Monday, 4 April 2016

बाबा रामदेव के दिमाग, पुरुषार्थ, प्रबंधन, सेवा और कांटा लगे तो फलां-फलां क्या करे के फंडे!


दिमाग, पुरुषार्थ, प्रबंधन, सेवा; रोहतक की सद्भावना रैली में इन चारों पहलुओं पर इन्होनें अपना बखान दिया। जो अत्यन्त भौंडा और अमानवता से भरा हुआ था। समाज की विघटनकारी सोच की जड़ था।

आपको पता है बाबा रामदेव, जिस सोच से आपने इन चार तथ्यों की व्याख्या की, उसकी सबसे बड़ी कमजोरी क्या रही है? और आज से नहीं इतिहास के सुदूर अनंतकाल से रही है? वो है सिर्फ अपने को सर्वोच्च समझना और बाकी सबको तुच्छ। सिर्फ अपने को राजा समझना और बाकी सबको गुलाम? दुनिया की सबसे दमनकारी सोच है यह। इनकी दूसरी कमजोरी बताऊँ क्या है जिसकी वजह से इन्होने इतिहास में बार-बार मार खाई है? वो है कि यह तर्क-वितर्क से भागने वाले लोग हैं। और जहां तर्क-वितर्क ही नहीं वहाँ दिमाग का क्या काम? और जिसको आप इनकी परिभाषा वाला दिमाग कहते हैं ना, उसको छल-कपट-छलावा-ढोंग-फंड-पाखण्ड जैसी कैटेगरीज से घड़ा जाता है। और इस तरह के दिमाग को असमाजिक तत्व बोला जाता है।

बाबा जी क्या आपके अनुसार सबसे उत्तम दिमाग वही होता है जो ढोंग-पाखण्ड-आडंबर फैला के समाज में हिंसा-द्वेष और भाई से भाई को लड़ाना जानता हो और खाने-पीने-सुरक्षा-सेवा के लिए दूसरों पर आश्रित हो? मेरे ख्याल से बिलकुल नहीं, वरन ऐसे दिमाग को तो परजीवी बोला जाता है। और अपना यह परजीविपना छुपाने हेतु ऐसे दिमाग वाले सिर्फ और सिर्फ समाज को तोड़ने-फोड़ने के षड्यंत्र मात्र रचते हैं, जिसको किसी भी प्रकार से मानवता नहीं कहते।

और आपने क्या कहा कि शुद्र को कांटा लगे तो फलां रोये, फलां सुरक्षा करे और धिमकाना दवा करे? महाराज क्यों बेचारी रुदालियों और डूमनियों के रोने के धंधे पे लात मरवाते हो? और रोना ही अगर दिमाग कहलाता है तो फिर तो मेरे गाँव की वो डूमनी तो सबसे दिमागदार कही जाएगी जो हर मरगत पर, गाँव-कुनबे की औरतों को ले स्मशान की ओर जाते हुए "हाये-हाये केला तोड़ लिया" की दुहाई देती हुई, सांतलों और छातियों पर दुहाथड मारती हुई उनकी अगुवाई में चलती है? Bullshit-crap, इन स्वघोषित दिमागदारों को कोई बैन करो यार।
था तो और भी बहुत कुछ आपसे तर्क-वितर्क करने को, पर फ़िलहाल इतना ही।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

रेवाड़ी के राव तुलाराम द्वारा अंग्रेजों को फ़ारसी भाषा में लिखा माफीनामा!

रेवाड़ी के राव तुलाराम द्वारा 25 फरवरी 1859 को अंग्रेजों को फ़ारसी भाषा में लिखे माफीनामे की हिंदी में कॉपी|

सोर्स: राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archive), नई दिल्ली!



 

कट्टरवादी ताकतें कृपया "खाप के खौफ" को ना भुनावें!


आज जनसत्ता में एक फैब्रिकेटेड न्यूज़ आई है कि वेस्ट यूपी में किसी गुमनाम खाप ने मुस्लिमों का विरोध किया है। उस खबर में ना किसी खाप का नाम और ना किसी खाप के चौधरी का। हँसी आती है मुझे इनकी असहायता पर।

यानि अब इनकी खुद की नहीं चल रही तो यह "खाप के खौफ" को भुनाना चाहते हैं। इन कुंठित लोगों से आग्रह है कि आपको अपने संगठन के नाम पे जो आग लगानी है लगाओ, परन्तु "खाप" शब्द को मत घसीटो इसमें।

खाप सदियों से जातिपाती व् धर्म से रहित शुद्ध सेक्युलर संस्था रही है।
1) 1669 में औरंगजेब के दरबार में कत्ल किये गए 21 खाप चौधरियों में एक मुस्लमान भी था।
2) महाराजा सूरजमल ने भरतपुर में अगर लक्ष्मण मंदिर बनवाया था तो मोती-मस्जिद भी बनवाई थी।
3) 1857 की आज़ादी की पहली क्रांति की बागडोर अपने हाथों में लेने की खापों से अपील करने वाले अंतिम-मुग़ल बादशाह बहादुरशाह भी एक मुस्लिम ही थे।
4) सर छोटूराम जी ने सर सिकंदर हयात खान टिवाणा जी के साथ यूनाइटेड-पंजाब में धर्म-जाति से रहित सफल सरकार दी थी।
5) राजा महेंद्र प्रताप सिंह ने मुस्लिमों के साथ मिलके ही अफगानिस्तान में पहली भारतीय सरकार व् आज़ाद हिन्द फ़ौज (जिसको बाद में नेता जी सुभाषचन्द्र बॉस ने टेकओवर किया था) की नींव रखी थी।
6) चौधरी चरण सिंह जी की तो राजनीति की चूली ही हिन्दू-मुस्लिम एकता थी।
7) चौधरी देवीलाल जी की पार्टी इनेलो को आज भी हरयाणा की मुस्लिम बहुल सीटों पर इन्हें एकमुश्त वोट पड़ती हैं।
8) बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की तो हर रैली का आलम यह होता था कि अगर स्टेज से आवाज आती "हर-हर महादेव" तो जनता दहाड़ती "अल्लाह-हु-अकबर"। स्टेज से आवाज आती "अल्लाह-हु-अकबर" तो जनता गरजती "हर-हर महादेव"।

और इतने ही सच्ची और सार्थक सद्भावना के अनंत किस्से।

इनके ढोंग कौन समझ ले, कल तो रोहतक में सद्भावना रैली करते फिर रहे थे और आज खाप को भी जोड़ के वही हिंसा और मतभेद फैलाने के इनके काम। हमें क्या पड़ी किसी का विरोध करने की, अगर विरोध करवाने हैं तो देश से कानून बनवा लो, परन्तु हमें चैन से जीने दो।

वैसे भी हमें जिन चीजों के खत्म होने के या उनपे हमले होने के झांसे, भय अथवा डरावे दिखा के तुम इंस्टीगेट करना चाहते हो, यह डरावे उनको दिखाना जो ऐसी नौबत पड़ने पर, सलवार-कुरता पहन के ऐसे दुम-दबा के भागते हैं कि जैसे कुछ पल पहले कुछ था ही नहीं।

रहम करो! हमारी मानसिक शांति पर, हमें रोजगार और घर भी चलाने होते हैं। तुम तो छूटे लंगवाडे हो, तुम्हारा क्या जाता है। कसम से बाज जाओ, ना तो धर्म पे तो जब मुसीबत आवेगी तब आवेगी, उसतैं पहल्यां तुम ऐसी नौबत ना ला दियो कि देश में वैसे ही गृह-युद्ध छिड़ जाए।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 2 April 2016

खाप का चबूतरा शुद्ध रूप से गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी रहा है!

जहां तक मैंने खाप इतिहास को पढ़ा और जाना है उसमें कहीं भी एक भी अध्याय ऐसा नहीं आता जहां यह पढ़ा गया हो कि कभी साधु-बाबाओं ने किसी खाप के नेतृत्व में लड़ी लड़ाई का नेतृत्व या यहां तक कि मार्ग-दर्शन भी किया हो| लड़ाईयों के मौकों पर तो यह ऐसे गायब होते रहे हैं जैसे गधों के सर से सींग, कम से कम उत्तरी भारत का तो यही किस्सा है|

साथ ही इन साधु-बाबाओं की जमात ने धर्म-शास्त्र और मनचाहे वीर और सूरवीर तो घड़े और लिखे परन्तु इन्होनें कभी भी खाप की किसी भी लड़ाई और उस लड़ाई के यौद्धेयों बारे दो शब्द तक नहीं उकेरे| फिर चाहे वो 1398 में तैमूरलंग का मार-मार मुंह सुजा भगोड़ा बन देने का किस्सा हो| या 1620 में कलानौर की रियासत कैसे तोड़ी थी उसका किस्सा हो| या 1669 में औरंगजेब के जमाने में गॉड-गोकुला और इक्कीस खाप यौद्धेयों की बलि हो| या सन 1857 की लड़ाई में कैसे खापों ने ही दिल्ली की रक्षा की थी इसकी वीरगाथा हो|

और तो और इन्होनें हिन्दू धर्म रक्षक के नाम पर भले ही दूसरे धर्मों के सूरमाओं तक के नाम लिखने पड़े हों, परन्तु खाप का कोई कितना ही बड़ा सुरमा हो के चला गया, इनकी कलम से उसके लिए एक अक्षर तक नहीं टूटा|

इनका तो साया और कहना भी इतना मनहूस होता है कि इनकी मान के तो बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की राजनीति काल के ग्रास में समा गई थी| क्योंकि जब बाबा टिकैत का कद बढ़ता ही जा रहा था तो, अपनी रैलियों के मंचों से हर-हर महादेव और अल्लाह-हू-अकबर के नारे लगवा के रैलियों का आगाज करने की अपनी शैली से मशहूर बाबा टिकैत को इन पाखंडियों ने कहा कि आप अपने मंच से "जय श्री राम" के नारे लगवाओ| और जिस दिन बाबा टिकैत ने ऐसा किया वो दिन उनके जलवे की प्राकाष्ठा का आखिरी था, उसके बाद बाबा टिकैत कभी उस रौशनी और देदीप्यमानिता को नहीं छू पाये| चाँद पे लगे ग्रहण भांति गहते ही चले गए|

खापों के इतिहास की न्याय-समीक्षा करता हूँ तो यह भी एक बहुत बड़ा पहलु है कि खापों के चबूतरों पर कभी किसी बाबा-मोड्डे को पंच बन के चढ़ने नहीं दिया गया| वजहें साफ़ थी और आज भी हैं| और इसी लिए खाप-चबूतरों पर बैठ के न्याय करते वक्त, भगमा नहीं अपितु सफेद या गोल्डन रंग की पगड़ी बाँध के बैठने की परम्परा रही है| क्योंकि भगमा रंग झूठ-फरेब और अत्याचार का प्रतीक माना गया है|

पता नहीं खाप वाले कितना तो पढ़ते हैं और कितना अपने ही इतिहास पे विवेचना करते हैं, परन्तु अब यह भी इन बाबाओं की बहकाई में ऐसे चढ़े हुए हैं कि बस क्या कहने| पहले 25 नवंबर 2014 को आर्ट ऑफ़ लाइफ वाले धोल-कपडीये ने जींद में खापों के साथ पंचायत करी तो नतीजा आपके सामने है| और अब फिर आज 3 अप्रैल को सुना है कि कई खापों के कम-से-कम दर्जन-भर चौधरी इस रोहतक वाले कार्यक्रम में सिरकत करने वाले हैं| कितने करेंगे और कितने नहीं, यह देखने वाली बात रहेगी|

मेरा मानना है कि खापों को सद्भावना की पुकार लगानी ही थी या है तो क्या आप लोग जाट-आंदोलन के बाद से अपनी सभी छोटी-बड़ी पंचायतों के जरिए यह कार्य पहले से ही नहीं कर रहे थे? और अगर बड़े स्तर का ही करना था तो आपका तो विश्व में सबसे बड़ा ऐतिहासिक चबूतरा है, सब मिलके कर लेते| और इन ढोंगियों-पाखंडियों व् राजनीतिज्ञों से रहित कार्यक्रम करते|

खैर देखें, यह पेंचे कब तक चलेंगे| मुझे डर है कि कहीं यह इतने लम्बे ना चल जाएँ, कि खापों की गैर-राजनैतिक व् गैर-आडंबरी छवि को ही लील जाएँ| कोई नी जिसको जिस रास्ते चलना है वो चले, मैं तो आज भी उसी राह पे चलूँगा जो मेरी दादी जी सिखा गई थी कि "पोता', मुडैड़ की पंचायत म्ह, बहरूपिये की हाँसी में और किराड़ के बहकावे में कभी मत चढियो|"

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 31 March 2016

अभिभावक प्राइवेट स्कूलों में अपने बच्चे के दाखिले के वक्त ध्यान देवें!

 

बहुत से प्राइवेट स्कूलों में मनुवाद चल रहा है|

आपके बच्चों के दाखिले का महीना आ गया है| मान लो एक क्लास विशेष में विद्यार्थियों की संख्या इतनी है कि चार सेक्शन बनते हों तो इस तरह से सेक्शन बनाते पाये गए हैं यह लोग:

1) सेक्शन A - 90 से 100% "ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा/खत्री" के बच्चे - 20000 महीने या इससे ऊपर की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का ब्राह्मण व् वैश्य वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|
2) सेक्शन B - 90 से 100% अग्रणी किसानी जातियों के बच्चे - 12000 से 15000 महीने की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का क्षत्रिय व् शुद्र वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|
3) सेक्शन C - 90 से 100% ओबीसी जातियों के बच्चे - 8/9000 से 12000 की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का काश्तकार शुद्र वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|
4) सेक्शन D - 90 से 100% एससी-एसटी के बच्चे - 5/6000 से 7/8000 की तनख्वाह वाले अध्यापक - यूँ समझ लो जैसे मनुवाद का दलित शुद्र वर्ण - जबकि बच्चे की फीस एक ही|

यह पोस्ट अप्रैल-फूल नहीं है, इसको सीरियसली लेवें| और हाँ जो पत्रकार बन्धु निष्पक्ष और निडर पत्रकारिता करते हों, उनके लिए इसमें बहुत बड़ा शोध कहें या जासूसी से ले भंडाफोड़ का स्कोप है|

माँ-बाप चुप ना रहें, अपने बच्चों के दाखिले के वक्त स्कूल की मैनेजमेंट से सीधे पूछें कि हमारे बच्चे का सेक्शन कौनसा है और क्यों?

जैसे कई डेड-सयाने स्कूल वाले सेक्शन "बी" में दाखिले पे जवाब देंगे कि आपका बच्चा अच्छा खिलाडी बन सकता है इसलिए इस सेक्शन में है| यानि पहली-दूसरी-तीसरी-चौथी कक्षा में होते हुए ही इन्होनें उस बच्चे के लिए यह भी निर्धारित कर दिया कि यह तो पुलिस-फ़ौज-खिलाडी क्षेत्र में ही जायेगा और उसी हिसाब से पढ़ाया जायेगा। मतबलब उसके डॉक्टर-इंजीनियर-प्रोफेसर-अफसर बनने के स्कोप यह लोग शुरू से मिटा के चल रहे हैं। ऐसे जवाबों पे आपने क्या जवाब देना है और क्या कार्यवाही करनी है, आप मेरे से बेहतर जानते होंगे|

विशेष: यह बीमारी नीचे से ले मध्यम दर्जे के प्राइवेट स्कूलों में ज्यादा नहीं देखी गई है; लेकिन हाँ शहरों में जो अव्वल दर्जे के प्राइवेट स्कूल हैं, उनमें यह "द्रोणाचारी" नीति का भेदभाव धड़ल्ले से चल रहा है|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 29 March 2016

जिन जाटों को सनातनी और मनुवादी बनने का चस्का चढ़ा हुआ है, वो जरा अपने पुरखों के बारे यह कटिंग पढ़ें:

कटिंग इंग्लिश में है, इसको पूरी पढियेगा| इसके कुछ मुख्य बिंदु यहां हिंदी में लिख रहा हूँ:

1) ब्राह्मण ने जाट को शुद्र कहा क्योंकि जाट ने उसकी बनाई जाति व्यवस्था नहीं स्वीकारी और स्वछन्द रहा|
2) ब्राह्मण व्यवस्था की मनाही के बावजूद भी जाट विधवा विवाह करते रहे|
3) जाट कभी भी "कन्या भ्रूण हत्या" नहीं करते थे, जो दूध के कड़ाहों में कन्या को डुबो के मारने की प्रथा थी वो ब्राह्मणवाद की थी और राजपूत इसका अनुसरण करते थे|
4) जाट के यहां बेटी के जन्म का आनंद-उत्सव मनाते थे, मातम नहीं|
5) जाट, जातियाता कहलाए क्योंकि इन्होनें जातिव्यवस्था बनाने वालों को ठिकाने लगाया और उनको मात दी|


अब सोचे आज की जाट पीढ़ी कि आखिर यह कन्या भ्रूण हत्या करने या लड़की को मनहूस मानने की प्रथा आपमें कब से और कैसे आई? खोजोगे तो उत्तर एक ही मिलेगा, जब से आपने मनुवाद का अनुसरण करना शुरू किया, यह कुरीतियां आपमें प्रवेश कर गई| क्या इस लिहाज से देखा जाए तो आपके पुरखे आपसे ज्यादा स्वछन्द, खुले दिमाग के व् मानवीय सोच के नहीं थे?

Source:
a) "A social history of India" book by Mr. S.N. Sadashivan and
b) "Punjab Census Report of 1883" by Sir Denzil Ibbetson

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

Saturday, 26 March 2016

भरतपुर के डीग पैलेस में शोभायमान है दिल्ली की मुस्लिम-बेगम नूरजहाँ का आलीशान झूला!

महाराजा भारतेंदु जवाहर सिंह के नेतृत्व में जाटों ने जब दूसरी बार दिल्ली तोड़ी थी, यह तब की निशानी है| सलंगित चित्र देखें| इसके अलावा चित्तौड़गढ़ का "अष्टधातु" द्वार भी जाट साथ ले आये थे, जो कि आज भी भरतपुर के "दिल्ली द्वार" में जड़ित है|

एक राज की बात बताऊँ जब जाटों को दिल्ली में सुस्ताते हुए महिनाभर हो गया था तो जाटों की मानमनुहार करके जाटों से दिल्ली को वापिस मुग़लों को दिलवाने वाले उसी विचारधारा के लोग थे जो आजकल तथाकथित राष्ट्रवाद का झंडा उठाये फिर रहे हैं| तब इन्होनें जाटों के गुस्से को शांत करने के लिए मुगल राजकुमारी को भी जाट भारतेंदु से ब्याहने का ऑफर मुग़लों से रखवाया था, लेकिन भारतेंदु ठहरे अपने सिद्धांतों के पक्के, इसलिए अपने फ्रेंच सेनापति व् मित्र सप्रू से उस मुग़ल राजकुमारी का ब्याह करवा दिया था| इन्होनें यह कहते हुए दिल्ली मुग़लों को वापिस दिलवाई थी कि "दिल्ली तो जाटों की बहु है!" जब चाहे कब्जा लें|

जाट को नकारात्मक छवि में दिखाने हेतु इस मति के लोग आज भी यदकदा दिल्ली के तोड़ने के इन वाक्यों को "जाटगर्दी" व् "जाटों की लूट" का नाम देते हैं| बताओ चित्तौड़गढ़ जैसी रियासत का मान-सम्मान बचा लाना, मुग़लों को हरा देना भी 'लूट' कैसे कही जा सकती है, यह तो 'विजय' कही जानी चाहिए, नहीं?

ये जाट गुस्से या जिद्द में आने पे वाकई में पौराणिक चरित्र शिवजी भोले जैसे होते हैं| औरंगजेब के वक्त में तो इन्होनें अकबर की कब्र खोद के उसकी हड्डियों की चिता बना के ही फूंक डाली थी| और ताजमहल, बताओ इतनी खूबसूरत, ऐतिहासिक और यादगार जगह को अपनी भैंसों के चारा रखने हेतु, उसमें तूड़ा-भूसा भर दिया था| लेकिन यह तथाकथित राष्ट्रवादी सोच वाले 'जाट जी, जाट जी' करते हुए फिर आ धमकते थे, समझौते करवा इन जगहों को खाली करवाने को|

ऐसे ही जाट अंग्रेजों के साथ करते थे, क्या भरतपुर, क्या लाहौर और क्या बल्ल्भगढ़, ऐसी रियासतें थी जिन्होनें अंग्रेजों को तेरह-तेरह बार हराया और अजेय रहे|

फिर एक सर छोटूराम हुए| तब के यूनाइटेड पंजाब में अंग्रेज बोले कि गेहूं का एमएसपी (MSP) सिर्फ 6 रूपये प्रतिक्विंटल देंगे| सर छोटूराम अड़ गए कि 10 लूंगा| अंग्रेज नहीं माने तो सर छोटूराम बोले कि देखो मेरे किसान जमीन की 'माल-दरखास' यानि टैक्स नियमित रूप से भर रहे हैं, अगर गेहूं का एमएसपी 10 नहीं किया गया तो सब बंद करवा दूंगा और अनाज की बिक्री भी रुकवा दूंगा| तब अंग्रेज बोले कि ठीक है 10 ले लो| परन्तु जब तक अंग्रेज 10 पे माने, तब तक सर छोटूराम किसानों की रैली कर चुके थे| तो उधर आंदोलन स्थल से ही बोले कि अब मामला मेरे हाथ में नहीं, अब तो जो किसान तय करेंगे वही देना होगा| इस पर बताते हैं कि किसान बोले कि 11 का शगुन शुभ होता है, इसलिए 10 की बजाये 11 दो, और अंग्रेजों को देना पड़ा था|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

 

Friday, 25 March 2016

जाट हमेशा से शांति का पुजारी रहा है!

जो लोग यदाकदा यह कहते देखे जाते हैं कि इतिहास में जाट मुस्लिमों के डर के चलते मुस्लिम बने थे, उनके लिए छारा, जिला झज्जर में 200 युवकों द्वारा धर्म-परिवर्तन करने की बात वाली घटना काफी होनी चाहिए यह समझने के लिए कि जाट किसी के डर से नहीं, अपितु मनुवादियों के आज जैसे जाट बनाम नॉन-जाट और पैंतीस बनाम एक बिरादरी वाले माहौलों व् हालातों से निजात पाने हेतु ऐसा किया करते थे। वर्ना जाटों में तब भी वो ताकत होती थी और आज भी है कि जिस अंदाज में चाहें इनको मुंहतोड़ जवाब दे देवें, फिर चाहे सामने कोई खड़ा हो, तथाकथित ब्रिगेड खड़ी हो, ट्रैंड-कबुतर मंडली खड़ी हो, पुलिस-फ़ौज-सीआरपीएफ कुछ भी खड़ा हो।
किये होंगे किसी या किन्हीं के डरों के चलते किन्हीं ने धर्मपरिवर्तन; परन्तु जाट ने जब-जब ऐसा किया यह तब ही किया जब इन मनुवादियों ने जाट की मानसिक शांति व् संतुष्टि छीननी या रौंदनी चाही।

जाट हमेशा से शांति का पुजारी रहा है और जब उसको यह मनुवादियों से नहीं मिली तो बुद्ध, सिख, इस्लाम, जैन, ईसाई धर्मों में ढूंढी। और जिस भी धर्म में गए वहाँ सर्वोच्च सम्मान पाया। ईसाईयों ने जाटों को 'रॉयल रेस' कह के सम्मान दिया, मुस्लिमों ने चौधरी कह के तो सिखों ने सरदार जी कह के। और यह मनुवादी क्या-क्या कहलवा के सम्मान दिलवा रहे हैं यही इसकी वजह है कि जाट क्यों फिर से धर्म बदलने या अलग धर्म बनाने की सोच रहे हैं।

चला तो सिख धर्म में जाना था सारे जाट को उन्नीसवीं सदी में ही, यह तो अगर 1875 में मनुवादी बॉम्बे में इकठ्ठे हो जाटों को दयानन्द सरस्वती द्वारा सत्यार्थ प्रकाश लिखवा उसमें "जाट जी" कह के आदर ना देते तो। तब तो जाट रुक गए थे, परन्तु इन्होनें फिर से वही हालात ला खड़े किये हैं। आखिर इनको कब अक्ल आएगी। पहले भिड़ते हैं और फिर बाद में "जाट जी" कहते/लिखते आगे पीछे फिरते हैं।

लेकिन अबकी बार तो इसका कुछ ऐसा हल हो ही जाए कि या तो यह अपनी हरकतों से बाज आवें या फिर जाट इस धर्म को ही खाली कर जावें। बेशक "जाट धर्म" घोषित कर लिया जावे।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 24 March 2016

राष्ट्रीय शहीदी दिवस (23 March, 1931) पर कोटि-कोटि प्रणाम-शहीदां-नूं!

शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर वर्ष मेले,
कि वतन पर मिटने वालों का यही बाकी निशाँ होगा!

सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है?

करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है|
ऐ शहीदे-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा, ग़ैर की महफ़िल में है||
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है|

वक़्त आने पर बता देंगे तुझे ए-आसमाँ,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है|
खेँच कर लाई है सबको क़त्ल होने की उम्मीद,
आशिक़ोँ का आज जमघट कूचा-ए-क़ातिल में है||
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।

है लिये हथियार दुश्मन, ताक में बैठा उधर,
और हम तैय्यार हैं; सीना लिये अपना इधर।
खून से खेलेंगे होली, गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

हाथ, जिन में हो जुनूँ, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो, झुकते नहीं ललकार से।
और भड़केगा जो शोला, सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

हम तो निकले ही थे घर से, बाँधकर सर पे कफ़न,
जाँ हथेली पर लिये लो, बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी महमाँ, मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल, कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत, भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्कलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज।|
दूर रह पाये जो हमसे, दम कहाँ मंज़िल में है|
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है।

जिस्म वो क्या जिस्म है, जिसमें न हो खूने-जुनूँ,
क्या लड़े तूफाँ से, जो कश्ती-ए-साहिल में है।
सरफ़रोशी की तमन्ना, अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना, बाज़ु-ए-कातिल में है।

दिल से निकलेगी न मरकर भी वतन की उल्फ़त,
मेरी मिट्टी से भी खुशबु-ए-वतन आएगी|
हमें यह शौक है देखें सितम की इंतहा क्या है,
दहर (दुनिया) से क्यों ख़फ़ा रहें|
चर्ख (आसमान) से क्यों ग़िला करें,
सारा जहां अदु (दुश्मन) सही, आओ मुक़ाबला करें|

शहीद-ए-आजम भगत सिंह 1924 में जो लिख गए वो शायद 2016 के लिए ही था!


जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे सांप्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है । इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं मे ऐसी लीद की है कि चुप ही भली । वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतंत्र कराने का बीड़ा उठाया था और जो ” समान राष्ट्रीयता” और ” स्वराज-स्वराज” के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मांन्धता के बहाव में बह चले हैं । सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है और सांप्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे । ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है ।

दूसरे सज्जन जो सांप्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं वे अख़बार वाले हैं ।

पत्रकारिता का व्यवसाय, जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गन्दा हो गया है । ये लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं । एक दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अख़बारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं । ऐसे लेखक, जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो, बहुत कम हैं ।
अख़बारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, सांप्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, सांप्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है । यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि भारत का बनेगा क्या ?

( यह लेख शहीदे आज़म भगत सिंह ने 1924 में लिखा था ‘ किरती’ में छपा था । भगत सिंह और उनके साथियों के संपूर्ण उपलब्ध दस्तावेज़ से लिया है जिसे लखनऊ के राहुल फ़ाउंडेशन ने छापा है। हमने सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज का कुछ हिस्सा आपके लिए पेश किया है )

यही सोशल मीडिया तो सही मायनों में ग्लोबलाइजेशन है!

फेसबुक पे लिखने से क्रांति नहीं आती! - बोलने वालों के लिए!

तुम क्रांति की बात करते हो, आज मोदी-खटटर जो पीएम और सीएम बन हरयाणा के भाईचारे की तार-तार बिखेर रहे हैं वो इसी फेसबुक की बदौलत तो है| अंधभक्तों की पूरी फ़ौज ने जो सोशल मीडिया के जरिये माहौल खड़ा किया उसी ने आज यह दिन दिखा रखे हैं देश को| हाँ वो अलग बात है कि इन्होनें इसका प्रयोग समाज को तोड़ने और नफरत फ़ैलाने हेतु किया| परन्तु ऐसे भी बहुत हैं जो जागरूकता फ़ैलाने हेतु कर रहे हैं और लोग उनको पसंद भी कर रहे हैं|

क्योंकि लेखनी और सोशल मीडिया विचारधारा को चलाती है, लोगों को नहीं| कभी-कभी लोगों को बहम हो जाता है कि उनको कोई इंसान चला रहा है, जी नहीं आपको इंसान नहीं उसकी विचारधारा चला रही होती है| कभी कई लोगों को बहम हो जाता है कि उनको ऊपर के लोग दबा रहे हैं, जबकि वास्तविकता यह होती है कि ऐसे लोगों को ऊपर के लोग नहीं उनकी अपनी हीनता वाली सोच मार रही होती है| भले ही फिर वो विचारधारा किसी धरातल पर बैठे हुए की हो या मेरी तरह विदेशों में बैठ के भी धरातल की लिखने वालों की हो| मेरी क्रेडिबिलिटी ऐसे मामलों में थोड़ी ज्यादा इसलिए बढ़ जाती है क्योंकि विदेश में बैठ के भी धरातल से जुड़ा रहता हूँ, परन्तु हीनभावना से ग्रस्त लोग इस बात को नहीं समझ पाते|

यही सोशल मीडिया तो सही मायनों में ग्लोबलाइजेशन है| इसको आत्मसात करो और इसको समझो कि इस सोशल मीडिया के युग में अपनी विचारधारा से लोगों में जागरूकता फ़ैलाने के लिए धरातल पर होना जरूरी नहीं; परन्तु हाँ विचार धरातलीय होने बहुत जरूरी हैं|

मुझे आज भी याद हैं वो 19-20-21-22 फ़रवरी की जाटों पे गोलियां चलवाने और हमलों की काली रातें और जो मेरे साथ इन काली रातों में पल-पल की खबर आपस में भाईयों को पास कर रहे थे, वो इसके साक्षी भी हैं| बहुत से साथी तो अपने मुंह से मेरे को यह कह के गए कि भाई मैदान छिड़ा बेशक हरयाणा में हो परन्तु इस लाइव कास्ट हो फ्रांस से रहा है| 4 की 4 रात ऑफिस-रिसर्च के काम छोड़ के एकटक टीवी और सोशल मीडिया पे बैठा था, ताकि सही खबर को आगे भाईयों तक पहुँचाऊँ और अफवाहों को ना फैलने देने में सहयोग दूँ|

जिससे सोशल मीडिया के माध्यम से हो पा रहा था, उससे सोशल मीडिया पे अन्यथा फोनों पे वार्तालापें चलती रही| ऑस्ट्रेलिया वाली कृष्णा चौधरी आंटी जी तो मेरे लाड लड़ाते हुए मेरी तन्मयता देख यूँ भी चुटकी ले जाती थी कि 'छोरे तुझे आरएसएस और बीजेपी वाले डिपोर्ट करवा लेंगे इंडिया, कित का मंड रह्या सै बावलों की ढाल|" और हँसते हुए आंटी जी को मैं यही जवाब देता कि आंटी फेर आप किस दिन खातर हो, छुड़ा लाईयो|

क्या जींद, क्या रोहतक, क्या गोहाना, क्या झज्जर, क्या सोनीपत, क्या करनाल, क्या भिवानी, क्या हिसार और क्या पानीपत; हर जगह से कोई आंदोलन-स्थल से तो कोई जाट-धर्मशालाओं से मेरे से जुड़ा हुआ था| हर कोई एकटक देख रहा था कि फूल भाई की खबर आएगी तो उसको ही सच्ची मानेंगे|

तो जो भाई अपरिपक्व सोच के हैं या मेरे को अपने लिए खतरा मानते हैं तो वह मुझे खतरा ना मानें| क्योंकि इंसान तो एक निश्चित समय के सफर के बाद आगे बढ़ जाता है, जो जिन्दा रहती है वो है उसकी विचारधारा| मेरे को होने का या अपनों में सम्मान पाने का कोई चीज जरिया है तो वह मैं नहीं अपितु मेरी सोच, विदेश में हो के भी धरातल से जुड़ा होना और एक निस्वार्थ कौम-समाज की सेवा-भावना| और विश्व में सबसे ताकतवर कोई सेवा है तो वो है विचारधारा की सेवा|

इसलिए फेसबुक से या कागजों पर लिखने से क्रांतियाँ नहीं होती, ऐसा सिर्फ वो लोग बोलते हैं जो एक बंद सोच में जीते हैं| सोच खुली करो और ग्लोबल बनो| यह दुनिया आपकी है सिर्फ जिला-राज्य या देश ही नहीं और ना ही सिर्फ इसके अंदर बैठे लोग, इससे बाहर की जियोग्राफी के लोग भी आपके ही हैं| आपके अपने हैं आपके शुभचिंतक हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

दलितों ने ऐसे दिया था सर छोटूराम को 'दीनबंधु' का टाइटल!


सन 1938 में सर चौधरी छोटूराम जी यूनाइटेड पंजाब के कृषि-मंत्री थे| उन्होंने भूमिहीन दलितों को खाली पड़ी सरकारी कृषि भूमि योग्य 4 लाख 54 हजार 625 एकड़ (किल्ले) जो मुल्तान व् इसके लगते जिलों में थी, उसको भूमिहीन दलितों को रु. 3 रुपये प्रति एकड़ के रेट पर 12 वर्षों में तक बिना ब्याज व् प्रतिवर्ष चार आने किश्तों पर चुकाने की शर्तों सहित अलॉट कर दलितों को भू-स्वामी बनाया।

उनकी इस महानता पर दलितों ने सर छोटूराम को "दीनबंधु" का टाइटल देकर उन्हें हाथी पर चढ़ा कर ढोल-नगाड़ों से जुलूस निकालकर जलसा किया| और ऐसे और तब से सर छोटूराम, सर व् रहबर-ए-आज़म के साथ-साथ "दीनबंधु" भी कहलाये|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 17 March 2016

SYL को ले के पंजाब में जो हो रहा है, इसपे मुझे चौधरी बंसीलाल का मुहंतोड़ जवाब देने वाला अंदाज याद आ रहा है!


हुआ यूँ कि जब चौधरी बंसीलाल हरयाणा के मुख्यमंत्री हुआ करते थे तो, पंजाब ने अम्बाला से चंडीगढ़ जीरकपुर के रास्ते, जो कि पंजाब से होकर गुजरता है उस पर से हरयाणा रोडवेज की बसों की आवाजाही पर पाबन्दी लगा दी।

चौधरी बंसीलाल ने इसका शालीनता भरा जवाब देते हुए पहले अम्बाला कैंट से वाया शहजादपुर-बरवाला-पंचकुला चंडीगढ़ तक हफ्ते भर के भीतर-भीतर सड़क बना, हरयाणा रोडवेज का चंडीगढ़ कनेक्शन बहाल किया और फिर पंजाब रोडवेज की तमाम बसों की पंजाब-दिल्ली वाया हरयाणा एंट्री बैन कर दी।

पंजाब सरकार ने दो-एक दिन तो जोश-जोश में चंडीगढ़ वाया पश्चिमी यूपी दिल्ली तक बसें चलाई, परन्तु इतना लम्बा-उबाऊ और थकाऊ रास्ता होने की वजह से पंजाब रोडवेज को सवारियां ही नहीं मिली। और ऐसे पंजाब सरकार से नहले-पे-दहले स्टाइल में उनको उनका निर्णय वापिस लेने को मजबूर किया।

काश! आज खट्टर-बीजेपी की जगह चौधरी बंसीलाल होते तो मौकापरस्त राजनीति के वाहक अरविन्द केजरीवाल को जन्म से एक हरयाणवी होने और हरयाणा की पानी की समस्याओं से बचपन से वाकिफ होने के बावजूद पंजाब में मात्र पोलिटिकल माइलेज लेने के चक्कर में SYL का समर्थन करने का मजा चखाते। जो पंजाब छोड़, कभी दिल्ली सचिवालय तो कभी केंद्र सरकार के दफ्तरों के आगे हरयाणा से दिल्ली के पानी दिलाने बारे धरने पे बैठा ना मिलता तो। बाकी SYL पे बीजेपी का जो स्टैंड है वो तो सबको दिख ही रहा है।

कभी-कभी सोचता हूँ हमारे बॉलीवुड वाले तो नहीं उतर आये सड़कों पे राजनीति करने; फुलटूस 24 इनटू 7 नॉन-स्टॉप शो। बंदर बना के नचा दिया इन लोगों ने देश का।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक