Tuesday, 13 December 2016

मनुवादी सोच से पोषित व् ट्रैनेड पीएम है यह!

जैसे मनुस्मृति कहती है कि सवर्ण, शुद्र का कमाया धन-जमीन-संसाधन जोर-जबरदस्ती से भी हथिया सकता है तो कोई अपराध नहीं, क्योंकि वह उसने सवर्ण के सुख के लिए ही कमाया है (क्यों भाई सवर्ण को हाथ-पैर नहीं हैं या वो शुद्र का जमाई या फूफा लगता है?); ठीक वैसे ही पीएम मोदी किसान-दलित-मजदूर की कमर पे वार पे वार किये जा रहा है| कभी फसलों के दाम गिरा के, कभी दालें विदेशों में उगवा के तो अब गेहूं ही विदेश से इम्पोर्ट करवा के (जबकि देश के गौदामों में अगले पांच साल से ज्यादा का स्टॉक भरा सड़ रहा है, उस स्टॉक को जरूरतमंद लोगों तक पहुंचाने के इंतज़ाम कर नहीं रहा; विदेश से और मंगवा रहा है; क्या यही था इनका "मेक-इन-इंडिया"), कभी ओबीसी के आरक्षण में प्रमोशन खत्म करके, कभी असिस्टेंट प्रोफेसरों की जॉब्स में आरक्षण ही खत्म करके, तो अभी कल ही राजस्थान में गुज्जर आरक्षण खत्म करके| विमुद्रीकरण वगैरह से तो खैर पूरा देश ही परेशान घूम रहा|

जाट के साथ मनुवाद का पंगा लेना समझ आता है क्योंकि जाट इनकी नहीं सुनता परन्तु बेचारे गुज्जर भी नहीं बक्शे अब तो| अरे और नहीं तो कम-से-कम उस रोशनलाल आर्य का ही ख्याल कर लिया होता जो विगत दो सालों से आरएसएस/बीजेपी का भोंपू बन जगह-जगह जाटों का श्राद्ध करवाता फिर रहा था| कभी सर छोटूराम पे ऊँगली उठा रहा था तो कभी ताऊ देवीलाल पे|

ओ! ताऊ देवीलाल को कैसे-कैसे लोग राज कर गए कहने वाले, यह देख तेरा सरमाया कौन है, कैसा है; ओ सर छोटूराम को अंग्रेजों का चाटुकार बोलने वाले, यह देख तू कैसे लोगों की चाटुकारी करता घूम रहा है? सर छोटूराम चाटुकार थे या जिगरबाज, पर वो किसानों के हक़ अंग्रेजों के नल में डंडा दे के निकाल लिया करते थे| तू पूरी किसान कौम की तो छोड़, हमारे गुज्जर भाइयों का कल छिना आरक्षण ही वापिस दिला के दिखा दे, इन आरएसएस/बीजेपी वालों से| मैं तो यूँ कहूँ कि यह छीना ही क्यों?

और साथ ले लियो उस आरएसएस/बीजेपी द्वारा ही प्लांटेड ओबीसी के स्वघोषित मसीहा राजकुमार सैनी को भी|
मैं तो यूँ कहूँ तुम क्यों तो लोगों को गलत दुश्मन दिखा रहे और क्यों खुद बिल्ली को देख कबूतर की तरह आँख मूंदे हांड रहे? तुमने ना तो इसको 2014 में पहचाना (जबकि जाट तो कभी से पहचानता इनको, इसीलिए तो हरयाणा में बावजूद मोदी लहर के मात्र 2-4% जाटों ने ही हेजा था इनको) और ना अब पहचान रहे। तुम्हारा दुश्मन जाट नहीं, यह मनुवाद है| अब भी सुधर जाओ और किसान कौम को एक करके उनकी भलाई के लिए कार्य शुरू कर दो| तुम दोनों की पार्टी की स्टेट-सेंटर दोनों जगह सरकार है; तो जनता में रैलियां कर-कर किसको उलाहने देते फिर रहे हो? उलाहने तब तो देने बनें तुम्हारे जब दोनों बीजेपी-आरएसएस से हर प्रकार का नाता तोड़ लो| एक एमपी बना हुआ है बीजेपी से ही और दूसरा इनका भोंपू; और जनता को उल्लू बना के दुश्मन के नाम पे जाट दिखा रहे?

और ले लो किसानी कौमों में फूट डालने के नतीजे| अब भी समझो इस बात को कि मनुवादी सोच को तुम बिना जाट के हैंडल नहीं कर सकते| मत ले जाओ समाज को ऐसी राहों पर कि आने वाली जेनरेशन्स तुम्हें गालियां ही गालियां बकें|

Note: Thanks for sending this post to either of Rajkumar Saini or Roshanlal Arya, if anyone can; though I am trying at my end too!

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 9 December 2016

वह आपको उनके प्रति गुस्सा दिलाकर, चिड़ा कर नाराज इसलिए रखे रहना चाहते हैं, क्योंकि!

सबसे पहले तो वह कौन?: वो यानी पुजारी, वो यानी व्यापारी, वो यानी ढोंगी-पाखंडी; मोटे तौर पर वो यानी तथाकथित व् स्वघोषित सवर्ण|

आप कौन: आप यानी किसान-वर्ग|

वो ऐसा क्यों रखना चाहते हैं: ताकि आप उनसे अपनी बात ना मनवा सकें, एक मिनिमम कॉमन एजेंडा ना बना सकें|

वो यह चीज क्यों नहीं चाहते?: हर इंसान ऐसा कार्य करना चाहता है जिससे उसको इस बात की अनुभूति मिले कि वह समाज पर परजीवी नहीं अपितु समाज का दाता है, समाज को कुछ ऐसा देने वाला है जो उसको सिवाय कोई और नहीं दे सकता|

अब किसान की समाज को ऐसी देन है खाद्दान यानी वह अन्नदाता कहलाता है|

तो ऐसे में उसको किसान का यह अहसान भी नहीं मानना और अपने आपको भी किसी न किसी चीज का दाता बताना है तो वह क्या करता है?

वह आपके बीच की मान-मान्यताओं, सम्बोधनों को अपनी मंशा और शब्दों के अनुरूप शब्द और अर्थ देकर उसको "आध्यात्म-ज्ञान-शिक्षा-सभ्यता" का लेबल लगाकर आपको ही चेप देता है|

उदाहरण के तौर पर राम शब्द| हरयाणवी और मारवाड़ी भाषा में राम शब्द का अर्थ होता आराम| जब आप आपस में राम-राम बोल रहे होते हो तो एक दूसरे का कुशलक्षेम पूछ रहे होते हो कि आप आराम से तो हो? वह ने जब यह देखा कि यह शब्द समाज में बड़ा ही प्रयुक्त शब्द है, इसको भुना के भगवान के स्टेटस का बना दूँ इसको अनंत-काल जितना पुराना दिखा दूँ तो समाज इसको मेरा योगदान मानेगा| और उसने राम शब्द के इर्दगिर्द पूरी रामायण घड़ दी| वर्ना यह बताओ, जब राम नहीं था तो आपके यहां राम-राम शब्द की जगह इसका समतुल्य सम्बोधन क्या था? (यहां यह बात ध्यान रखी जाए कि एक शब्द दूसरी भाषाओँ-क्षेत्रों-देशों में भी इसी सम्बोधन-अर्थ में मिल सकता है|)

अब आप इनके इनकी समझ में योगदान पर सवाल ना कर दो, इसलिए वर्ण बना के अपने चारों ओर ऊंच-नीच की प्रोटेक्शन वाल भी लगे हाथों खींच ली| ज्ञानी-अज्ञानी व् सभ्य-असभ्य की रेखा खींच ली| वर्ना जिसको दूसरों का पेट भरने की कला यानी खेती करने का ज्ञान आता हो, वह दुनिया के किस ज्ञानी से कम ज्ञानी हो सकता है?
खेती करना महज दो बैल जोड़ के हल जोतना मात्र तो नहीं? किस मौसम में कौनसी फसल, उसमें कितना पानी, उसमें कितना खाद, उसमें कितना बीज इत्यादि लगेगा, उसको कब नहलाना है, कब काटना है, कब रोपना है, कौनसा जंगली जानवर नुकसानदेह, कौनसा पक्षी मित्र-पक्षी इत्यादि, ऐसी-ऐसी तकनीकी व् बड़े-से-बड़े वैज्ञानिक स्तर की खेती की बातें भी चाहिए होती हैं| यह कृषि विश्विद्यालय या प्रयोगशालाएं तो अभी 50-60 सालों से ही बनी हैं; इससे पहले किसान को यह ज्ञान कौन देता था? यह ज्ञान किसान खुद अपने चिंतन-मनन-बुजुर्ग किसान की सीख व् तजुर्बे से हासिल करता था और आज भी करता है|

लेकिन यह अचंभित कर देने वाले ज्ञान की कला ऐसी है कि इसमें हाथ-पैर चलाने नहीं होते, बस बैठ के सोचने के लिए अच्छी जगह और अच्छा खाना चाहिए|

इसलिए इनसे नफरत करने की या इनके ही द्वारा आपको इनसे नफरत करने की राह पर डालने की परिपाटी किसान को छोड़नी होगी, इससे बचना होगा| और इन बातों पर समझौते करने होंगे कि आप इनको पेट भरने हेतु दान-चन्दा या व्यापार देंगे परन्तु साथ ही दान-चन्दे वाला आपको उसका हिसाब किताब दे के, आपकी सलाह से ही समाज के भले के कार्यों में लगाएगा, आप भी उस दान-चन्दे में लाभ के हिस्सेदार होंगे| और दूसरा व्यापारी उसी की भांति आपको भी आपके उत्पाद यानी कृषि खाद्द्यानों के विक्रय मूल्य स्वंय निर्धारित करने की पालिसी में शामिल करेगा|

तमाम चिंतन-मनन के बाद किसान की राह का जो सबसे बड़ा रोड़ा नजर आता है वो यही इनसे चिड़ने-नफरत करने की राही नजर आती है| हालाँकि गारंटी इस बात की भी नहीं दी जा सकती कि इनके साथ एक मिनिमम कॉमन एजेंडा बनाने निकलोगे तो यह इतने सहज मान जायेंगे। ऐसी बात करने पर यह आपको यह कह कर चिढ़ाएँगे कि तुम मूढ़-अज्ञानी-अछूत-नीच हमसे समझौते करोगे? परन्तु इनके इस रवैये के बाद भी इनको समाज के साथ मिमिनम कॉमन एजेंडा बनाने पर मजबूर करना होगा| वर्ना यह स्थिति यथावत बनी रही तो फिर यह ऐसे ही आपके ही दान-चन्दे और व्यापार के जरिये आपसे मनचाहे भावों वाले दाम ले के, इसी पैसे से जाट बनाम नॉन-जाट जैसे अखाड़े खड़े करते रहेंगे| और आपको दुश्मन के नाम पर मुसलमान-ईसाई इत्यादि दिखाते रहेंगे| और आप ना दुश्मन पहचान पाओगे और ना ही बढ़िया बोल बोल के किसी समझौते पे पहुँच पाओगे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 8 December 2016

जातिवाद इतनी बड़ी समस्या नहीं है, जितनी कि वर्णवाद है!

क्योंकि नश्लीय, छूत-अछूत का भेदभाव वर्ण स्तर पर होता है, जातीय स्तर पर नहीं|

ब्राह्मण वर्ण में अगर कोई आसाम की तरफ की सात सिस्टर स्टेट के नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का भी ब्राह्मण है या हरयाणा/पंजाब/वेस्ट यूपी के नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का ब्राह्मण है या बिहार-बंगाल-उड़ीसा के नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का ब्राह्मण है या दक्षिण भारतीय नयन-नक्श-रंग-कद-काठी का ब्राह्मण है या द्विवेदी-त्रिवेदी-चतुर्वेदी आदि जातियों का ब्राह्मण है या त्यागी-कायस्थ-भूमिहार-सारस्वत-वैष्णव-शैव-द्रविड़-मराठी जातियों का ब्राह्मण है तो भी वह ब्राह्मण वर्ण में 99% समान आदर-व्यवहार-आचार-विचार से बरता-देखा-समझा जाता है|

आपके वर्ण में आपका नयन-नक्श-रंग-कद-काठी चाहे कुछ भी हो, कोई भी आपके वर्ण में आपसे यह नहीं पूछेगा कि तू हमारे ही वर्ण का होते हुए चिपटी नाक का क्यों है, तू लम्बी नाक का क्यों है या तू गोरा क्यों है या काला क्यों है; तू लम्बा क्यों है या तू नाटा क्यों है|

इसी तरह क्षत्रिय जाति में राजपूत किसी भी कुल-वंश-जाति-वर्ण का हो वह उस वर्ण में बराबर बरता-देखा-समझा जाता है| हाँ इनके यहां विवाह के वक्त थोड़ी आपसी बन्दिशें जरूर पाई जाती हैं|

इसी तरह वैश्य वर्ण में व्यापारी जातियों को लगभग समान बरता-देखा-समझा जाता है, सिवाय व्यापारिक कॉम्प्टीशन के|

इसी तरह शुद्र वर्ण में दलित व् ओबीसी को समझा जाता है, सिवाय ओबीसी व् दलित में कारोबारी फर्कों के|
और इसी तरह पांचवें वर्ण या कहो कि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से मूर्ती-पूजा को ना मानने वाले अवर्ण कहलाने वाला जाट समूह है| मूर्ती-पूजा विरोधी होने की वजह से इस समूह को ब्राह्मण वर्ण यदकदा एंटी-ब्राह्मण भी बोलता आया है तो दूसरी तरफ महर्षि दयानंद जैसे ब्राह्मण जाट को जाट के इस मूर्ती-पूजा व् आडम्बर विरोधी गुण की वजह से "जाट-जी" व् "जाट-देवता" तक कहते-लिखते रहे हैं| बताता चलूँ कि उनके द्वारा ब्राह्मण-सभा ने जाट की यह स्तुति इसलिए करवाई थी ताकि जाट सिख धर्म में ना जावें| वर्णीय स्तर की एकता और बराबरी इस समूह में सर्वोच्च कोटि की है| गौत-खाप-गाँव-खेड़े यहां तक कि धर्म के आधार पर इनके वर्गीकरण में जो गण्तांत्रिकता पाई जाती है वह अद्भुत है| बाकी वर्ण जहां अंतर-धार्मिक विवाह में परहेज कर जाते हैं, जाट इस मामले में सबसे लिबरल हैं| सबसे ज्यादा इस वर्ण में अंतर्धार्मिक विवाह स्वीकारे जाते हैं|

खैर, तो इस ऊपरचर्चित विवेचना से स्पष्ट है कि जाति मिटाने से पहले वर्ण मिटाना जरूरी है| जाति तो खामखा का हव्वा बना रखा है, असली भेदभाव तो वर्ण-स्तर पर होता है| लेकिन वर्ण स्तर के लोग वर्णीय भेदभाव को जातीय भेदभाव से ढंके रखना चाहते हैं| और जब तक यह ढंका है तब तक हमारे यहां जो नश्लीय स्तर का भेदभाव है वह दुनिया में सबसे घातक स्तर का बना रहेगा| इसलिए सबसे पहले कुछ खत्म करना-करवाना है तो इस वर्णीय भेदभाव को खत्म करवाना होगा|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फुल-जोर के एक्सपेरिमेंट पे एक्सपेरिमेंट चल रहे हैं, सम्भल के चलना ओ हरयाणा वालो!

राजकुमार सैनी पर स्याही फिंकवाने का प्रोपेगंडा बीजेपी-आरएसएस द्वारा ही रचवाया गया था| इतने दिनों से इस खबर की पुष्टि करने में लगा था, आज कन्फर्म हो गई है| इसके पीछे बीजेपी के ही बड़े चेहरे हैं और उनका मकसद था इस एपीसोड के जरिये जाट और ओबीसी को और भी ज्यादा अलग-थलग करना|

पूरी कहानी, पूरा एपीसोड स्क्रिप्टेड था, धारा 307 लगवा के हव्वा बना के फैलाया जायेगा, और फिर जल्द ही जमानत करवा दी जाएगी; यह भी स्क्रिप्टेड था|

मकसद सिर्फ और सिर्फ एक था, कि राजकुमार सैनी के इतनी लाख कोशिशें करने के बावजूद भी ओबीसी उस हद तक जाटों से दूर नहीं हुआ था, जितना कि बीजेपी-आरएसएस चाहती थी| और यह दावे के साथ देखा जा रहा है कि इस इंसिडेंट के बाद दूरी बढ़ी है, कितनी यह आप ग्राउंड पर ज्यादा देख-समझ रहे होंगे| इस दूरी का असर कुरुक्षेत्र की सैनी की रैली में एकत्रित लोगों की संख्या से जोड़ के भी निकाला जा रहा है|

और इसका बोनस पॉइंट यह था कि इसके जरिये जाटों का उबल रहा गुस्सा भी मैनेज करवाया गया, जाटों को लगा कि चलो इन बालकों को तो जल्दी जमानत मिली|

तीसरी टेस्टिंग अब चल रही है इन बालकों के जरियों, यह टेस्ट करने की कि बीजेपी कितने जाटों को इनके पीछे जोड़ सकती है या इनके जरिये क्या एक और नया धड़ा बन सकता है कि नहीं|

मतलब फुल-जोर के एक्सपेरिमेंट पे एक्सपेरिमेंट चल रहे हैं, सम्भल के चलना ओ हरयाणा वालो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

विमुद्रीकरण के बाद जमीन अधिग्रहण का "गुजरात मॉडल" में लागू "मनुवादी" कानून अब हरयाणा में भी लाने की सुगबुगाहट!

आज दैनिक जागरण के मुख्य पृष्ठ पर एक खबर थी कि हरयाणा सरकार ने हरयाणा में "गुजरात मॉडल" वाला जमीन अधिग्रहण कानून लागू करने हेतु सरकारी अधिकारियों को उसको स्टडी करने को कहा है| यह कानून कहता है कि किसान की मर्जी हो या ना हो, अगर किसी को कोई जमीन इंडस्ट्री लगाने के लिए पसन्द आई तो वह उसको दे दी जाएगी| मुवावजा भी मनमर्जी का दिया जायेगा, उसमें किसान की पूछ नहीं होगी| पहली तो बात यह|

दूसरी, मैंने इसको मनुवादी क्यों कहा? "मनुवाद कहता है कि सवर्ण को दलित-किसान की कमाई हुई प्रॉपर्टी-पैसा छीनने का हक़ है व् दलित-किसान को प्रॉपर्टी-पैसा रखने का हक़ नहीं"| यह छीनने के हक का कांसेप्ट आपने अभी विमुद्रीकरण में भी देख लिया, कि कैसे लाखों-करोड़ों का लोन हजम किये बैठे सवर्णों के तो सब पैसे माफ़ और आप के हजार-पांच सौ भी बैंकों में भरवा के उनके और भी करोड़ों करोड़ के लोन अभी फ़िलहाल ही माफ़ किये हैं| और अब यह मनुवादी डंडा 'गुजरात-मोडली जमीन-अधिग्रहण' ला के करने की भरपूर कोशिश करने वाले हैं|

मुझे तो अचरज हुआ यह जान के कि जिस गुजरात मॉडल की शेखियां इतने महीनों-साल से बघेरी जा रही हैं वो असल में मनुवादी मॉडल है|

थोड़े दिन पहले मेरे लेख में जो कहा था कि विमुद्रीकरण तो सिर्फ ट्रेलर है, अभी असली पिक्चर तो गुजरात मॉडल वाले जमीन-अधिग्रहण कानून को यहां लागु करके दिखाई जाएगी,वह आज की खबर से सच होती प्रतीत लगी| सेण्टर में तो पिछले साल जब बीजेपी आते ही इस अधिग्रहण कानून को लागु कर रही थी तो विपक्ष ने बचा लिया था परन्तु हरयाणा में कौन बचाएगा?

हो जाओ करड़े, असली कड़वी दवाई तो अभी तैयार हो रही है| खुद पियोगे या उल्टी इन्हीं को पिला दोगे?

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

सरदार पटेल की जाति को राम-कृष्ण की जाति के जैसे रहस्यमयी क्यों बना रखा है?


राम की जाति को लेकर राजपूत और जाटों में बड़ी कलह होती है; दोनों क्लेम करते हैं कि राम राजपूत था तो जाट कहते हैं कि राम जाट था। जबकि इस बीच एक तथ्य और निकला कि राम की जाति का तो राम जाने या उसको बनाने वाले, परन्तु हरयाणा में जो राम-राम बोला जाता है उसका इस राम से कोई कनेक्शन नहीं; क्योंकि राम-राम हरयाणवी का एक शब्द है जिसका हिंदी अर्थ होता है आराम-आराम। यानी जब आप किसी को बोलते हो कि राम-राम, तो इसके जरिये "आप आराम से तो हो" भाव से उसकी कुशलक्षेम पूछ रहे होते हैं; खैर।

अब ऐसा ही किस्सा कृष्ण का बना हुआ है, इन पर तो यादव-गुज्जर-कुर्मी और जाट यहां तक कि राजपूत भी अपना कब्जा बताते हैं; सब अपनी-अपनी जाति का क्लेम करते हैं।

खैर, यह दोनों तो ठहरे माइथोलॉजी के काल्पनिक चरित्र; इनको घड़ने वाले तक इनकी जाति यह कह के छुपा जाते हैं कि भगवान की कोई जाति नहीं होती। क्योंकि जानते हैं कि अगर राम को राजपूत बता दिया तो अगले दिन से जाटों के यहां से राम के नाम चन्दा आना बन्द या जाटों का बता दिया तो राजपूतों के यहां से आना बन्द। परन्तु एक बात जरूर है, जैसे ही सर छोटूराम या बाबा साहेब आंबेडकर नाम के भगवान की बात आती है तो फटाक से उनकी जाति पहले चलवा देते हैं।

सन्दक सी बात है जिसका जन्म हुआ है और भारत में हुआ है, और वो भी माइथोलॉजी में नहीं रियल में हुआ है तो उसकी जाति तो पक्की होनी ही है। ऐसी ही एक पहेली बनी हुई है सरदार वल्लभभाई पटेल जी की जाति। हरयाणा के गुज्जर कहते हैं कि वो गुज्जर थे, यूपी के कुर्मी कहते हैं कि वो कुर्मी थे; तो कभी-कभी और क्योंकि गुजरात में पटेल जाट भी होते हैं तो जाट भी उनको जाट बताने लग जाते हैं।

अब इसको लेकर जो थोड़ी सी रिसर्च सामने आई है वो पेश करता हूँ। मध्यप्रदेश के हरदा डिस्ट्रिक्ट में अर्जुन पटेल (जो खुद जाट हैं) बताते हैं कि सरदार पटेल जाट हैं या नहीं यह तो अभी नहीं पता, परन्तु एक बात पता है कि सरदार पटेल के गाँव में कुर्मी और जाट हैं; गुज्जर नहीं। मतलब इस थ्योरी से सरदार पटेल को गुज्जर कहने वाला कांसेप्ट तो रदद् होता है। अर्जुन आगे बताते हैं कि 01/12/2012 के हिंदुस्तान टाइम्स में छपी खबर के अनुसार सरदार पटेल जाट हैं (खबर का लिंक नीचे देखें)। भाई के अनुसार 2011 के चुनाव में सरदार पटेल के पोते ने खुद को जाट बताया, अंग्रेजी अखबारों में इसकी खबर भी छपी थी।

अंत में मेरा सिर्फ इतना कहना है कि सरदार पटेल कोई माइथोलॉजी का चरित्र नहीं कि उनकी जाति को प्रसाद की भांति सबमें घुमा के उनके नाम का चन्दा ढकारा जाए। बल्कि मैं इस संशय में यह बात कह रहा हूँ कि अगर वो वाकई में जाट ही हैं तो फिर तमाम जाट संस्थाएं उनको अपने बैनर्स-पोस्टर्स-प्रचार सामग्री में स्थान न देकर उनके साथ अनजाने में अन्याय कर रही हैं। एक पल यह विचार भी आता है कि यह जाट संस्थाएं-सभाएं दशकों से हैं और बहुत शोध भी करती हैं, तो हो सकता है कि इनमें से किसी ने इस विषय पर शोध कर रखा हो तो कृपया मुझे भी उससे अवगत करवाएं; धन्यवाद।

Source: http://www.hindustantimes.com/india/community-power-how-the-patels-hold-sway-over-gujarat/story-WejgSajNL5YcxA3rUf8ajK.html

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

"खापद्वारा" - जाट या किसानी जातियां जो भी धर्म-कर्म या सामाजिक कल्याण हेतु ईमारत बनाएं/बनवाएं, उसके नाम में "खापद्वारा" शब्द जोड़ने पर जरूर विचारें!

और इसमें कुछ-कुछ क्या-क्या कैसे हो सकता है, उसकी बानगी इस प्रकार समझी जा सकती है|

कल बिड़ला मंदिर वाली जो पोस्ट निकाली थी, उसके जवाब में कई भाईयों के तर्कसंगत रेस्पॉन्स आये कि जाट-मंदिर बनाओ; इस पर इतना ही कहना चाहूंगा कि हमें किसानी जातियों के यौद्धेयों के फॉर्मेट के हिसाब से मंदिर+गुरुद्वारा के कॉम्बिनेशन का स्ट्रक्चर शुरू करना चाहिए, जिसका नाम "खापद्वारा" रखा जा सकता है| इसके अंदर हमारी प्रचलित पद्दति के साथ खाप समाजों में हर कौम व् हर धर्म से जो भी यौद्धेय हो के गये हैं; उन सबकी गुरुवाणियां सुबह-शाम गाई जाएँ, ठीक वैसे ही जैसे सिख गुरुद्वारों में गाई जाती हैं|

वैसे भी आज के दिन ना ही तो कोई मन्दिर, ना आरएसएस, वीएचपी जैसे संगठन किसी भी महान जाट, खाप या किसानी जातियों के यौद्धेयों की ना ही तो कोई जयंती मनाता, ना उनकी वाणियां गाता, ना उनका कोई किसी भी लिखित/मौखिक फॉर्मेट में जिक्र करता|

इसलिए हमें अपने यौद्धेयों, हुतात्माओं के साथ अपनी कल्चर-सभ्यता-मान-मान्यताओं को जिन्दा रखना है और आगे की पीढ़ियों को पास करना है तो इसका सबसे बढ़िया विकल्प "खापदवारे" हो सकते हैं|

जिन खापों के पास पहले से ही अपने "खाप-भवन" या "खाप-इमारतें" हैं वह भी इनका नाम खापद्वारा रखने पर विचार करें| जैसे कि गोहाना में मलिक खाप का "मलिक भवन" है, रोहतक में नांदल खाप का "नांदल भवन" है व् ऐसे ही और भी काफी सारी खापों के पास अपनी-अपनी इमारतें हैं; वह इनमें "भवन" शब्द को खापद्वारा" शब्द से रिप्लेस करने को विचार देवें और जाट-धर्मशालाओं को "जाट- सर्वखापद्वारा" नामकरण पर विचारें| और इस श्रृंखला में "सर्वजातीय-सर्वखापद्वारा" सर्वजातीय सर्वखाप के हेडक़्वार्टर सोरम में बनवाया जा सकता है या फ़िलहाल जो वहाँ चौपाल है उसको यह नाम दिया जा सकता है व् आगे चलकर आवश्यकानुसार इसका विस्तार किया जा सकता है।

और इन खापदवारों में अपने यहां हो के गए तमाम हुतात्माओं-क्रांतिकारियों-पुण्यात्माओं की वाणियां व् पाठ सुबह-शाम करवाने शुरू करें| साथ ही अपने कल्चर-सभ्यता इत्यादि पर भी पठान-पाठन होवै तो कसम से सुवाद सा आ जावे|

परन्तु हाँ, अभी तक जितने मंदिर जाटों ने बनवाये हैं; उनके नाम अवश्य "जाट-मंदिर" टाइप में करवाये जाने चाहियें, या जिसने वो मंदिर बनवाया उसके नाम पर या उसके पुरखों के नाम पर| जैसे कि जींद का रानी-तालाब वाला मंदिर का नाम फुलकिया जाट मंदिर या जाट मंदिर या जींद का शाही मंदिर (शाही क्योंकि जींद रियासत ने इसको बनवाया) होना चाहिए|

अपील: आपके नजदीकी यथासम्भव खाप चौधरी-चौधरानियों को यह सुझाव पहुंचाने के लिए आपका धन्यवाद|

 जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 4 December 2016

जाट अगर इस जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े को पलक झपकते समेटवाना चाहते है तो यह करें!

जाट मर्द खुद भी और अपने घर की औरतों से भी यह कह दें कि हमारे घरों-दरवाजों-गलियों-चौराहों पर मन्दिर-गौशाला-जगराता-भंडारा आदि के नाम पर हर दान मांगने आने वाले, हर दान की पर्ची काटने वाले को यह कहो कि जा के पहले यह जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े बंद करवाओ और फिर दान ले जाओ।

मैं जानता हूँ कि इन्हीं में से किसी-किसी के इशारों पर चलने वाले इन जाट बनाम नॉन-जाट रुपी अखाड़ों वाले यह बड़े भोले बनते हुए कहेंगे कि अजी हमने कौनसा इनको ऐसा करने-रचने-बोलने को बोला है।

तो जवाब देना कि हमने कब कहा है कि आपने रचने-करने-बोलने को बोला है परन्तु हम इतना जानते हैं कि आपके कहने से यह चुप बैठ जायेंगे और समाज का भाईचारा बचा रहेगा और सबका भला हो जायेगा।

और जो यह ढीठ बनते हुए यह कह दें कि अजी हमारी नहीं सुनेंगे तो जुबानी तीरों से इनको थपड़ाने के लहजे (ध्यान रहे हाथों से नहीं थपडाना, मेरी दादी वाले स्टाइल में सिर्फ जुबान-जुबान में ही टाकलना है) में जवाब देना कि जब तुम्हारी कोई सुनता ही नहीं तो हम क्यों सुनें? जाओ कोई और दरवाजा देखो।

देखना जब आगे से ऐसे दो-टूक जवाब मिलेंगे, बिना दान के जब भूखे मरते पैर कूटेंगे और पेटों में इनके मरोड़े लगेंगे तो यह तो क्या सीधा मोहन भागवत और शंकराचार्य तक ना राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य और अश्वनी चोपड़ा जैसों के मुंहों पे "तोड़े-से-भी-ना-टूटे" वाले फेविकॉल चिपका दें तो।

मैंने तो यह नियम बना लिया है और मेरे घर-रिश्तेरदारों में इसको फैला रहा हूँ; आप भी यह काम शुरू कर लें तो देखो कितना जल्दी घर बैठे जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े सिमटते हैं।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

बनियों से सीखो कि धर्म के नाम पर इन्वेस्ट किये से एक-एक पाई कैसे वापिस कमाते हैं!

धर्म के नाम पर दान का हिसाब नहीं लिया-दिया जाता, दान गुप्त होता है, दिया गया दान वापिस नहीं होता, दान स्वेच्छा से होता है; आदि-आदि जुमले उन्हीं को सुहाते हैं जिनको धर्म में इन्वेस्ट करके इससे कमाना नहीं आता या कमाने की इच्छा नहीं रखते या इसको कमाना गलत मानते हैं|

एक बात बताओ बिड़ला मंदिर किसके नाम या उपनाम से बने हैं देश में? बिड़ला कोई भगवान था या कोई से भगवान् का उपनाम है यह? सिंपल बनियों के उपनाम यानि गोतों यानी गोत्र में से एक गोत्र ही तो है ना?

अब देखो, इसको कहते हैं मार्केटिंग और वो भी "गुड वर्ड ऑफ़ माउथ" वाली मार्केटिंग| जो-जो भी मन्दिर में जायेगा, बिड़ला औद्योगिक घराने के लिए उसके मन में अच्छी भावना पैदा होगी और बिना सवाल किये इनके हर उत्पाद खरीदेगा; खरीदते हो कि नहीं?

अब एक उदाहरण जाटों का ले लो| जींद के रानी तालाब वाला भूतेश्वर टेम्पल, जींद के महाराजा ने बनवाया था, वो भी अमृतसर हरमिंदर साहिब की तर्ज पर, तालाब के बीचों-बीच; और वो भी एक सिख जाट होने के बावजूद? सब जानते हैं कि जींद-नाभा-पटियाला रियासतें इनके संस्थापक (फाउंडर) सरदार चौधरी फूल सिंह सन्धु जी के नाम से फुलकिया जाट रियासतें बोली जाती हैं? तो फिर इस मन्दिर का नाम फुलकिया मन्दिर या सन्धु मंदिर क्यों नहीं होना चाहिए?

और वैसे भी यह तो बना भी जाटों के श्रेष्ठ आराध्य शिवजी महाराज उर्फ़ स्केडेनेविया के राजा ओडिन - दी वांडर्र महाराज के नाम पर है| तो जब मंदिर बनवाया जाटों ने, उसमें भगवान् जाटों का बैठा तो यह भूतों का ईश्वर नाम किसने दिया इसको?

मेरी बातें सहज सबके पल्ले नहीं पड़ती, परन्तु जिनके पड़ती हैं वो फिर इन ढोर-डंगर टाइप ढोंगी-पाखंडियों के चंगुल से छुटकारा पा के, उन्मुक्त वाणी बोलने लग जाते हैं|

तो जब मन्दिर में जाना ही है, इनको पूजना ही है तो फिर क्यों नहीं जो-जो आपने या आपके बाप-दादाओं ने बनवाए हैं उनके नाम भी बिड़ला मंदिर सीरीज की भांति आपके ही पुरखों के नाम पर रखे जाएँ? आप जाट हो, कोई दलित नहीं कि पुजारी भीतर ही ना घुसने दे; कहो पुजारियों से कि जो मंदिर जाटों ने बनवाये हैं; उनके नाम भी जाटों के नाम पर होने चाहियें|

अब या तो बिड़ला मंदिरों के नाम भी भगवानों के नाम पर हों नहीं तो जाटों के मंदिर जाटों के नाम से ही हों|
इसका सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े खड़े किये हुए हैं यह सब खत्म हो जायेंगे, क्योंकि जब लोग देखेंगे कि जिन मंदिरों में हम जाते हैं; यह तो अधिकतर जाटों के ही बनवाये हुए हैं, तो वह साफ़ समझ जायेंगे कि यह जो जाट बनाम नॉन-जाट के अखाड़े रचने वाले हैं यह वही अहसानफरामोश लोग हैं जो जाटों से ही सबसे ज्यादा दान-चन्दा ढकारते हैं और इन्हीं पे खुद भी जहर उगलते हैं और हम में से किसी को रोशनलाल आर्य तो किसी राजकुमार सैनी तो किसी को अश्वनी चोपड़ा बना के जहर उगलवाते हैं|

लॉजिक है कि नहीं बात में? सीधी सी बात है प्रचार में रहोगे तो कोई नहीं घुर्रा पायेगा; लेकिन इनको ऐसे ही पाथ-पाथ बिना इनपर अपना नाम लिखवाये मंदिर बना के देते रहोगे तो यूँ ही जाट बनाम नॉन-जाट झेलोगे| सबसे ज्यादा मंदिर बनवाओ तुम, इनमें दान दो तुम और फिर जाट बनाम नॉन-जाट भी तुम ही झेलो, बावली गादड़ी ने पाड़ राखे हो के?

कि मैं गलत बोल्या, हो दस्सो क्या मैं गलत बोला?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Saturday, 3 December 2016

मुझे इन उपदेशो पर मेरे सवालों के जवाब चाहियें, कोई ज्ञानी-ध्यानी अगर दे सके तो आगे आये!

उपदेश 1: अतीत में जो कुछ भी हुआ, वह अच्छे के लिए हुआ, जो कुछ हो रहा है, अच्छा हो रहा है, जो भविष्य में होगा, अच्छा ही होगा. अतीत के लिए मत रोओ, अपने वर्तमान जीवन पर ध्यान केंद्रित करो , भविष्य के लिए चिंता मत करो

मेरा सवाल: इंसान कोई रोबोट नहीं जो अगत-पिछत देखे बिना, सिर्फ वर्तमान में लगा रहे| पिछत यानी अतीत यानी इतिहास जब तक नहीं जानोगे तब तक वर्तमान के कर्म कैसे तय करोगे? पीछे की असफलताओं को ध्यान नहीं रखोगे तो फिर से वही असफलताएं करने से कैसे बचोगे? बिना भविष्य के प्लान के वर्तमान में कोई कैसे कार्य कर सकता है? इंसान कोई जानवर थोड़े ही कि गाड़ी या हल में जोता और उसके आगे पीछे के वक्त में सिर्फ खाता और सोता रहे? इंसान को कर्म करने के लिए प्रेरणा चाहिए, लाभ-हानि का कैलकुलेशन चाहिए|

उपदेश 2: जन्म के समय में आप क्या लाए थे जो अब खो दिया है? आप ने क्या पैदा किया था जो नष्ट हो गया है? जब आप पैदा हुए थे, तब आप कुछ भी साथ नहीं लाए थे| आपके पास जो कुछ भी है, आप को इस धरती पर भगवान से ही प्राप्त हुआ है| आप इस धरती पर जो भी दोगे, तुम भगवान को ही दोगे| हर कोई खाली हाथ इस दुनिया में आया था और खाली हाथ ही उसी रास्ते पर चलना होगा| सबकुछ केवल भगवान के अंतर्गत आता है?

मेरा सवाल: कोई भी इंसान ना ही तो खाली आता और ना ही खाली जाता| यह सबसे बड़ी गपैड है कि वो खाली आता है और खाली जाता है| यह सिर्फ जनमानस को धन से खाली रखने का षड्यन्त्र है, ताकि इस उपदेश का हवाला देकर गुप्त-दान-चन्दे-चढ़ावे के नाम पर उसकी जेबें झड़वाई जा सकें| गर्भ पड़ते ही उसका वर्ण निर्धारित हो जाता है, जाति निर्धारित हो जाती है, धर्म-देश-राज्य-जिला निर्धारित हो जाता है; डीएनए निर्धारित हो जाता है; यहां तक कि वो छूत कहलायेगा या अछूत यह तक निर्धारित हो जाता है| देखो जब वो गर्भ से निकलता है तो कितना कुछ साथ लिए आता है या आती है| और जाते वक्त हर कोई अपने कर्मों की पूँजी अपने साथ ले के जाता है, अपना नाम साथ ले के जाता है| सरदार भगत सिंह मरने के एक सदी बाद भी याद किया जाते हैं जो साबित करता है कि जब वो धरती से गए तो अपने साथ भारत के सबसे बड़े देशभक्त होने की पूँजी ले गए|

उपदेश तीन: आज जो कुछ आपका है, पहले किसी और का था और भविष्य में किसी और का हो जाएगा| परिवर्तन संसार का नियम है|

मेरा सवाल: बिलकुल झूठ, मेरी कमाई रेपुटेशन-इज्जत-नाम-ओहदा आज भी मेरा है और कल मेरे जाने के बाद भी मैं इसी से जाना जाऊंगा| यह मुझसे कोई नहीं छीन सकता| वर्ना ऐसा होता तो न्यूटन के तीन लॉ आज भी न्यूटन के ना बोले जाते, आइंस्टाईन के अविष्कार आइंस्टाईन के ना बोले जाते| महाराजा सूरजमल के जौहर महाराजा सूरजमल के ना बोले जाते| सच्चाई तो यह है कि यह वाक्य इसलिए घड़ा गया है ताकि यह रॉयल्टी और इतिहास के चोर महाराजा सूरजमल आदि जैसे महापुरुषों का क्रेडिट या तो भुलवा के उसको अपने अनुसार घड़ देवें या किसी और के खाते-बट्टे चढ़ा देवें| पश्चिम में ऐसा होने का कोई खतरा नहीं, क्योंकि वहाँ ऐसे उपदेश नहीं चलते|

उपदेश चार: आत्मा अजन्म है और कभी नहीं मरता है| आत्मा मरने के बाद भी हमेशा के लिए रहता है| तो क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? आप किस बात से डर रहे हैं? कौन तुम्हें मार सकता है?

मेरा सवाल: आत्मा अजन्म है तो यह 70 साल पहले भारत की जो जनसँख्या 35 करोड़ कुछ थी वो आज 125 करोड़ कुछ कैसे हो गई? यह 90 करोड़ नई आत्माएं कौनसी फैक्ट्री से बनके आई?

उपदेश पांच: केवल सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए अपने आप को समर्पित करो| जो भगवान का सहारा लेगा, उसे हमेशा भय, चिंता और निराशा से मुक्ति मिलेगी|

मेरा सवाल: लॉजिकल बुद्धि से बड़ा कोई भगवान नहीं| जो लॉजिक्स से चलता है वो अपना भगवान खुद है| बुद्ध से बड़ा कोई भगवान नहीं| बुद्ध यानी आपकी अपनी बुद्धि|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 30 November 2016

एक महान देशभक्त - आर्यन पेशवा - पीटर पियर प्रताप - मुरसन नरेश 'राजा महेंद्र प्रताप जी ठेनुआ'

एक महान देशभक्त - आर्यन पेशवा - पीटर पियर  प्रताप - मुरसन नरेश 'राजा महेंद्र प्रताप जी ठेनुआ' को उनके जन्मदिवस (1 दिसम्बर, 1886) पर सत-सत नमन!

First President of Provisional Government of India (1-12-1915),
1932 Nobel Prize Nominee,
Decorated with German’s Order of Red Eagle,
Founder of ‘Executive Board of India’ in Japan,
Founder of ‘World Federation Magazine’ in Japan,
Founder of ‘Prem-Dharm’ (Religion of Love),
Conferrer of ‘Jatav’ title on ‘Chamar’ Community to eliminate untouchability,
Ex. P.M. Atal Bihari Vapayee lost his deposit in front of Raja ji in 1957 from Mathura

Please read the attached poster for more details on Raja Saheb!

Jai Yauddhey! - Phool Kumar Malik


Saturday, 26 November 2016

छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से!

लड़ाई नहीं आहमि-स्याहमी की, होगी इशारों के फेरों से,
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

सूरजमल से टकराया था मनुवाद, पानीपत की चढ़त में,
दिल्ली जीती तो देंगे मुग़लों को, जाट नहीं म्हारी लिखत में।
ऐसी आह लगी जाट की, दिल्ली मिली ना पानीपत सुख में,
मनुवादी पेशवाओं के दम्भ हुए चूर, काले आम्ब की जड़ में।।
उन दिल्ली ना देने वालों को, फर्स्ट-एड दिखी मिलती सूरजमली चौबारों से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

एक छोटूराम ने कलम ऐसी फटकती चलाई थी,
सूदखोरों की लूट की, बाँध गठड़ी सी बगाई थी।
जिद्द पे धर जब जाट ने, कानूनी जंग मचाई थी,
नारंग-चोपड़े-शादीलालों की, हुई हवाएं-हवाई थी।
'बावन बुद्धि बणिया, पर छप्पन बुद्धि जाट चली' के चर्चे चले घर-घेरों से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

जगदेव सिंह सिद्धान्ती ने शास्त्री ज्ञान उधेड़ दिए सारे,
एक तरफ अकेला जट्टा, दूसरी तरफ ग्रन्थि-शास्त्री न्यारे|
एक-2 के ज्ञान की चणक सी जब तोड़ी, तो सारे लगे झल्लाने,
पंडताई झाड़ी जब महाज्ञानी ने तो, चले ब्राह्मण जहर पिलाने||
पर हाकिम नामिसद्दीन की दवा के आगे, पार हुए ना इरादे चोरों से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

चौधरी कबूल सिंह, हुए सेक्सपियर जाटों के,
रख गए साहित्य-इतिहास की, एक-एक पाती सम्भाल के।
सोरम की गलियों में पाते, जवाब हर उलझे सवाल के,
खाप-इतिहास और सभ्यता, पढ़ लो दिलों को बाळ के।।
लगा दो मजमा, चला दो कलमाँ; ज्यूँ जगमग हो ज्यां ढारे से।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

"फुल्ले-भगत" दिनरात बळै सै, अमर-ज्योत ज्यूँ गात जळै सै,
अलख-उल्हाणे नगर-निडाणे, जगत-जगाणे की चीस पळै सै।
कलम के बिना ठिकाणा नहीं सै, घाघ-घुनों से पार पाणा यही सै,
शक्ति-वाहिनी हो या छद्म-छाँटणी, इनपे भारी जाट-गजटी चासणी।।
न्यू चढ़ा दो कढाहे इस चासणी के, ज्यूँ फुस्स हो ज्या अरमां भंडेरों के।
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

लड़ाई नहीं आहमि-स्याहमी की, होगी इशारों के फेरों से,
छोल के कलम बना लो लठ की, इब लड़ना कागजी शेरों से।

जय यौद्धेय! - फूल मलिक (फुल्ले भगत)

Thursday, 24 November 2016

हस्तकला का अजब नमूना हरियाणवी फुलझड़ी!

मित्रों, फुलझड़ी हरियाणवी लोककला का ऐसा सतरंगी नमूना है जो हरियाणवी महिलाओं की हस्तकला को प्रतिनिधित्व प्रदान करता है। लोक कला का यह नमूना हरियाणवी लोकजीवन में महत्वपूर्ण रहा है। लड़की की विदाई के समय महिलाएं हस्तकला के अनेक विषय वस्तुओं को ससुराल पक्ष के लोगों के लिए देने की परंपरा रही है। इसमें कोथली, पोथिया, गिन्डू, बोहिया, फुलझड़ी अनेक ऐसी विषय वस्तुएं रही हैं जो हरियाणवी महिलाओं के हस्तकला को प्रदर्शित करती रही है। फुलझड़ी भी उसी तर...ह का एक हस्तकला का नमूना है। इसे बनाने के लिए सरकंडे का प्रयोग किया जाता है। सरकंडे को सबसे पहले वर्गाकार रूप में जोड़ लिया जाता है। जोडऩे के पश्चात जब इसकी आकृति पिंजरे जैसी बन जाती है तो उसके उपर रंगीन कपड़ों को तिरछे आकार में लपेटा जाता है। वर्गाकार सभी सरकंडे रंगीन कपड़ों से लपेट दिए जाते हैं। इसके साथ ही उसके पश्चात घोटा तथा पेमक चढ़ाकर इन सरकंडों के वर्गाकार स्वरूप को कलात्मक स्वरूप प्रदान किया जाता है। इसके साथ ही फुलझड़ी के ऊपरी सिरे पर जिसे बंधने वाला सिरा भी कहा जाता है पर कपड़ों से बना हुआ तोता बांधा जाता है। इसके वर्गाकार ऊपरी कोनों पर भी छोटे-छोटे तोते बांधने की परंपरा है। इसके पश्चात वर्गाकार स्वरूप में धागे की लडिय़ां लटकाई जाती हैं। इन लडिय़ों में तिकोने रंगीन आकार के कागज पुर दिए जाते हैं। ये छोटी-छोटी मोतियों जैसी लडिय़ों की अनेक लटकनें फुलझड़ी की शोभा को बढ़ाती हैं। इसके साथ-साथ रंगीन कपड़ों से ढ़ककर बीच-बीच में माचिश भी बांधी जाती है जिनमें अनाज के दाने ड़ाल दिए जाते हैं। इसके साथ ही फुलझड़ी की सभी लडिय़ों के निचले हिस्से तथा आखिरी छोर पर बल्ब तथा रंगीन कपड़ों के बने हुए छोटे गोलाकार गिन्डू बांधने की परंपरा भी रही है। फुलझड़ी की सतरंगी आभा इतनी अनोखी तथा आकर्षक होती है कि वह सबको अपनी ओर आकर्षित करती है। नववधु को दूसर यानि के दूसरी बार ससुराल में जाते समय हस्तकलाओं के अनेक नमूने ले जाती है। उसमें से फुलझड़ी भी एक है। फुलझड़ी को घर के दालान में शहतीर के बीच में लगे हुए कड़े पर बांधने की परंपरा है। कौन बहु कितनी सुंदर फुलझड़ी लाती थी इसकी चर्चा आस-पड़ोस में अवश्य होती थी। इसके साथ ही फुलझड़ी नववधु के जेठ द्वारा बांधी जाती है। नववधु की फुलझड़ी बांधने के बदले में ज्येष्ठ कुछ राशि के रूप में इनाम भी नववधु से लेता है। जेठ द्वारा बहु की फुलझड़ी बांधना लोकजीवन में गर्व एवं गौरव का हिस्सा रहा है। नववधु, ससुर, देवर, जेठानी, ननद सभी के लिए कुछ न कुछ हस्तकला का नमूना लेकर आती रही है। फुलझड़ी बांधना तथा संदूक उतरवाना जेठ के हिस्से में आता है। वर्तमान में फुलझड़ी बनाने की परंपरा लुप्तप्राय हो चली है। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय रत्नावली समारोह में फुलझड़ी बनाने की प्रतियोगिता को शामिल किया गया है। उसी की एक झलक आप लोगोंं से सांझा कर रहा हूं।

Author and Content: Mahasingh Poonia, Mahasingh Poonia