Wednesday, 27 January 2016

दक्षिण भारत में दलितों-शूद्रों की बेटियों का देवदासी (प्रभुदासी) बनना गए दिनों की नहीं अपितु आज की भी हकीकत है!

इस लेख में ब्यान हकीकत को समझने के लिए, लेख के अंत में दिए वीडियो लिंकों को पूरा देखें|

दक्षिण भारत समेत उड़ीसा-झारखंड तक फैली यह वो प्रथा है जिसके तहत दलित-शूद्र की बेटियों को बालिग होने से भी पहले की अल्पायु में ही मंदिरों में पुजारियों द्वारा देवदासी उर्फ़ प्रभुदासी बनवा दिया जाता है| इनमें से कई पुजारियों की शारीरिक सेवा के लिए होती हैं तो कई धनी सेठों-साहूकारों की सेवा हेतु| इनका अपना कोई आत्मसम्मान एवं वजूद नहीं होता| एक ने रखी, जितने दिन तक चाहा शारीरिक भूख मिटाई और आगे बढ़ा दी| दक्षिण भारत के मंदिरों के प्रांगणों में मनोरंजन हेतु इनको नृत्य भी सिखाया जाता है|

मुझे तो इस एपिसोड को देखकर उन माताओं पर तरस आ रहा था जो मानसिक रूप से इतनी धार्मिक गुलाम बनाई गई हैं कि उनको बाकायदा डरा कर, धमका कर और विभिन्न तरह की सौगंध और देवी माँ के प्रकोप का हवाला देकर देवदासी बनने में गर्व महसूस करवाया जाता है|

जब आप इन वीडियो को देखेंगे तो इनमें एक देवी माँ की गला कटी मूर्ती है| इन इलाकों में इस देवी माँ का नाम कहीं पर येलम्मा तो कहीं पर देवी माँ ही है| विष्णु पुराण के अनुसार यह येलम्मा महर्षि परशुराम (क्षत्रिय उर्फ़ राजपूत समाज को 21 बार काटकर धरती को क्षत्रिय-विहीन करने वाले) की माँ रेणुका देवी हैं, जिनका कि महर्षि परशुराम ने अपने फरसे से शीश काट कर धड़ से अलग कर दिया था ( इस हत्या को हिन्दू इतिहास की सर्वप्रथम ज्ञात हॉनर किलिंग भी कहा जाता है); क्योंकि इनके पिता जमदग्नि को इनकी माता के चरित्र पर किसी परपुरुष से अवैध संबंधों का संदेह हो गया था| तब से ब्राह्मण समाज ने इनको श्राप स्वरूप देवदासियों की देवी घोषित कर दिया|

रामानंद सागर द्वारा बनाये गए रामायण टीवी सीरियल में राम-सीता स्वयंवर एपिसोड में लक्ष्मण द्वारा परशुराम के सम्मुख इस घटना का जिक्र भी आता है| विष्णु पुराण पर बने टीवी सीरियल में नितीश भरद्वाज (जो बी.आर. चोपड़ा की महाभारत में कृष्ण बने थे) ने भी इस अध्याय को जिवान्वित किया|

देवदासियों की देवी माँ की ऐतिहासिक कहानी से बाहर आते हुए वर्तमान में भी बदस्तूर चल रही इस प्रथा को जितना जल्दी हो सके मंदिरों से खत्म करवाने में ही मानव समाज एवं सभ्यता की भलाई होगी|

मुझे गर्व है कि मैं उत्तरी भारतीय समाज की उस खाप-परम्परा में पैदा और पला-बड़ा हुआ जहां जाटों और खापों ने धर्म के नाम पर मानवता और औरत के सार्वजनिक अपमान और जिल्ल्त के इन घोर रूपों को कभी नहीं पनपने दिया| खाप और जाट का धार्मिक कटटरता और अंधता से दूर रहने का DNA ही वजह रहा जिसके कारण आज उतरी भारत के खाप व् जाट बाहुल्य और प्रभाव के इलाकों में दलितों-शूद्रों की बेटियां ऐसे मंदिरों में पुजारियों के जरिये उनकी और उनके समर्थित समाज की वासना की शिकार नहीं बनती|

मेरे अनुसार जाट बनाम नॉन-जाट का जहर फैला के जाट को समाज से अलग-थलग करने की एक बड़ी वजह यह भी है कि धर्म वालों की मनमानी और दलितों के बीच दिवार बनके खड़े रहते आये जाट को, दलितों/पिछड़ों का दुश्मन बना / दिखा के रास्ते से हटवाया जा सके और दक्षिण भारत जैसे इन कुकर्मों को यहां भी निर्बाध फैलाया जा सके|

यहां यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अकादमिक शोधों से सिद्ध हुआ है कि दक्षिण भारतीय समाज अन्धविश्वास-पाखंड-आडंबर में सबसे ज्यादा जीता है| उत्तर भारत में तो यह कुंडली-जन्मपत्री पिछले तीस-चालीस साल से ज्यादा चलन में चढ़ी हैं, परन्तु दक्षिण भारत में इनका कितना प्रचलन है, यह किसी से छुपी बात नहीं| इसलिए इन आडंबरों को मान्यता देने का अर्थ है, इनके रचयिताओं के इतने हौंसले बुलंद करना या होने देना कि कल को यह यहाँ भी देवदासियां बनाने की जुर्रत करने लग जावें| इसलिए अपनी नादानियों को समाज के गले की फांस ना बनने देवें|

जाट इन अमानवीय प्रथाओं को ले के इनके रचीयताओं से विरोध रखता आया इसलिए कुंठावश और इनके बहकावों और डरावों में आ इन अंध-प्रथाओं को ना मानने की बजाए मानवता को पालने के कारण, इन्होनें यदा-कदा जाट को एंटी-ब्राह्मण भी कहा, जो कि आजतक भी कहा जाता है| जाट ने इतिहास में अपनी इस स्वछँदता की कीमत बहुतों बार चुकाई है और आज भी जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़ों के रूप में चुका रहा है|

देखने वाली बात रहेगी कि आखिर अबकी बार जाट कब इनके विरुद्ध खड़ा होने वाला है, उम्मीद है कि उठ खड़ा होने में इतनी देरी तो नहीं लगाएगा कि इनके आडंबर इतने बढ़ जाएँ कि यहां के मंदिरों में भी देवदासियां बैठाई जाने लगें|

वीडियो लिंक 1: क्राइम पेट्रोल एपिसोड 'दासी' पार्ट 1 - https://www.youtube.com/watch?v=wZ1SBm9JmgE
वीडियो लिंक 2: क्राइम पेट्रोल एपिसोड 'दासी' पार्ट 2 - https://www.youtube.com/watch?v=mz37bCApxHE
वीडियो लिंक 3: लक्ष्मण-परशुराम संवाद - https://www.youtube.com/watch?v=IkInfTZrQ_I

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जब सरदार भगत सिंह को फांसी की सजा सुनाने वाले जज शादीलाल का सर छोटूराम से पाला पड़ा!

बात सन 1934 की है| लाहौर हाईकोर्ट में मुख्य न्यायाधीश 'शादीलाल' से एक अपीलकर्ता किसान ने कहा कि मैं बहुत गरीब आदमी हूं, कर्ज ना चुका पाने की सूरत हो चली है और मेरा घर और बैल कुर्की की नौबत आ गई, कृपया मेरे घर और बैल की कुर्की से माफ किया जाये। तब जज शादीलाल ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा कि एक छोटूराम नाम का आदमी है, वही ऐसे कानून बनाता है, उसके पास जाओ और कानून बनवा कर लाओ। अपीलकर्ता किसान चौ. छोटूराम के पास आया और यह तंज भरी टिप्पणी सुनाई।

दीनबंधु चौधरी छोटूराम ने 8 अप्रैल 1935 में किसान व मजदूर को सूदखोरों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए "कर्ज माफ़ी अधिनियम" बना डाला। इस कानून के तहत अगर कर्जे का दुगुना पैसा दिया जा चुका है तो ऋणी ऋण-मुक्त समझा जाएगा। इस अधिनियम के तहत कर्जा माफी (रीकैन्सिलेशन) बोर्ड बनाए गए जिसमें एक चेयरमैन और दो सदस्य होते थे। दाम दुप्पटा का नियम लागू किया गया। इसके अनुसार दुधारू पशु, बछड़ा, ऊंट, रेहड़ा, घेर, गितवाड़ आदि आजीविका के साधनों की नीलामी नहीं की जाएगी।

और साथ ही चौ. छोटूराम ने कानून में ऐसा संशोधन करवाया कि शादीलाल की उस अदालत की सुनवाई पर ही प्रतिबंध लगा दिया और इस तरह चौधरी साहब ने इस व्यंग्य का जबरदस्त उत्तर दिया।

जय हो किसानों के राम, सर छोटूराम जी की!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

जाट अपनी कमजोरियों का पोस्टमॉर्टम खुद करे तो सारी एंटी-जाट हवा साफ़!

जब तक जाट अपनी खामियों-कमजोरियों को डिफेंड करना नहीं सीखेगा, एंटी-जाट तब तक जाट की इन्हीं कमजोरियों-खामियों का पोस्टमॉर्टेम (जैसे की मीडिया ट्रायल्स के जरिये) करके जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजाते रहेंगे| जिस दिन जाट ने यह पोस्टमॉर्टेम का काम इनके हाथों से खुद अपने हाथ में ले लिया, समझो सारा मसला ही खत्म|

छोटी-छोटी बातों पे आजकल जाटों में जो आपसी टाँग-खिंचाई चलती है यह इसी का नतीजा है; खुद आगे बढ़ के अपने मतभेद मिटाते या सुलझाते नहीं; फिर उन मतभेदों को इगोभेद या जिद्दभेद बनाने को एंटी-जाट लॉबी तो गिद्द की दृष्टि गड़ाए तैयार रहती ही है|

जिस दिन जाट ने अपनी खामियों को डिफेंड करना और इनसे पार पा के 'मिनिमम कॉमन एजेंडा' बना के चलना शुरू कर दिया, जाट जाति के सारे मसले स्वत: मिटते चले जायेंगे|

कौम की कमजोरी और खामी को ढँक के रखना उतना ही जरूरी होता है जितना कि एक शरीर पे लगे घाव को हवा-पानी-मख्खी-मच्छर से ढंक के रखना| लेकिन फ़िलहाल तो उल्टा हो रहा है और ऐसा कम्पटीशन का दौर है कि एक दूसरे की खासियत की प्रसंशा, प्रमोशन या गुणगान करो ना करो परन्तु घाव हा के उघाड़ते हैं| और यही सबसे बड़ी वजह है कि क्यों जाट सबसे ज्यादा सॉफ्ट-टारगेट पे रहता है|

समस्या एक और भी है कि जो जाट इस समस्या को समझते हैं, वो भी विरले ही इससे अपने आपको दूर रख पाते हैं| अगर जो समझते हैं वो भी सामने वाले की टाँग खिंचाई करने की बजाये न्यूट्रल रहना भी सीख लेवें तो समस्या सत्तर प्रतिशत तक हल हो सकती है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 24 January 2016

जाट को सम्मान दोगे तो आस्मां सी ऊंचाई नसीब होगी, वर्ना तो ख़ाक की फाक भी नहीं!

मैं एक जाट हूँ, ब्राह्मण भी अगर मुझे 'जी' लगा के आदर-मान देता है तो मैं उसे सूद-समेत लौटाता हूँ। एक ब्राह्मण दयानंद सरस्वती ने आर्य-समाज की गीता यानि "सत्यार्थ-प्रकाश" में मुझे 'जाट जी' कह के सम्बोधित किया तो आज देख लो जाट ने बदले में जो सम्मान दिया उसी की बिसात है कि उत्तरी भारत में उनसे बड़ा कोई ब्राह्मण नहीं जाना जाता।

वहीँ एक ब्राह्मण सदाशिवराव भाऊ ने महाराजा सूरजमल का अपमान किया था तो पानीपत में अब्दाली के सम्मुख ऐसी मुंह की खाई कि उसी महाराजा सूरजमल के दर से मरहमपट्टी यानि फर्स्ट-ऐड नसीब हुई| अत: जाट का अपमान करने वाले की तो भगवान भी नहीं सुनता|

जाट को सम्मान देना नहीं आता, करना नहीं आता या व्यवहार नहीं आता इत्यादि कहने वालों के सामने इनसे बड़े उदाहरण और क्या पेश करूँ कि जाट जितना मान-सम्मान तो किसी को भी करना-देना नहीं आता; बशर्ते कि सामने वाला भी करना जानता हो। मीडिया बेशक जाट को कितना ही नकारात्मक दिखाए परन्तु ब्राह्मण ने इस दुनिया में किसी जाति के पीछे 'जी' लगा के बोला है तो वो सिर्फ जाट जाति है। हालाँकि इसके पीछे दयानंद सरस्वती और ब्राह्मण समुदाय का जाट को सिख धर्म में जाने से रोकना का उद्देश्य था, परन्तु फिर भी 'जी' लगा के ही रोकना पड़ा; लठ दिखा के नहीं। और उद्देश्य तो कार्य/मंशा के पीछे कुछ-ना-कुछ होता ही है।

इसलिए एंटी-जाट ताकतें सीखें अपने पुरखों से कुछ। हमें आँख ना दिखावें, हमें समाज से जाट बनाम नॉन-जाट के नाम पर अलग-थलग फेंकने की कोशिश ना करें। हमारे दर्द को सीधा खुदा सुना करता है, बिफरे तो वो भी जाट से न्याय सीखने हेतु सिर्फ खड़ा देखा ही करता है| आपसे भाईचारे की लिहाज में अभी तक अपने 'दादा खेड़ा' धर्म को हमेशा द्वितीय रखा, आपने व्यवहार नहीं बदला तो हमें उसको प्रथम बनाने में देरी ना लगेगी।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 22 January 2016

हमारे देश में कोर्ट-कानून में नैतिकता के नाम पर क्या प्रावधान हैं?

जरूर हमारे देश में किसी व्यक्ति या गतिविधि को देशद्रोह ठहराने का एक सवैंधानिक तरीका होता होगा| पहले उसकी पुलिस में शिकायत करनी होती होगी, फिर उसपे कोर्ट में सुनवाई होती होगी, फिर सविंधान की देशद्रोही धाराएं खंगाली जाती होंगी, तभी तो किसी को देशद्रोही करार दिया जाता होगा? और जरूर सामाजिक तौर पर बिना किसी लीगल प्रोसेस को फॉलो किये, किसी को भी अपनी मनमर्जी से देशद्रोही चिल्लाने लग जाना यह भी तो गैर-कानूनी और कानूनी अपराध की श्रेणी में आता होगा?

यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि अभी तक तो आरएसएस और बीजेपी ही कहीं इनके विरोध में बोलने पे तो कहीं माइनॉरिटीज के पक्ष में बोलने पे किसी को भी खुद देश का कानून बनते हुए देशद्रोही के तमगे-टैग बांटते फिर रहे थे; अब रोहित वेमुला की हत्या से पता चलता है कि इनकी तो बच्चा पार्टी एबीवीपी भी इसी में जुटी हुई है|

आरएसएस-बीजेपी-एबीवीपी ना हो गए, देश का कानून और सविंधान हो गए|

एक रोचक चीज और जानने की उत्सुकता होती है इस माहौल में, कि क्या हमारे देश में कोर्ट सिर्फ तभी कार्यवाही करते हैं, जब कोई शिकायत उनके पास पहुँचती है? मतलब जब तक कोई शिकायत ना करे तो कोई कुछ भी करता रहे, कोर्ट को कोई फर्क नहीं पड़ता? क्या यह सार्वजनिक भाषणों, रैलियों, प्रदर्शनों और मीडिया के माइकों के मुंह के आगे जो यह तमाम राजनैतिक से ले धार्मिक संगठनों के नेता लोग देश का सामाजिक माहौल बिगाड़ने हेतु इतना उलजुलूल बकते हैं, इनपे कोर्ट खुद से संज्ञान लेवें, इसका कोई प्रावधान नहीं हमारे कानून में? मेरे ख्याल से प्रावधान होता तो जरूर कोर्ट ने अभी तक गैर-कानूनी तरीके से देशभक्ति से ले देशद्रोही के तमगे-टैग-सर्टिफिकेट बाँटने वालों को सलाखों के पीछे धर दिया होता|

क्या नैतिकता के आधार पर इन ऊपर लिखित सार्वजनिक हित के मुद्दों पर मीडिया या सार्वजनिक भाषणों के जरिये समाज में तैरने वाले इनके बोलों पर कोर्ट खुद संज्ञान नहीं ले सकते? क्योंकि वैसे ही हमारे देश में आम आदमी की तो इतनी औकात नहीं कि उसके खुद के घर में एक मुकदमा आ जाए तो वो उसकी पेशियां और लागत झेल सके; फिर इन समाज को तोड़ने वाली ताकतों का खौफ होता है वो अलग से; क्या पता बेचारा कोई आज शिकायत करके आये और कल किसी नदी-नाले में उसकी लाश तैरती मिले|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सर छोटूराम गुस्सा करना या दिखाने की बजाये उसको पालना सिखाते थे!

सर छोटूराम मंडी-फंडी के खेल को उजागर कर अपने कैडर को उनसे सावधान रहना और उनसे कम्पीट करने हेतु कैपेसिटी बिल्डिंग सिखाते थे| वो मंडी-फंडी को एक्सपोज करते थे बिलकुल सही है परन्तु वो उनसे नफरत करने की बजाये, उन द्वारा मारे गए हमारे हक और उनके धंधे कैसे उनसे एक्वायर किये जाएँ, इस पर जोर देते थे| वो नफरत करना नहीं सिखाते थे और यही हमें ध्यान रखना होगा, हमें मंडी-फंडी से नफरत करने में नहीं उलझना बल्कि हमें यह रास्ता सुनिश्चित करना है कि मंडी-फंडी को इस दायरे में समेट दिया जाए कि वो हमारे खिलाफ प्रोपगैंडे करने जैसी खतरनाक अवस्था ही अख्तियार ना कर पाये कभी|

बहुतों को कहते हुए सुना है कि सर छोटूराम की वजह से हरयाणा के गाँवों-के-गाँव मंडी-फंडियों से खाली हो गए| बस हमें भी कुछ ऐसा ही चाहिए कि यह फिर से आन घुसे मंडी-फंडी इन्हीं की मार से ऐसे मारे जाएँ, कि स्वत: ही हरयाणा कहो या जाटलैंड कहो, इसको छोड़ जावें|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

अरोड़ा/खत्री भाईयो भाईचारे से रहो और रहने दो!

सुनने में आ रहा है कि कल रोहतक में अरोड़ा-खत्री समुदाय के लोगों ने इक्कट्ठा होकर चौ० हवा सिंह सांगवान जी पर देशद्रोह का मुकदमा दायर करके उन्हें जेल में डलवाने बारे फिर से ज्ञापन दिया है?

ऐसा है पाकिस्तानी मूल के मेरे भारतीय भाईयो, पाकिस्तान से 1947 में आपके व्यवहार से तंग आ के मुस्लिमों ने आपको जूते मारे; तो आप मुल्क-विभाजन के नाम पे मुख्यत: वर्तमान हरयाणा-पंजाब में आ के बस गए| हरयाणवी समाज तो मस्त-मौला समाज था सो आपको सहन कर गया और आज भी कर रहा है| सहन कर रहा है क्यों बोल रहा हूँ, क्योंकि जिस 'पंजाबी' शब्द को आप अपने पे थोंप के खुद को पंजाबी बताते नहीं थकते उसी पंजाब में जब आप लोगों की तुच्छ हरकतों की वजह से आतंकवाद भड़का तो वहाँ के असली पंजाबी ने यह भांपते हुए एक पल की भी देरी नहीं की कि इस समस्या की जड़ कौन है और 1947 की तरह 1986 से 1992 तक आपको चुन-चुन के पंजाब से खदेड़ा गया| और यह मैं हवाओं में नहीं बोल रहा हूँ, सरकारी आंकड़े बोलते हैं| हम हरयाणवियों ने तो आपको अम्बाला-दिल्ली जीटी रोड बेल्ट पे फिर भी शरण दी| पर लगता है हमारी महानता को आप लोग हमारी मूर्खता समझ बैठे हैं?

हाँ शायद तभी तो खट्टर कहता है कि हरयाणवी कंधे से नीचे मजबूत और ऊपर कमजोर होते हैं| पर हम जो भी होते हैं हम न्यायकारी और सौहार्दी होते हैं|

एक दो हरफी बात कहता हूँ आपको, वो जैसे केजरीवाल ने जेटली को कही थी कि जिस आदमी का कोई सामाजिक सम्मान ही नहीं तो उसकी मानहानि कैसी? तो ठीक वैसे ही आप भी यह मत समझो कि अगर मोदी की मेहरबानी से खट्टर सीएम बन गया तो यह कोई हरयाणा की जनता में उसकी या आपके समाज की अच्छी साख की वजह से बना है| गैर-भाजपाई तो छोडो, खुद हरयाणा भाजपा के अंदर कितना रोष है इस सीएम को ले के यह किसी से छुपी बात नहीं|

इसलिए इन बेकार की टिच्चड़बाजियों की बजाये हरयाणा में कैसे हरयाणवी समाज से मिलझुल के रहना है इसपे हरयाणवी से मिलके काम करो| वर्ना यह आप भी जानते हो कि कानूनी तौर पर आप लोग आज भी रिफूजी ही हो; और एक पल को कानूनी स्टेटस बदला मानो तो पाकिस्तानी मूल के तो फिर भी कहे जाओगे| सदियों-सदियों तक कहे जाओगे|

फिर भी इतना ही न्यायप्रिय बनने का शौक चढ़ा हुआ है तो पहले खट्टर से कहो कि वह हर्याणवियों को कंधे से ऊपर कमजोर कहने पे माफ़ी मांगे| हम इसपे खट्टर को जेल में डलवाने की नहीं कह रहे, हम बड़े करुणामयी लोग हैं माफ़ी में ही काम चला लेंगे| और अगर यह नहीं कर सकते तो बंद करो अपनी यह नौटंकी की दुकानें, इनसे आप लोग हवा सिंह सांगवान जी तो क्या उनके आसपास की हवा का भी कुछ नहीं बिगाड़ पाओगे| और उस हवा का नाम है मेरे जैसे सीधी और बिना लॉग-लपेट की बात कहने वाले अपनी माँ हरयाणवी को समर्पित लोग|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 21 January 2016

'3 इडियट्स' मूवी का 'जॉय लोबो' और 'रियल लाइफ' का 'रोहित वेमुला'!

3 इडियट्स मूवी में 'जॉय लोबो' चरित्र की 'प्रिंसिपल वायरस' के मानसिक टार्चर की वजह से आत्महत्या करने पर वाह-वाह मचा के सहमत होने वाले ही 'रोहित वेमुला' की आत्महत्या में कोई मानसिक टार्चर नहीं देख रहे| क्यों, क्योंकि शायद वो दलित था? बावजूद इसके कि आत्महत्या करने वाला रोहित वेमुला, दलित होते हुए भी कम्पटीशन को बीट करके जनरल केटेगरी सीट से पीएचडी कर रहा था|

चिंतनीय है कि हिन्दू एकता और बराबरी के नारों से अपना गला और लोगों के कान फाड़ने वाले जब तक इस ह्यूमन सेंसिटिविटी को नहीं समझेंगे, तब तक कैसे एकता और बराबरी ला पाएंगे?

इससे इस पहलु को ही ज्यादा ताकत मिलती है कि जिसकी वजह से लोग इन एकता और बराबरी के स्लोगन वालों से जुड़ते हैं या इनके बहकावे में आते हैं, वो कोई इक्वलिटी या यूनिटी की भावना नहीं होती, अपितु वह भय होता है जो यह लोग पब्लिक इनस्टॉल करते हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 18 January 2016

राम-रहीम द्वारा विष्णु के अवतार की एक्टिंग करने पे पुलिस केस करने वाला!

राम-रहीम द्वारा विष्णु के अवतार की एक्टिंग करने पे पुलिस केस करने वाला तर्क दे रहा है कि राम-रहीम एक अपराधी, शराबी, कामांध, खूनी आदमी है सो ऐसा आदमी विष्णु की एक्टिंग नहीं कर सकता| इसलिए उसपे केस किया है|

ऐसा है भोले-भण्डर, जा सबसे पहले तो ये जो टीवी पे कोई सीता माता का तो कोई राम, कृष्ण का किरदार निभाते हैं ना, इनको जेल में डलवा, क्योंकि इनमें विरला ही ऐसा है जिसके अवैध या एक से अधिक शारीरिक रिश्ते सुनने में ना आते हों या गंदी बी ग्रेड फ़िल्में ना करते हों|

दो उदाहरण तो तुझे यही दे देता हूँ, रामानंद सागर की रामायण में सीता का किरदार निभाने वाली 'दीपिका' उसी सीरियल के भरत वाले किरदार के साथ प्रेम-पींघे बढ़ाया करती थी और वो भी शूटिंग स्पॉट पे ही| और हमारे FTII प्रेजिडेंट गजेन्द्र चौहान की बी ग्रेड फ़िल्में तो जब से वो FTII के चीफ बने हैं, तब से चर्चा का विषय बनी ही हुई हैं|

और साथ ही जा हर उस मंदिर पे ताला लगवा दे, जहां पुजारी लोग मंदिर के उसी गृभगृह में जहां एक व्रजस्ला औरत का प्रवेश वर्जित बताते हैं, औरतों को कहीं देवदासी के नाम पे भोगते हैं तो कहीं प्रथमया व्रजस्ला होने के नाम पे|

और फिर इस तर्क पे चल के तो लोगों को लार्ड कृष्ण को पूजना ही छोड़ देना चाहिए, क्योंकि उनकी तो हजारों गोपियाँ और बीवियां बताते हैं; हर इस-उस ऋषि-महर्षि की औरत पे रीझ जाने और बलात्कार कर देने वाले इंद्र की भी पूजा छोड़ देनी चाहिए, है ना?

पक्के से कह सकता हूँ, यह जनाब उसी केटेगरी से मिलेंगे जो जब 'चार्ली-हेब्दों' का मुस्लिम पैगम्बर बारे मसला उठा था तो उसको सपोर्ट किये रहे होंगे|

अजीब तमाशा चल रहा है मेरे देश में भी धर्म का एक ठेकेदार दूसरे को जेल में ठुकवा रहा है| डुबोएँगे देश को अच्छे से गर्त में यह भगवानों के ठेकेदार| 

फूल मलिक

'व्यापारी' टैग को किसी एक जाति-सम्प्रदाय विशेष को उनके लिए 'आइसोलेट' करने देना नासमझी कायम रखने का बहुत बड़ा षड्यंत्र है!

क्या 'व्यापारी', 'ट्रेडिंग' (trading), 'बिडिंग' (bidding) और 'मंडी' शब्द को जाने या अनजाने में किसी एक जाति-समुदाय के लिए आइसोलेट (isolate) कर देना या उनके द्वारा करवाया जाना होने देना सही है? कहीं इस परिभाषा में रख दिया जाने वाला वर्ग, इसमें ही तो अपनी भलाई नहीं समझता और इस वर्ग को इसमें रखने वाला कुंठित होता रहे?

किसी भी शब्द का 'आइसोलेसन' होने का, या कर देने का न्यूट्रल पहलु कभी नहीं होता, वो या तो लाभ हेतु किया और करवाया जाता है या फिर किसी का नुकसान करने हेतु| उदाहरण भी जग-जाहिर वाला है| 'जाट' शब्द का जाट बनाम नॉन-जाट के जरिये इसलिए आइसोलेसन करवाया जा रहा है ताकि जाट समाज को सामाजिक तौर पर अलग-थलग छोड़ दिया जाए| और 'व्यापारी' शब्द का आइसोलेसन इसलिए करवाया जा रहा है ताकि दूसरों को यह बड़ा चैलेंजिंग कार्य लगे|

जबकि गहनता से विचारो तो 'व्यापारी' शब्द किसी कम्युनिटी या समुदाय का सूचक हो ही नहीं सकता; हाँ कार्य के हिसाब से इसका प्रॉस्पेक्ट (prospect) / प्रारूप बदल जाता है| जैसे कि:

1) एक परचून की दुकान पर बैठने वाला, भैंस की ट्रेडिंग अथवा बिडिंग उतनी सहजता से नहीं कर सकता, जितना कि परचून के सामान की| जबकि दोनों हैं व्यापार, एक परचून का और एक भैंस का|
2) एक रियल एस्टेट बिल्डर, एक गाड़ी की ट्रेडिंग इतनी सहजता से नहीं कर सकता जितना की रियल एस्टेट की|
3) एक दूध बेचने वाला, ब्यूटी लोशन अथवा तेल बेचने की ट्रेडिंग/बिडिंग उतनी सहजता से नहीं कर सकता जितना की दूध की|
4) एक सब्जी बेचने वाला, ईंट-भट्ठे की ट्रेडिंग उतनी आसानी से नहीं कर सकता जितनी की सब्जी की|

और ऐसे ही अन्य तमाम तरह के कारोबार जिनमें खरीद-फरोख्त होती है|

तो व्यवहारिक तौर पर देखा जाए तो भैंस बेचने से ले के बुफे (buffalo selling to buffet selling) बेचने तक कोई ऐसा कारोबार नहीं जो व्यापार नहीं या जिसमें ट्रेडिंग ना होती हो|

तो फिर ऐसा क्या है कि भैंसों/पशुओं की मंडी को मंडी ना बोल के मेला बोला जाता है? यह सिर्फ इसलिए होता है ताकि एक पशु बेचने वाले किसान के मन और दिमाग में यह ना आये कि वह भी व्यापारी है और व्यापार करने के लिए जो बिडिंग/बार्गेनिंग/मोल-भाव की समान विधाएँ चाहिए होती हैं, वो उसको स्वत: ही आती हैं|

इसलिए मंडी/व्यापारी/बिडिंग/ट्रेडिंग शब्दों को एक कम्युनिटी विशेष के लिए बनाये रखने पीछे हटना चाहिए और जिन समुदायों को आज तक पारम्परिक व्यापारिक समुदाय बोला जाता रहा है, उनकी सामाजिक पहचान व्यापारी शब्द से ना करके किसी अन्य सामाजिक शब्द से करनी चाहिए। क्योंकि इस लेख में सिद्ध होता है कि दुनिया में कोई ऐसा कारोबार नहीं, जिसमें व्यापार ना हो, अनाज से ले के ब्याज तक और गाँव से ले के शहर तक।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

'Classification, the most ugliest and cruel face of the Varna and Caste System' is a must to vanish from its roots!

19 young SC/ST/OBC students lost, and that’s just in the last 5 years due to depressing mental torture of 'Varna and Caste System'. How bad was it for them that they took their own lives? Shall we say no to this bloody sucking orthodoxy lamented by one specific self-revered group of society? Remember these lives not lost in some jungle, in Khap hinterlands or somewhere in remote countrysides rather just have a look on list below:

1) Malepula Shrikant, Jan 1, ’07 Final year B.Tech, IIT Bombay
2) Ajay S. Chandra, Aug 26, ’07 Integrated PhD, Indian Institute of Science (IISc), Bangalore
3) Jaspreet Singh, Jan 27, ’08 Final year MBBS, Government Medical College, Chandigarh
4) Senthil Kumar, Feb 23, ’08 PhD, School of Physics, University of Hyderabad
5) Prashant Kureel, Apr 19, ’08 First year B.Tech, IIT Kanpur
6) G. Suman, Jan 2, ’09 Final year M.Tech, IIT Kanpur
7) Ankita Veghda, Apr 20, ’09 First year, BSc Nursing, Singhi Institute of Nursing, Ahmedabad
8) D. Syam Kumar, Aug 13, ’09 First year B.Tech, Sarojini Institute of Engineering and Technology, Vijayawada
9) S. Amravathi, Nov 4, ’09 National-level young woman boxer, Centre of Excellence, Sports Authority of AP, Hyderabad
10) Bandi Anusha, Nov 5, ’09 B.Com final year, Villa Mary College, Hyderabad
11) Pushpanjali Poorty, Jan 30, ’10 First year, MBA, Visvesvaraiah Technological University, Bangalore
12) Sushil Kumar Chaudhary, Jan 31, ’10 Final year MBBS, Chattrapati Shahuji Maharaj Medical University (former KGMC), Lucknow
13) Balmukund Bharti, Mar 3, ’10 Final year MBBS, AIIMS, New Delhi
14) J.K. Ramesh, Jul 1, ’10 Second year BSc, University of Agricultural Sciences, Bangalore
15) Madhuri Sale, Nov 17, ’10 Final year B.Tech, IIT Kanpur
16) G. Varalakshmi, Jan 30, ’11 B. Tech first year, Vignan Engineering College, Hyderabad
17) Manish Kumar, Feb 13, ’11 IIIrd Year B.Tech, IIT Roorkee
18) Linesh Mohan Gawle, Apr 16, ’11 PhD, National Institute of Immunology, New Delhi
19) Anil Kumar Meena, Mar 3, ’12 First year AIIMS, New Delhi

Phool Kumar Malik

Source: http://www.outlookindia.com/article/the-killing-of-shambukas-/280461
 

Sunday, 17 January 2016

जाट से ज्यादा मुखर तरीके से मंडी-फंडी से टक्कर लेता दलित-पिछड़ा समुदाय!

पच्चीस वर्ष के रोहित, जो एक पी.एच.डी. शोधार्थी थे, ने वर्णवाद और जातिवाद से सिंचित राष्ट्रवादी विचारधारा के दबाव व् राजनीति के चलते हैदराबाद विश्वविद्यालय में आत्महत्या कर ली। ऐसे ही गए साल कुछ दिनों पहले एम.डी.यू. रोहतक में बाबा साहेब आंबेडकर पर ए.बी.वी.पी. ने कांफ्रेंस के लिए आयोजित हॉल में बाबा साहेब पर कांफ्रेंस नहीं होने दी, जिसके साक्षी यूनियनिस्ट मिशन के कई यौद्धेय भी बने थे। मैं रोहित की किलिंग को दूसरे महर्षि संभूक की राम द्वारा हत्या और द्रोण द्वारा दूसरे एकलव्य का अँगूठा मांग लिए जाने बराबर मानता हूँ। 

हैदराबाद की तरफ का तो ज्यादा नहीं जानता, परन्तु ऐसे इन्सिडेंट्स से हरयाणा में खासकर एक जो चीज खुल के अब दलित-पिछड़े समुदाय के सामने आ रही है वो यह कि जाट इतना भी बुरा समाज नहीं, जितना की मंडी-फंडी ने झूठे-सच्चे प्रचार करके दलित-पिछड़े को दिखाया। कई दलित मित्रों से बात होती रहती है तो कहते हैं कि जाट नाम का तो हव्वा ही ज्यादा खड़ा कर रखा था, हमारे असली दुश्मन तो यह मंडी-फंडी ही हैं। सरकारी नौकरियों में हमारा बैकलॉग भी मुख्यत: यह मंडी-फंडी खाते हैं।

जाट के यहाँ तो हमें रोजगार से ले पारिवारिक साझापन व् संवेदना तक मिलती रही है, परन्तु यह लोग तो आज भी वर्णवाद और जातिवाद से परे हमसे व्यवहार करने तक को राजी नहीं। जाट से तो 90% झगड़े कारोबारी रहे, जो कॉर्पोरेट के बॉस और कर्मचारियों तक में होते हैं, परन्तु मंडी-फंडी तो मानसिक रूप से दबाता है। आज भी सर्वजनिक स्थलों पर चढ़ने-उतरने तक पर बैन लगाये रखना चाहता है।

चलो अच्छा है गैर-जाट सीएम आने से दोहरे फायदे होते दिख रहे हैं, एक तो हरयाणा में भी दलित-पिछड़ों के ऊपर पड़ा आवरण हट के उनको असली दुश्मन नजर आने लगा है और दूसरा सुनता हूँ कि जाट को भी समझ आने लगा है कि जाट एकता कितनी जरूरी है। राजनैतिक पार्टी प्रतिबद्धता से जरूरी व् ऊपर कौमी-एकता है। बस जो जाट जातिवाद और वर्णवाद को ढोते हैं वो इसको छोड़ के अपनी शुद्ध सामाजिक धर्म-सम्प्रदाय से रहित 'खाप-परम्परा' की परिपाटी पर आ जावें तो इनका भी शुद्धिकरण हो जावे। खाम्खा जातिवाद के उस कचरे को ढोते रहते हैं जो ना इन्होनें रचा और जो ना इनकी मूल सभ्यता और खून का वह अंग। अपितु इसको ढोने का जाट को नुकसान ज्यादा उठाना पड़ता है, क्योंकि फिर मंडी-फंडी अपने इस कचरे के लिए दलित-पिछड़े के आगे जाट को ही जिम्मेदार बना के दिखाता है।

और यह कचरा ही सबसे मूल कारण है हरयाणा में 'जाट बनाम नॉन-जाट' अखाड़े सजाये जाने के पीछे। जिस दिन जाट (हालाँकि 50% से अधिक जाट इसको नहीं ढोते) ने मंडी-फंडी का रचा यह वर्ण व् जातिवाद का कचरा ढोना छोड़ दिया, उस दिन मंडी-फंडी के पास कोई वजह ही नहीं बचेगी कि वो दलित और पिछड़ों में जाट को बदनाम कर सके।

कभी सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों के जमाने हुआ करते थे जब जाट और मंडी-फंडी में सीधी टक्कर होती थी; परन्तु आज स्थिति में एक बदलाव बनता जा रहा है। हरयाणा में मंडी-फंडी के निशाने पर तो आज भी जाट ही है परन्तु मंडी-फंडी अब जाट से ज्यादा दलित-पिछड़े के सीधे निशाने पे आ गया है।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

चौपालें हैं खाप-सभ्यता की वास्तुकला और 'सोशल-ज्यूरी' प्रणाली की साक्षी!

किसी ने सिर्फ किले बनाये, तो किसी ने सिर्फ मंदिर!
किसी के यहां सिर्फ राजे हुए तो किसी के यहां सिर्फ पुजारी।
राजा-यौद्धेय-पंचायती, तीनों जिसके यहां हुए वो खाप सभ्यता हमारी।
राजा किले पे गर्व करे, करे खाप चौपाल पे और यौद्धेय करे गढ़ियों पे।

पूरे भारत में एक इकलौती खाप सभ्यता है जिसने किलों-मंदिरों से बढ़ के चौपालें बनाई। यह वो दर्श हैं जहां युगों-युगों से निशुल्क और बिना तारीख पे तारीख का ताबड़तोड़ न्याय मिलता रहा है। चौपालों के सभागारों में समाज के समाजों के बड़े से बड़े झगड़े अमन-चैन की रौशनी में बैठ के सुलझते आये हैं। गाँवों के गाँव के उजड़ने के बैर इनमें निमटते रहे हैं। राजा-महाराजा-नवाब-बादशाह तक इन दर्शों पर शीश नवाते रहे हैं।

जिस 'सोशल ज्यूरी' के दम पर अमेरिका-कनाडा-ऑस्ट्रेलिया-फ्रांस से ले के बड़े-बड़े माने हुए यूरोपियन देशों की न्याय व्यवस्था चलती है, उनके जैसा ग्लोबल स्टैण्डर्ड का यह सिस्टम इनसे भी सदियों पहले से भारत में रहा और हमारी 'खाप-सभ्यता' का रहा, जो इन चौपालों के जरिये चलता आया। पूरे भारत में ऐसे सभागार खापलैंड को छोड़ के कहीं नहीं हैं। विदेशों में जैसे कि यूरोप-अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया में यह 'सेंट्रल-हॉल' तो कहीं 'होटल-दू-विल' के नाम से मिलते हैं। यह ग्लोबल चरित्र की परिपाटी का भारत में खाप की चौपालों से मेल उन कारणों में से एक प्रमुख कारण है जिसकी वजह से खाप-सभ्यता का ग्लोबल स्टैण्डर्ड का चरित्र उभर के सामने आता है|
चौपाल पे हर धर्म-सम्प्रदाय का प्राणी चढ़ता-उतरता रहा है| चौपाल के चबूतरे पे आया दान-चंदा ऐसे कार्यों में लगता है जो सर्वहित के हों और सामाजिक हों और सबके सामने हों। जबकि जगत में ऐसे भी चंदे-दान ऐंठने के अड्डे हैं जो सिर्फ और सिर्फ एक जाति-विशेष के ही अधिकार क्षेत्र के होते हैं और उनको गए दान का यह तक पता नहीं लगता कि वो गया या लगा किस खाते।

यही वो कुछ मूलभूत अंतर हैं जिनकी वजह से मंडी-फंडी चाहते हैं कि जल्द से जल्द खाप और इसकी चौपाल जैसी स्वर्णिम संस्थाएं खत्म हो जावें। और इसीलिए इनका बाहुल्य व् निर्देशित मीडिया, खाप की अनूठी कृतियों और कार्यों पर से ध्यान हटवा, 'चूचियों में हाड ढूंढने' की भांति कभी खापों को हॉनर किलिंग तो कभी लिंगानुपात के मसलों से जोड़ता रहता है। ताकि एक तरफ खाप समाज इन चीजों में उलझा रहे और दूसरी तरफ चौपाल जैसी स्वर्णिम कलाकृतियों और परम्पराओं को संभालने का अवसर ही ना मिले और यह स्व:स्व: खात्मे के कगार पर पहुँच जावें। यह "कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना" वाली परिपाटी पे रचा जा रहा और खेला जा रहा खेल है।

यही खाप-सिस्टम की वो उच्च मान्यताएं हैं जिनकी वजह से एंटी-खाप मंडी-फंडी को यह फूटी आँख नहीं भाते। क्योंकि इनके लिए एक चौपाल के बनाने में व्यय होने वाला पैसा, उस पैसे को इनको मिल सकने की संभावना का खात्मा लगता है| इनको यह कभी नहीं दीखता कि न्याय और सामाजिक विवेचना का दर समाज की सबसे ऊँची और पहली जरूरत होती है।

पोस्ट में जो विभिन्न चौपालों की तस्वीरें साझी कर रहा हूँ, यह वास्तुकला के वो अनूठे उदाहरण हैं जो सोरम, मुज़फ्फरनगर से ले धनाणा, भिवानी, अबोहर से ले अमरोहा और अम्बाला से आगरा-भरतपुर और इनसे भी आरपार जहाँ तक खाप सोशल ज्यूरी सिस्टम चलता है वहाँ-वहाँ खाप-सभ्यता के ग्लोबल स्टैण्डर्ड की होने के टेस्टिमोनी रूप में खड़ी हैं।

फोटोज तो मैं इसमें शहरों में बनी चौपालों की भी डालना चाहता था। परन्तु क्योंकि लोगों ने इनको शहरों में जाते ही "चौपाल" की जगह कहीं "धर्मशाला" तो कहीं "भवन" कहना-लिखना शुरू कर दिया है इसलिए नहीं डाल रहा। पंरतु एक सुझाव जरूर सूझ रहा है कि अगर हमको अपनी चौपाल परम्परा, इस नाम और इसकी यूनीफ़ॉर्मिटी को जिन्दा और बरकरार रखना है तो खाप-विचारधारा के समाजों को "भवन" व् "धर्मशालाओं" से ज्यादा शहरों में भी "चौपालें" बनानी चाहियें। जहां "धर्मशाला" और "भवन" जाति सम्प्रदाय की सूचक हैं, वहीँ "चौपाल" सर्वसमाज की सूचक हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक