहीं हुआ, अपितु जाट की वजह से भगवान और भक्ति हुई!"।

अब बात आती है कि मैं क्यों आपका परित्याग करना चाहता हूँ? अब आपसे तो कुछ छुपा नहीं हुआ| देख ही रही होंगी हरयाणा में इनके समाज का क्या सीएम क्या बना, पूरे जाट समाज के दुश्मन हुए खड़े हैं|

1) अच्छा "जय माता दी" यह बताओ 2005 में पंचकुला से कोई साहनी हैं, उन्होंने खापों और जाटों के खिलाफ पंजाब और हरयाणा हाईकोर्ट में अर्जी डाली और वो भी तब जब जाटों का ही सीएम था| तो क्या फिर भी किसी जाट या खाप ने उसको कुछ कहा?

2) फिर उसके बाद से तो आधिकारिक तौर पर मीडिया में बैठे आपके यह पूत दिन-रात जाट और खाप के पीछे पड़े रहे| क्या किसी जाट ने इनको कुछ कहा, वो भी बावजूद जाट सीएम होने के?

3) अभी हाल ही में जब इनके समाज का सीएम बना तो किसी भी जाट ने सामूहिक तौर पर ना तो कोई विरोध किया और ना कोई आपत्ति| अपितु सहर्ष अपनाया, स्वीकार किया वो भी बावजूद यह तथ्य जानते हुए कि यह गैर-हरयाणवी समाज से हैं| वरना आप तो जानती ही हैं उत्तराखंड में एक हरयाणवी सीएम बना था, उत्तराखंडी मूल का ना होने की वजह से छ महीने में ही हटा दिए गए थे| और महाराष्ट्र जैसे राज्य में तो "जय माता दी" कोई एक गैर-मराठी को सीएम बना के ही दिखा दे और फिर वो गैर-मराठी बिहारी या पूर्वांचली हो तो कहने ही क्या|

4) और अब जब से इनका सीएम बना है तब से तो "जय माता दी" यह लोग यह भी भूल गए कि अरे जो तुम्हारे भगवान यानी आप "जय माता दी" तक को पूज रहे हैं, तुम्हारी संस्कृति तक अपनी संस्कृति में मिला ली है, जाटों के इन सकारात्मक पहलुओं को दरकिनार करके देखो "जय माता दी" यह जाटों से कैसे-कैसे भाईचारे निभा रहे हैं:

अ) मई 2015 में जाट आरक्षण से इनका कोई लाभ-हानि ना होते हुए भी, उससे कोई लेना-देना ना होते हुए भी यह लोग जाट आरक्षण के विरुद्ध इनके "हरयाणा पंजाबी स्वाभिमान संघ" से धरना भी दिए और ज्ञापन भी|

ब) रोहतक के वर्तमान एमएलए श्रीमान मनीष ग्रोवर (हिन्दू अरोड़ा/खत्री जाति) की ऑफिसियल लेटर-पैड पर एमडीयू को लेटर जाता है कि यूनिवर्सिटी में जितने भी जाट अध्यापक अथवा कर्मचारी हैं उनके रिकॉर्ड चेक किये जाएँ। और पूछे जाने पर एमएलए साहब बड़ी गैर-जिम्मेदाराना ब्यान के साथ ना सिर्फ इससे खुद को अनजान बताते हैं वरन जो यह कृत्य करने वाला था उसकी छानबीन भी नहीं करवाते।

स) 2014 के चुनाओं के मौके पर पानीपत शहर में ट्रकों के कारोबार में जाटों द्वारा बढ़त बना लेने पर वहाँ के स्थानीय हिन्दू अरोड़ा/खत्री नेता श्रीमान सुरेन्द्र रेवड़ी कहते हैं कि जाटों ने कब्जा कर उनका कारोबार छीन लिया। और यह कहते हुए वह 1947 से लेकर आज तक जाट समाज ने उनके समाज को यहां बसने में जो सहयोग दिया उसको एक झटके में सिरे से ख़ारिज करते हैं। वैसे तो आजतक किसी जाट ने ऐसी बात कही नहीं, फिर भी अंदाजा लगाइये "जय माता दी" कि अगर एक जाट यह बात कह दे कि इन्होनें हमारे रोजगार से ले कारोबार तक बंटवा लिए तो इनकी क्या प्रतिक्रिया होगी?

द) "गुड्डू-रंगीला" फिल्म में "हुड्डा खाप" का मजाक उड़ाने पर जब जाट समाज कलेक्टर को इस फिल्म के डायरेक्टर श्रीमान सुभाष कपूर (हिन्दू अरोड़ा/खत्री जाति) के खिलाफ शिकायत करने जाते हैं तो बजाय उनसे माफ़ी मंगवाने में सहयोग करने के आपके यह पूत इसको जाटों की तानाशाही चिल्लाने लगते हैं| मतलब उल्टा चोर कोतवाल को डांटे|

य) और यह तो यह पानी सर से तो तब गुजरा जब खुद सीएम साहब जाटों को "डंडे के जोर पे हक लेने वाले" कह उठे और फिर यकायक दूसरा बयान यह भी दे बैठे कि "हरयाणवी कंधे से नीचे मजबूत और कंधे से ऊपर कमजोर होते हैं!"

र) अरे "जय माता दी" यह तो यह भी नहीं सोच रहे कि जाट समाज में मेरे जैसे जाट भी हैं जिन्होनें हमेशा इनको "रेफ़ुजी", "पकिरस्तानी" कहने वालों का विरोध किया|

अब "जय माता दी" आप ही बताओ यह तो वाकई में पानी सर से ऊपर गुजरने वाली बात हो गई ना?

अब किसी दूसरी जाति वाले को खुद में हरयाणत व् हरयाणवी महसूस नहीं होता हो तो क्या किसी जाट को भी नहीं होगा? अब अगर दूसरे समाजों ने स्वार्थों या जिस भी वजह के चलते चुप्पी साध ली है तो क्या हरयाणवी शब्द के अपमान पे जाट भी चुप्पी साध जाए? बस यह नहीं हुआ हमारे पूर्व कमांडेंट हवा सिंह सांगवान जी से और सीएम साहब को उनका ओरिजिन याद दिलवाना पड़ा|

अरे "जय माता दी" ओरिजिन तो सिर्फ सांगवान साहब क्या एस.जी.पी.सी. (S.G.P.C.) के चीफ श्री अवतार सिंह मक्क्ड़ भी याद दिला गए, कह गए कि सीएम का गृह जिला करनाल नहीं अपितु पाकिस्तान में झंग है और सीएम पाकिस्तानी है|

तो अब बताओ "जय माता दी" मुझे क्या गधे ने काटा है कि एक ही बयान देने वाले दो लोगों में से यह सिर्फ सांगवान साहब का पुतला फूंकें और मैं आपको मेरे दिल और घर से बाहर ना करूँ|

वैसे आप भी हैरान हो रही होंगी, कि यह कैसा जाट है कि लठ उठा के उनका सर फोड़ने की बजाय मुझे ही घर से निकाल रहा है| वो क्या है ना "जय माता दी" वो कहते हैं ना कि "चोर को क्या मारना, चोर की माँ को मारो!"। वैसे भी क्योंकि जब आपकी भक्ति करने से भी इनमें इतनी अक्ल नहीं आ पाई कि जाट इनके मित्र हैं या शत्रु तो "जय माता दी" मेरे इनको लठ मारने से थोड़े ही आएगी, बस इसीलिए आपको आज से मेरे घर से बाहर कर रहा हूँ|

क्या है "जय माता दी" कि यह समझ रहे हैं कि हमने हमारे कोमल, निर्मल, सामयिक व् सौहार्दी स्वभाव के चलते उनके द्वारा दी गई आप और उनके काफी सारे अन्य रीती-रिवाज, दूध में पानी की तरह क्या मिला लिए कि वह तो इसको उनकी कोई बहुत बड़ी चालाकी या दिमागी ताकत का प्रतीक मान बैठे हैं| जबकि उनको यह नहीं पता कि उत्तरी भारत में उनके समाज से बाहर अगर आपकी इतनी बड़ी पहचान बनी है तो वो तब जब हम जाट उनसे भाईचारा मानते हुए आपको पूजने लगे, वही "भगवान और भक्ति की वजह से जाट नहीं हुआ, अपितु जाट की वजह से भगवान और भक्ति हुई!" वाली बात के तहत| परन्तु "जय माता दी" अब बहुत हुआ, अब मुझसे आपकी पूजा और आदर का सिलसिला ढोंग लगने लगा है| महसूस होने लगा है कि जब आपके मूल पुत्र ही आपकी पूजा करने की वजह से इतने जहरी और नफरत करने वाले बनते हैं तो फिर कहीं मैं भी उनके जैसा ही ना हो जाऊं, इसलिए मैं आज से आपको मेरे दिल, आत्मा और घर से निकाल कर बड़े आदर सहित बाहर कर रहा हूँ| क्योंकि जब आप उनको ही प्रेम से रहना नहीं सीखा सकती तो मुझे क्या सिखाएंगी| इसलिए आखिरी बार "जय माता दी"!

ओह हाँ चिंता ना करें, वो आपको पूजते रहेंगे मुझे उससे कोई ऐतराज नहीं, परन्तु अब आपको मेरे खुद के अंदर से, मेरे घर के अंदर से, मेरे रिश्तेदारों और मेरे प्रभाव और संबंध में आने वाले हर जाट के घर से आपकी चौकियों की, जगरातों की और भंडारों की विदाई आजीवन सुनिशिचित करवाता चलूँगा यह मन में धार लिया है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

मात्र 2300 दुजाणिया जाटों ने जब 40000 की झज्जर के नवाब की सेना का मुंह-तोडा था!

1806 में यह गाँव छोटी सी मुग़ल रियासत भी बन गई थी, जिसकी निशानी यहां एक मस्जिद और नवाब की हवेली जो कि हरयाणा सरकार के आधीन होते हुए 1947 से ही सील पड़ी है|

यह गाँव सत्रहवीं शताब्दी का एक बड़ा ही गौरवशाली किस्सा अपने में संजोये हुए है| बात जून 1687 की है| झज्जर जिला हरयाणा का यह ऐतिहासिक गाँव अपने अदम्य साहस और वीरता के लिए जाना जाता है| तब के झज्जर के नवाब को इस गाँव की एक लड़की पसंद आ गयी| वो जाट लड़की इतनी सुन्दर थी कि बड़े-बड़े सुल्तानों के महलो में भी कोई इतनी सुन्दर औरत नहीं थी|

नवाब ने फरमान भिजवा दिया कि वो लड़की को ब्याहने आएगा| लड़की समझदार थी बोली मै अपने गाँव को बचाने के लिए नवाब से शादी करुँगी|

पर गाँव के जाटों का खून खोल उठा| लड़की का बाप, लड़की और परिवार समेत आत्महत्या करना चाहता था| परन्तु दुजाना व् आसपास के गाँवों की हुई खाप पंचायत ने फैसला लिया कि हर इंसान आखिरी साँस तक लड़ेगा पर लड़की नवाब को नहीं देंगे| अब गाँव का हर जाट जो भी 7 साल से ऊपर का था, और औरतें व् लड़कियाँ सब ने हाथो में जेली, पंजालि, गण्डासियां, बल्लम उठा लिए और गुरिल्ला विधि से एक आत्मघाती हमला करने के लिए तैयार हो गए| हालाँकि लड़ाई से पहले दूसरी जातियां गाँव छोड़ कर भाग गयी थी| पर जाट कभी लड़ाई के मैदान से नहीं भागता|

नवाब ने 1687 की जून महीने में गाँव पर शाही फ़ौज लेकर हमला किया| लडकियां, बूढ़े, बच्चे, औरतें सब सर पर कफ़न बाँध कर आये थे| गाँव ने इतनी बुरी तरह हमला किया कि नवाब की तोप बंदूकों से लैस 40,000 की शाही फ़ौज जो पूरी प्रशिक्षित थी और एक भी लड़ाई ना हारे थे पर जाटों की इस 2,300 की फ़ौज जिसमें आधे से ज्यादा औरतें, लडकियां और बच्चे थे, के सामने शाही सेना बुरी तरह हारी| नवाब बड़ी मुश्किल से जान बचा कर भाग पाया| जाटों ने इनकी तोप, बंदूकें, तलवार आदि हथियार छीन लिए जो उस गाँव के जाटों के घरों में आज भी देखे जा सकते हैं|

हमारे पूर्वजों ने कभी घुटने नहीं टेके, जान गवाँ दी पर पगड़ी नहीं उतरने दी| अन्य हिन्दू समाजों की तरह अपनी औरतों को कायरों की भांति उनके पीछे दुश्मन के घेरे में शाक्के करने के नाम पर पीछे रख उनको उनकी युद्ध कौशलता को आजमाने से नहीं रोका|

एक तरफ जहाँ राजा-महाराजा भी हार जाते थे, अपनी जान छुड़ाने को अपनी बेटियां फ्री-फंड में विदेशियों से ब्याह देते थे वहीँ कुछ मुट्ठी भर जाट किसान जीत जाते थे| अगर कोई सच्चा क्षत्रीपण है तो यह है|

जैसा कि ऊपर बताया बाद में आगे चलकर यह गाँव एक छोटी आज़ाद रियासत के रूप में बदल गया|

रिफरेन्स: चौधरी रवि सिंह ज्वाला

रूपांतरण: फूल मलिक

हरयाणा में दीनानाथ बत्रा की किताबें लागु करना, भगवे का अपनी बुनियाद में कील ठोंकने जैसा है!


पुराने जमाने में दलितों व् पिछड़ों को ग्रन्थ-शास्त्र-पुराण कुछ भी पढ़ना ना सिर्फ वर्जित था अपितु राजा राम जैसे पुरुषोत्म बताये गए राजा के हाथों स्वर्ण ऋषि-मुनियों-शंकराचार्यों-महंतों ने एक दलित महर्षि सम्भूक को शास्त्रार्थ करने पे मरवा दिया था| तो आज ऐसा क्या हो गया कि उसी थ्योरी पर चलने वाले लोग इन अध्यायों को दलित-पिछड़ा सबको खुद ही पढ़ाना चाहते हैं?

यह तो उस हथियार डाले हुए राजा वाली बात हो गई कि लो जी देख लो मेरे पास क्या-क्या है| बढ़िया है अब यह हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के नाम पर हथियार डाले आगे बढ़ रहे हैं| यह पुराने स्वर्ण शंकराचार्यों-महंतों द्वारा इन किताबों और तथ्यों को दलित-पिछड़ों को ना पढ़ाने के ही कारणों को दरकिनार करके चल रहे हैं तो जरूर दिग्भर्मित हो चले हैं|

तो भगवा ऐसा करके अपनी बुनियाद में कील ऐसे ठोंक रहा है कि मैंने रामायण और महाभारत दोनों क्रमश: छटी और सातवीं क्लास में पढ़ ली थी| और इन दोनों ग्रंथों पर एक शंकराचार्य के स्तर का सर्वोत्तम तार्किक ज्ञान रखता हूँ।

अब सोचने की बात यह है कि एक तो बचपन में ही मुझे रामायण और महाभारत पढ़ने को मिली तो मैं जल्दी से महर्षि सम्भूक जैसे चैप्टर कैच कर पाया| दूसरा यह हुआ कि मैं जब बाहर निकला और बड़ी कक्षाओं में साइंस से ले मैनेजमेंट की चीजें पढ़ी तो देखा कि यह रामायण और महाभारत के चरित्र तो अमेरिका के डिज्नीलैंड (Disneyland) वाले काल्पनिक वर्जन हैं| फर्क सिर्फ इतना है कि अमेरिका ईमानदारी से काल्पनिकता को काल्पनिकता स्वीकार करता है और हमारे यहां के सेल्फ-स्ट्य्लेड दम्भी ज्ञानी इनको वास्तविक मनवाने पे तुले रहते आये हैं| ठीक वैसे ही जैसे वो किसी ने दम्भी भाभी को पुलिस की मार के डर से "हाय रे धक्के की माँ" कबुल कर लिया था परन्तु पुलिस से छूटते ही वो वापिस उसकी भाभी ही रही|

तो मेरे ख्याल से यह बहुत अच्छा हो रहा है, एक तो इससे बच्चे बड़ी उम्र (class 11th-12th age) अपनी साइंस और मैनेजमेंट की पढाइयों पर केंद्रित कर पाएंगे और यह सब कल्पनिकताएं पढ़ना वैसे भी बचपन में ही सटीक रहता है क्योंकि उस वक्त बच्चों को कहानिया सुननी बहुत अच्छी लगती हैं|

परन्तु उस डर का क्या जिसकी वजह से पुराने शंकराचार्य-महंत लोग दीनानाथ जैसों द्वारा लिखी किताबों से दलित-पिछड़ों को दूर रखते थे? अब अगर इनको यह बहम हो कि यह इन किताबों को पढ़ा के बच्चों को अपनी शीशी में उतार लेंगे तो इनको यही कहूँगा कि इनसे तो इनके पूर्वज ज्यादा अक्लमंद थे क्योंकि वो जानते थे कि इन काल्पनिकताओं को पढ़ के कोई शीशे में नहीं उतरने वाला अपितु उनके दिमागी दिवालियेपन को सब जान जायेंगे| और यह लोग यहीं अपने सामाजिक वर्चस्व के पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मार रहे हैं। एक अनचाही और अनिर्धारित सी शायद भारत और विश्व में छा जाने की जज्बाती जल्दबाजी में यह लोग इस ज्ञान को दलित-पिछड़े को खुद ही लुटवा के उनको ज्ञानी बना के अपने ही विरोध में खड़े कर रहे हैं। और इसका प्रमाण है कि दलित-पिछड़े ने जितनी यह चीजें पढ़ी हैं वो इनके प्रभाव से उतने ही दूर गए हैं। 

कहते हैं इनसे बच्चों को नैतिक शिक्षा मिलेगी, अच्छा जी ऐसे वाली नैतिक शिक्षा क्या:

1) कि एक युद्धिष्ठर जुआ खेलने के बावजूद भी और अपनी ही पत्नी का अपनी आँखों के आगे चीरहरण होने के बावजूद भी धर्मराज कहला सकता है| यानी आप नारी सम्मान के हनन में चाहे जितनी हदें पार करो आप फिर भी कहलाओगे धर्मराज ही|

2) दलित को शास्त्रार्थ करने पर मृत्युदंड देने के बजूद भी आप मर्यादापुरुषोत्तम ही कहलाओगे|

3) अपनी माँ तक की हॉनर किलिंग करने के बावजूद भी आप आम इंसान नहीं अपितु भगवान बना के पूजे जाओगे। शायद ऐसा कांसेप्ट तो तालिबानियों के यहां भी नहीं होता होगा।

पढ़ाओ-पढ़ाओ इन काल्पनिकताओं को, बढ़िया है बच्चों के बचपन का सही सदुपयोग हो जायेगा| और पता चलेगा कि ऐसी दम्भी स्टाइल की काल्पनिक दुनिया भारत में आपके सिवाय और कहीं भी नहीं| खुद अपने लिए गड्डे खोदना मुबारक हो| वैसे भी यह हरयाणा है गुजरात नहीं, यहां बालक किसी बात में नकारात्मक चीज पहले पकड़ता है, उसका जवाब मिल जाए तो ही उसके सकारत्मक पर विचारता है, जिसका कि आपकी किताबों में मिलने का धुंधला चांस होता है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाटों में कितनी समाई, समरसता और अपनापन है उसका उदहारण है "हरयाणा के शहीदी दिवस" की तारीख!


अभी विगत 23 सितम्बर को पूरे हरयाणा में हरयाणा का शहीदी दिवस मनाया गया। इस तारीख का हरयाणा के शेर रेवाड़ी के रणबांकुरे राव तुलाराम जी से सीधा-सीधा संबंध है। 23 सितम्बर 1863 को उन्होंने देशहित में अपना बलिदान दिया था।

अब बताता हूँ कि मैं इस तारीख का जिक्र इतने ख़ास तरीके से क्यों करना चाहता हूँ। वजह है दिन-भर-दिन हिन्दू अरोड़ा/खत्रियों द्वारा स्थानीय हरयाणवी समाज में जाट बनाम नॉन-जाट के जहर को आगे से आगे बढ़ावा देना। तो ऐसी ताकतों को बताना चाहूंगा कि यह जाटों की बाहुल्यता के साथ-साथ तमाम हरयाणवियों का हरयाणा है जिनके नाम पर तुम बाकी के नॉन-जाट के आगे जाट को सिर्फ विलेन बना के परोस रहे हो जबकि यहां जाट भी राव तुलाराम जी के ही दिन को सम्पूर्ण हरयाणा के शहीदी दिवस की तौर पर बड़े सहर्ष से मानते और मनाते हैं।

इसी धरती पर अंग्रेजों से संधि हेतु सफेद झंडे उठवा देने वाला राजा नहर सिंह (एक जाट) सा सिंह-सूरमा हुआ, इसी धरती पर अमर गौरक्षक हरफूल जाट जुलानी वाले हुए, इसी धरती पर कालजयी लजवाना कांड के पुरोधा दादावीर भूरा सिंह दलाल और निंघाईया सिंह दलाल हुए। इसी धरती पर सर्वप्रथम व् ममहममद गौरी के तुरंत बाद मुग़लों की गुलामी के विरोध की रणभेरी फूंकने वाले दादावीर जाटवान जी गठवाला महाराज हुए। इसी धरती पर चुगताई मुग़लों के छक्के छुड़ा देने वाली दादीराणी भागीरथी महारानी जाटणी हुई। इसी धरती पर कलानौर का कौल तोड़ने की प्रेरणा व अमरज्योति दादीराणी समकौर गठवाली हुई। इसी धरती पर तैमूर की छाती पे चढ़ उसकी छाती में भाला घोंपने वाले दादावीर हरवीर सिंह गुलिया जी हुए। इसी धरती पर हाँसी की लाल सड़क को अपने खून से लाल कर देने वाले रोहणात् के जाट योद्धा हुए। और ऐसे ही अनगिनत जाट व् अन्य समाजों के योद्धा हुए। और इसी धरती पर ब्राह्मण-सैनी-छिम्बी-खाति तक को बिना जातीय द्वेष के किसानी स्टेटस दिलवाने वाले सर छोटूराम हुए।

परन्तु फिर भी सब हरयाणवी जातियों और नश्लों का एक शहीदी दिवस राव तुलाराम जी के शहीदी दिवस के दिन मनाया जाता है। और हम तमाम जाटों को इस बात पर गर्व है।

विशेष: जाट योद्धाओं के नाम इसलिए गिनवाने पड़े कि इस जाट बनाम नॉन-जाट के जहर से जल रहे हरयाणा में कल को कहीं यह एंटी-जाट लोग कोई और नया सगुफा ना छेड़ देवें। अब वक्त आ गया है कि हर जाट इनकी अनगिनत गज लम्बी होती जा रही जुबान पे इंची-टेप और कैंची ले के बैठ जावें। इन्होनें तो वो नेवा कर रखा है कि "अगला शर्मांदा भीतर बढ़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया!"

जय यौद्धेय! - जय हरयाणा! जय हरयाणवी! - फूल मलिक