Tuesday, 20 October 2015

हरयाणा में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुख्यमंत्री ही बैठा है या किसी व्यापार मंडल का अध्यक्ष!

आज हरयाणा के मुख्यमंत्री उनकी सरकार की एक साल की उपलब्धियां गिनाते हुए ऐसे लग रहे थे जैसे हरयाणा व्यापार मंडल के अध्यक्ष बोल रहे हों। जनता का नुमाइंदा यानि मुख्यमंत्री वाली तो कोई फील ही नहीं आ रही थी, पूरी कांफ्रेंस के दौरान|

ना किसान का जिक्र, ना जमीन पे आ चुके फसलों के भावों का जिक्र, ना आसमान तक जा चुके दालों-सब्जियों के भावों का जिक्र, ना दलित उत्पीड़न का जिक्र, ना मुस्लिम उत्पीड़न का जिक्र। ना नौकरियों की नियुक्ति में देरी का जिक्र, ना कच्चे अध्यापकों को पक्के करने का जिक्र, ना बढ़ती रिश्वतखोरी और भाईभतीजावाद का जिक्र, ना समाज में पसर रही अशांति और असहनशीलता का जिक्र, ना सरकार के नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना ब्यानों और रवैयों का जिक्र; खैर ब्यान तो खुद जनाब कौनसे सम्भल के देते हैं। एक ही झटके में ऐसा मुंह खोलते हैं कि हरयाणा तो हरयाणा बिहार तक में बीजेपी की चुनावी हालत खस्ता कर देते हैं।

कमाल की बात तो यह है कि किसान को तो लागत के पूरी होने तक के भी फसल-भाव नहीं मिल रहे और उसके बावजूद भी दाल-सब्जियों के भाव आसमान छू रहे हैं| और सरकार भोंपू बजाये जा रही है कि हमने भ्रष्टाचार मिटा दिया? तो आखिर यह भ्रष्टाचार कौन देखेगा सरकार जी कि किसान से उसकी लागत भी पूरी ना हो उस भाव पे खरीदी जाने वाली दाल कंस्यूमर तक पहुंचते-पहुंचते इतनी महंगी कैसे हुए जा रही है?

किसान के खेत से दाल खरीद है 25-35 रूपये प्रति किलो के बीच,परन्तु शहर-गाँव के ग्राहक को मिल रही है 200 रूपये प्रति किलो। अच्छे दिन तो सिर्फ बिचौलियों, सटोरियों और व्यापारियों के आये हैं। और इसमें सरकार को कोई भ्रष्टाचार, जमाखोरी वगैरह भी नहीं दिखती।

भगत भी बेचारे सुन्न हैं, ना फड़फड़ाहट ना फड़फड़ाहट की गुंजाइस। मुझे तो अचरज इस बात का है कि 200 रूपये किलो की दाल खा के भी भगतों को सरकार के खिलाफ आवाज उठाने के बजाये दंगे कैसे सूझ जाते हैं। हाँ तभी तो अंधभगत कहलाते हैं, खुले दिमाग के भगत होते तो दंगे करने से पहले अपने घरों की बिगड़ रही इकोनॉमी पे आवाज ना सही कम से कम चिंता तो उठाते।

फूल मलिक

यह तो जलाने-जलाने वाले पे निर्भर है कि मामले को आपसी रंजिश का नाम दिया जावे या कांड का!

हरयाणा के डीजीपी साहब सीखा रहे हैं कि जब झगड़ा जाट और दलित का हो तो उसको कैसे उत्पीड़न का बना के दिखाया जाए, और जब झगड़ा आज वाले सनपेड़ गाँव में स्वर्ण जाट के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ण का हो तो कैसे सिर्फ रंजिश बना के दिखाया जाए| मीडिया भी खूब साथ दे रहा है उनका, बिलकुल मुंह-में-मुंह डाल के रिपोर्टिंग हो रही है| क्या बात है क्या तालमेल है मीडिया और सरकार का|

डीजीपी साहब और मीडिया, यूँ तो गोहाना-कांड हो, मिर्चपुर-कांड हो, या आज फरीदाबाद में हुआ सनपेड़-कांड, मामले तो सारे ही आपसी रंजिश के थे, पर किसी एक के भी द्वारा यह "आपसी रंजिश" शब्द तब तो प्रयोग नहीं किया गया जब गोहाना कांड हुआ था या मिर्चपुर कांड हुआ था, वाकया तो एक ही प्रकार का था ना? दलितों के घर उस वक्त भी जलाये गए थे और आज भी? फर्क सिर्फ इतना ही तो था ना कि उस वक्त मसला जाट बनाम दलित था और आज राजपूत बनाम दलित?

ओह समझ गया, यह तो जलाने-जलाने वाले पे निर्भर है ना कि मामले को दो-चार परिवारों की आपसी रंजिश कह के हल्का बताना है या पूरी जाट कौम बनाम दलित कौम का बता के जाटों का दलितों पर आतंक और अत्याचार कह के बड़ा बताना है|

हुड्डा साहब, चौटाला साहब और तमाम तरह के अन्य जाट नेता, सीखें खट्टर साहब और उनके डीजीपी से कि कैसे दलितों के घर तक जलाने पर भी, उनके बच्चे जिन्दा फूंकने के बावजूद भी उस कांड को मात्र आपसी रंजिश का बना के दिखाया जा सकता है| शायद भविष्य में काम आएगा आप लोगों के|

वैसे यह वही खट्टर साहब हैं जिन्होनें रोहतक सिस्टर्स बस छेड़छाड़ मामले में मात्र एक जाटों के बालक होने की वजह भर से बिना जाँच रिपोर्ट का इंतज़ार किये तुरंत-फुरन्त आनन-फानन में इनाम भी घोषित कर दिए थे और आज वाले मामले को कैसे इनके कर्मचारियों और मीडिया द्वारा सिर्फ आपसी रंजिस मात्र का मामला बताया जा रहा है|

चलो हुड्डा हो या चौटाला, उनमें इतनी संवेदना तो थी कि वो दलितों पर हुए अत्याचार को अत्याचार की तरह ही लेते थे, उसको एक रंजिश मात्र कह के रफा-दफा नहीं करते थे| यहां तक कि खट्टर साहब के 10 लाख के मुवावजे की तुलना में 25 लाख मुवावजा देते थे| दलित मकानों को दोबारा से बनवाते थे| उनके बीच जा के उनकी सुनते थे, सुना है खट्टर साहब तो अभी तक चंडीगढ़ से ही नहीं निकले हैं| डीजीपी भी यही कह रहे हैं कि जरूरत हुई तो मिलने भी जाऊंगा|

और ना ही अभी तक उस बेचारे दलित के फूंके हुए घर को दोबारा से बनाने के बारे सरकार ने कोई घोषणा की, क्या सिर्फ 10 लाख में पल्ला झाड़ लिया जायेगा?

और हाँ, वो मिर्चपुर कांड के पीड़ित दलित भाईयों को आश्रय देने वाले तंवर साहब किधर हैं, कोई भेजे उनके पास संदेशा की जनाब आओ इधर सनपेड़ गाँव में भी कुछ आपकी ही जाति के राजपूत भाईयों ने दलितों के घर फूंके हैं, उन पीड़ित दलित भाईयों को भी आपके फार्महाउस में आश्रय दीजिये|

भाई कोई गोल बिंदी वाली रुदालियों को भी संदेशा भेजो, कि सनपेड़ में रूदन मचाने जाना है, या फिर वहाँ घर फूंकने वाले जाट नहीं कोई और थे इसलिए जाना कैंसिल?

फूल मलिक

झगड़ों में भी जातिय रियायत बरतने वाला हिंदुस्तानी मीडिया!

एक मीडिया वाले भाई ने कहा, "काश, आज सनपेड़, फरीदाबाद में जो राजपूतों द्वारा घरों समेत दलित जलाये गए हैं, उनमें दूसरी पार्टी राजपूत की जगह जाट होती तो हमें "दबंग" शब्द इस्तेमाल ना करना पड़ता और टीआरपी भी मीटर तोड़ देती|"

मैंने पूछा वो कैसे?

तो बोलता है कि क्योंकि मामला राजपूतों का है इसलिए सिर्फ "दबंग" बता के दिखाने के निर्देश हैं; लेकिन अगर होते राजपूतों की जगह जाट तो निर्देश यही होते कि इनको 'दबंग' शब्द में कवर नहीं करना, डायरेक्ट 'जाट' बता के खबर चलाना है|

मैंने कहा वाह रे मीडिया, तुम्हारी निष्पक्षता, निडरता और लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होने के दावे| तुमसे बड़ा खोतंत्र नहीं होगा पूरी दुनिया में कोई| सलाम है तुम्हारी सोच को, झगड़ों में भी जाति के नाम पर रियायत बरत के खबर चलाते हो|

अब इसको क्या कहूँ, "मीडिया की भी जो टीआरपी तोड़ दे जाट ऐसी सबसे बड़ी बड़ी ब्रांड है क्या?"

धन्यवाद घुन्नो, बदनाम ना हुए तो क्या नाम ना होगा? वजह जो भी हो मार्केटिंग तो करते ही हो जाटों की पॉजिटिव ना सही नेगेटिव ही सही| परन्तु याद रखना बड़े-से-बड़े मार्केटिंग प्रोफेशनल्स भी पॉजिटिव से ज्यादा नेगेटिव मार्केटिंग को ज्यादा इफेक्टिव बताते हैं, लगे रहो जाटों को मशहूर करने में|

अभी एक बार हरयाणा में पंचायती राज इलेक्शन हो जाने दो, दोबारा से जब जाट आरक्षण का जिन्न फिर से खड़ा होगा, तो कर लेना अपने यह अरमान भी पूरे| बस इतना ध्यान रखना कि कहीं जाट-जाट चिल्लाते-चिल्लाते तुम्हारी साँसे तुम्हारी ........... टों में ना उलझ जाएँ|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

डबल शर्म करो हिंदूवादी खट्टर साहब!

पहली शर्म इस बात के लिए कि यू.पी. में एक मुस्लिम अख़लाक़ को मारा जाता है तो सपा उसके परिवार को 45 लाख देती है और आपके यहां एक दलित वो भी हिन्दू दलित, खट्टर साहेब जरा फिर से कानों के पट खोल के सुनो, हिन्दू दलित कहा मैंने, "हिन्दू एकता और बराबरी" वाला हिन्दू दलित जनाब; हाँ एक हिन्दू दलित मरता है तो उसकी जान की कीमत सिर्फ मात्र 10 लाख रूपये? मैं मांग करता हूँ कि आज सुबह तीन बजे बल्लभगढ़ में राजपूतों द्वारा घरों समेत जलाये गए मृतकों के परिवारों को कम से कम 1-1 करोड़ का मुवावजा मिलना चाहिए, जायज भी है 45 लाख तो आपके अनुसार सेक्युलर और देशद्रोही लोग भी दे रहे हैं तो फिर आपकी कटटरता उनसे सस्ती कैसे, आपके ही अपने हिन्दू लोगों की जान उनसे सस्ती कैसे?

दूसरी शर्म इस बात के लिए कि "हिन्दू एकता और बराबरी" के ये मण-मण पक्के नारे-भर तो लगाते हो, उसी का चोला पहन और जाटों से निजात दिलाने के नाम पे वोट भी मांगते हो और जब दलितों ने वोट दे के सरकार बनवा दी तो उन्हीं दलितों को स्वर्ण हिन्दुओं से घरों समेत जलवाते हो?

इससे बड़ा तमांचा और नहीं हो सकता खट्टर साहब के मुंह पर कि एक तरफ जनाब प्रेस-कांफ्रेंस करके एक साल की कागजी उपलब्धियां गिना रहे हैं और दूसरी तरफ स्वर्ण हिन्दु इनके "हिन्दू एकता और बराबरी" के ढकोसले की उपलब्धियों की बख्खियां उद्देडने के स्टाइल में पोल खोल रहे हैं|

बनियानी के राजपूतों के बाद मात्र डेड महीने में अब फरीदाबाद के राजपूतों से तो सीधा घर ही जला दिए खट्टर साहेब!

अब देखेंगे कि जाट-दलित के छोटे से झगड़े को भी ये अंतराष्ट्रीय स्तर का बना-बना के परोसने वाले, उन पर नौ-नौ मण आंसू बहाने वाले मीडिया से ले केंद्रीय नेता, जनवादी संगठनों से ले मार्क्सवादी-कम्युनिष्ट इस जुल्म पे क्या रूख अख्तियार करेंगे|

साथ वो जाट भी बताएं अपना रूख इसपे जो कभी हिंदूवादी राष्ट्रवादी अंधभक्त बने टूलते रहते हैं तो कहीं जाति-पाति, उंच-नीचता, स्वर्ण-दलित के नाम पर दलितों से दुर्व्यवहार करते हैं| जबकि ऐसा करना ना तो शुद्ध जाट थ्योरी "खाप" में कहीं लिखा हुआ और ना ही जाट की कर्मधारा में लिखा हुआ| तो फिर क्यों ना ऐसी किताबों को आग लगा दी जाए जो समाज में इस जातीय, नस्लीय भेद की वकालत करती हैं? और जिनको पढ़ के आप व्यवहारिक, सामाजिक तौर पर दलित के नजदीक होते हुए भी वैचारिक स्तर पर उनसे दूर चले जाते हो और इस वैचारिक आतंकवाद का शिकार बनते हो?

इन सब समस्याओं का निवारण सिर्फ एक ही है, बाबा साहेब आंबेडकर और सर छोटूराम की नीतियों का समन्वय भरा समाज|

फूल मलिक

Monday, 19 October 2015

और ऐसे एक कंधे से ऊपर मजबूत बयानबहादुर ने बिहार में भाजपा की लुटिया डूबने के कगार तक पहुंचा दी!

कंधे से ऊपर या नीचे मजबूत और कमजोर की चर्चा, उसका अवरोध-गतिरोध अभी थमा भी नहीं था कि एक हरयाणा के नाम से जाने-जानी वाली खापलैंड के उद्भव व् वैभव वाली स्टेट के मुखिया ने अपनी कंधे से ऊपर की मजबूती का नायाब नमूना पेश करते हुए आज के भारत की राजधानी व् प्राचीन विशाल हरयाणा के जिगर दिल्ली के तले बैठे-बैठे ही हजार कोस दूर पाटलीपुत्र उर्फ़ पटना में बीजेपी की लुटिया लगभग डूबाने के कगार पर भेज दी है। अगर यूँ कहूँ कि आने वाली नौ नवंबर को उस डुबाई की आधिकारिक घोषणा हो जावे तो अचरज ना मानियेगा।

इतने भर से पाठक यह तो समझ ही गए होंगे कि यह करिश्मा किसी और ने नहीं अपितु हमारे अपने जाने-पहचाने चिर-परिचित कंधे से ऊपर मजबूत श्रीमान मनोहरलाल खट्टर ने करके दिखाया है।

मैं इतना बड़ा लेखक नहीं, हस्ती नहीं कि कोई मेरी इस विवेचना को गंभीरता से लेवे, परन्तु जिस हद तक मैंने भारत की राजनीति और उसमें भी जातिय जहर की जादूगरी देखी, समझी और परखी है उससे स्पष्ट तौर पर हमारे आदरणीय कंधे से ऊपर मजबूत बयानबहादुर जी ने वो कारनामा कर दिखाया है कि अगर इसके नतीजे वही आये जो आज के दिन बिहार के हालात बता रहे हैं तो यह जनाब बीजेपी और आरएसएस दोनों के उस डर को साकार करने वाले हैं जिसमें बीजेपी अपनी आगे की दिशा निर्धारण का एक पैमाना लिए बैठी है। और पैमाना यह है कि बीजेपी व् आमजन यह सोच रहे हैं कि अगर बीजेपी बिहार में हार गई तो इनका 2014 की जीत का हनीमून जो दिल्ली की हार से पहले ही फीका पड़ चुका था वो तो बिहार की हार से पूर्णत: खत्म हो ही जायेगा, साथ ही राष्ट्रवाद और हिन्दुवाद नामी चुनावी जिन्न या तो देश में ऐसा फटेगा कि कहीं गृहयुद्ध ही ना हो जावे या फिर यह बीजेपी को त्यागना ही ना पड़ जावे। गृहयुद्ध इसलिए क्योंकि बीजेपी और आरएसएस के लोगों का जिस तरह का तारतम्य और हार को बर्दाश्त करने के प्रति सहिषुणता का जो स्तर अभी तक देखने को मिला है उसके चलते इस संभावित हार को बीजेपी के कार्यकर्त्ता और शायद आरएसएस भी संभाल ना पावे| मोदी साहब तो खैर अब लगभग मनमोहन मोड में इन्होनें भेज ही दिए हैं। धन्य हो खट्टर-बाणी, खुब्बाखाणी या कहूँ खसमांखाणी!

कुल मिलाकर कंधे से ऊपर मजबूती के इन ग्लोबल सिंबल उर्फ़ खट्टर साहब ने बीजेपी और आरएसएस को ऐसे बारूद के ढेर पर जा बैठाया है कि हारे तो या तो गृहयुद्ध या राष्ट्रवाद-हिन्दुवाद का त्याग। हाँ भूले से जीत भी गए तो सम्पूर्ण बहुमत तक तो शायद ही पहुँच पाएं।

मैं यह दावे निराधार ही नहीं कर रहा हूँ, इसके कुछ पहलु हैं जो यूँ भभक रहे हैं जैसे ईंट-भट्टे में लाल अग्नि के ललाट सी लाल ईंटें, कि कहीं भी गिरे भुनना जरूर है कम से कम जलना तो पक्का है।

हमारे (क्योंकि मैं हरयाणा का हूँ और यह हमारे मुखिया जी) कँधे से ऊपर की मजबूती के ब्रांड अम्बेसडर साहब शायद यह भूल गए थे कि वहाँ लालू यादव से चतुर-लम्पट बैठे हैं, जो आपके बयान को ना सिर्फ ऐसे लपकेंगे जैसे साँप पे नेवला वरन इसका ढंका पूरे बिहार में इस जोर से पिटवाएंगे कि अभी तक जिस मुसलमान को धार्मिक-भाई होने की वजह से ओवैसी में फायदा दिख रहा था वो भी लालू-नितीश के पाले में आन गिरेंगे। और स्थिति यहां तक भी पहुंच सकती है कि बाद में यह कंधे से ऊपर के स्वघोषित अक्लवान ऐसे महसूस करेंगे जैसे "चौबे जी चले छब्बे बनने और दुबे बनके लौटे।"

यह आरएसएस इनके कैडर को यह नहीं सिखाती क्या कि "अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी नहीं मारी जाया करती"? लगभग हर दूसरे अख़बार की कलम, बिहार के गलियारों से नदी-नारों तक इतना चर्चा तो बिहार में खुद नितीश-लालू और मोदी का नहीं, जितना ‘म्हारे आळे छोरे का हो रह्या सै’ यानि खटटर साहब के "बीफ वाले बयान पे मुस्लिमों को दी नसीहत" का हो रहा है।

पहले से ही बिहार के दो दौर के चुनावों में बीजेपी की बेचैनी इसी से साफ स्पष्ट झलक रही थी कि बीजेपी को वहाँ के पोस्टर्स पर राष्ट्रीय नेताओं की तस्वीरों से ज्यादा स्थानीय नेताओं की तस्वीरें उतारनी पड़ी। ऊपर से नितीश का "बाहरी बनाम बिहारी" का नारा, उसपे लालू तो जो बीजेपी को ऐ-लम्बा लठ लिए हाँक रहे थे सो हाँक ही रहे थे। लालू तो बस ताक में ही बैठे थे कि बैठे-बिठाये ये जा लपकाया खट्टर साहब ने विभीषण की तरह राम को रावण की नाभि भेदने का राज। पहले से ही चिंता में पड़ी बीजेपी की हालत "कोढ़ में खाज" वाली करके रख दी।

मोदी साहब, खट्टर साहब को पहले की तरह अपनी रसोई पकाने के लिए वापिस ही बुला लो तो बेहतर होगा वर्ना बाकी जनता का भेजा फ्राई करें या ना करें परन्तु सबसे पहले वो ही लोग इनसे उक्ता जायेंगे, जिन्होनें आपको कम से कम इन कंधे से ऊपर की मजबूती वाली ब्रांड को झेलने के लिए तो वोट नहीं दिए होंगे। क्या है कि अति हर बात की घातक होती है और आपके ही वोटरों की जुबानी खट्टर साहब तो ऐसी अति साबित हो रहे हैं जो खट-खट खाटी ढकार दिल देने वाली खटारा की तरह खटकते-खटकते आपके ही वोट खड्का-खडका के खाती जा रही है।

"सूं दादा खेड़े की!" अगर इनको जाटों को परेशान करने मात्र के लिए ही सीएमशिप दी हुई हो तो उसकी चिंता आप ना करें, क्योकि इससे तो आप उल्टा जाटों का ही भला कर रहे हो। ऐसे ज्ञानी-ध्यानी को सीएम बना के नॉन-जाट को यह अहसास दिलाने का कार्य कर रहे हो कि क्या वाकई में जाट इतने बुरे हैं या थे, जितने बता के कि हमसे वोट लिए गए। हरयाणा में फसलों से ले इंसानों तक के भाव इन्होनें छोड़े नहीं| जाटों तक पे इन्होनें "लठैत" होने के तीर छोड़ लिए| खुद को कंधे से ऊपर अक्ल वाला बताते-बताते हर्याणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर तक यह बोल चुके (और यह बोलते हुए यह भी नहीं सोचा कि जिन्होनें बीजेपी को वोट दिए खासकर नॉन-जाटों ने, वो भी तो हरयाणवी ही हैं; नहीं शायद इनके लिए हरयाणवी का पर्यायवाची शायद सिर्फ जाट ही है। खैर जाटोफोबिया रोग ही ऐसा है, खट्टर साहब की गलती नहीं| वैसे धन्य हैं आपके वोटर भी जो आपको वोट भी देवें और आपके बयानबहादुरों से अपने ऊपर कंधे से ऊपर कमजोर होने का ठप्पा लगवा के भी खुश रहवें। वाकई में खुश हैं वो वोटर या सुगबुगाहटें पुरजोर है?), लड़कियों को छोटे कपड़े पहनने की बजाय नंगा ही घूम लेना चाहिए जैसे तीर भी यह छोड़ चुके और अब तो ऐसा तीर छोड़ा कि वो जा लपका राजनीति के ‘बाहरले-बिल्ले’ उर्फ़ लालू यादव ने और वो भी इतनी मजबूती से कि बीजेपी की लुटिया को शायद अब गौ-गंगा-गायत्री ही बचा पाएं या फिर कुछ करिश्मा कर पाई तो शायद मोदी-ब्रांड ही करे, बाकी कंधे से ऊपर मजबूत वाली ब्रांड तो फायर कर गई।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 18 October 2015

कित-कित तैं रो ल्यूं इन घुन्नों को!

पंचायतों और खाप पंचायतों से एलर्जी रखने वाले और शायद इनसे घृणा करने वाले मीडिया के कार्यक्रमों के नाम तो देखो "पांच की पंचायत", "चार की चौपाल", "पंचायत", "चुनाव की पंचायत" आदि-आदि|

म्हारे हरयाणे में जो इशारों-इशारों में किसी से कोई बात निकलवा ले उसको "जूत झाड़-झाड़ के बुलवाना" कहते हैं, परन्तु यह मीडिया वाले तो ऐसे घुन्ने हैं कि जूत झाड़निये की गरद उतर जाएगी परन्तु ये लोग यह नहीं बता पाएंगे कि यह दोगलापन क्यों?

गाँव-गुहांड-गौहर में पाई जाने वाली पंचायतों और खापों के शब्दों और इन वाले शब्द में ऐसे कौनसे फ्लेवर का फर्क है जो जब इसको गाँव वाले प्रयोग करें तो मीडिया के द्वारा ही तालिबानी-रूढ़ी ठहरा दिए जावें और वही शब्द इनके हाथ पड़ें तो ऐसे शुद्ध और मॉडर्न हो जावें कि जैसे मीडिया के हाथ ना पड़ गए हों अपितु गंगाजल में डुबो दिए हों?

खाएंगे यह भीरु लोग इस देश की संस्कृति को भी और आकृति को भी।

कित-कित तैं रो ल्यूं इन घुन्नों को!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Thursday, 15 October 2015

यकीन नही आता कि बिहार में आज भी ऐसा हो रहा है!


बिहार के जहानाबाद जिले की घोसी विधान सभा क्षेत्र में भूमिहार जाति के दबंगों ने आज तक दलितों और पिछड़ों को वोट नहीं डालने दिया।। पूरी खबर देखिए और तय करिए कि कौन लोगों ने लोकतंत्र की हत्या करने का प्रयास किया है।।

ये है हिंदुत्व के ठेकेदारों की इंसानियत और असलियत, मुस्लिमों के डर से डरा के एक क्या इसलिए कर रहे हैं कि कल को लोगों को उनके लोकतान्त्रिक अधिकारों से ही वंचित कर दें।

सम्भल जाओ हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की झूठी बातों से।

है कोई "हिन्दू एकता और बराबरी" के नारे लगाने वाला इस बात पे जवाब देने वाला, कि आखिर क्यों एक हिन्दू ही दूसरे हिन्दू को वोट नहीं डालने देता?

Phool Malik

Source: https://www.youtube.com/watch?v=VF6phOHDEBE

वीर जवाहर नमन तुझे!

वो जलजला सूरज का, जवाहर जाट कहलाता था,
मनुष्य क्या देवों से भी, खुली छाती भिड़ जाता था,

क्रोधी मन में संकल्प उठा, बिजली चमकी काले-घन पर,
पितृहत्या का बदला लूंगा, अपने प्राणों से भी बढ़ कर,

अश्वारोही अपनी सेना को, पल में सम्मुख खड़ा किया,
हुंकार लगा के जवाहर ने, दशों दिशा को गुंजा दिया,

होके सवार अपने तुरंग पर, दिल्ली पे कूच किया,
अपनी गरजती ललकार से, जाट लहू उबाल दिया,

लाल किले की प्राचीरों से, उठने लगी चित्कार वहां,
नंगी तलवार लिए खड़े थे, जाटवीरों के कदम जहां,

अफगान सहमे, ह्रदय कांप उठे, छा गया अंधकार घोर,
जहां अफगान था खड़ा, तलवार मुड़ी जाट की उसी ओर,

छिन के बिजली कड़क उठी, जालिम की खड़ग गिर पड़ी,
क्षमा करदे जाट सूरमे, दुश्मन की आंखे छलक पड़ी,

गद्दार पेशवाओं ने तब, अपनी ही औकात दिखलायी,
समर्पण कर अफगानों से, जाटों की सेवा भुलाई,

पानीपत के तृतीय समर में, जब तुर्कों ने इन्हें भगाया था,
हिन्दू रक्षक सूरजमल ने तब, इनके घावों को सहलाया था,

सुसोभित अष्टधातु पट जहां, जाटों ने वो उखाड़ दिये,
तब लोहागढ़ को लोट चले, दिल्ली की पहचान लिये,

जबसे धरती पर मां जननी, जब से मां ने बेटे जने,
जाटवीरों के ऐसे वकत्व्य, ना देखे कभी ना कभी सुने,

वीर जवाहर नमन तुझे, जो जाटों का गौरव-मान बढाया,
तेरे अदम्य साहस ने ही तो, "बलवीर" को लिखना सिखाया,
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लेखक - बलवीर घिंटाला 'तेजाभक्त'

Wednesday, 14 October 2015

सीवन, जिला कैथल, "सीएम हरयाणा की जाति बाहुल्य गाँव" है!

कुरुक्षेत्र सांसद राजकुमार सैनी व् गुहला विधायक बाजीगर पर सीवन गाव में नारे व् पथराव!

सांसद ने कहा जाति विशेष का काम!

सांसद महोदय शायद आप अपने ही क्षेत्र के डेमोग्राफिक विस्तार से वाकिफ नहीं| जान लेना जरूरी होता है, वर्ना झूठ दिन-धोली पकड़ा जाता है|

सीवन गाँव में 12807 मतदाता हैं पर आपकी बताई जाति विशेष का इस हमले में और वो भी उसी गाँव के लोगों के अनुसार एक भी नही| हाँ, जाति विशेष के मात्र 1200 के करीब मतदाता जरूर हैं उस गाँव में।

जनता विरोध कर रही और कमाल इस बात का है सीवन जैसा गाँव जिसने पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनाव में एकमुश्त होकर आपको ही अधिकतर वोट दिए, वहाँ आप पर हमला हुआ? बीजेपी के वोट-बैंक वाले गाँव में आप पे हमला हुआ जनाब?

चेत जाओ नही तो सारा देश सभी का यही हाल करेगा ये जाति विशेष का नहीं वरन जनता विशेष का आपकी नीतियों के प्रति विरोध है।

वैसे दुनिया इतनी बावलीबूच भी नहीं है एमपी साहब, सबको पता लग रहा है कि उस गाँव में कौन बहुलयता में है और किसने आपको पत्थर मारे होंगे| जबकि यहाँ तो खुद सीवन वाले कह रहे हैं कि एमपी साहब की बताई जाति विशेष वाला तो एक भी नहीं था आप पर पत्थर बरसाने में|

परन्तु आपके साथ तो वो "कुत्ते को मार गई थी बिजली, और मिराड को देखे और कुकावे-ही-कुकावे" वाली बात हो रखी! बावले हो आप, जाट हमला प्लान करे और सिर्फ पत्थर बरसवा के छोड़ दे, सर कुछ राह लगती तो बात किया करो|

गाँव सीएम हरयाणा की जाति बाहुल्य का और इल्जाम फिर भी जाति-विशेष यानी जाटों पर| शर्म कर लो जनाब कुछ, कुछ तो झांक लो अपने गिरेबान में| असलियत को पहचान लो जनाब, जिन्होनें आपको सबसे ज्यादा वोट दिए, उन्हीं के गांव में आप पे पत्थर बरसे| शायद इस कड़वी सच्चाई से वाकिफ नहीं होना चाहते होंगे आप, इसलिए मन में बहम रखने को "जाति विशेष" का काम बता के उछाल दिया| कोई ना, "क्यों खखावै नदी, आवे तो पुल के तले को ही गी!"

जय योद्धेय! - फूल मलिक

उतरी भारत और शेष भारत की मूल-संस्कृतियों में जो एक सबसे बड़ा फर्क है!

जहां पूरे भारत में मर्द तो कुरता-कमीज-लुंगी-पजामा या धोती ही पहनता है वहीं औरत के पहनावे के मामले में दोनों की भिन्न सोच है|

उत्तरी भारत को छोड़ शेष भारत में औरत पेटलेस और अधिकतर बैकलेस चोली-साड़ी पहनती हैं अथवा उनकी मूल-सांस्कृतिक ड्रेस यही है| मतलब मर्द और औरत की ड्रेस समान नहीं| मर्द ऊपर से नीचे तक ढंका वहीँ औरत पेट और पीठ पर नंगी|

वहीँ उत्तरी भारत में जम्मू-कश्मीर से ले के आगरा तक औरत की मूल-सांस्कृतिक ड्रेस या तो सलवार-सूट है पहनती है या फिर दामन-कुरता या फिर पश्चिमी उत्तरप्रदेश की तरह साड़ी पर पूरा पेट ढंका कुरता| कुल मिला के पुरुष और महिला के पहनावे में एक समानता कि दोनों ऊपर से नीचे तक ढंके हुए हैं|

कई कुतर्की इसमें तर्क अड़ाते हुए आएंगे कि उत्तर भारत में अत्यधिक सर्दियां पड़ती हैं इसलिए औरतें ऐसे कपड़े पहनती हैं तो ऐसे तर्क का जवाब यही है कि पूर्वोत्तर के पहाड़ों में भी इतनी ही ठंड पड़ती है जितनी उत्तर में तो वहाँ पर बैकलेस या पेटलेस चोली क्यों चलती है?

इसका कारण है कि उत्तरी भारत में जाटू (जाट) सभ्यता के अनुसार ड्रेस परम्परा रही है, जबकि बाकी भारत में पौराणिक परम्परा के अनुसार|

इसका क्या मतलब लिया जाए कि उत्तरी भारत का आदमी शेष भारत के आदमी से कम व्यभिचारी या चक्षु-सुखगामी होता है? तभी तो शायद यह लोग देशभक्ति, अन्नभक्ति और खेलभक्ति से ज्यादा भरे होते हैं|

मानो या ना मानो यह मसला जाटू सभ्यता बनाम पौराणिक सभ्यता है|

वैसे जींस-टी-शर्ट सभ्यता में भी मर्द हो या औरत दोनों ही ऊपर से नीचे तक ढंके होते हैं|

विशेष: मेरी बात काटने को बहुत से लोग यह तर्क उठाएंगे कि अब तो जाटणियां भी चोली पहनने लग गई हैं तो मैं उनको कहूँगा कि मैंने यहां विदेशज नहीं अपितु देशज पहनावे की बात की है|

जय योद्धेय! - फूल मलिक

एक किसान का खुला पत्र!

Why the process of deciding the production cost and selling price of a product is not same throughout every business be it corporate business, FMCG business or Agri-business?

Why it is so that be it corporate or FMCG, they recommend and decide it for themselves whereas for farmers it is govt. and corporate lobby out of which one recommends and other decides behind the scene for farmer?

Certainly farmers have to raise up against this odd.

मा• श्री नरेन्द्र मोदी
(प्रधानमंत्री) भारत सरकार,
मा• श्री मनोहर लाल खट्टर
मुख्यमंत्री हरियाणा सरकार,

एक किसान का खुला पत्र

श्रीमान जी मैं एक छोटा सा किसान हूं जब आप प्रचार कर रहे थे ,तब आपने किसान हित मे बहुत सारी घोषणाये की थी मैने और मेरे परिवार ने आपके अंदर एक किसान हितेषी राजनेता का चेहरा देखा था ओर मेने ही नही सभी किसान भाईयो ने मिलकर आपको प्रचंड बहुमत दिया है आज मे परेशानी मे हूॅ वर्षा कम होने से धान की पैदाबार कम हुई साथ ही मेरी धान को 1000 रु से 1500 रु प्रति किंव्• ही खरीदा जा रहा है।ग्वार भी 2500 से3000 रु प्रति किंव् लिया जा रहा है।मैं अत्यन्त्य घाटे मे पहुंच गया हूँ पर कर्म करना मेरा धर्म है ऐसा सोचकर मेने साहूकारो व्यापारियो ओर बैको से कर्ज लेकर कपास की फसल बो  दी थी फसल अच्छी थी ।लेकिन सफेद मच्छर और कम बारिश के कारण कपास की फसल में बहुत नुकसान हुआ।मैने पांच एकड़ मे कपास की खेती की थी जिसमे 5 किं•कपास हुई है।
मै आपको क्रम अनुसार मेरी लागत का विवरण देता हूं ।

कपास का ख़र्चा प्रति एकड़ बीज~(1000×3)=3000
डीएपी ~(1250×2)=2500
यूरिया~(300×2)=600
ज़िंक ~(300×1)=300
ग्रामोक्सोम् (450×1)=450
खरपतवार नाशक
ट्रेक्टर द्वारा खेत की जुताई 1000
ट्रेक्टर द्वारा बुवाई 400
 निराई गुड़ाई 1500
10 स्प्रे ट्रेक्टर द्वारा=5000,
पानी दिया 4 बार  =5000

एक आदमी जो खेत मे पानी देने स्प्रे करता है उसे चार महीने मे देता तो ज्यादा पड़ता है।पर आप के द्वारा जो भाव  निर्धारित है 4000 रु जिससे 5 एकड़ में मेरी फसल हुई 20000 रु की।
मेरी लागत हुई 20000×5=100000जिसमे मेरी व् मेरे परिवार की मेहनत छोड़ दी है ।
इसमे मुझ 80000 रु का घाटा है अब आप मेरे आंसुओ को देखते हुये बताईये की क्या कृषि कर्मण पुरुस्कार आपको किसकी मेहनत के कारण मिला था कृषि मे कई समस्याये है मेरे बच्चे परिवार का भरण पोषण इस विषम परिस्थिति मे कैसे होगा ।आप कृषि को लाभ का धन्धा बताने की घोषणाये करके क्या साबित करना चाहते हो इस पत्र मे जो बाते लिखी गई है बह बिलकुल तथ्यो के अनुसार लिखी गई है आप जब चाहे हम किसान सभी तथ्यो के साथ आपके समक्ष उपस्थित हो जायेगे। आप से हम यह दर्द बताकर भीख नही मांगना चाहते. हमे बस हमारी फसल का उचित लागत मूल्य चाहिये यह निवेदन ओर प्रार्थना है अन्त मे एक संदेश,

जब तक दुखी किसान रहेगा
धरती पर तूफान रहेगा ।।

      माननीय मोदीजी धान का भाव पिछले से पिछले साल 3500 रु था पिछले साल 3000 रु की थी ओर इस बार आपने 1500 रु कम कर दिए....
अगर कर्मचारियों की सैलेरी मे साल में सिर्फ 500 रु कम कर दिए तो......क्या होगा पता है.......देश मे हड़तालें हो जायेगी... ताल बंदी होगी ....आपके पुतले जलाये जायेंगे  ये लोग आपको निकम्मे कहेगे......

देश का किसान आपको कुछ नही कह रहा है....ये हमारी बेवकूफी नही है भोलापन है।....एक तो सारी फसल कम हुई है और ऊपर से आप भाव भी कम दे रहे हो कुछ तो शर्म करो।

जिस दिन हमारा सब्र का बाँध टूटेगा उस उस दिन आप व आपकी पार्टी का पता नही चलेगा......

किसान के बेटे है तो इतना शेयर करो कि किसान कितना महान है।।।

प्राथी समस्त किसान भाई🏼🏼

Courtesy: Jaswant Ohlan

दुर्गा-पूजा, नवरात्रे, दशहरा और साँझी!

(देशज त्यौहार बनाम विदेशज त्यौहार)

विशेष: इस लेख का उद्देश्य हरयाणवी मूल के नागरिकों को उनके अपने देशज त्यौहार बारे बताना है। मुझे किसी त्यौहार और किसी की श्रद्धा से कोई हर्ज नहीं और उम्मीद करूँगा कि ऐसे ही मेरी बातों और श्रद्धा से किसी पाठक को कोई हर्ज नहीं होगा। अब लेख पे आगे बढ़ता हूँ।

चारों पर्वों में समानता:
1) दुर्गा पूजा और नवरात्रे नौ-नौ दिन मनाये जाते हैं।
2) दशहरा और सांझी दस दिन मनाये जाते हैं।
3) चारों को मनाने का महीना-वक्त-शुरुवाती दिन एक समान हैं।

चारों पर्वों में भिन्नता:
1) हर्याणवियों के पक्ष से सिर्फ सांझी ही हमारा देशज त्यौहार है, बाकी के तीनों विदेशज त्यौहार हैं। देशज और विदेशज शब्द का यहां ठीक वही प्रयोग है जो हिंदी व्याकरण और भाषा में शब्दों के प्रकार बताते हुए बताया जाता है। यानी अपनी भाषा के शब्दों को देशज और दूसरी भाषाओँ से हिंदी भाषा में आये शब्दों को विदेशज बोलते हैं।
2) चारों त्योहारों में सिर्फ साँझी अकेला वास्तविकता पर आधारित त्यौहार है बाकी तीनों माइथोलॉजी यानी काल्पनिक इतिहास पर आधारित हैं।
3) साँझी में ना व्रत रखने, ना भूखा मरना और ना ही आडम्बर पूजने। शुद्ध वास्तविक एवं व्यवहारिक मान्यताओं में हमारी श्रद्धा व् आदर बना रहे उसके लिए मनाया जाता है।

चारों की अलग-अलग ख़ास और विचित्र बातें:

दुर्गा-पूजा: मुख्यत: बंगाल का त्यौहार है। जबसे बंगाली शरणार्थी दिल्ली-एनसीआर-हरयाणा में आ के बसे हैं तब से यहां जाना जाने लगा है क्योंकि यह हरयाणवियों के जैसे नहीं हैं कि गाँव से मात्र बीस-तीस किलोमीटर शहर में भी क्या आन बसे कि अपने त्योहारों तक को तिलांजलि दे देते हैं। और दो पैसे का जुगाड़ हो के आर्थिक आधार पर थोड़े एडवांस क्या हुए कि लगते हैं त्यौहारों में भी एडवांसपना दिखाने। अंत में हालत वही होती है कि धोबी का कुत्ता घर का ना घाट का। और यही ढेढस्यानपने वाला एडवांसपना होता है जिसकी वजह से सीएम खट्टर जैसे भी हरयाणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर बोल जाते हैं।

नवरात्रे: गुजरात के गुजरती और पाकिस्तान से आये हिन्दू अरोड़ा-खत्रियों का मुख्य त्यौहार है। हरयाणा-दिल्ली-पश्चिमी यूपी में इसको पाकिस्तान से आये हिन्दू अरोड़ा-खत्रियों ने ही यहां आ के मनाना शुरू किया। और आज आलम यह है कि आर्थिक एडवांसमेंट के मारे हरयाणवी तक अपनी "सांझी" को छोड़ इसको मना रहे हैं वो भी बावजूद यह जानने के कि इन्हीं के समाज का सबसे बड़ा नुमाइंदा सीएम हरयाणा हर्याणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर बोल जाता है। बात सही भी है जिनको अपने परम्परागत त्यौहारों तक को संजो के रखने की सुध नहीं तो उनको फिर कोई कुछ भी कह ले।

दशहरा: अवध-अयोध्या का त्यौहार है। देश की आज़ादी के बाद स्थानीय हरयाणवी त्योहारों व् सभ्यता को खत्म करवाने हेतु यहां रामलीलाओं के जरिये इसको फैलाया गया। हरयाणा-दिल्ली-पश्चिमी यूपी में रामलीलाओं का चलन बस इतना ही पुराना है जितना कि देश की आज़ादी। इससे पहले हमारे यहां मुख्यत: शिव, हनुमान व् कान्हा के ही तीज-त्यौहार मनाये जाते थे।

सांझी: सांझी सम्पूर्णत: वास्तविकता पर आधारित त्यौहार है। प्राचीनकाल से ही हरयाणा में दुल्हन जब पहली बार ससुराल जाती थी तो वो पहले आठ दिन ससुराल में रहती थी और नौवें दिन उसका भाई उसको लिवाने जाता था जो कि चलन में तो आज भी है। सांझी के बारे इससे आगे विस्तार से हरयाणवी भाषा में लिखूंगा जो कि ऐसे है:

सांझी सै हरयाणे के आस्सुज माह का सबतैं बड्डा दस द्य्नां ताहीं मनाण जाण आळआ त्युहार, जो अक ठीक न्यूं-ए मनाया जा सै ज्युकर बंगाल म्ह दुर्गा पूज्जा अर अवध म्ह दशहरा दस द्यना तान्हीं मनाया जांदा रह्या सै|

पराणे जमान्ने तें ब्याह के आठ द्य्न पाछै भाई बेबे नैं लेण जाया करदा अर दो द्य्न बेबे कै रुक-कें फेर बेबे नैं ले घर आ ज्याया करदा। इस ढाळ यू दसमें द्य्न बेबे सुसराड़ तैं पीहर आ ज्याया करदी। इसे सोण नैं मनावण ताहीं आस्सुज की मोस तैं ले अर दशमी ताहीं यू उल्लास-उत्साह-स्नेह का त्युहार मनाया जाया करदा।

आस्सुज की मोस तें-ए क्यूँ शरू हो सै सांझी का त्युहार: वो न्यूं अक इस द्य्न तैं एक तो श्राद (कनागत) खत्म हो ज्यां सें अर दूसरा ब्याह-वाण्या के बेड़े खुल ज्यां सें अर ब्याह-वाण्या मौसम फेर तैं शरू हो ज्या सै। इस ब्याह-वाण्या के मौसम के स्वागत ताहीं यू सांझी का दस द्य्न त्युहार मनाया जाया करदा/जा सै।

के हो सै सांझी का त्युहार: जै हिंदी के शब्दां म्ह कहूँ तो इसनें भींत पै बनाण जाण आळी न्य्रोळी रंगोली भी बोल सकें सैं| आस्सुज की मोस आंदे, कुंवारी भाण-बेटी सांझी घाल्या करदी। जिस खात्तर ख़ास किस्म के सामान अर तैयारी घणे द्य्न पहल्यां शरू हो ज्याया करदी।

सांझी नैं बनाण का सामान: आल्ली चिकणी माट्टी/ग्यारा, रंग, छोटी चुदंडी, नकली गहने, नकली बाल (जो अक्सर घोड़े की पूंछ या गर्दन के होते थे), हरा गोबर, छोटी-बड़ी हांड़ी-बरोल्ले। चिकनी माट्टी तैं सितारे, सांझी का मुंह, पाँव, अर हाथ बणाए जाया करदे अर ज्युकर-ए वें सूख ज्यांदे तो तैयार हो ज्याया करदा सांझी बनाण का सारा सामान|

सांझी बनाण का मुहूर्त: जिह्सा अक ऊपर बताया आस्सुज के मिन्हें की मोस के द्य्न तैं ऊपर बताये सामान गेल सांझी की नीम धरी जा सै। आजकाल तो चिपकाणे आला गूंद भी प्रयोग होण लाग-गया पर पह्ल्ड़े जमाने म्ह ताजा हरया गोबर (हरया गोबर इस कारण लिया जाया करदा अक इसमें मुह्कार नहीं आया करदी) भींत पै ला कें चिकणी माट्टी के बणाए होड़ सुतारे, मुंह, पाँ अर हाथ इस्पै ला कें, सूखण ताहीं छोड़ दिए जा सैं, क्यूँ अक गोबर भीत नैं भी सुथरे ढाळआँ पकड़ ले अर सुतारयां नैं भी। फेर सूखें पाछै सांझी नैं सजावण-सिंगारण खात्तर रंग-टूम-चुंदड़ी वगैरह लगा पूरी सिंगार दी जा सै।

सांझी के भाई के आवण का द्यन: आठ द्यन पाछै हो सै, सांझी के भाई के आण का द्य्न। सांझी कै बराबर म्ह सांझी के छोटे भाई की भी सांझी की ढाल ही छोटी सांझी घाली जा सै, जो इस बात का प्रतीक मान्या जा सै अक भाई सांझी नैं लेण अर बेबे की सुस्राड़ म्ह बेबे के आदर-मान की के जंघाह बणी सै उसका जायजा लेण बाबत दो द्य्न रूकैगा|

दशमी के द्य्न भाई गेल सांझी की ब्य्दाई: इस द्यन सांझी अर उनके भाई नैं भीतां तैं तार कें हांड़ी-बरोल्ले अर माँटा म्ह भर कें धर दिया जा सै अर सांझ के बख्त जुणसी हांडी म्ह सांझी का स्यर हो सै उस हांडी म्ह दिवा बाळ कें आस-पड़ोस की भाण-बेटी कट्ठी हो सांझी की ब्य्दाई के गीत गंदी होई जोहडां म्ह तैयराण खातर जोहडां क्यान चाल्या करदी।

उडै जोहडां पै छोरे जोहड़ काठे खड़े पाया करते, हाथ म्ह लाठी लियें अक क्यूँ सांझी की हंडियां नैं फोडन की होड़ म्ह। कह्या जा सै अक हांडी नैं जोहड़ के पार नहीं उतरण दिया करदे अर बीच म्ह ए फोड़ी जाया करदी|

भ्रान्ति: सांझी के त्युहार का बख्त दुर्गा-अष्टमी अर दशहरे गेल बैठण के कारण कई बै लोग सांझी के त्युहार नैं इन गेल्याँ जोड़ कें देखदे पाए जा सें। तो आप सब इस बात पै न्यरोळए हो कें समझ सकें सैं अक यें तीनूं न्यारे-न्यारे त्युहार सै। बस म्हारी खात्तर बड्डी बात या सै अक सांझी न्यग्र हरयाणवी त्युहार सै अर दुर्गा-अष्टमी बंगाल तैं तो दशहरा अयोध्या तैं आया त्युहार सै। दुर्गा-अष्टमी अर दशहरा तो इबे हाल के बीस-तीस साल्लां तैं-ए हरयाणे म्ह मनाये जाण लगे सें, इसतें पहल्यां उरानै ये त्युहार निह मनाये जाया करदे। दशहरे को हरयाणे म्ह पुन्ह्चाणे का सबतें बड्डा योगदान राम-लीलाओं नैं निभाया सै|

जय योद्धेय! - जय हरयाणा!

फूल मलिक

Tuesday, 13 October 2015

यह हरयाणवी ही एक अनोखे ऐसे क्यों हैं?

गुजराती अमेरिका हो या इंग्लैंड, जहां भी हों वहीँ डांडिया मना लेते हैं| बिहार से दिल्ली-एनसीआर में आने वाले बिहारी भी अपनी "छट पूजा" यहां धूम-धाम से मना लेते हैं| बंगाली भी अपनी दुर्गापूजा दिल्ली-एनसीआर में धूमधाम से मना लेते हैं| पंजाबी हो, मलयाली हो, मराठी हो वो अपने प्रदेश में हो, गाँव में हो या शहर में या विदेश, हर जगह अपने त्यौहार साथ रखते हैं|

तो फिर यह हरयाणवी ही एक अनोखे ऐसे क्यों हैं कि गाँव से मात्र तीस-पचास (30-50) किलोमीटर शहर (वो भी अपने ही राज्य के जिले में) तक आते-आते अपने तीज-त्यौहार सब भूल के कोई नवरात्रों में मशगूल है तो कोई दुर्गापूजा में, खुद की "सांझी" विरले-विरले को ही याद दिखती है| 

सांझी की पूछो तो या तो पता ही नहीं होता या जिसको पता होता है वो कहते हैं कि वो भी मनाते हैं परन्तु गाँव में| अरे भाई जब तुम गाँव से शहर आ गए तो उसको साथ शहर में क्यों नहीं मना रहे? आखिर बाकी ये इतने जो ऊपर गिनाये हैं, यह भी तो साथ लिए चलते हैं अपने तीज-त्योहारों को, देश में भी प्रदेश में भी, गाँव में भी शहर में भी, तो एक आप हरयाणवी ही ऐसे क्या अनोखे हो गए कि गाँव से अपने ही राज्य में रहते हुए अपने जिले के शहर तक अपने त्यौहार-रिवाज नहीं निकाल के ला रहे?

ताज्जुब की बात नहीं अगर ऐसे में सीएम खट्टर जैसे यह कहते हुए कि "हरयाणवी कन्धों से ऊपर कमजोर होते हैं" तान्ना मार जाते हैं तो| और वास्तव में पूरे भारत में सिर्फ हरयाणवी ही ऐसे हैं जो गाँव से निकलते वक्त अपने तीज-त्यौहार भी गाँव में ही छोड़ देते हैं|

हरयाणवियो, यह खुद की आइडेंटिटी को खुद के ही हाथों मारने की रीत ठीक नहीं| अगर आप अपने तीज-त्यौहार को ही अपना नहीं कह सकते, उसको साथ ले के नहीं चल सकते, उसको प्रमोट नहीं कर सकते, तो फिर तो दूसरे आप पर तान्ने भी कसें तो कोई ताज्जुब नहीं| 

अपनी संस्कृति को पहचानिये, इसके जमाई नहीं खसम बनिए! इसको साथ ले के चलिए|

जय योद्धेय! - फूल मलिक