Saturday, 2 April 2016

खाप का चबूतरा शुद्ध रूप से गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी रहा है!

जहां तक मैंने खाप इतिहास को पढ़ा और जाना है उसमें कहीं भी एक भी अध्याय ऐसा नहीं आता जहां यह पढ़ा गया हो कि कभी साधु-बाबाओं ने किसी खाप के नेतृत्व में लड़ी लड़ाई का नेतृत्व या यहां तक कि मार्ग-दर्शन भी किया हो| लड़ाईयों के मौकों पर तो यह ऐसे गायब होते रहे हैं जैसे गधों के सर से सींग, कम से कम उत्तरी भारत का तो यही किस्सा है|

साथ ही इन साधु-बाबाओं की जमात ने धर्म-शास्त्र और मनचाहे वीर और सूरवीर तो घड़े और लिखे परन्तु इन्होनें कभी भी खाप की किसी भी लड़ाई और उस लड़ाई के यौद्धेयों बारे दो शब्द तक नहीं उकेरे| फिर चाहे वो 1398 में तैमूरलंग का मार-मार मुंह सुजा भगोड़ा बन देने का किस्सा हो| या 1620 में कलानौर की रियासत कैसे तोड़ी थी उसका किस्सा हो| या 1669 में औरंगजेब के जमाने में गॉड-गोकुला और इक्कीस खाप यौद्धेयों की बलि हो| या सन 1857 की लड़ाई में कैसे खापों ने ही दिल्ली की रक्षा की थी इसकी वीरगाथा हो|

और तो और इन्होनें हिन्दू धर्म रक्षक के नाम पर भले ही दूसरे धर्मों के सूरमाओं तक के नाम लिखने पड़े हों, परन्तु खाप का कोई कितना ही बड़ा सुरमा हो के चला गया, इनकी कलम से उसके लिए एक अक्षर तक नहीं टूटा|

इनका तो साया और कहना भी इतना मनहूस होता है कि इनकी मान के तो बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की राजनीति काल के ग्रास में समा गई थी| क्योंकि जब बाबा टिकैत का कद बढ़ता ही जा रहा था तो, अपनी रैलियों के मंचों से हर-हर महादेव और अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगवा के रैलियों का आगाज करने की अपनी शैली से मशहूर बाबा टिकैत को इन पाखंडियों ने कहा कि आप अपने मंच से "जय श्री राम" के नारे लगवाओ| और जिस दिन बाबा टिकैत ने ऐसा किया वो दिन उनके जलवे की प्राकाष्ठा का आखिरी था, उसके बाद बाबा टिकैत कभी उस रौशनी और देदीप्यमानिता को नहीं छू पाये| चाँद पे लगे ग्रहण भांति गहते ही चले गए|

खापों के इतिहास की न्याय-समीक्षा करता हूँ तो यह भी एक बहुत बड़ा पहलु है कि खापों के चबूतरों पर कभी किसी बाबा-मोड्डे को पंच बन के चढ़ने नहीं दिया गया| वजहें साफ़ थी और आज भी हैं| और इसी लिए खाप-चबूतरों पर बैठ के न्याय करते वक्त, भगमा नहीं अपितु सफेद या गोल्डन रंग की पगड़ी बाँध के बैठने की परम्परा रही है| क्योंकि भगमा रंग झूठ-फरेब और अत्याचार का प्रतीक माना गया है|

पता नहीं खाप वाले कितना तो पढ़ते हैं और कितना अपने ही इतिहास पे विवेचना करते हैं, परन्तु अब यह भी इन बाबाओं की बहकाई में ऐसे चढ़े हुए हैं कि बस क्या कहने| पहले 25 नवंबर 2014 को आर्ट ऑफ़ लाइफ वाले धोल-कपडीये ने जींद में खापों के साथ पंचायत करी तो नतीजा आपके सामने है| और अब फिर आज 3 अप्रैल को सुना है कि कई खापों के कम-से-कम दर्जन-भर चौधरी इस रोहतक वाले कार्यक्रम में सिरकत करने वाले हैं| कितने करेंगे और कितने नहीं, यह देखने वाली बात रहेगी|

मेरा मानना है कि खापों को सद्भावना की पुकार लगानी ही थी या है तो क्या आप लोग जाट-आंदोलन के बाद से अपनी सभी छोटी-बड़ी पंचायतों के जरिए यह कार्य पहले से ही नहीं कर रहे थे? और अगर बड़े स्तर का ही करना था तो आपका तो विश्व में सबसे बड़ा ऐतिहासिक चबूतरा है, सब मिलके कर लेते| और इन ढोंगियों-पाखंडियों व् राजनीतिज्ञों से रहित कार्यक्रम करते|

खैर देखें, यह पेंचे कब तक चलेंगे| मुझे डर है कि कहीं यह इतने लम्बे ना चल जाएँ, कि खापों की गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी छवि को ही लील जाएँ| कोई नी जिसको जिस रास्ते चलना है वो चले, मैं तो आज भी उसी राह पे चलूँगा जो मेरी दादी जी सिखा गई थी कि "पोता', मुडैड़ की पंचायत म्ह, बहरूपिये की हाँसी में और किराड़ के बहकावे में कभी मत चढियो|"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 31 March 2016

अभिभावक प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चे के दाखिले के वक्त ध्यान देवें!

 

बहुत से प्राइवेट स्कूलों में मनुवाद चल रहा है|

आपके बच्चों के दाखिले का महीना आ गया है| मान लो एक क्लास विशेष में विद्यार्थियों की संख्या इतनी है कि चार सेक्शन बनते हों तो इस तरह से सेक्शन बनाते पाये गए हैं यह लोग:

1) सेक्शन A - 90 से 100% "ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा/खत्री" के बच्चे - 20000 महीने या इससे ऊपर की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का ब्राह्मण व् वैश्य वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|
2) सेक्शन B - 90 से 100% अग्रणी किसानी जातियों के बच्चे - 12000 से 15000 महीने की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का क्षत्रिय व् शुद्र वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|
3) सेक्शन C - 90 से 100% ओबीसी जातियों के बच्चे - 8/9000 से 12000 की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का काश्तकार शुद्र वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|
4) सेक्शन D - 90 से 100% एससी-एसटी के बच्चे - 5/6000 से 7/8000 की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का दलित शुद्र वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|

यह पोस्ट अप्रैल-फूल नहीं है, इसको सीरियसली लेवें| और हाँ जो पत्रकार बन्धु निष्पक्ष और निडर पत्रकारिता करते हों, उनके लिए इसमें बहुत बड़ा शोध कहें या जासूसी से ले भंडाफोड़ का स्कोप है|

माँ-बाप चुप ना रहें, अपने बच्चों के दाखिले के वक्त स्कूल की मैनेजमेंट से सीधे पूछें कि हमारे बच्चे का सेक्शन कौनसा है और क्यों?

जैसे कई डेड-सयाने स्कूल वाले सेक्शन "बी" में दाखिले पे जवाब देंगे कि आपका बच्चा अच्छा खिलाडी बन सकता है इसलिए इस सेक्शन में है| यानि पहली-दूसरी-तीसरी-चौथी कक्षा में होते हुए ही इन्होनें उस बच्चे के लिए यह भी निर्धारित कर दिया कि यह तो पुलिस-फ़ौज-खिलाडी क्षेत्र में ही जायेगा और उसी हिसाब से पढ़ाया जायेगा। मतबलब उसके डॉक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर-अफसर बनने के स्कोप यह लोग शुरू से मिटा के चल रहे हैं। ऐसे जवाबों पे आपने क्या जवाब देना है और क्या कार्यवाही करनी है, आप मेरे से बेहतर जानते होंगे|

विशेष: यह बीमारी नीचे से ले मध्यम दर्जे के प्राइवेट स्कूलों में ज्यादा नहीं देखी गई है; लेकिन हाँ शहरों में जो अव्वल दर्जे के प्राइवेट स्कूल हैं, उनमें यह "द्रोणाचारी" नीति का भेदभाव धड़ल्ले से चल रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 29 March 2016

जिन जाटों को सनातनी और मनुवादी बनने का चस्का चढ़ा हुआ है, वो जरा अपने पुरखों के बारे यह कटिंग पढ़ें:

कटिंग इंग्लिश में है, इसको पूरी पढियेगा| इसके कुछ मुख्य बिंदु यहां हिंदी में लिख रहा हूँ:

1) ब्राह्मण ने जाट को शुद्र कहा क्योंकि जाट ने उसकी बनाई जाति व्यवस्था नहीं स्वीकारी और स्वछन्द रहा|
2) ब्राह्मण व्यवस्था की मनाही के बावजूद भी जाट विधवा विवाह करते रहे|
3) जाट कभी भी "कन्या भ्रूण हत्या" नहीं करते थे, जो दूध के कड़ाहों में कन्या को डुबो के मारने की प्रथा थी वो ब्राह्मणवाद की थी और राजपूत इसका अनुसरण करते थे|
4) जाट के यहां बेटी के जन्म का आनंद-उत्सव मनाते थे, मातम नहीं|
5) जाट, जातियाता कहलाए क्योंकि इन्होनें जातिव्यवस्था बनाने वालों को ठिकाने लगाया और उनको मात दी|


अब सोचे आज की जाट पीढ़ी कि आखिर यह कन्या भ्रूण हत्या करने या लड़की को मनहूस मानने की प्रथा आपमें कब से और कैसे आई? खोजोगे तो उत्तर एक ही मिलेगा, जब से आपने मनुवाद का अनुसरण करना शुरू किया, यह कुरीतियां आपमें प्रवेश कर गई| क्या इस लिहाज से देखा जाए तो आपके पुरखे आपसे ज्यादा स्वछन्द, खुले दिमाग के व् मानवीय सोच के नहीं थे?

Source:
a) "A social history of India" book by Mr. S.N. Sadashivan and
b) "Punjab Census Report of 1883" by Sir Denzil Ibbetson

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

Saturday, 26 March 2016

भरतपुर के डीग पैलेस में शोभायमान है दिल्ली की मुस्लिम-बेगम नूरजहाँ का आलीशान झूला!

महाराजा भारतेंदु जवाहर सिंह के नेतृत्व में जाटों ने जब दूसरी बार दिल्ली तोड़ी थी, यह तब की निशानी है| सलंगित चित्र देखें| इसके अलावा चित्तौड़गढ़ का "अष्टधातु" द्वार भी जाट साथ ले आये थे, जो कि आज भी भरतपुर के "दिल्ली द्वार" में जड़ित है|

एक राज की बात बताऊँ जब जाटों को दिल्ली में सुस्ताते हुए महिनाभर हो गया था तो जाटों की मानमनुहार करके जाटों से दिल्ली को वापिस मुग़लों को दिलवाने वाले उसी विचारधारा के लोग थे जो आजकल तथाकथित राष्ट्रवाद का झंडा उठाये फिर रहे हैं| तब इन्होनें जाटों के गुस्से को शांत करने के लिए मुगल राजकुमारी को भी जाट भारतेंदु से ब्याहने का ऑफर मुग़लों से रखवाया था, लेकिन भारतेंदु ठहरे अपने सिद्धांतों के पक्के, इसलिए अपने फ्रेंच सेनापति व् मित्र सप्रू से उस मुग़ल राजकुमारी का ब्याह करवा दिया था| इन्होनें यह कहते हुए दिल्ली मुग़लों को वापिस दिलवाई थी कि "दिल्ली तो जाटों की बहु है!" जब चाहे कब्जा लें|

जाट को नकारात्मक छवि में दिखाने हेतु इस मति के लोग आज भी यदकदा दिल्ली के तोड़ने के इन वाक्यों को "जाटगर्दी" व् "जाटों की लूट" का नाम देते हैं| बताओ चित्तौड़गढ़ जैसी रियासत का मान-सम्मान बचा लाना, मुग़लों को हरा देना भी 'लूट' कैसे कही जा सकती है, यह तो 'विजय' कही जानी चाहिए, नहीं?

ये जाट गुस्से या जिद्द में आने पे वाकई में पौराणिक चरित्र शिवजी भोले जैसे होते हैं| औरंगजेब के वक्त में तो इन्होनें अकबर की कब्र खोद के उसकी हड्डियों की चिता बना के ही फूंक डाली थी| और ताजमहल, बताओ इतनी खूबसूरत, ऐतिहासिक और यादगार जगह को अपनी भैंसों के चारा रखने हेतु, उसमें तूड़ा-भूसा भर दिया था| लेकिन यह तथाकथित राष्ट्रवादी सोच वाले 'जाट जी, जाट जी' करते हुए फिर आ धमकते थे, समझौते करवा इन जगहों को खाली करवाने को|

ऐसे ही जाट अंग्रेजों के साथ करते थे, क्या भरतपुर, क्या लाहौर और क्या बल्ल्भगढ़, ऐसी रियासतें थी जिन्होनें अंग्रेजों को तेरह-तेरह बार हराया और अजेय रहे|

फिर एक सर छोटूराम हुए| तब के यूनाइटेड पंजाब में अंग्रेज बोले कि गेहूं का एमएसपी (MSP) सिर्फ 6 रूपये प्रतिक्विंटल देंगे| सर छोटूराम अड़ गए कि 10 लूंगा| अंग्रेज नहीं माने तो सर छोटूराम बोले कि देखो मेरे किसान जमीन की 'माल-दरखास' यानि टैक्स नियमित रूप से भर रहे हैं, अगर गेहूं का एमएसपी 10 नहीं किया गया तो सब बंद करवा दूंगा और अनाज की बिक्री भी रुकवा दूंगा| तब अंग्रेज बोले कि ठीक है 10 ले लो| परन्तु जब तक अंग्रेज 10 पे माने, तब तक सर छोटूराम किसानों की रैली कर चुके थे| तो उधर आंदोलन स्थल से ही बोले कि अब मामला मेरे हाथ में नहीं, अब तो जो किसान तय करेंगे वही देना होगा| इस पर बताते हैं कि किसान बोले कि 11 का शगुन शुभ होता है, इसलिए 10 की बजाये 11 दो, और अंग्रेजों को देना पड़ा था|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

Friday, 25 March 2016

जाट हमेशा से शांति का पुजारी रहा है!

जो लोग यदाकदा यह कहते देखे जाते हैं कि इतिहास में जाट मुस्लिमों के डर के चलते मुस्लिम बने थे, उनके लिए छारा, जिला झज्जर में 200 युवकों द्वारा धर्म-परिवर्तन करने की बात वाली घटना काफी होनी चाहिए यह समझने के लिए कि जाट किसी के डर से नहीं, अपितु मनुवादियों के आज जैसे जाट बनाम नॉन-जाट और पैंतीस बनाम एक बिरादरी वाले माहौलों व् हालातों से निजात पाने हेतु ऐसा किया करते थे। वर्ना जाटों में तब भी वो ताकत होती थी और आज भी है कि जिस अंदाज में चाहें इनको मुंहतोड़ जवाब दे देवें, फिर चाहे सामने कोई खड़ा हो, तथाकथित ब्रिगेड खड़ी हो, ट्रैंड-कबुतर मंडली खड़ी हो, पुलिस-फ़ौज-सीआरपीएफ कुछ भी खड़ा हो।
किये होंगे किसी या किन्हीं के डरों के चलते किन्हीं ने धर्मपरिवर्तन; परन्तु जाट ने जब-जब ऐसा किया यह तब ही किया जब इन मनुवादियों ने जाट की मानसिक शांति व् संतुष्टि छीननी या रौंदनी चाही।

जाट हमेशा से शांति का पुजारी रहा है और जब उसको यह मनुवादियों से नहीं मिली तो बुद्ध, सिख, इस्लाम, जैन, ईसाई धर्मों में ढूंढी। और जिस भी धर्म में गए वहाँ सर्वोच्च सम्मान पाया। ईसाईयों ने जाटों को 'रॉयल रेस' कह के सम्मान दिया, मुस्लिमों ने चौधरी कह के तो सिखों ने सरदार जी कह के। और यह मनुवादी क्या-क्या कहलवा के सम्मान दिलवा रहे हैं यही इसकी वजह है कि जाट क्यों फिर से धर्म बदलने या अलग धर्म बनाने की सोच रहे हैं।

चला तो सिख धर्म में जाना था सारे जाट को उन्नीसवीं सदी में ही, यह तो अगर 1875 में मनुवादी बॉम्बे में इकठ्ठे हो जाटों को दयानन्द सरस्वती द्वारा सत्यार्थ प्रकाश लिखवा उसमें "जाट जी" कह के आदर ना देते तो। तब तो जाट रुक गए थे, परन्तु इन्होनें फिर से वही हालात ला खड़े किये हैं। आखिर इनको कब अक्ल आएगी। पहले भिड़ते हैं और फिर बाद में "जाट जी" कहते/लिखते आगे पीछे फिरते हैं।

लेकिन अबकी बार तो इसका कुछ ऐसा हल हो ही जाए कि या तो यह अपनी हरकतों से बाज आवें या फिर जाट इस धर्म को ही खाली कर जावें। बेशक "जाट धर्म" घोषित कर लिया जावे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 24 March 2016

राष्ट्रीय शहीदी दिवस (23 March, 1931) पर कोटि-कोटि प्रणाम-शहीदां-नूं!

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले,
कि वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा!

सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है?

करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है|
ऐ शहीदे-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा, ग़ैर की महफ़िल में है||
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है|

वक़्त आने पर बता देंगे तुझे ए-आसमाँ,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है|
खेँच कर लाई है सबको क़त्ल होने की उम्मीद,
आशिक़ोँ का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है||
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

है लिये हथियार दुश्मन, ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं; सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली, गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

हाथ, जिन में हो जुनूँ, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो, झुकते नहीं ललकार से।
और भड़केगा जो शोला, सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

हम तो निकले ही थे घर से, बाँधकर सर पे कफ़न,
जाँ हथेली पर लिये लो, बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी महमाँ, मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल, कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत, भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज।|
दूर रह पाये जो हमसे, दम कहाँ मंज़िल में है|
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

जिस्म वो क्या जिस्म है, जिसमें न हो खूने-जुनूँ,
क्या लड़े तूफाँ से, जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है।

दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त,
मेरी मिट्टी से भी खुशबु-ए-वतन आएगी|
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है,
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें|
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें,
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें|

शहीद-ए-आजम भगत सिंह 1924 में जो लिख गए वो शायद 2016 के लिए ही था!


जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है । इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं मे ऐसी लीद की है कि चुप ही भली । वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा उठाया था और जो ” समान राष्ट्रीयता” और ” स्वराज-स्वराज” के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांन्धता के बहाव में बह चले हैं । सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे । ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है ।

दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं वे अख़बार वाले हैं ।

पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गन्दा हो गया है । ये लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं । एक दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं । ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो, बहुत कम हैं ।
अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है । यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या ?

( यह लेख शहीदे आज़म भगत सिंह ने 1924 में लिखा था ‘ किरती’ में छपा था । भगत सिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ से लिया है जिसे लखनऊ के राहुल फ़ाउंडेशन ने छापा है। हमने सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज का कुछ हिस्सा आपके लिए पेश किया है )

यही सोशल मीडिया तो सही मायनों में ग्लोबलाइजेशन है!

फेसबुक पे लिखने से क्रांति नहीं आती! - बोलने वालों के लिए!

तुम क्रांति की बात करते हो, आज मोदी-खटटर जो पीएम और सीएम बन हरयाणा के भाईचारे की तार-तार बिखेर रहे हैं वो इसी फेसबुक की बदौलत तो है| अंधभक्तों की पूरी फ़ौज ने जो सोशल मीडिया के जरिये माहौल खड़ा किया उसी ने आज यह दिन दिखा रखे हैं देश को| हाँ वो अलग बात है कि इन्होनें इसका प्रयोग समाज को तोड़ने और नफरत फ़ैलाने हेतु किया| परन्तु ऐसे भी बहुत हैं जो जागरूकता फ़ैलाने हेतु कर रहे हैं और लोग उनको पसंद भी कर रहे हैं|

क्योंकि लेखनी और सोशल मीडिया विचारधारा को चलाती है, लोगों को नहीं| कभी-कभी लोगों को बहम हो जाता है कि उनको कोई इंसान चला रहा है, जी नहीं आपको इंसान नहीं उसकी विचारधारा चला रही होती है| कभी कई लोगों को बहम हो जाता है कि उनको ऊपर के लोग दबा रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह होती है कि ऐसे लोगों को ऊपर के लोग नहीं उनकी अपनी हीनता वाली सोच मार रही होती है| भले ही फिर वो विचारधारा किसी धरातल पर बैठे हुए की हो या मेरी तरह विदेशों में बैठ के भी धरातल की लिखने वालों की हो| मेरी क्रेडिबिलिटी ऐसे मामलों में थोड़ी ज्यादा इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि विदेश में बैठ के भी धरातल से जुड़ा रहता हूँ, परन्तु हीनभावना से ग्रस्त लोग इस बात को नहीं समझ पाते|

यही सोशल मीडिया तो सही मायनों में ग्लोबलाइजेशन है| इसको आत्मसात करो और इसको समझो कि इस सोशल मीडिया के युग में अपनी विचारधारा से लोगों में जागरूकता फ़ैलाने के लिए धरातल पर होना जरूरी नहीं; परन्तु हाँ विचार धरातलीय होने बहुत जरूरी हैं|

मुझे आज भी याद हैं वो 19-20-21-22 फ़रवरी की जाटों पे गोलियां चलवाने और हमलों की काली रातें और जो मेरे साथ इन काली रातों में पल-पल की खबर आपस में भाईयों को पास कर रहे थे, वो इसके साक्षी भी हैं| बहुत से साथी तो अपने मुंह से मेरे को यह कह के गए कि भाई मैदान छिड़ा बेशक हरयाणा में हो परन्तु इस लाइव कास्ट हो फ्रांस से रहा है| 4 की 4 रात ऑफिस-रिसर्च के काम छोड़ के एकटक टीवी और सोशल मीडिया पे बैठा था, ताकि सही खबर को आगे भाईयों तक पहुँचाऊँ और अफवाहों को ना फैलने देने में सहयोग दूँ|

जिससे सोशल मीडिया के माध्यम से हो पा रहा था, उससे सोशल मीडिया पे अन्यथा फोनों पे वार्तालापें चलती रही| ऑस्ट्रेलिया वाली कृष्णा चौधरी आंटी जी तो मेरे लाड लड़ाते हुए मेरी तन्मयता देख यूँ भी चुटकी ले जाती थी कि 'छोरे तुझे आरएसएस और बीजेपी वाले डिपोर्ट करवा लेंगे इंडिया, कित का मंड रह्या सै बावलों की ढाल|" और हँसते हुए आंटी जी को मैं यही जवाब देता कि आंटी फेर आप किस दिन खातर हो, छुड़ा लाईयो|

क्या जींद, क्या रोहतक, क्या गोहाना, क्या झज्जर, क्या सोनीपत, क्या करनाल, क्या भिवानी, क्या हिसार और क्या पानीपत; हर जगह से कोई आंदोलन-स्थल से तो कोई जाट-धर्मशालाओं से मेरे से जुड़ा हुआ था| हर कोई एकटक देख रहा था कि फूल भाई की खबर आएगी तो उसको ही सच्ची मानेंगे|

तो जो भाई अपरिपक्व सोच के हैं या मेरे को अपने लिए खतरा मानते हैं तो वह मुझे खतरा ना मानें| क्योंकि इंसान तो एक निश्चित समय के सफर के बाद आगे बढ़ जाता है, जो जिन्दा रहती है वो है उसकी विचारधारा| मेरे को होने का या अपनों में सम्मान पाने का कोई चीज जरिया है तो वह मैं नहीं अपितु मेरी सोच, विदेश में हो के भी धरातल से जुड़ा होना और एक निस्वार्थ कौम-समाज की सेवा-भावना| और विश्व में सबसे ताकतवर कोई सेवा है तो वो है विचारधारा की सेवा|

इसलिए फेसबुक से या कागजों पर लिखने से क्रांतियाँ नहीं होती, ऐसा सिर्फ वो लोग बोलते हैं जो एक बंद सोच में जीते हैं| सोच खुली करो और ग्लोबल बनो| यह दुनिया आपकी है सिर्फ जिला-राज्य या देश ही नहीं और ना ही सिर्फ इसके अंदर बैठे लोग, इससे बाहर की जियोग्राफी के लोग भी आपके ही हैं| आपके अपने हैं आपके शुभचिंतक हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

दलितों ने ऐसे दिया था सर छोटूराम को 'दीनबंधु' का टाइटल!


सन 1938 में सर चौधरी छोटूराम जी यूनाइटेड पंजाब के कृषि-मंत्री थे| उन्होंने भूमिहीन दलितों को खाली पड़ी सरकारी कृषि भूमि योग्य 4 लाख 54 हजार 625 एकड़ (किल्ले) जो मुल्तान व् इसके लगते जिलों में थी, उसको भूमिहीन दलितों को रु. 3 रुपये प्रति एकड़ के रेट पर 12 वर्षों में तक बिना ब्याज व् प्रतिवर्ष चार आने किश्तों पर चुकाने की शर्तों सहित अलॉट कर दलितों को भू-स्वामी बनाया।

उनकी इस महानता पर दलितों ने सर छोटूराम को "दीनबंधु" का टाइटल देकर उन्हें हाथी पर चढ़ा कर ढोल-नगाड़ों से जुलूस निकालकर जलसा किया| और ऐसे और तब से सर छोटूराम, सर व् रहबर-ए-आज़म के साथ-साथ "दीनबंधु" भी कहलाये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 17 March 2016

SYL को ले के पंजाब में जो हो रहा है, इसपे मुझे चौधरी बंसीलाल का मुहंतोड़ जवाब देने वाला अंदाज याद आ रहा है!


हुआ यूँ कि जब चौधरी बंसीलाल हरयाणा के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो, पंजाब ने अम्बाला से चंडीगढ़ जीरकपुर के रास्ते, जो कि पंजाब से होकर गुजरता है उस पर से हरयाणा रोडवेज की बसों की आवाजाही पर पाबन्दी लगा दी।

चौधरी बंसीलाल ने इसका शालीनता भरा जवाब देते हुए पहले अम्बाला कैंट से वाया शहजादपुर-बरवाला-पंचकुला चंडीगढ़ तक हफ्ते भर के भीतर-भीतर सड़क बना, हरयाणा रोडवेज का चंडीगढ़ कनेक्शन बहाल किया और फिर पंजाब रोडवेज की तमाम बसों की पंजाब-दिल्ली वाया हरयाणा एंट्री बैन कर दी।

पंजाब सरकार ने दो-एक दिन तो जोश-जोश में चंडीगढ़ वाया पश्चिमी यूपी दिल्ली तक बसें चलाई, परन्तु इतना लम्बा-उबाऊ और थकाऊ रास्ता होने की वजह से पंजाब रोडवेज को सवारियां ही नहीं मिली। और ऐसे पंजाब सरकार से नहले-पे-दहले स्टाइल में उनको उनका निर्णय वापिस लेने को मजबूर किया।

काश! आज खट्टर-बीजेपी की जगह चौधरी बंसीलाल होते तो मौकापरस्त राजनीति के वाहक अरविन्द केजरीवाल को जन्म से एक हरयाणवी होने और हरयाणा की पानी की समस्याओं से बचपन से वाकिफ होने के बावजूद पंजाब में मात्र पोलिटिकल माइलेज लेने के चक्कर में SYL का समर्थन करने का मजा चखाते। जो पंजाब छोड़, कभी दिल्ली सचिवालय तो कभी केंद्र सरकार के दफ्तरों के आगे हरयाणा से दिल्ली के पानी दिलाने बारे धरने पे बैठा ना मिलता तो। बाकी SYL पे बीजेपी का जो स्टैंड है वो तो सबको दिख ही रहा है।

कभी-कभी सोचता हूँ हमारे बॉलीवुड वाले तो नहीं उतर आये सड़कों पे राजनीति करने; फुलटूस 24 इनटू 7 नॉन-स्टॉप शो। बंदर बना के नचा दिया इन लोगों ने देश का।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

आरक्षण का विरोध कौन कर रहे हैं!

1. आरक्षण का विरोध मुसलमान नहीं कर रहे हैं।
2. आरक्षण का विरोध सिख नहीं कर रहे हैं।
3. आरक्षण का विरोध ईसाई नहीं कर रहे हैं।

आरक्षण का विरोध तो छुआछूत फैलाने वाले कर रहे हैं। भेदभाव फैलाने वाले कर रहे हैं। जात-पात का अंतर करने वाले कर रहे हैं। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले कर रहे हैं।आरक्षण का विरोध क्यों कर रहे हैं क्योंकि उनके अंदर लालच है और ऊँच--नीच की भावना है।वो मनुवादी हैं । मनुवाद खत्म होगा तो मानवतावाद का जन्म होगा और हम हैं मानवतावादी।

अंग्रेजों ने भारत पर 150 वर्षों तक राज किया ब्राह्मणों ने उनको भगाने का हथियार बन्द आंदोलन क्यों चलाया? जबकि भारत पर सबसे पहले हमला मुस्लिम शासक मीर काशीम ने 712ई. किया! उसके बाद महमूद गजनबी, मोहम्मद गौरी, चन्गेज खान ने हमला किये और फिर कुतुबद्दीन एबक, गुलाम वंश, तुग्लक वंश, खिल्जी वंश, लोदी वंश फिर मुगल आदि वन्शजों ने भारत पर राज किया और खूब अत्याचार किये लेकिन ब्राम्हणों ने कोई क्रांति या आंदोलन नहीं चलाया! फिर अन्ग्रेजों के खिलाफ़ ही क्यो क्रांति कर दी
जानिये क्रांति और आंदोलन की वजह

1- अंग्रेजो ने 1795 में अधिनयम 11 द्वारा शुद्रों को भी सम्पत्ति रखने का कानून बनाया।
2- 1773 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रेगुलेटिंग एक्ट पास किया जिसमें न्याय व्यवस्था समानता पर आधारित थी। 6 मई 1775 को इसी कानून द्वारा बंगाल के सामन्त ब्राह्मण नन्द कुमार देव को फांसी हुई थी।
3- 1804 अधिनीयम 3 द्वारा कन्या हत्या पर रोक अंग्रेजों ने लगाई (लडकियों के पैदा होते ही तालु में अफीम चिपकाकर, माँ के स्तन पर धतूरे का लेप लगाकर, एवम् गढ्ढा बनाकर उसमें दूध डालकर डुबो कर मारा जाता था)|
4- 1813 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर शिक्षा ग्रहण करने का सभी जातियों और धर्मों के लोगों को अधिकार दिया।
5- 1813 में अंग्रेजों ने दास प्रथा का अंत कानून बनाकर किया।
6- 1817 में समान नागरिक संहिता कानून बनाया (1817 के पहले सजा का प्रावधान वर्ण के आधार पर था। ब्राह्मण को कोई सजा नहीं होती थी ओर शुद्र को कठोर दंड दिया जाता था। अंग्रेजो ने सजा का प्रावधान समान कर दिया।)
7- 1819 में अधिनियम 7 द्वारा ब्राह्मणों द्वारा शुद्र स्त्रियों के शुद्धिकरण पर रोक लगाई। (शुद्रों की शादी होने पर दुल्हन को अपने यानि दूल्हे के घर न जाकर कम से कम तीन रात ब्राह्मण के घर शारीरिक सेवा देनी
पड़ती थी।)
8- 1830 नरबलि प्रथा पर रोक ( देवी -देवता को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण शुद्रों, स्त्री व पुरुष दोनों को मन्दिर में सिर पटक पटक कर चढ़ा देता था।)
9- 1833 अधिनियम 87 द्वारा सरकारी सेवा में भेद भाव पर रोक अर्थात योग्यता ही सेवा का आधार स्वीकार किया गया तथा कम्पनी के अधीन किसी भारतीय नागरिक को जन्म स्थान, धर्म, जाति या रंग के आधार पर पद से वंचित नही रखा जा सकता है।
10-1834 में पहला भारतीय विधि आयोग का गठन हुआ। कानून बनाने की व्यवस्था जाति, वर्ण, धर्म और क्षेत्र की भावना से ऊपर उठकर करना आयोग का प्रमुख उद्देश्य था।
11-1835 प्रथम पुत्र को गंगा दान पर रोक (ब्राह्मणों ने नियम बनाया की शुद्रों के घर यदि पहला बच्चा लड़का पैदा हो तो उसे गंगा में फेंक देना चाहिये।पहला पुत्र ह्रष्ट-पृष्ट एवं स्वस्थ पैदा होता है।यह बच्चा ब्राह्मणों से लड़ न जाय इसलिए पैदा होते ही गंगा को दान करवा देते थे।
12- 7 मार्च 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति राज्य का विषय बनाया और उच्च शिक्षा को अंग्रेजी भाषा का माध्यम बनाया गया।
13- 1835 को कानून बनाकर अंग्रेजों ने शुद्रों को कुर्सी पर बैठने का अधिकार दिया।
14- दिसम्बर 1829 के नियम 17 द्वारा विधवाओं को जलाना अवैध घोषित कर सती प्रथा का अंत किया।
15- देवदासी प्रथा पर रोक लगाई।ब्राह्मणों के कहने से शुद्र अपनी लडकियों को मन्दिर की सेवा के लिए दान देते थे। मन्दिर के पुजारी उनका शारीरिक शोषण करते थे। बच्चा पैदा होने पर उसे फेंक देते थे।और उस बच्चे को हरिजन नाम देते थे। 1921 को जातिवार जनगणना के आंकड़े के अनुसार अकेले मद्रास में कुल जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी जिसमें 2 लाख देवदासियां मन्दिरों में पड़ी थी। यह प्रथा अभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरों में चल रही है।
16- 1837 अधिनियम द्वारा ठगी प्रथा का अंत किया।
17- 1849 में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय जे ई डी बेटन ने स्थापित किया।
18- 1854 में अंग्रेजों ने 3 विश्वविद्यालय कलकत्ता, मद्रास और बॉम्बे में स्थापित किये। 1902 में विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया गया।
19- 6 अक्टूबर 1860 को अंग्रेजों ने इंडियन पीनल कोड बनाया। लार्ड मैकाले ने सदियों से जकड़े शुद्रों की जंजीरों को काट दिया ओर भारत में जाति, वर्ण और धर्म के बिना एक समान क्रिमिनल लॉ ला़गू कर दिया।
20- 1863 अंग्रेजों ने कानून बनाकर चरक पूजा पर रोक लगा दिया (आलिशान भवन एवं पुल निर्माण पर शुद्रों को पकड़कर जिन्दा चुनवा दिया जाता था इस पूजा में मान्यता थी की भवन और पुल ज्यादा दिनों तक टिकाऊ रहेगें।
21- 1867 में बहु विवाह प्रथा पर पुरे देश में प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से बंगाल सरकार ने एक कमेटी गठित किया ।
22- 1871 में अंग्रेजों ने भारत में जातिवार गणना प्रारम्भ की। अजीब दोगलापन है, लोगो को आरक्षण से चिड़ है लेकिन अपनी जाति के उच्च होने पर गर्व है!

सब्जी खरीदते समय जाति नहीं देखी जाती मगर उसी सब्जी को खिलाते समय जाति देखी जाती हैं।। फसल कटाई पर जाति नहीं देखते मगर उसकी बनी रोटियां खिलाते समय जाति देखी जाती हैं।। मकान बनबाने के लिए जाति नहीं देखते मगर जब मकान बन जाये तो उसमे बैठाने के लिए जाति देखते हैं।। मंदिर बनबाने के लिए जाति नहीं देखते मगर उसमें जाने के लिए जाति देखते हैं।। स्कूल या कॉलेज बनबाने के लिए जाति नहीं देखते लेकिन पढ़ाई के वक़्त जाति देखी जाती हैं।। कपङे खरीदते समय जाति नहीं देखते मगर उन्हीं कपड़ों को पहनकर उनसे दूर भागते हैं।। साथियों ये भारत देश हैं,, जहाँ कुछ मूर्ख लोग कहते हैं कि जाति व्यवस्था खत्म हो गई है। बुद्धिजीवियों का सामाजिक दायित्व...

"इंसान जीता है,पैसे कमाता है,खाना खाता है और अंततः मर जाता हैं। जीता इसलिए है ताकि कमा सके... कमाता इसलिए है ताकि खा सके... खाता इसलिए है ताकि जिन्दा रह सके... लेकिन फिर भी एक दिन मर ही जाता है... अगर सिर्फ मरने के डर से कमाकर खाते हो तो अभी मर जाओ,मामला खत्म,मेहनत बच जायेगी। मरना तो सबको एक दिन हैं ही, नहीं तो समाज के लिए जियो, ज़िन्दगी का एक उद्देश्य बनाओं, गुलामी की जंजीरो में जकड़े समाज को आज़ाद कराओं। अपना और अपने बच्चों का भरण पोषण तो एक जानवर भी कर लेता हैं। मेरी नज़र में इंसान वही है जो समाज की भी चिंता करे और समाज के लिये कार्य भी करे। नहीं तो डूब मरे ,अगर जिंदगी सिर्फ खुद के लिये ही जी रहे हैं तो"..................

इस मैसेज को इतना फैलाओ कि दुनिया के सभी समाज जाति के लोगों के पास पहुंच जाये और उन्हें पता चल जाये आरक्षण क्यों जरुरी हे।

Wednesday, 16 March 2016

यू खट्टर भी ना 'तनु वेड्स मनु' वाली कंगना की भांति 'घणा बावळा' हो लिया!


बता तीन दिन के लिए रोहतक के स्कूल-कॉलेज बंद करवा दिए, कल से सारे रोहतक समेत हरयाणा के कई शहरों में आरएएफ (RAF) के कमांडो घूम रहे हैं। और आज खबर रही है कि पूरे हरयाणा में NSA (नेशनल सिक्योरिटी एक्ट) लागु किया जा रहा है। एनएसए यानी किसी को भी मात्र संदेह के आधार पर उठा के जेल में ठोंक दो।

अरे बावले, जाट तो जेल-भरो आंदोलन की वैसे ही तैयारी किये बैठे हैं। कोनी, काम करे थारी यह स्ट्रेटेजी भी जाटों को डराने की। बता, दो हफ्ते पहले पुलिस-फ़ौज-आर्मी बुला के जाट डराना चाहे, तो डरे क्या, जो अब जेल का डर दिखा रहे हो?

ऐसा है कंधे से ऊपर मजबूत जी, या तो जो काम की बात है वो करो, कि विधानसभा में फटाफट जाट आरक्षण बिल पास करो और मामला नक्की करो या फिर जेलों में कम से कम दो-चार महीने का राशन-पानी तो ही भरवा दो क्योंकि जाट आपके एनएसए के बिना ही जेल भरने हेतु आन लग रहे हैं।

यार समझ में नहीं आ रही कि यह बीजेपी और आरएसएस वाले वाकई में कोई राजनीति खेल रहे हैं या बौखलाहट में आगे-से-आगे स्वघाती कदम उठाये जा रहे हैं। जिस स्टेट में ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा/खत्री जैसी समाज की सबसे धनाढ्य जातियों तक को आरक्षण है, और सिर्फ जाट (आर्यसमाजी-सिख-बिश्नोई-मुस्लिम), रोड व् त्यागी ही इसके बिना बचे हैं तो दिक्क्त क्या हो रही है, इनको भी आरक्षण देने में?

जनाब अगर आपको यह बहम बचा हो कि थोड़ा और "पैंतीस बनाम एक" खेल लूँ तो चेत जाईये, क्योंकि अब धरातल पर जबरजसत, बामसेफ, बसपा, मुस्लिम और ओबीसी-ए की कई जातियों ने इसकी हवा निकालनी शुरू कर दी है। अब जितनी देरी या आनाकानी करोगे, उससे अपना ही राजनैतिक नुकसान करोगे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

राजकुमार सैनी की 'बेताल पैंतिसी' की जमीन खिसकती जा रही है!

जाट आंदोलन के दौरान बहन मायावती जी द्वारा जाट आरक्षण को समर्थन देने के बाद कई लोग अटकलें लगा रहे थे कि राजनैतिक स्टंट है| परन्तु अब इस पर विराम लगाते हुए बहुजन समाज के सबसे बड़े सामाजिक व् गैर-राजनैतिक संगठन 'बामसेफ' की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में 'बामसेफ' के अध्यक्ष माननीय वामन मेश्राम व् कई खापों और जाट संगठनों के बीच कल गुड़गांव में बैठक हुई| और इसमें यह निर्णय लिए गए:

1) जाट आरक्षण आन्दोलन को बामसेफ हर तरह से समर्थन करता है और अपने जाट भाईयों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर हर स्तर पर साथ है।

2) इसके लिए चाहे धरातल पर आन्दोलन को समर्थन देना हो व साथ धरने पर बैठना हो, या इस दमनकारी सरकार की दमन की आवाज के विरुद्ध लड़ना हो, या निर्दोषों पर दर्ज झूठे मुकदमें वापिस लेने हेतु आंदोलन करना हो, 'बामसेफ' हर मोर्चे पर जाट-समाज के साथ खड़ा होगा|

3) जाट-दलित-मुस्लिम गठजोड़ का संदेश बामसेफ व् खापें अपने कैडर व् नेटवर्क के जरिये पूरे हरयाणा में फैलाएंगे|

रै भाई रलदू, राजकुमार सैनी से जरा पता करवा कि पैंतीस में से कितने रह गए? जबरजसत और मुस्लिम के बाद अब बसपा और बामसेफ जाट के साथ आ चुके हैं| और सुना है कि ओबीसी- ए श्रेणी की भी बहुत सारी जातियां राजकुमार सैनी व् ट्रैंड कबूतरों के पैंतीस बनाम एक वाले फार्मूला से सहमत नहीं हैं| आशा है कि वो भी जल्द ही इन समाज को कभी धर्म तो कभी जाति के नाम पे तोड़ने वालों का साथ छोड़ जाट समाज से आन मिलें|

राजकुमार सैनी साहब, पूरा इतिहास उठा के देख लो जाटों ने सदियों से भाईचारे को एक माँ की भांति पाला है और कोई माँ अपने बच्चों को गोदी से ऐसे छीन ले जाने देगी क्या, जैसे आप उतारू हुए फिर रहे हो? अब भी वक्त है सम्भल जाओ वर्ना कहीं ऐसा ना हो कि पैंतीस के चक्कर में आखिरी दिन अकेले ही रह जाओ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक