Tuesday, 17 May 2016

दादा, थाहम इन लपुसियां नै अर प्रशासन नै सुलट लियो बस, गुहांड नैं तो हम धानक ए ठा ल्यावंगे!

निडाना का हुलिया (महिपाल) हरयाणवी गाँव-गणतंत्र के प्रति अटूट लगाव और कट्टरता का प्रतीक था|

आज हरयाणा के जिला जींद का निडाना गाँव अपने पांच लाडलों की अकस्मात मौत से सदमे में है| कुँए की जहरीली गैस ने जिन पांच लालों को लीला उसमें एक व्यक्ति को मैं (इस लेख का लेखक) बचपन से व्यक्तिगत तौर पर जानता हूँ| बहुमुखी प्रतिभा के धनी महिपाल का निकनेम हुलिया (अंधंड के बंवडर को हरयाणवी में 'हुलिया' कहते हैं, जो रास्ते में आने वाली हर चीज को लपेटता हुआ ऊपर की ओर फेंकता चलता है) भी शायद इसीलिए पड़ा होगा क्योंकि उसमें काफी सारे सामाजिक, सांस्कृतिक और ग्रामीण पहलुओं बारे जो अदम्य साहस, उत्साह और क्रांतिकारी प्रेरणा थी; वो विरले लोगों में देखने को मिलती है| वह मनुवाद की बनाई जातिवादी व् वर्णवादी व्यवस्था का धुर्र विरोधी क्रांतिकारी था; हरयाणवी गाम-खेड़े की अस्मिता पर आंच आये तो सबसे आगे जेली-गंडासे ले के खड़े होने वालों में था; वह एक अर्दली भी था जिसकी आवाज गाँव के दूसरे छोर से भी सुन जाती थी कि आज हुलिया गाँव में मुनादी कर रहा है; वह सबसे आदर-मान-सम्मान और सभ्यता से व्यवहार करने वाला स्वाभिमानी इंसान था| साझे कर रहा हूँ उसके उत्साह और साहस की मेरे बचपन से ले अभी पिछली बार गाँव विजिट के दौरान की कुछ यादें, जो निडाना गाँव-गुहांड को गमगीन छोड़ के जाने वाले इन पाँचों सपूतों को समर्पित हैं|

बात तब की है जब मैं ग्रेजुएशन कर रहा रहा था, शायद सन 2000-01 की| दशहरे का दिन था, शाम होते-होते मनहूस खबर आई कि हमारे गुहांड (सामाजिक व् समरसता कारणों से गुहाण्ड का नाम नहीं लिख रहा हूँ) में निडाना के गामी-झोटे को वहाँ के कुछ असामाजिक तत्वों ने घायल कर, गुहांड के बाहर से जाती 'बिद्रो' यानि ड्रेन में उड़ेल दिया है| हरयाणवी संस्कृति में गाँव का सांड और झोटा दोनों गाँव के देवता माने जाते हैं, अत: उन पर बाहरी आक्रमण को गाँव की प्रतिष्ठा पर आक्रमण माना जाता है| आगे क्या कैसे हुआ के पूरे किस्से में तो अभी नहीं जाऊंगा, क्योंकि बाद में गठवाला खाप और गुहांड की खाप के स्थानीय तपों ने मिल कर मुजरिमों को ढूंढ भी निकाला था और मसले का शांतिपूर्ण हल भी हो गया था| हाँ, इसमें हुलिए का किरदार आज भी मुझे याद है| उस वक्त मेरे सगे चचेरे दादा हुक्म सिंह गाँव के सरपंच होते थे|

वो, गाँव के कई अन्य गणमाण्य लोग, मैं (मैं वहाँ गाम की स्मिता की बात होने के साथ-साथ इसलिए भी मौजूद था क्यों कि उस झोटे को मैंने अपने हाथों दाना-चारा खिला के पाला था, फिर बाद में मेरे पिता जी ने गाँव के कहने पर उसको गाँव को दे दिया था; इस घटना से घायल उस झोटे का 1.5 महीने तक इलाज भी हमारे घेर में मेरी ही देख-रेख मैंने खुद ही करवाया था| झोटा इतना घायल था कि 15 दिन तो उसको अपने-आप से खड़ा होने में लग गए थे, कॉलेज से आते ही उसके पास जाता तो मेरी गोद में सर रखते ही झोटे की आँखों से आँसू टपक पड़ते; जैसे मुझे अपना दर्द बताने लग जाता हो) और हुलिया समेत लगभग आधा गाँव जेली-गंडासे ले के गाँव के बाहरी छोर पर जमा थे|

रात के नौ बजे थे जींद के एसपी, एसडीएम और 3-4 पुलिस की टुकड़ियां मौके पर आई हुई थी| कोई बड़ी अनहोनी ना हो इसलिए पुलिस गुहांड की तरफ घेराबंदी करे खड़ी थी| गाँव के मौजिज लोग और पुलिस-प्रशासन में वार्तालाप हो रही थी| इतने में गाँव की धानक बिरादरी का "पहलवानी दस्ता" जेली-गंडासी समेत गाँव की तरफ से हमारी तरफ आते दीखते हैं और हुलिया एक दम से दादा हुक्म सिंह से रुक्का मार के ललकारा कि "दादा थाहम, इन लपुसियां नै अर प्रशासन नै सुलट लियो बस, गुहांड नैं तो हम धानक ए ठा ल्यावंगे|" यह पंक्तियां आज भी यूँ-की-यूँ मेरे कानों में हैं उस इंसान की| खैर बुजुर्ग लोग हुलिया के जोश को समझा-बुझा कर ठंडा करते हैं व् फिर से प्रशासन से बातों में लग जाते हैं| यहां बता दूँ कि गठवाला खाप के आदेशों व् पुकारों पर आपातकाल व् लड़ाइयों में भाग लेने हेतु हमारे गाँव में धानक-जाट व् अन्य जातियों के पहलवानों का पहलवानी दस्ता हमेशा तैयार रहता आया है| तो यह था हुलिया का अपने गाँव की अस्मिता के प्रति मोह और जज्बे का पहला किस्सा|

दूसरा किस्सा बताता है कि वह कैसे मनुवाद की जाति व् वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध भी अपनी आवाज उठाता रहता था| अक्टूबर 2014 में छुट्टियों पे इंडिया आया हुआ था तो सोचा कि गाँव की सभी जातियों के बुजुर्गों के बीच बैठ के गाँव का जातिवार इतिहास लिखा जाए| इसी सिलसिले में मैं धानको की ओर चला गया| वहाँ दादा दयानन्द जी से गाँव व् धानक बिरादरी का निडाना गांव में योगदान व् सम्पर्ण बारे लिख के लाया; जो कि एक लेख के रूप में निडाना हाइट्स की वेबसाइट पर पब्लिश किया हुआ है|

जब वहाँ बैठा गाँव के इतिहास व् संस्कृति पर लिख रहा था तो हुलिया आता है और नमस्ते मलिक साहब कहते ही सीधा कुछ सवाल छोड़ता है:

हुलिया: मलिक साहब, यह जातिपाति और वर्णव्यवस्था पर क्या विचार है आपका?
मैं: भाई, मैं इसका विरोधी हूँ| और यह खत्म होनी चाहिए|
हुलिया: भाई मैं जानु सूं आप, आपके पिता जी और आपका कुनबा तो कोनी मानता जातिपाति को और आपके पिता जी तो म्हारी गेल बैठ खाने-पीने से भी नहीं झिझकते; पर सारे इहसे कोनी| अर इतना कहे तैं काम भी कोनी चालता अक आप कोनी मानते, आप जिहसे आदमी को तो आगे आ के इसको खत्म करवाना चाहिए?
मैं: मखा भाई अपनी औड तैं पूरे प्रयास जारी सैं, जीबे आड़े आया सूं, नहीं तो गाम का इतिहास और संस्कृति तो जाटों के बुड्ढे भी भतेरी बता चुके| पर मैं उसको क्रॉस-चेक करना चाहूँ कि क्या यही बातें यूँ-की-यूँ दलित बुड्ढे भी बताएँगे कि कुछ अलग मिलेगा|
हुलिया: तो मलिक साहब फेर पाया किमें फर्क?
मैं: भाई जो गाम की सब जातियों की कॉमन हिस्ट्री है उसमें कोई फर्क नहीं| हाँ दादा दयानन्द से गाम के धानक समाज की कुछ नई बातें जरूर जानने को मिली|
हुलिया: बढ़िया मलिक साब, इस ज्यात-पात नैं खत्म करण खातर करो किमें?
मैं: मखा हुलिए, इब मामला दो ढाल का हो लिया, एक जो मनुवादी सदियों से रखते आये और दूसरा मखा सरकार भी सारी योजना जाति देख के बनाती है, नेता लोग टिकट तक भी जाति ही देख के बाँटते हैं| मखा भाई काम बहुत भारी है, पर तेरा भाई इसको मिटाने की ओर ही अग्रसर है|
दादा दयानन्द: अरे हुलिए थम जा तू इब, छोरे ताहिं दो-चार बात और बता लेण दे|

और यह था उसके साथ दूसरा अनुभव| इसके अलावा वो एक अर्दली था वह ऊपर बता चुका| हमारे खेतों में दिहाड़ी-मजदूरी पर आता रहता था तो पूरा काम और पूरी लगन से करके देता था|

अंत में यही कहूंगा कि हुलिया के रूप में गाँव ने सिर्फ एक आदमी नहीं अपितु ऊंच-नीच और छुआछात से लड़ने की जीती-जागती क्रांति खो दी है| हुलिया और बाकी चारों दिवंगतों को भावभीनी श्रदांजलि|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 15 May 2016

बाबा टिकैत जो झंडा पकड़ा गए थे, उसका रंग क्यों भूल गया ओ जाट व् तमाम किसान?


आज बाबा महेंद्र सिंह टिकैत की पांचवीं पुण्य-तिथि (15/05/2011) पर अंधभक्त बन भगवे के पीछे भाग रहे जाटों व् तमाम किसानों के बालकों से पूछना चाहूंगा कि क्या जो झंडा हमारा पुरख हुतात्मा बाबा टिकैत हमें पकड़ा गया था उसका रंग भगमा था या हरा (किसान के खेतों की हरियाली का प्रतीक) व् सफेद (किसान के यहां होने वाले दूध का प्रतीक) था?

हमें भगवे को आदर देने से परहेज नहीं, इसीलिए कभी किसी किसान पुत्र ने तिरंगे पर ऊँगली नहीं उठाई, जिसमें हरे और सफ़ेद के साथ भगवा और नीला अशोक चक्र (उद्योग व् दलित) का प्रतीक भी हैं| भगवे को स्थान देने के चक्कर में सफेद, हरे और नीले को मत भूलो, भगवा देश का पेट नहीं भरता; वो भरता है हरा, सफेद व् नीला|

हमारे पुरख यानि हमारे बाप हमें "हर-हर महादेव" और "अल्लाह-हू-अकबर" दोनों एक साथ बोलना सीखा के गए हैं; हमें उनको और उनके जैसी चीजों-चिन्हों को आगे बढ़ाना है, किन्हीं बहरूपियों के एजेंडों को नहीं|

और उनको भूले हो तो आज देख लो, ना अगर किसानों के नेताओं को एक-एक करके ठिकाने लगाया जा रहा हो तो| नेता तो नेता तुम्हारे खिलाडियों तक को ठिकाने लगाया जा रहा है| आज बाबा की पुण्यतिथि के अवसर पर लौट आओ अपनी जड़ों की ओर वापिस|

इनसे सिर्फ कारोबारी और रोजगारी रिश्ते स्वीकारो| जो जाट और किसान हो गया वो आध्यात्म और बौद्धिकता का खजाना स्वत: हो गया| मत उतरो अपनी "जाट देवता" की पदवी से नीचे, इन बहरूपियों के चरणों में अपने को झुका के| इनको गिरवी मत रखो अपने आध्यात्म और बौद्धिकता को|

Ending the note with this poem dedicated to Baba Tikait:

सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या:

धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
धर्म नैं चिलम भरी थारी हो, थमनै होण दी ना पाड़ कदे,
अल्लाह-हू-अकबर, हर-हर-महदेव, राखे दोनूं एक पाळ खड़े|
अवाम खड़ी हो चल देंदी, जब-जब थमनें हुम्-हुंकार भरे,
सिसौली से दिल्ली अर वैं ब्रज-बांगर-बागड़ के मैदान बड़े|
चूं तक नहीं हुई कदे धर्म पै, आज यें हाजिरी लावैं फण्डियाँ कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

किसान यूनियन रोवै खड़ी, पाड़ उतरगी भीतर म्ह,
तीतर-बटेरों का झुण्ड हो रे, खा गये चूंट कैं चित्र नैं|
स्याऊ माणस लबदा ना, यू गहग्या सोना पित्तळ म्ह,
राजनीति डसगी उज्जड न्यूं, ज्यूँ कुत्ते चाटें पत्तळ नैं||
एक्का क्यूकर हो दादा, खोल बता ज्या त्यरे इस टोळे तैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

मंडी भा-खाणी रंडी हो री, दवन्नी पल्लै छोड्ती ना,
आंधी पिस्सै कुत्ते चाटें, त्यरे भोळे की भोड़ती ना|
कमर किसान की तोड़दी हाँ, या लागत खस्मां खाणी,
गए जमाने लुटे फ़साने, भागां रहगी फांसी, कै गस खाणी||
अन्नदाता की राहराणी बणै ज्यूँ, न्यूँ ला ज्या बात ठिकाणे पै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||

खाप त्यरी यैं बिन छतरी-चिमनी का हो री चूल्हा,
बूँद पड़ी अर चौगरदे नैं धूमम्म-धूमा-धूमम्म-धूमा|
टकसाळो की ताल जोड़ दे, ला फेर चबूतरा सोरम सा,
'फुल्ले-भगत' मोरणी चढ़ा दे, अर गेल टेर दे तोरण शाह||
या चित-चोरण सी माया तेरी, करै निहाल सारे जटराणे नैं|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
धर्म छोड्या ना, कर्म छोड्या ना, फिरगे पाखंडी चौगरदे कै|
सिसौली आळे बाबा फेर आ ज्या, यें चिपट रे भूत तेरे भोळे कै||
शब्दावली: भोळा/भोळे = किसान
लेख्क्क: फूल कुंवार म्यलक (Phool Kumar Malik)

जय यौद्धेय!

 

भारत में यदि जातिवाद के जहर को खत्म करना है तो!


असल हिन्दू धर्म में जातिवाद है क्या?
उत्तर: जो जातियां माइनॉरिटी में हैं, उन द्वारा बहुसंख्यक जातियों में अपने लोगों (वास्तविक व् काल्पनिक दोनों टाइप के) को भगवान् बना के स्थापित करवाना ही जातिवाद है|

इसका हल क्या है?
उत्तर: हर जाति या मित्र जातियों का समूह अपनी-अपनी जाति समुदाय में हुए हुतात्माओं को ही अपना भगवान् मानें| जैसे गांधी व् लाला लाजपत राय व्यापारियों (बनिया व् अरोड़ा/खत्री) के भगवान, तिलक-गोखले-गोवलकर-नेहरू ब्राह्मणों के भगवान, सर छोटूराम, महात्मा फुले, बाबा आंबेडकर किसान व् दलितों के भगवान्|
कोई जाति भगवान् की नई केटेगरी विकसित करती है तो बाकी जातियां भी वैसे ही कर लेवें और उस केटेगरी का समकक्ष भगवान अपनी जाति से बन लेवें| जैसे ब्राह्मणों ने अभी खेल क्षेत्र में भी उनके लिए नया-नया भगवान् ईजाद किया यानि सचिन तेंदुलकर तो ऐसे ही जाट, वीरेंद्र सहवाग को क्रिकेट का भगवान् घोषित कर लेवें, या छिम्बी बिरादरी कपिल देव को घोषित कर लेवे|

और जब बात जाति से बाहर की आये तो भाई "तुम हमारे वाले की जय बोलो, हम तुम्हारा वाले की बोलेंगे" की लय पर सोशल इंजीनियरिंग चलाई जाए|

ऐसे में किसी को कोई कोई प्रॉब्लम नहीं आनी, सब राजी-ख़ुशी से रहेंगे| एक दूसरे की टांग-खिंचाई से पिंड छूटेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 13 May 2016

जो खिलाडी देश के लिए ओलिंपिक मैडल की हैट्रिक लगाने की दहलीज पे खड़ा हो, उसके लिए एक ट्रायल तो बनता है!

ओलम्पिक अनुभव:
सुशील कुमार: 66 किलो केटेगरी में 2008 बीजिंग ब्रॉन्ज़ मैडल, 2012 लंदन सिल्वर मेडल|
नर सिंह यादव: 74 किलो केटेगरी में 2012 लंदन में पहले ही राउंड में बाहर|

दोनों का परस्पर अनुभव:
सुशील कुमार ने 66 किलो और 74 किलो दोनों में नर सिंह यादव को हराया हुआ है।

66 किलो कैटेगरी खत्म होने से रियो ओलम्पिक का क्या सीन होगा:
2012 में जो जिस-जिस देश के जो-जो खिलाडी 66 किलोग्राम में लड़े थे, अधिकतर 74 किलोग्राम वर्ग में आये मिलेंगे| यानि सिर्फ गोल्ड-मैडल वाले जापानी पहलवान को छोड़ के सुशील सबको पहले हरा भी चुके हैं और उनसे भिड़ने का अनुभव भी है। जो कि नर सिंह यादव के लिए एक दम नए होंगे। हाँ कुछ ऐसे भी मिलेंगे जो सुशील के लिए भी नए होंगे, परन्तु अधिकतर 66 से 74 में शिफ्ट हो के आये हुए ही होंगे। क्योंकि अधिकतर देश देश के भीतर ट्रायल जरूर करवाते हैं।

सुशील कुमार अगर लगातार तीसरा मैडल जीत जाते हैं तो ओलिंपिक की व्यक्तिगत स्पर्धा में किसी भारतीय द्वारा मेडल्स की हैट्रिक लगाने का भारत के लिए पहला रिकॉर्ड होगा। पहली-दूसरी बार तो मैडल और भी बहुत खिलाड़ी ला रहे होंगे, परन्तु भारत के पास सुशील इकलौता ऐसा खिलाडी है जो हैट्रिक लगाने के लिए खेलेगा।
इसलिए जिस खिलाड़ी के साथ देश का इतना बड़ा सम्मान बढ़ेगा, उस खिलाड़ी को एक फेयर ट्रायल तो बनता ही है| फिर भले ही ट्रायल में नर सिंह यादव सुशील को हरा दे; परन्तु देश के लिए ओलिंपिक में नए रिकॉर्ड बनाने की दहलीज पर खड़े खिलाडी के लिए देश को इतना करना तो बनता है।

फूल कुमार मलिक ‪#‎justice4sushil‬

Saturday, 7 May 2016

चौ छोटूराम को सर की उपाधि कैसे और क्यों मिली एक बार जरुर पढ़ें।




Sir Chhotu Ram a stooge of the British or A Defence strategist of international repute?

By: Colonel Mehar Singh Dahiya

During the course of my journey of the last few years as a social activist I have tried to understand various aspects of the Haryana society, be it the overall social panorama, social /cultural traditions of the people or the value system, self esteem /pride or understanding /practicing of the economic matters predominantly keeping the JATS in my focus .The reason for this is that they being large in number and many other reasons are practically the anchor of the society. The study of the society per se is difficult without deliberating on its leadership ie what the quality of leadership has been and to make a reasonable guess as to what it is likely to be in future. In this direction I took up the study of all the political activities of early 20 th century, when India or shall I say British India of those times was a cauldron or a boiling pot of multifarious activities .As if to add to the confusion came the GREAT WARS in Europe primarily but simultaneously effecting Middle East, North Africa or South East Asia. Since my aim in this write is not to deliberate on other leaders and the contribution they made except as a passing reference since I wish to focus on SIR CHHOTU RAM PER SE.

2.It was around 1920 that Chhotu Ram had a brief association with the POLITICAL MOVE MENT CALLED CONGERESS(it became a political party as we see it today much later ).In fact it will not be grossly wrong to say that the UNINIONST PARTY OR THE ZAMIDARA LEAGUE(Ch Chhotu Ram along with Fazal- e- Hussain was the CO-FOUNDER) was the first party t o establish themselves in India with their proper organizational set up /manifesto etc and took power ,functioned in all matters other than defense and foreign affairs, of course under the overall control of the governor general/viceroy. In those days there were two parts of India one under direct governance of the Raj and other divided in to 562 states with RESIDENT present in each to see that they remained in their senses/limits so to say. Late 19th and early 20 th century the whole world has been effected by whole lot of turbulent activities of various hue be they of social ,political or military reasons and INDIA was no exception. In this there was an opportunity which many could not see except Sir CHHOTU RAM, a visionary /astute leader who could foresee and encashed it purely for the deprived segment of the society whose cause was always dear to him. Gandhi arrived in India in Jan 1915 and by then lot of water had flown down the Yamuna/ganges. To remain confined to the Province of Punjab Ch Chhotu Ram was already on his LEGEDRY/ INCOMARABLE JOURNEY in the affairs of the province of Punjab specifically and at the level of affairs of India broadly.

3.Th strategy /methodology of different leaders of those days was also diverse, like some believed in purely constitutional methods, some believed in a a mix of constitutional /agitational where as on the other front some believed in purely confrontational .Obviously the ultimate aim of them all across the board has been an INDEPENDENT INDIA. In this there were few who were idealist with lofty ideas some were pragmatist some were too moralistic so to say but each one of them viewed the world through their own prisms. One issue that I wish to remain confirmed after giving this cursory view is DEFENCE POLICY OR THE SHAPE IT IS GOING TO TAKE POST INDEPENDENCE.I wish to say with a great amount of certainty that except Ch Chhotu Ram non other had even an idea, what to talk of a coherent view of the whole thing .

4.MA Jinnah once said “IT IS NOT A WISE THING TO AGITATE A HUNGRY AND EXPLOITED PEOPLE” because unless properly guided or channelized the whole energy may become self destructive and create an implosion. My understanding /interpretation is that this aspect would have remained etched deeply in ch chhotu ram’s psyche, because this aspect figures prominently in all his actions. To begin with He had a deep understanding of the matters at the grass root level, having literally risen from the dust and at the same time deeply identified with his people .NO OTHER LEADER OF THOSE TIME HAD SUCH AN ALL INCLUSIVE APPROACH, EVEN TRANSENDING ACCROSS TH RELIOGIOUS LINES, A TRULY SECULAR IN HIS THOUGHTS AND ACTIONS .I can say there is no other example IN THE WORLD HISTORY TO COMPARE WITH THIS.

When the FIRST WORLD WAR came Ch Chhotu Ram saw in it an opportunity for his hungry and exploited masses and by a well orchestrated campaign, the province of Punjab under his stewardship contributed immensely man, material and even money more to benefit his own people than for an alien cause.It is also worth while to say that the entire leadership was in total agreement to play a positive role in this war effort. To give an idea BRITISH ARMY whose strength was a motley 2 lacks expended to to over 10 lacks during and after the war of whom ,about 60 % came from Punjab alone .NO WONDER PUNJAB WAS CHRISTENED THE SWORD ARM OF BRITISH INDIA. Here lies the biggest question as to what did we achieve?.In my understanding we achieved TWO THINGS FIRSTLY, ALTERNATIVE SOURCE OF EMPLOYMENT FOR OUR YOUTH AND HENCE PROPER CHANNELIZING THEIR ENERGY AND SECOND IS INTERNATIONAL EXPOSURE WHICH POST DEMOBILISATION POST WW-1 CONTRIBUTED TO THE INDEPENDENCE STRUGGLE. ONE MORE IN FACT THE MOST IMPORTANT ASPECT WAS THAT POST INDEPENDENCE THE COUNTRY HAD A WELL TRAINED EXPERIENCED ARMY .NO OTHER NATIONAL LEADER INCLUDING THE MOST PROMINENT ONES, HAD AN IDEA ON THIS ISSUE.THEY INSISTED MORE ON MORALISTIC BONHAMMIE RATHER THAN HARD GROUND REALITIES/MILITARY THOUGHT.NO WONDER WE HAD TO FACE A NATIONAL DISGRACE IN 1962 FROM WHICH WE HAVE NOT FULLY RECOVERED TILL DATE.

It is to the above that I wish to draw the attention of the reader before he becomes judgmental and pass a wholly unsubstantiated view and paint a LEGENDARY PERSONA with the wrong brush. That time India had 11 provinces and based on the demonstrated performance, non measures up to PUNJAB’S performance .And the effect does not end there, after all who can deny that it is those elders of ours who went abroad in ww1&2 who on return brought ideas even for economic, social, educational even on living conditions etc which took roots in our society bearing fruits today when a large number from our among st are reaching to the highest level whether in military civil or other ventures . Like how many of us are aware that when it came to indianise the officer class in the army (INDIAN MILITARY ACA DEMY AT DEHRADUN WAS ESTABLISHED &SIR CHHOTU RAM JI WAS FOUNDER MEMBER OF THIS COMMITTEE UNDER SIR CHETWOOD) The journey commenced from SIR Chhotu Ram’s dreams to see his folks at the helm of affairs .With this I leave it to the reader to give an appropriate title and reply the question that I have raised as the title of this write up. BEFORE I END UP, WISH TO BRING TO NOTICE OF THE READER, THREE MAIN REASONS FOR THE BRITISH GRANTING FREEDOM TO INDIA.APART FROM THE DISQUIET IN THE DEFENSE FORCES AND POLITICAL ACTIVITIES THERE WAS AN ECONOMICAL ANGLE TOO (THE UPSETTING/DISTURBING BALANCE OF PAYMENT VIS A VIS POUND STERLING AND THE INDIAN RUPEE AND THE MAIN REASON WAS LIABILITY OF PAY, PERKS AND PENSION OF THE MOBILIZED INDIAN MANPOWER. SIR CHHOTU RAM JI WAS THE MAIN ARCHITECT AND PRINCIPAL PLAYER OF THIS ENTIRE STRATEGY TO HAVE WELL EXPERIENCED STANDING DEFENSE FORCES FOR INDEPENDENT INDIA. ALSO PERTINENT TO MENTION THAT HE WAS AN ICON EVEN FOR THOSE WHO WERE MILITARY MEN AND WERE PREPARED TO GO TO ANY EXTENT ON HIS CALLING (THE BRITISH KNEW IT TOO WELL AND WERE ALWAYS CONSCIOUS OF THIS WHILE DEALING WITH THIS LEGENDARY PERSONALITY/SON OF THE SOIL .IT CERTAINLY IS NO MEAN ACHIEVEMENT NO OTHER POLITICAL LEADER OF HIS TIMES, EVEN REMOTELY MEASURED UP TO HIM.

It is worthy of note that out of three main reasons for British granting independence, Sir Chhotu Ram was of major consequences in two of them. I politely suggest to our people specially those who pass a comment in a great hurry and on flimsy insight, to read and decide rather than pass on here say.

Bibliography;- PUNJAB AND THE WAR-MS LEIGH ,ICS. 2 THE GARRISON STATE-MR YONG 3. SHAMFUL FLIGHT-WOLPERT etc

Friday, 6 May 2016

धार्मिक कट्टरता आदमी का मानसिक ही नहीं आर्थिक दोहन भी करती है, जबकि धार्मिक समरसता आदमी को हर प्रकार से समृद्ध बनाती है!

कल यूपी के चुनावी हालातों और हो सकने वाले गठबंधनों पर उधर के एक भाई से बातें हो रही थी। शुरू में ही मुज़्ज़फरनगर छेड़ बैठा। कहने लगा कि मुस्लिमों ने हमारी लड़कियाँ छेड़ के बहुत बुरा किया था। मैंने पूछा क्या अब बंद हो गया लड़कियों का छेड़ा जाना या मुज़्ज़फरनगर होने से पहले कभी नहीं छेड़ी जाती थी (सनद रहे मैं ऐसे अपराधियों को कठोरतम सामाजिक व् न्यायिक दण्ड का पक्षधर हूँ, परन्तु यहां मेरा फोकस इस बिंदु पर है कि झगड़े को दंगे का रूप कैसे दिया जाता है)? बोला बंद तो नहीं हुआ। मैंने कहा जब तक दुनियादारी और समाज है तब तक बंद होगा भी नहीं। बोला नहीं भाई जी आप समझे नहीं। मैंने कहा दंगों के प्लेटफार्म कैसे घड़े जाते हैं पहले इसको समझ। बोलता है जी समझाओ।

मखा यूँ बता, जिस वक्त मुज़्ज़फरनगर में यह कांड हुआ क्या उस वक्त देश या यूपी की किसी और जगह पे कोई लड़की नहीं छेड़ी जा रही थी? ठीक उसी वक्त पे कहीं मुस्लिम, हिन्दू लड़की को छेड़ रहा होगा, तो कहीं हिन्दू किसी मुस्लिम लड़की को छेड़ रहा होगा, कहीं कोई ब्राह्मण पुजारी किसी दलित की बेटी को देवदासी बना के नचा रहा होगा, कहीं कोई ठाकुर किसी दलित का उत्पीड़न कर रहा होगा। तो फिर ऐसे में बवाल सिर्फ मुज़्ज़फरनगर में ही क्यों मचा?

बोला भाई जी क्यों? मैंने कहा क्योंकि यह प्लोटेड था। बोलता है प्लोटेड कैसे? मैंने कहा हर पोलिटिकल पार्टी और आरएसएस जैसी कट्टर संस्थाओं की एक ऑब्जरवेशन टीम होती है। जो इन हर दूसरी-गली नुक्कड़ पे हो रही छेड़खानियों जैसी तमाम हरकतों पर नजर रखती हैं। इन टीमों के साथ पोलिटिकल, एडमिनिस्ट्रेशन व् मीडिया में बैठे इनके लोगों का पूरा बैक-अप एक कॉल पे इनके दिशा-निर्देश लेने हेतु रेडी रहता है। और जहाँ दंगा प्लाट करना होता है, उस जगह पर इस टीम को लगा दिया जाता है। सो जैसे ही कोई मामला इनकी नजर में आता है (जैसे यह मुज़्ज़फरनगर वाला), यह लोग तुरंत इस अमले को कॉल कर देते हैं। अमले के राजनैतिक लोग झगड़ा वाले एरिया के आसपास के अपने गुर्गों को सक्रिय कर देते हैं। एडमिनिस्ट्रेशन को वहाँ से गायब होने के निर्देश हो जाते हैं। और मीडिया वाले कैमरा उठाये दौड़े चले आते हैं। फिर आगे जो होता है कैसे झगड़े को दंगे का रूप दिया जाता है, वो तुम मुज़्ज़फरनगर और अब तो हरयाणा में भी जाट आंदोलन के दौरान प्रैक्टिकली देख ही चुके हो।

भाई जी मुज़्ज़फरनगर किसका करवाया हुआ था? सपा, बीजेपी, आरएसएस या कोई और? मखा तीनों का। बीबीसी की रिपोर्ट है कि जॉली नहर पे खाप महापंचायत से लौटते जाटों पर जो हमला करवाया गया था वो मध्य-प्रदेश की तरफ के आरएसएस के गुर्गे थे। उनको समझा दिया गया था कि महापंचायत में कुछ ना हो तो, तुम लोगों ने इनपे अटैक करना है और नाम मुस्लिमों का धर देंगे। और वही हुआ।

और मखा एक उदाहरण और देख ले, पिछले साल 15 अगस्त को फौजी वेद मित्र चौधरी (शामली) को मेरठ मे कुछ हिंदू लडको ने पीट पीट कर मार दिया; उसका गुनाह सिर्फ इतना था कि उसने हिन्दू गुंडों से एक हिन्दू बहन की आबरू बचाने के लिए आवाज उठाई। तब राष्ट्रवादियों से ले, बेटी-बचाओ, बेटी-पढ़ाओ से ले साधवी-साधू, भाजपा-आरएसएस, हिन्दू सब गायब थे। मतलब साफ है यह चाहते हैं कि अगर किसी बहन की आबरू से खेला जाए तो पहले उसका धर्म देखा जाएगा। अगर छेड़छाड़ करने वाला मुल्ला होगा तो दंगे होंगे, इंसानियत तार तार होगी; पर अगर कोई हिंदू छेड दे तो कुछ नहीं। यह मापदंड हैं इनकी राष्ट्रवादिता, धर्म, भाईचारा जो कहो के।

भाई, यह उदाहरण तो तोड़ बिठा दिया आपने। तो भाई जी अब किसको वोट देवें? मखा मुझे जहाँ तक लगता है बीएसपी को दो। तो बोला भाई जी उनके राज में भी तो भट्टा-परसोल हुआ था? मखा हुआ था, परन्तु अंतर देखो। भट्टा परसौल सिर्फ भूमि-अधिग्रहण का मसला था। जो कि कॉर्पोरेट की मिलीभगत से हुआ था। वह मुज़फ्फरनगर की तरह साम्प्रदायिक दंगा नहीं था।

फिर मैंने पूछा मखा एक बात बता, तुम्हें बीएसपी के राज में फसलों के पैसे वक्त पे मिल जाते थे क्या? तो भाई बोला कि भाई जी यह बात बीएसपी के राज की एक दम पक्की थी; फसल मंडी पहुंची और साथ-साथ पैसा घर आ लेता था। तो मैंने कहा और मखा अब? तो बोला भाई जी अब तो सपा की सरकार है। तो मैंने कहा जहाँ बीजेपी की है, वहाँ कौनसे झंडे गढ़ रहे? साथ लगता हरयाणा देख ले, राजस्थान, एमपी, गुजरात हर जगह का किसान तो रो रहा अपने फसलों के पैसे को ले के| भाई जी आपने यह खूब कही, बिलकुल रुला रखा दोनों ने।

तो मखा अबकी बार वोट दो बीएसपी को। पर भाई जी चौधरी अजीत सिंह का अभी कुछ स्पष्ट नहीं। मखा, रालोद के कैडर को चाहिए कि रालोद और बीएसपी के गठबंधन बारे जोर डालें चौधरी साहब पर। वर्ना तो इतना समझ लियो बीएसपी को हराने खातिर सपा और बीजेपी एक भी हो सके हैं। मखा देख भाई, इन धर्म वालों के चक्कर में पड़ोगे तो कंगाल हो जाओगे। इनका बतलाया धर्म किसान के लिए अफीम समान होता है, जो तन-मन को नशे में डाल के, आपके घर की आर्थिक दशा पर ऐसी झाड़ू फेर देते हैं कि आप अनऑफिशल बंधुआ बनके रह जाते हो। बोला भाई जी यह बात तो है, पर धर्म तो मानना ही पड़े। तो मखा किसान का सबसे बड़ा धर्म है देश समाज की निष्पक्ष (बिना जाति-धर्म देखे) अन्न के साथ सेवा करना; ना कि ऐसे मोडे बाबाओं को चढ़ा देना कि जो अकाल-सूखा-बाढ़-साम्प्रदायिक क्लेशों-हारी-बीमारी में तुम्हारी तरफ मुड़ के भी ना देखते हों। मखा मॉडर्न भाषा में समझ आता हो तो इस तरह समझ ले, यह वो बीमा एजेंट हैं जो सिर्फ प्रीमियम लेना जानते हैं, बदले में देने के नाम पे दवन्नी की मदद ना करें, वापिस देना तो दूर की बात।

मखा एक बात बता, मुज़्ज़फरनगर के कितने बालक इन्होनें जेलों से छुड़ा दिए? और कितनों के घर आर्थिक सहायता पहुंचा दी? आरएसएस अपने आपको सामाजिक संस्था बोलती है? बता कितने मुज़्ज़फरनगर दंगों के हिन्दू घरों में कितनी-कितनी आर्थिक सहायता पहुंचाई आजतक, अढ़ाई साल होने को आये उन दंगों को?
और जबकि हरयाणा में देख दो महीनें ना हुए और खापों ने सरकार का इंतज़ार किये बिना और वो भी जाति देखे बिना, हरयाणा दंगों के हर मृत के घर कोई खाप 1.5 लाख पहुंचा रही है तो कोई पांच-पांच लाख। और देखना जितना हरयाणा सरकार ने मुआवजा दिया, इसका दोगुना तो खापें कर देंगी और वो भी हर जाति के मृत के लिए। और आरएसएस तो इतनी भी सामाजिक नहीं कि वो सरकार से बिना जाति और दोष के सवाल उठाये, मृतकों बारे किये वायदों को पूरा करवा सके?

इसलिए मेरे भाई, यह कट्टरता हम किसान जातियों के किसी काम की नहीं। हमें धार्मिक या राजनैतिक नहीं अपितु अपने आर्थिक हित देख के वोट डालने चाहिएं। और इस वक्त कोई किसान के आर्थिक हितों को यूपी में सबसे अच्छे से पूरा कर सकता है तो बीएसपी-रलोद-कांग्रेस का गठबंधन, मैं दावा नहीं करता कि यह किसान के लिए आदर्श साबित होंगे, परन्तु यूपी में आज के दिन आदर्श होने के सबसे नजदीक हो के जो सरकार दे सकता है किसान के हित की, यही लोग दे सकते हैं। बाकी सब तो खुला छलावा है किसान कौम के लिए।

धर्म-जाति से रहित राजनीति करी थी सर छोटूराम ने, चौधरी चरण सिंह ने, ताऊ देवीलाल ने व् अन्य किसान हितैषी नेताओं ने। जब इनके दौर थे तो किसानों के यहां हवेलियों की हवेलियां खड़ी हो गई थी। हर दूसरे किसान की हवेलियों पे मोरनियाँ चढ़ाई जाने लगी थी। और आज देख ले। क्या तो हाल यूपी के किसान का हो रखा और क्या हो रखा उधर हरयाणा के किसान का। यह जाति और धर्म का जहर तो इतना घातक होता है कि हमारे हरयाणा में एक राजकुमार सैनी (जो कि खुद भी किसान जाति से आता है) को किसानों को सेंटर-स्टेट दोनों जगह खुद की ही सरकार होते हुए फसलों के भाव दिलवाना तो ख्यालों में ही नहीं है, बल्कि ठाठी का बन्दा ऐसे जुटा पड़ा है कि जैसे सरकार में ना हो के विपक्ष में हो। मुझे समझ यह नहीं आ रहा कि जब पांच साल बाद वोट मांगने उतरेगा तो किसानों के लिए क्या किया के नाम पे क्या बताएगा यह जनता को|

इसलिए भाई धर्म की कट्टरता छोड़ दो, और अगर नहीं चाहते कि आपके घरों में चूहे निकल आने की बजाये, उन घरों की अटालिकाओं पर सर छोटूराम, चौधरी चरण सिंह, ताऊ देवीलाल व् अन्य किसान हितैषी नेताओं के दौर की भांति फिर से मोरनियां चढ़ने लगें तो उस पार्टी को वोट दो, जो आपको फसलों के उचित भाव उचित समय पर दें। ना कि उनको जो मन-शरीर की सोधी (होश) के साथ-साथ आपके घरों की करेंसी पे झाड़ू मार ले जाएँ और मुड़ के देखें भी नहीं; कटी ऊँगली पर मूतें तक नहीं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 5 May 2016

आखिर ऐसा क्यों कि "जाट-स्तुति" करते-करते जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजा दिए?


शायद ही ब्राह्मणों ने कोई अन्य ग्रन्थ-पुराण-शास्त्र में किसी जाति को 'जी' कह के सम्बोधित किया हो, जैसे कि सत्यार्थ प्रकाश में 'जाटों' को 'जी-जी' कह के उनकी स्तुति कर रखी है| यहां तक रामायण-महाभारत में क्षत्रियों की जाति का ही कहीं जिक्र नहीं, उसके आगे पीछे 'जी' लगाने की तो फिर बात ही नहीं| सवाल है कि पांच हजार से ज्यादा जातियों में जाटों को ही इनको 'जी' 'जी' का लेप क्यों लेपना पड़ा?

कारण साफ़ था 1875 में पुणे में ब्राह्मणों की सभा हुई थी कि जाट अंधाधुंध सिख धर्म में जा रहा है| जींद-कैथल-करनाल तक सिखिज्म का प्रभाव आ चुका है और ऐसे ही चला तो सारे देश का जाट सिख हो जायेगा| तब निर्धारित किया गया था कि इनको डरा-धमका-लोभ-लालच दिखा के नहीं रोका जा सकता; इसलिए इनकी स्तुति में कोई ग्रन्थ लिखो, उस ग्रन्थ में इनके समाज की बढ़िया-बढ़िया रीति-रिवाजों की प्रशंसा करो, इनको 'जी' 'जी' कह के इनका वंदन करो, तब शायद जाट रुक जाएँ| और आदर-मान को सम्मान देने वाले जाट पर इनका यह पैंतरा चला और जींद-कैथल-करनाल से आगे का जाट सिखिज्म में जाने से रुक गया| पंरतु इसको यह जाट बनाम नॉन-जाट और 35 बनाम एक के अखाड़े तक ले आएंगे, इसकी तो शायद जाटों के पुरखों ने भी कल्पना नहीं की थी|

सलंगित हैं सत्यार्थ प्रकाश के वो पन्ने, जिनमें मूलशंकर तिवारी उर्फ़ दयानन्द सरस्वती ने 'जी' 'जी' के साथ खूब जाट स्तुति की हुई है| अब या तो ब्राह्मण समाज को अपने ही ब्राह्मण का सम्मान नहीं अन्यथा फिर क्या वजह है कि इन लोगों ने जाटलैंड पे जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सजवाए हुए हैं? ब्राह्मणों का सबसे बड़ा संगठन आरएसएस आखिर क्यों चुप है इसपे?

क्या मैं इसके यह मायने निकाल लूँ कि इनकी दुश्मनी से भी घातक होती है इनकी दोस्ती| इनसे जितना दूर रहा जाए उतना अच्छा| जितना न्यूट्रल रहा जाए, उतना बेहतर| सिर्फ व्यवहारिक बोलचाल रखो, जितना अन्य-जाति समुदायों को सम्मान देते हो, उतना दो और सुखी रहो| इनके साथ कारोबार करना है करो, परन्तु इनको अपनी आध्यात्मिक व् बौद्धिक स्वछंदता मत दो, वर्ना इनकी अंतिम मंजिल वही होती हो आजकल इन्होनें जाटलैंड की बना छोड़ी है, यानि जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


 

Wednesday, 4 May 2016

जाटों को अपनी किताब में "अछूत व् चांडाल" लिखने वाली "उमा चक्रवर्ती" (विकिपीडिया तक पर यह बात पहुंची हुई है), आपसे अनुरोध है कि!

जाटों को अपनी किताब में "अछूत व् चांडाल" लिखने वाली "उमा चक्रवर्ती" (विकिपीडिया तक पर यह बात पहुंची हुई है), आपसे अनुरोध है कि:

1) आप और आपकी बिरादरी जाटों का दिया दान ना छुवें|
2) जाटों से दो गज की दूरी बना के चलें|
3) जाटों की परछाई भी खुद पे ना पड़ने दें|
4) जाटों का उगाया अन्न ना छुवें|

और जो यह ना करें तो आप और आपकी बिरादरी दुनिया के सबसे आत्मसम्मान विहीन, आत्मविचार के सम्मान से रिक्त नीचतम प्राणी कहलावें|

कसम से उमा जी, बस इतना करवा दें तो सदैव आपका आभारी होऊंगा| वो क्या है कि मेरे जैसे के कहे से तो अंधभक्त जाटों को पल्ले पड़ती नहीं कि हिन्दू-हिंदुत्व और इनका छद्म राष्ट्रवाद सिर्फ एक छलावा है, परन्तु शायद आपके कहे से अक्ल लग जाए| अक्ल लग जाये कि तुम बावली-बूचों की भांति इन वर्ण व् जाति के स्वघोषित सर्टिफिकेट बांटने वालों की झोली दान-अन्न से भरते रहो और यह तुमको ऐसे ही निरतंर चांडाल और अछूत के सर्टिफिकेट वितरित करते रहेंगे|

साथ ही अंधभक्त जाटों से अनुरोध करना चाहूंगा कि भाई राजकुमार सैनी को इन्होनें आपकी कौम पे भोंकने को छोड़ा, आप उसपे मौन हैं| जाट आरक्षण के नाम पर इन्होनें 18 जाट बालक गोलियों से भुनवा दिए और सैंकड़ों घायल करके हस्पतालों में पहुंचा दिए इसपे आप मौन हैं| खैर कोई नहीं पर, आपकी इतनी तो चलती होगी बीजेपी-आरएसएस में कि इतना रुकवा सको कि यह लोग अपनी कुंठावश जाटों को "अछूत व् चांडाल" कहना अब कम से कम 21वीं सदी में आ के तो छोड़ दें? अब जब हिन्दू यूनिटी और बराबरी की बातें हो रही हैं, तब तो छोड़ दें? या ऐसी भी क्या अंधभक्ति की पट्टी लपेटना आँखों पर कि यह विकिपीडिया तक पर आपको "चांडाल और अछूत" कहे जा रहे हैं और आप फिर भी इन्हीं में घुसे जा रहे हो?

खैर यह तो बात हुई उमा जी से और अंधभक्त जाट भाईयों से अपील करने की|

अब सुनो मैडम उमा चक्रवर्ती, आपने जाटों बारे क्या लिखा अपनी किताब में और क्या नहीं मुझे उसकी डिटेल में जाने की जरूरत नहीं क्योंकि इतना तो पता लग ही गया कि आपने जाटों को चांडाल और अछूत लिखा है; तो इससे ज्यादा बुरा तो जाटों का आपने और लिखा भी क्या होगा, जो भी लिखा होगा इससे छोटा ही लिखा होगा| परन्तु इससे दलित-पिछड़े भाईयों को खासकर उनको जो जाट से जाति-वर्ण पे भेद कर रहे हैं, इतना तो सन्देश जायेगा कि आपका यह भेद व्यर्थ है, मनुवादियों ने आपके कान भरे हैं इसलिए आप ऐसा कर रहे हैं|

उमा चक्रवर्ती, आपको पता है कोई इंसान किसी को "अछूत वा चांडाल" क्यों कहता है? वो मेरी दादी जी बताया करती थी कि जब कोई इंसान आपके काबू से बाहर का हो और वो आपकी एक ना सुनता हो और उससे भी बड़ी बात इस सबके बावजूद जब आप उसका बाल (मुझे माफ़ करना परन्तु आपने जो शब्द प्रयोग कर रखे हैं उसके आगे यह शब्द कुछ भी नहीं) तक नहीं उखाड़ सकते हो, तब ऐसी कुंठा में कहा जाने वाला शब्द है "चांडाल"। मुझे समझ नहीं आता कि वो सर छोटूराम वाली बोलना सीखने की जरूरत जाटों को ज्यादा है या इन उमा चक्रवर्ती जैसों को? शायद हम इनका जवाब नहीं देते, इसलिए यह अपने बोलने को सभ्य मान बैठते हैं, वर्ना वास्तव में सबसे बदजुबान तो यह मंडी-फंडी ही होते हैं और उसी जमात से आती हैं यह मैडम उमा चक्रवर्ती|

अब अछूत शब्द की सुनिए मैडम, "अछूत" शब्द है किसी को साइकोलॉजिकल प्रेशर (psychological pressure) देने के तहत "सोशल पृथक्करण" (social deprivation) के भय में डाल के उससे अपनी मनमानी करवाना| जो कि जाटों पे आपके जातिभाई यानि मनुवादियों का कभी चला नहीं| हाँ दलितों-शूद्रों पर चला, परन्तु जाटों पर नहीं| जाटों ने तो तुम्हें ताक पे रख के बुद्ध धर्म खड़ा कर दिया, सिख धर्म खड़ा कर दिया, बिश्नोई पंथ खड़ा कर दिया; सो भला ऐसे निडर और स्वछन्द लोग अछूत हो सकते हैं क्या? हाँ, उनके लिए जरूर हो सकते हैं जिनके ढोंग-पाखण्ड का भांडा फोड़, उनको समाज को दूषित करने से दूर रखा| जाटों ने जब बुद्ध धर्म खड़ा किया, उसी की कुंठा में तो आपकी बिरादरी वालों ने जाटों को चांडाल कहना शुरू किया था, कि ना तो यह हमारे काबू के और ना हम इनका कुछ उखाड़ सकते; सो कह दो इनको "चांडाल"।

आठवीं सदी में जब ब्राह्मण राजा दाहिर ने जाटों पे यह शब्द थोंपने की कोशिश करी (इससे पहले यह शब्द दलित-शूद्रों के लिए होते आये) तभी के तभी उसको जाटों की हाय और श्राप दोनों लगे और मुहम्मद बिन कासिम आ के उसकी सौड़ सी भर गया| जानती हो ना सौड़ सी भरने का मतलब क्या होता है? पक्के से जानती होंगी, जब जाटों के स्टेटस बारे जानती हैं तो उनकी बोली बारे नहीं जानती होंगी| जाट का अपमान करके एक छोटी सी भी लड़ाई जीतने का इतिहास में माद्दा नहीं रहा कभी और चल पड़ते हैं जाटों को सोशल स्टेटस के सर्टिफिकेट बांटने|

अब मैं इतना सुनिश्चित करके जरूर चल रहा हूँ कि "आगला शर्मान्दा भीतर बड़ गया और बेशर्म जाने मेरे से डर गया|" वाली के तहत चुप नहीं बैठेंगे| हर बात का ताबड़-तोड़ जवाब आएगा, आप जैसे लोगों की ऐसी नीच हरकतों पे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wikipedia Source where Jats are now mentioned as "Chandal" and "Achhoot", see its "Varna status" section: https://en.wikipedia.org/wiki/Jat_people
Chakravarti, Uma (2003) - Gendering caste through a feminist lens (1. repr. ed.)

जाटों को अछूत कहा जो आप जैसों द्वारा अच्युत न गिरने वाले/स्थिर का बिगाड़ा शबिद तथा चंडाल( चंड/फुर्तीले /उग्र तथा अल/योग्य का समास ) जाटों के विशेषणों को विकृत कर लिखा गया है lजिनसे सभी भयभीत रहते थ तथा इन्हें और तक्मा/रुद्र /ज्वर कहते थे l

Monday, 2 May 2016

अंग्रेजों द्वारा बनाये गए कुछ ऐसे कानून, जिनकी वजह से मनुवादियों पर लगामें लगी!

आखिर अंग्रेजों के कानूनों में ऐसा क्या था कि 8वीं सदी से ले और 17वीं सदी तक के लगभग 900 साल के मुग़ल शासनकाल में मनुवादियों द्वारा एक बार भी "मुग़लो भारत छोड़ो!" किस्म के आंदलोन देखने को नहीं मिलते? जबकि अंग्रेजों के मात्र 200 साल के शासन में ही मनुवादी इतने उद्वेलित हो उठे कि किसी ने "स्वराज मेरा अधिकार" का नारा दिया तो कोई "अंग्रेजों भारत छोडो" का नारा देता था?

आईये डालें अंग्रेजों द्वारा बनाये गए ऐसे ही कुछ कानूनों की फेहरिस्त पर एक नजर, जो मनुवाद की राह में रोड़ा बने और यह अंग्रेजों से बिदके भी और उनसे ऐसे चिड़े कि आज भी आपको-हमको अंग्रेजों को सबसे बड़ा दुश्मन दिखाते हैं| हालाँकि वो बात अलग है कि फिर भी मनुस्मृति ईरानी की बेटी अंग्रेजों की यूनिवर्सिटी में ही शिक्षा लेने जाती है|

1) 1773 में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने रेगुलेटिग एक्ट पास किया जिसमें न्याय व्यवस्था समानता पर आधारित थी। 6 मई 1775 को इसी कानून द्वारा बंगाल के सामन्त ब्राह्मण नन्द कुमार देव को फांसी हुई थी।
2) अंग्रेजो ने 1795 में अधिनयम 11 द्वारा शुद्रों को भी सम्पत्ति रखने का कानून बनाया।
3) 1804 अधिनीयम 3 द्वारा कन्या हत्या पर रोक अंग्रेजों ने लगाई (लडकियों के पैदा होते ही तालु में अफीम चिपकाकर, माँ के स्तन पर धतूरे का लेप लगाकर, एवम् गढ्ढा बनाकर उसमें दूध डालकर डुबो कर मारा जाता था )|
4) 1813 में ब्रिटिश सरकार ने कानून बनाकर शिक्षा ग्रहण करने का सभी जातियों और धर्मों के लोगों को अधिकार दिया।
5) 1813 में ने दास प्रथा का अंत कानून बनाकर किया।
6) 1817 में समान नागरिक संहिता कानून बनाया (1817 के पहले सजा का प्रावधान वर्ण के आधार
पर था। ब्राह्मण को कोई सजा नही होती थी ओर शुद्र को कठोर दंड दिया जाता था। अंग्रेजो ने सजा का प्रावधान समान कर दिया।)
7) 1819 में अधिनियम 7 द्वारा ब्राह्मणों द्वारा शुद्र स्त्रियों के शुद्धिकरण पर रोक लगाई। (शुद्रों की शादी होने पर दुल्हन को अपने यानि दूल्हे के घर न जाकर कम से कम तीन रात ब्राह्मण के घर शारीरिक सेवा देनी पड़ती थी।)
8) दिसम्बर 1829 के नियम 17 द्वारा विधवाओं को जलाना अवैध घोषित कर सती प्रथा का अंत किया।
9) 1830 नरबलि प्रथा पर रोक (देवी -देवता को प्रसन्न करने के लिए ब्राह्मण शुद्रों, स्त्री व् पुरुष दोनों को मन्दिर में सिर पटक पटक कर चढ़ा देता था।)
10) 1833 अधिनियम 87 द्वारा सरकारी सेवा में भेद भाव पर रोक अर्थात योग्यता ही सेवा का आधार स्वीकार किया गया तथा कम्पनी के अधीन किसी भारतीय नागरिक को जन्म स्थान, धर्म, जाति या रंग के आधार पर पद से वंचित नही रखा जा सकता है।
11) 1834 में पहला भारतीय विधि आयोग का गठन हुआ। कानून बनाने की व्यवस्था जाति, वर्ण, धर्म और क्षेत्र की भावना से ऊपर उठकर करना आयोग का प्रमुख उद्देश्य था।
12) 1835 प्रथम पुत्र को गंगा दान पर रोक (ब्राह्मणों ने नियम बनाया की शुद्रों के घर यदि पहला बच्चा लड़का पैदा हो तो उसे गंगा में फेंक देना चाहिये। पहला पुत्र ह्रष्ट-पृष्ट एवं स्वस्थ पैदा होता है। यह
बच्चा ब्राह्मणों से लड़ न पाए इसलिए पैदा होते ही गंगा को दान करवा देते थे।
13) 7 मार्च 1835 को लार्ड मैकाले ने शिक्षा नीति राज्य का विषय बनाया और उच्च शिक्षा को अंग्रेजी भाषा का माध्यम बनाया गया।
14) 1835 को कानून बनाकर अंग्रेजों ने शुद्रों को कुर्सी पर बैठने का अधिकार दिया।
15) देवदासी प्रथा पर रोक लगाई। ब्राह्मणों के कहने से शुद्र अपनी लडकियों को मन्दिर की सेवा के लिए दान देते थे। मन्दिर के पुजारी उनका शारीरिक शोषण करते थे। बच्चा पैदा होने पर उसे फेंक देते थे। और उस बच्चे को हरिजन नाम देते थे। 1931 को जातिवार जनगणना के आंकड़े के अनुसार अकेले मद्रास में कुल जनसंख्या 4 करोड़ 23 लाख थी जिसमें 2 लाख देवदासियां मन्दिरों में पड़ी थी।
यह प्रथा अभी भी दक्षिण भारत के मन्दिरो में चल रही है।
16) 1837 अधिनियम द्वारा ठगी प्रथा का अंत किया।
17) 1849 में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय जे ई डी बेटन ने स्थापित किया।
18) 1854 में अंग्रेजों ने 3 विश्वविद्यालय कलकत्ता मद्रास और बॉम्बे में स्थापित किये। 1902 मे विश्वविद्यालय आयोग नियुक्त किया गया।
19) 6 अक्टूबर 1860 को अंग्रेजों ने इंडियन पीनल कोड बनाया। लार्ड मैकाले ने सदियों से जकड़े शुद्रों की
जंजीरों को काट दिया ओर भारत में जाति, वर्ण और धर्म के बिना एक समान क्रिमिनल लॉ लागु कर दिया।
20) 1863 अंग्रेजों ने कानून बनाकर चरक पूजा पर रोक लगा दिया (आलिशान भवन एवं पुल
निर्माण पर शुद्रों को पकड़कर जिन्दा चुनवा दिया जाता था| इस पूजा में मान्यता थी की भवन
और पुल ज्यादा दिनों तक टिकाऊ रहेगें।
21) 1867 में बहू विवाह प्रथा पर पुरे देश में प्रतिबन्ध लगाने के उद्देश्य से बंगाल सरकार ने एक कमेटी गठित किया।
22) 1871 में अंग्रेजों ने भारत में जातिवार गणना प्रारम्भ की। यह जनगणना 1941 तक
हुई। 1948 में पण्डित नेहरू ने कानून बनाकर जातिवार गणना पर रोक लगा दी।
23) 1872 में सिविल मैरिज एक्ट द्वारा 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं एवम् 18 वर्ष से कम आयु के लड़को का विवाह वर्जित करके बाल विवाह पर रोक लगाई।
24) अंग्रेजों ने महार और चमार रेजिमेंट बनाकर इन जातियों को सेना में भर्ती किया लेकिन 1892
में ब्राह्मणों के दबाव के कारण सेना में अछूतों की भर्ती बन्द हो गयी।
25) रैयत वाणी पद्धति अंग्रेजों ने बनाकर प्रत्येक पंजीकृत भूमिदार को भूमि का स्वामी स्वीकार
किया।
26) 1918 में साऊथ बरो कमेटी को भारत में अंग्रेजों ने भेजा। यह कमेटी भारत में सभी जातियों का विधि मण्डल (कानून बनाने की संस्था) में भागीदारी के लिए आया था। शाहू जी महाराज के कहने पर पिछङो के नेता भाष्कर राव जाधव ने एवम् अछूतों के नेता डा अम्बेडकर ने अपने लोगों को विधि मण्डल में भागीदारी के लिये मे मोरेंडम दिया।
27) अंग्रेजो ने 1919 में भारत सरकार अधिनियम का गठन किया ।
28) 1919 में अंग्रेजो ने ब्राह्मणों के जज बनने पर रोक लगा दी थी और कहा था की इनके अंदर
न्यायिक चरित्र नही होता है।
29) 25 दिसम्बर 1927 को डा अम्बेडकर द्वारा मनु समृति का दहन किया।
30) 1 मार्च 1930 को डा अम्बेडकर द्वारा काला राम मन्दिर (नासिक) प्रवेश का आंदोलन चलाया।
31) 1927 को अंग्रेजों ने कानून बनाकर शुद्रों के सार्वजनिक स्थानों पर जाने का अधिकार दिया।
32) नवम्बर 1927 में साइमन कमीशन की नियुक्ति की। जो 1928 में भारत के लोगों को अतिरिक्त अधिकार देने के लिए आया। भारत के लोगों को अंग्रेज अधिकार न दे सके इसलिए इस कमीशन के भारत पहुँचते ही गांधी ने इस कमीशन के विरोध में बहुत बड़ा आंदोलन चलाया। जिस कारण
साइमन कमीशन अधूरी रिपोर्ट लेकर वापस चला गया। इस पर अंतिम फैसले के लिए अंग्रेजों ने भारतीय प्रतिनिधियों को 12 नवम्बर 1930 को लन्दन गोलमेज सम्मेलन में बुलाया।
33) 24 सितम्बर 1932 को अंग्रेजों ने कम्युनल अवार्ड घोषित किया जिसमें प्रमुख अधिकार निम्न दिए:
A--वयस्क मताधिकार
B--विधान मण्डलों और संघीय सरकार में जनसंख्या के अनुपात में अछूतों को आरक्षण का अधिकार
C--सिक्ख, ईसाई और मुसलमानों की तरह अछूतों को भी स्वतन्त्र निर्वाचन के क्षेत्र का अधिकार मिला। जिन क्षेत्रों में अछूत प्रतिनिधि खड़े होंगे उनका चुनाव केवल अछूत ही करेगें।
D--प्रतिनिधियोंको चुनने के लिए दो बार वोट का अधिकार मिला जिसमें एक बार सिर्फ अपने
प्रतिनिधियों को वोट देंगे दूसरी बार सामान्य प्रतिनिधियों को वोट देगे।
34) 19 मार्च 1928 को बेगारी प्रथा के विरुद्ध डा अम्बेडकर ने मुम्बई विधान परिषद में आवाज
उठाई। जिसके बाद अंग्रेजों ने इस प्रथा को समाप्त कर दिया।
35) अंग्रेजों ने 1 जुलाई 1942 से लेकर 10 सितम्बर 1946 तक डाॅ अम्बेडकर को वायसराय
की कार्य साधक कौंसिल में लेबर मेंबर बनाया। लेबरो को डा अम्बेडकर ने 8.3 प्रतिशत आरक्षण दिलवाया।
36) 1937 में अंग्रेजों ने भारत में प्रोविंशियल गवर्नमेंट का चुनाव करवाया।
37) 1942 में अंग्रेजों से डा अम्बेडकर ने 50 हजार हेक्टेयर भूमि को अछूतों एवम् पिछङो में बाट देने के लिए अपील किया| अंग्रेजों ने 20 वर्षों की समय सीमा तय किया था।
38) अंग्रेजों ने शासन प्रसासन में ब्राह्मणों की भागीदारी को 100% से 2.5% पर लाकर खड़ा कर दिया था।

यही वजहें थी कि क्यों तो मनुवादी लार्ड मैकाले से चिड़ते थे और आज भी चिड़ते हैं और क्यों यह आज भी अंग्रेजों को दुश्मन बताते नहीं थकते| जबकि शायद ही कोई ऐसा मनुवादी होगा, कि जिसका अपने बच्चे को अंग्रेजों के देश में भेजने का सामर्थ्य हो और उसका बच्चा, इन्हीं अंग्रेजों की यूनिवर्सिटियों से शिक्षा अर्जित ना कर रहा हो।

हाँ, देश गुलाम था, उस वक्त भी और आज भी गुलाम है, फर्क सिर्फ इतना है कि उस वक्त हम गौरे परन्तु मानवता-जातिवाद पर भेदभाव ना करने वालों के गुलाम थे, आज उनसे भी घातक जाति-वर्ण-धर्म-सम्प्रदाय हर स्तर पर भेदभाव करने वाले मनुवादियों के गुलाम हैं|

Source: Januday - Article 7810

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 30 April 2016

मॉस-मुद्दों की तरफ मुड़ना होगा, हरयाणवी फिल्मों के कहानीकारों को!

हरयाणवी फ़िल्में इसलिए नहीं चल पा रही हैं क्योंकि इनमें कॉमन मुद्दों की जगह एक्सेप्शनल और व्यर्थ के सेंसेशनल टॉपिक्स घड़ के धक्के से हरयाणवी परिवेश में फिट करने की कोशिश की जाती है| ऐसे मुद्दे उठा के लाये जाते हैं, जिनको हरयाणवी समाज रद्दी की टोकरी में डाल के रखता है या ऐसे विषय जो कभी हुए ही ना हों हरयाणा में| जैसे 'सांझी', 'लाडो' फिल्मों में एक्सेप्शनल मुद्दे उठाये गए, बावजूद इसके कि इनमें उठाये मुद्दों का मॉस-पहलु उतना ही जबरदस्त था जितना कि इनका एक्सेप्शनल पहलु| इनके मॉस पहलु पे फिल्म बनती तो जरूर इनसे बेहतर नतीजे देती|

और यही हश्र अभी आई 'पगड़ी- दी ऑनर' के साथ हुआ| यह फ़िल्में ईमानदारी से ज्यों-की-त्यों स्थिति दिखाने से ज्यादा लेक्चर झाड़ने टाइप की ज्यादा बन जाती हैं, या फिर एक एक्सेप्शनल सिचुएशन को आइडियल बना के समाज पे थोपती हुई सी प्रतीत होती हैं| नेचुरल फ्लो नहीं हो पाता ऐसे में| फिल्म के बाकी पहलुओं में कुछ हो या ना हो परन्तु संदेश देने की हर कहानीकार/डायरेक्टर कोशिश करता है| और जिस भी फिल्म में संदेश सीधे तौर पर दिया जाता है वो फ्लॉप होती ही होती है| हरयाणवी तो क्या हिंदी हो या इंग्लिश मूवी, लेक्चर टाइप मूवीज स्पेसिफिक ऑडियंस से आगे जगह नहीं बना पाती|

प्रभाकर फिल्म्स ने एक मुद्दा दिया था बढ़िया वाला, चंद्रावल पार्ट वन में| यह फिल्म ऑडियंस में जबरदस्त जगह बना सकी, क्योंकि इसमें हॉनर किलिंग होने के बावजूद भी, यह लेक्चर नहीं झाड़ा गया कि हॉनर किलिंग ना करो| बल्कि अंदर-ही-अंदर महसूस करवाया गया कि ऐसा नहीं होना चाहिए था| यही वजह है कि जब यह फिल्म रिलीज़ हुई तो उत्तरी भारत में बॉलीवुड की शोले भी इसको पछाड़ नहीं सकी थी, इसके रिकॉर्ड नहीं तोड़ सकी थी|

पता नहीं, कहानीकार हरयाणवी सिनेमा को एक आर्ट की तरह लेना कब शुरू करेंगे| जिसको देखो हर फिल्म में अप्राकृतिक प्लेटफार्म पर फ्रेम्ड कहानी लिख रहे हैं; जबकि विशाल हरयाणा यानि हरयाणा+दिल्ली+पश्चिमी यूपी+उत्तराखंड के हर गली-गाँव में इतने किस्से बिखरे पड़े हैं कि जितनी चाहे उतनी हिट निकाल लो| लगता है सबको एक खुन्नस सी होती है कि हमें हरयाणवियों को उन पर अपना टैलेंट दिखाना है, हुनर दिखाना है| तभी तो फ़िल्मकार तो फ़िल्मकार मोदी सरकार तक अपना गुजरात मॉडल यहां घुसेड़ने पे उतारू रहती है| भाई हम बावली-बूच ना हैं, हमें दिखाना है तो कुछ हमारे बीच से ही निकाल के दिखाओ, वर्ना यह गुजरात मॉडल टाइप चीजों के तो हम ही डंडा दे देते हैं| आप कहानीकारों को ऐसा डंडा ना चाहिए और हरयाणवी फ़िल्में नहीं चलती की कुंठा नहीं चाहिए, तो ज़रा विचारें इन बिंदुओं पर|

वैसे लाल-रंग फिल्म का प्लेटफार्म और पटकथा, दोनों जबरदस्त रही; सिवाय एक बात को छोड़ के कि इसका हीरो अपनी प्रेमिका से तो शारीरिक संबंध बनाता हुआ दिखाया नहीं और वैसे लैब-अटेंडेंट तक से हाजिरी लेने में आगे था| और वो प्रेमिका भी गज़ब थी कि प्रेमी कहीं मुंह मारे उसको कोई फर्क नहीं| इसके अलावा फिल्म की कहानी जबरदस्त, एक्टर्स की एक्टिंग जबरस्त|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सर छोटूराम की ज़मीन पर जाट - ग़ैर जाट की राजनीति!

आज के वक़्त में हरियाणा में जो यह जाट ग़ैर जाट की गंदी राजनीति चल रही है यह कोई नई नहीं है , यह सर छोटूराम के वक़्त से ही चली आ रही है । सर छोटूराम के वक़्त में पंजाब में ग़ैर जाट की बात करने वाले पंडित श्रीराम शर्मा , गोकुलचंद नारंग , भार्गव , सच्चर आदि मुख्य नेता होते थे । सर छोटूराम पंजाब में किसान जाट की आवाज़ के लिए एक साप्ताहिक अख़बार जाट गजट निकालते थे जोकि उर्दू में होता था , वहीं शहरी लोगों की आवाज़ के लिए पंडित श्रीराम शर्मा पाँच अख़बार निकालते थे जिनमें हरियाणा तिलक मुख्य नाम था । पंडित श्रीराम शर्मा का हरियाणा तिलक पहला वो अख़बार था जिसने पंजाब में सर छोटूराम की जीत पर इस ' जाट-ग़ैर जाट' शब्द को जन्म दिया था ।

आज़ादी के बाद भी सर छोटूराम के पंजाब में यह जाट- ग़ैर जाट का खेल जारी रहा । आज़ादी के बाद सर छोटूराम के पंजाब की मुख्यमंत्री की कुर्सी 1947-55 तक सच्चर और भार्गव जोकि खत्री जाति से थे के बीच झूलती रही , पंजाब में मुख्यमंत्री की कुर्सी इन दोनों के बीच म्यूज़िकल चेयर बन कर रह गई थी । जब तक ये दोनों मुख्यमंत्री रहे तब तक पंजाब का बोली आधार पर बँटवारा ठंडे बस्ते में ही रहा पर जैसे ही पंजाब के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर एक सिक्ख ज़ट्ट सरदार प्रताप सिंह कैरों की पकड़ हुई तो अकाली नेता मास्टर तारा सिंह जोकि खत्री जाति से थे व सावरकर के ख़ासमखास थे ने पंजाब का बोली आधार पर बँटवारे के लिए आंदोलन छेड़ दिया और इनका साथ दिया हिंदी बोली के समर्थक संघी डॉक्टर मंगल सेन ने । जब यह आंदोलन परवान चढ़ने लगा तो हिंदू पंजाबियों को ख़तरा हुआ कि अगर बोली आधार पर पंजाब का बँटवारा हुआ तो नए राज्य का मुख्यमंत्री भी जाट ही बनेगा तो हिंदू पंजाबियों ने महा पंजाब का नारा दिया जिसकी काट में हरियाणा के नेताओं ने विशाल हरियाणा का नारा दिया । 1966 में सर छोटूराम के पंजाब का एक और बँटवारा हुआ , जिसमें से हरियाणा नया राज्य बना और कांग्रेस पार्टी ने पंडित भागवत दयाल शर्मा को इसका पहला मुख्यमंत्री बनाया जबकि पार्टी में चौधरी रणवीर सिंह हुड्डा , चौधरी हरद्वारी लाल , चौधरी सूरजमल आदि पंडित जी से भी वरिष्ठ नेता थे । प्रोफ़ेसर शेर सिंह , चौधरी देवी लाल , चौधरी लहरी सिंह उस वक़्त विपक्ष में थे । काफ़ी उठक पटक के बाद चौधरी बँसी लाल हरियाणा के पहले जाट मुख्यमंत्री बने । चौधरी बँसी लाल ने हरियाणा में विकास की गंगा बहा दी पर केंद्रीय सरकार की नस बंधी योजना और इंदिरा गांधी द्वारा घोषित इमर्जन्सी में चौधरी बँसी लाल के विकास कार्य ढक गए । जेपी आंदोलन में चौधरी देवी लाल देहाती जमात में अपनी पकड़ और भी मज़बूत कर चुके थे साथ ही देहात में ये धारणा बन चुकी थी कि कांग्रेस ग़ैर किसानों ब्राह्मण बनियों की पार्टी है जिसकी बदौलत इमर्जन्सी के बाद चुनाव में चौधरी देवी लाल को भारी जीत मिली और हरियाणा के मुख्यमंत्री बने , पर थोड़े दिन बाद ही संघी डॉक्टर मंगल सेन और सुषमा स्वराज ने किसानों की कहे जाने वाली देहातियों की इस सरकार की राह में रोड़े अटकाने शुरू कर दिए , सरकार की राह में अटकाए गए इन रोडों को फ़ायदा उठाते हुए चौधरी भजन लाल जोकि मांझू गोत्र के जाट थे ने किसानों की लोकप्रिय सरकार गिराने में अहम भूमिका निभाई ।

चौधरी भजन लाल जानते थे कि हरियाणा में जाट बहुसंख्यक है और राज करना है तो जाटों का साथ ज़रूरी है इसलिए उन्होंने जाटों को रिझाने के लिए कई बार कहा कि वे जाट है बिशनोई उनका पंथ है , विधानसभा में भी उन्होंने अपने को जाट बताया परंतु चौधरी देवी लाल की सरकार गिराए जाने की वजह से जाट उनसे नाराज हो गए और उन्हें जाट मानने से इंकार कर दिया । अब चौधरी भजन लाल ने देखा कि जाट उनको मानने को तैयार नहीं तो उन्होंने हरियाणा में जाट - ग़ैर जाट की नए सिरे से राजनीति शुरू की और ख़ुद को ग़ैर जाट नेता के तौर पर प्रस्तुत कर दिया । पर इसमें देखने वाली ख़ास बात ये थी कि ख़ुद को ग़ैर जाट नेता प्रस्तुत करने के बाद भी उनकी सरकार में पाँच छह जाट मंत्री रहते थे ।

चौधरी भजन लाल द्वारा अस्सी के दशक में जो जाट - ग़ैर जाट की राजनीति का बीज बोया गया था वह पेड़ बना अब जाकर , जिसका फल खाया संघी सरकार ने , आज सरकार में सिर्फ़ दो ही जाट मंत्री है वह भी शायद कोई मजबूरी रही होगी । सर छोटूराम की ज़मीन पर जाट - ग़ैर जाट की राजनीति के इस पेड़ की जड़े सदा हरी रखने के लिए संघी कई तरह के प्रयास कर रहे है , पंचनद का ड्रामा भी इन प्रयासों की एक कड़ी है । जाट - ग़ैर जाट की राजनीति का खेल सिर्फ़ हरियाणा में ही नहीं पंजाब में भी चल रहा है पर वहाँ इसे हिंदू-सिक्ख की आड़ में ढक रखा है जिस कारण पंजाब के बाहर के लोगों को यह खेल सिर्फ़ धर्म के आधार पर ही नज़र आता है ।
सर छोटूराम यह अच्छी तरह समझ गए थे कि जाट किसान के हित और ब्राह्मण महाजन समुदायों के हित परस्पर विरोधी है । संयुक्त पंजाब में मंडी फ़ंडी के खेल को समझते हुए सर छोटूराम ने जाट किसानों को सामाजिक व आर्थिक चौधर के लिए अलग से जो मंच तैयार करके दिया था उसे हम भूल गए पर मंडी फ़ंडी सर छोटूराम की दी हुई चोट को नहीं भुला और ये अपने मक़सद में लगे रहे । आज ये मंडी फ़ंडी की सोच का ही कमाल है जो हमारे समान हित वाली किसान व दलित जातियाँ भी हमारे विरोध में खड़ी होती जा रही है ।

Source - यूनियनिस्ट राकेश सांगवान

Sunday, 24 April 2016

सर छोटूराम जी की राजनीति पर अंधभक्त तो ऊँगली ना ही उठायें, तो बेहतर!


आजकल एक अनकही सी कैंपेन सोशल मीडिया पर सर छोटूराम बारे चल रही है| दबती है और फिर रह-रह कर उभर आती है| कहते हैं कि सर छोटूराम ने तो मुस्लिमों के साथ मिलके सरकार बनाई, वो तो उनकी चाकरी करते थे, वो तो आधे मुसलमान थे| और ताज्जुब नहीं यह सारे दर्द अंधभक्त मंडली की पोस्टों में देखे जा रहे हैं| तो जरूरी समझा कि इन भाईयों के लिए विनम्रता से एक अपील निकालूँ जो इस लेख के शीर्षक के मर्फिक है और ऐसी अपील इन वजहों से है:

1) आज़ादी से पहले श्यामाप्रसाद मुखर्जी मुस्लिम लीग से गठबंधन में बंगाल में सरकार के मुखिया हुआ करते थे। मुस्लिम लीग के नेता फ़जलुल हक़ उस वक्त बंगाल सूबे के मुख्यमंत्री थे और श्यामाप्रसाद उप-मुख्यमंत्री। साथ ही जोड़ दूँ कि श्यामाप्रसाद मुखर्जी, नेहरू की ही सरकार में कैबिनेट मंत्री भी थे|

2) 1943 में सिंध में मुस्लिम लीग और सावरकर के नेतृत्व वाली हिंदू महासभा के गठबंधन की संयुक्त सरकार बनी। उस समय सावरकर ने इसे व्यावहारिक राजनीति की जरूरत करार दिया था।

3) और आज के दिन जम्मू-कश्मीर में महबूबा मुफ़्ती की गवर्नमेंट में कौन भागीदार है किसी को कहने-पूछने की जरूरत नहीं|

इसके अलावा सबसे ख़ास बात, सर छोटूराम ने धर्म-जाति रहित मुस्लिम-सिख-हिन्दू सबसे मिलके सबको जोड़ के राजनीति की थी तो दलित-किसान-मजदूर के लिए बेशुमार कानून बना के दिए थे, जिनमें से पंजाब में आज भी अधिकतर ज्यों-के-त्यों चल रहे हैं| और संघ व् भाजपा के इन अलायंसों ने क्या दिया किसान-मजदूर को जो उसको बाजारीकरण और पूंजीवाद से बचाता हो, जरा एक तो संघी या भाजपाई बता दे|

और सर छोटूराम ने देश को तोड़ने वाली मुस्लिम लीग से अलायन्स नहीं किया था, जिससे संघ और हिन्दू महासभा ने किया अपितु उन मुस्लिमों से अलायन्स किया था जो एक भारत के एक यूनाइटेड पंजाब के पक्षधर थे। यह अंतर भी काउंट कर लेना अगली बार जब सर छोटूराम पे ऊँगली उठाओ तो।

कहीं पे मुस्लिमों (वेस्ट यूपी) से ही बैर तो कहीं पे मुस्लिमों (जम्मू-कश्मीर) से ही सब्बा-खैर| अपनी आइडियोलॉजी का और राजनीति का ठिकाना नहीं, चले किसान-कमेरे के भगवान् पे ऊँगली उठाने|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक