Saturday, 16 July 2022

दूसरा सर छोटूराम बनने निकले थे, बन गए उसके आलोचक मात्र जिसको सर छोटूराम ने ही कलकत्ता में सेठ छाजूराम के यहाँ 3 महीने अज्ञात में रखवाया था!

तुम उसकी आलोचना करते हो तो, उससे पहले सर छोटूराम की करो इस हिसाब से तो? वह तो उस वक्त फिर भी 20 साल का था, परन्तु उसने एक लाला से संबंधित सांडर्स को मारा है, यह जानते हुए भी उसको कलकत्ता में छुपवाने वाले सर छोटूराम तो उस वक्त 43 साल के थे; उससे दोगुनी से भी ज्यादा उम्र के? क्या उनमें इतनी अक्ल नहीं रही होगी, जितनी का भोंडा प्रदर्शन तुम अब कर रहे हो?

जो इस तथ्य को जानते हुए भी देशभक्ति के भगवान के पे बकवाद काट रहा है, वह या तो दबाव में है या किसी निहित स्वार्थ में|
सनद रहे, "पैसों से आइडियोलॉजी नहीं बनती, अपितु आइडियोलॉजी से पैसा बनता है"|
आ गई होगी उसको रहम या निकल लिया होगा सांडर्स को मारने, परन्तु वो उसको सिर्फ एक लाला के लिए मारने गया होगा; यह बहुत हल्का व् बचकाना क्यास मात्र है| उसकी जंग सिर्फ लाला को मारने तक की रहती तो वह भरी असेंबली बीच गोला ना फेंकता| जेल में बैठ विचारों की क्रांति खड़ी ना करता| वह माफिवीर बनने की बजाए हसंते-हँसते फांसी ना चूमता| उसकी प्रसिद्धि इतनी ना चढ़ती कि अंग्रेजों को पब्लिक के डर से उसकी फांसी तय तारीख से एक दिन पहले वह भी गुपचुप करनी पड़ी| ऐसे डंके की चोट पर सब कुछ ना करता कि देशभक्ति के सब आयामों की ऊंचाई छू के गया वो| सैनिकों की शहादत अलग प्रकार की है व् उसकी शहादत अलग प्रकार की; दोनों में कोई तुलना हो ही नहीं सकती|
और नहीं तो इतने ही व्यक्तिगत स्वार्थ में डूबे हो तो अपनी ही ब्रांड-वैल्यू का ख्याल कर लो? किस कोने लगाते जा रहे हो अपने आपको, कभी बैठ के आंकलन किया करो|
और नहीं तो उनसे (फंडियों से) ही सीख लो, जिनको ठीक करने निकले हुए होने का दम भरते हो? देखा है कभी कोई उनमें से अपनी ही कौम के किसी किरदार की यूँ बीच चौराहे झलूस पीटता? एक वो हैं जो उनके वहां के माफीवीरों को भी शूरवीर स्थापित करने पर लगे हैं और एक तुम हो जो "बाल मात्र नुक्स, वो भी क्यास आधारित" से "राई के पहाड़ बनाने" लग बैठे हो? ऐसे जीतोगे फंडियों से? यह हैं सर छोटूराम के रास्ते व् आदर्श?
सौं तुम्हें सर छोटूराम की, अगर आगे ऐसी बकवादें काटो तो!
जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 12 July 2022

दादा नगर खेड़ों / दादा भैयों / बाबा भूमियों को खत्म करवाने हेतु दुष्प्रचार (महिलाओं-बच्चों में खास टारगेट) करती फिरती एक तथाकथित "निर्मात्री सभा"!



यह अपने आगे हमारी मूर्तिपूजा नहीं करने की पहचान के शब्दों का दुरूपयोग भी कर रही है, जबकि असलियत में यह वर्णवादी फंडियों का ऑउटफिट है| इनका उद्देश्य है कि या तो दादा खेड़े खत्म हों, या इन पर इनके मुताबिक इनके अड्डे बनें, इसलिए वक्त रहते इनसे सम्भलें व् अपनी नस्ल व् असल की इनसे बाड़ करें| 


अब जानिए, यह क्या दुष्प्रचार कर रहे हैं| बात मेरे और गाम में दूसरे पान्ने से मेरे भतीजे के मध्य फोन पर हुई थी, ज्यों-की-त्यों रख रहा हूँ| इस भतीजे से मैं पहली बार बात कर रहा था, क्योंकि इसके मन में जो सवाल कोंध रहे थे, उनके उत्तरों बारे इसको मुझे ही उचित सोर्स के तौर पर बताया गया| तो आपस में परिचय और प्रणाम की औपचारिकता पूरी होने के बाद गाम की सभ्यता और हरयाणत (संस्कृति) की वर्तमान हालत बतलाने से होते हुए बात इस मुद्दे पर कुछ यूँ पहुंची:


भतीजा: काका, आपको असली बात बता दी ना तो अपने गाम के "दादा खेड़ा" को उखाड़ के फेंकने का मन करेगा आपका|


काका: क्या बात करता है? ऐसा क्या सुना जो ऐसा कह रहा है? जबकि हमारी हरयाणत की मूल पहचान हैं हमारे गामों में पाए जाने वाले "दादा नगर खेड़े / दादा भैये / बाबा भूमिए / बड़े बीर" तो?


भतीजा: काका "दादा खेड़ा" हिन्दुओं की नहीं अपितु मुस्लिमों की देन है|


काका: वो कैसे?


भतीजा: मेरे को एक निर्मात्री सभा के आचार्य ने बताया|


काका: जरा खुल के बता पूरी बात?


भतीजा: हाँ क्यों नहीं, वो अपने गाम के एक प्राइवेट स्कूल ने पिछले हफ्ते 2 दिन का इस निर्मात्री सभा का केम्प लगाया था, जिसमें आये एक आचार्य ने बताया कि "जब हमारे देश में मुगलों का शासन था तो वो हमारी नई दुल्हनों को लूट लिया करते थे और अपनी पूजा करवाते थे, जिसके लिए उन्होंने हर गाँव में उनकी पूजा हेतु ये दादा खेड़ा बनवाये थे" और तभी से दादा खेड़ा पर हमारी औरतें और बच्चे पूजा करती हैं|


काका: और क्या बताया उस आचार्य ने?


भतीजा: और तो कुछ नहीं पर अब मैं दादा खेड़ा को अच्छी चीज नहीं मानता|


काका को खूब हंसी आती है|


भतीजा (विस्मयित होते हुए): आप हंस रहें हैं?


काका: हँसते हुए...अब मुझे समझ आया कि खापलैंड पर मूर्तिपूजा नहीं करने के सिद्धांत वालों की पकड़ दिन-भर-दिन ढीली क्यों होती जा रही है|


भतीजा: वो क्यों?


काका: क्योंकि इसमें पाखंडी घुस आये हैं|


भतीजा: आप एक आचार्य को पाखंडी कहते हैं?


काका: तो और क्या कहूँ? तूने तुम्हारी माँ-दादी या दादा को ये बात बताई?


भतीजा: नहीं?


काका: क्यों नहीं?


भतीजा: मुझे आचार्य की बात सच्ची लगी?


काका: आचार्य की बात सच्ची नहीं थी बल्कि उसका प्रस्तुतिकरण भ्रामक था और उसके भ्रम में तुम आ गए| और आचार्य होना, कौनसी सत्यता या आपके अपने हो जाने का परिचायक है?


भतीजा: वो कैसे?


काका: दादा खेड़ा की जो कहानी आचार्य ने तुम्हे सुनाई वो सच्ची नहीं है, और क्योंकि तुम पहले आचार्य से ये बातें सुनके आये तो सर्वप्रथम तो मुझे तुम्हारा भ्रम दूर करने हेतु आचार्य के तर्क के सम्मुख कुछ तर्क रखने होंगे और फिर दादा खेड़ा की सच्ची कहानी तुम्हें बतानी होगी| अत: मैं पहले तर्क रख रहा हूँ, जो कि इस प्रकार हैं: दादा खेड़ा एक मुस्लिम कृति या मान्यता नहीं है क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज के दिन किसी भी गाम/शहर में दादा खेड़ा नहीं होते|


भतीजा: वो कैसे?


काका: उसके लिए तुम्हें "सर्वखाप " का इतिहास जानना होगा, "खाप" जानते हो ना क्या होती है?


भतीजा: ज्यादा नहीं सुना?


काका: हमारी खाप का नाम है "गठ्वाला खाप"|


भतीजा: हाँ, हम गठ्वाले हैं ना?


काका: हाँ, तो अगर दादा खेड़ा मुस्लिम देन होती तो यह उसी वक्त खत्म हो गई होती, "जब गठ्वाला खाप के बुलावे पे आदरणीय सर्वजातीय सर्वखाप ने मुस्लिम रांघड़ नवाबों की कलानौर रियासत तोड़ी थी" (और फिर मैंने उसको कलानौर रियासत के तोड़ने का पूरा किस्सा विस्तार से बताया) और पूछा कि जो वजह आचार्य ने दादा खेड़ा के बनने की बताई उसी वजह की वजह से तो कलानौर रियासत तोड़ी गई थी| सो अगर ऐसी ही वजह दादा खेड़ा के बनने की होती तो आप बताओ खापें उनके गांव में दादा खेड़ा को क्यों रहने देती? और इसको "कोळा पूजन" कहते थे, "कोळा यानि थाम्ब यानि खम्ब"; तो क्या समानता हुई दोनों में? 


भतीजा: ये बात तो है काका!


काका: अब दूसरा तर्क सुन, दादा खेड़ा की पूजा अमूमन रविवार को होती है, वह भी च्यांदण वाला रविवार; जबकि मुस्लिमों का साप्ताहिक पवित्र दिन होता है शुक्रवार (उनकी भाषा में जुम्मा)?


भतीजा: हाँ


काका: तो अगर उनको खेड़ा पूजवाना होता तो वो शुक्रवार को क्यों ना पुजवाते?


भतीजा: आचार्य कह रहे थे कि देखो थारे गाम के दादा खेड़ा का मुंह भी पश्चिम की तरफ है यानि कि मक्का-मदीना की तरफ|  


काका (अचरज करते हुए, यह फंडी इतनी खोजबीन समाज जोड़ने पे कर लें, तो इंडिया वाकई विश्वगुरु बन जाए): जिंद (जींद) के रानी तालाब मंदिर का मुंह किधर है? 


भतीजा: पश्चिम की तरफ| 


काका: तो क्या वह भी मुस्लिमों का कहना शुरू कर दें आज से, इनकी मान के? और हर तीसरे-चौथे मंदिर का मुंह पश्चिम की तरफ मिलेगा, तो आचार्य की मान के ढहा दें सबको? 


भतीजा: समझ गया काका| अगली बात काका, आचार्य कह रहे थे कि दादा खेड़ा पर नीला चादरा चढ़ता है, जो कि मुसलमानों की दरगाहों पर चढ़ाया जाता है?


काका: दरगाह का तो हरा होता है| नीला तो सिख धर्म का रंग है| और मान्यता के हिसाब से दादा खेड़ा का सफ़ेद चादरा बल्कि चादरा भी नहीं धजा होती है और अगर कोई नीला चढ़ा जाता है तो वह ऐसा अज्ञानवश करता है या इन फंडियों के प्रोपगैंडा में पड़ के इनके भ्रम फैलाने को करता है| हरे के साथ कहीं-कहीं नीला चादरा/फटका सैय्यद बाबा की मढी पर भी चढ़ता है| हाँ अगर यह आचार्य सैय्यद और दादा खेड़ा में कोई समानता ढून्ढ रहा हो तो कृप्या उसको बता देना कि दोनों अलग मान्यताएं हैं|


भतीजा: हम्म.....और जब भी गाम में नई बहु आती है तो उसको दादा खेड़ा पे धोक लगवाने क्यों ले जाया जाता है, क्या यह बात आचार्य की बताई बात से मेल नहीं खाती?


काका: पहली तो बात नई बहु को तो बेरी आळी, भनभोरी आळी, खरक आळी यानि अपनी-अपनी स्थानीयता के अनुसार कहीं-ना-कहीं सब ही ले जाने लगे हैं| जो कि पहले सिर्फ खेड़ों पर ही ले जाई जाती थी (हालाँकि आज भी जाती हैं)| तो क्या इस आचार्य ने इन बेरी-भनभोरी-खरक आदि पे ले जाने पे भी ऑब्जेक्शन जताई? 


भतीजा: नहीं, काका; सिर्फ दादा खेड़ों बारे बुरा बता रहा था| 


काका: तो समझ लो इसी से| और नई बहु तो क्या, नया दूल्हा जब मेळमांडे वाले दिन केसुह्डा (घुड़चढ़ी) फिरता है तो वह भी दादा खेड़ा पर धोक लगाता है और इस धोक का उद्देश्य होता है अपनी नई शादीशुदा जिंदगी की अच्छी और शुभ शुरुआत के लिए अपने पुरखों का आशीर्वाद लेना और इसी उद्देश्य से नई बहु शादी के अगले ही दिन गाम के दादा खेड़े पर धोक मारने आती है| नई बहु को दादा खेड़ा पर लाने का एक उद्देश्य बहु को गाम के प्रथम पुरखों की मान-मर्यादाओं-मूल्यों से परिचित करवाना भी होता है|


भतीजा: दादा खेड़ों पर क्यों?


काका: यही तो गाम के वह माइलस्टोन होते हैं, जहाँ प्रथमव्या आए पुरखों ने डेरा डाला होता है व् इस जगह को केंद्रबिंदु मान के इसके इर्दगिर्द ही हमारे गाम-खेड़े बसते आए हैं|  


भतीजा: अच्छा काका, अब समझा| यह और बताओ कि सैय्यद बाबा की क्या कहानी है?


काका: सैय्यद मुस्लिमों के सिद्ध पीर हुए हैं, और मुख्यत: अपने गाम में बसने वाली मुस्लिम जातियाँ उनकी अरदास करती हैं|


भतीजा: काका वो कह रहे थे कि हमारा गाम पहले मुस्लिम रांघड़ों की रियासत था और हम बाद में आकर बसे|


काका: तो फिर इस हिसाब से तो उस निर्मात्री सभा वाले आचार्य, आर.एस.एस. और तमाम हिन्दू संगठनों को हमें पुरस्कृत करना चाहिए कि हमने मुस्लिम रांघड़ों की रियासत पर अपना खेड़ा बसा रखा है, या नहीं?  


भतीजा: बात तो सही है काका आपकी| अब समझा| और शायद इसीलिए अपने गाम के खेड़े को "बड़ा बीर" भी बोला जाता है? 


काका: हाँ, गठवालों में चार बड़े बीर हैं; एक निडाणा में, एक आहूलाणा में, एक कासण्डा में व् एक का मुझे नाम ध्यान नहीं|  


भतीजा: काका आपने तो मेरी आँख खोल दी, वो आचार्य तो वाकई में हमें भ्रमित कर पथभ्रष्ट करने वाला ज्ञान बांटता फिर रहा है|


काका: जब कभी तुझे वो दोबारा मिले तो ये तर्क रखना उसके आगे और फिर देखना वो क्या जवाब देता है|


भतीजा: काका असल में हमारे बुजुर्ग हमें कुछ बताते ही नहीं...


काका: सारा दोष बुजुर्गों पर मत डालो, तुम जैसे हैं ही कितने जो अपने बुज्रुगों से ऐसी बातें पूछते-परखते हैं? यह बच्चे घर आकर अपनी दादी-दादा, माँ-पिता को यह बातें बताएं तो वो जरूर इन बातों की सत्यता से अवगत करवाएं या किसी जानकार को तुम्हें रेफर करें; जैसे तुम्हें मेरे से पूछने को कहा गया| 


भतीजा: थैंक्यू काका| 


काका: अपने साथियों को भी इस सच्चाई से अवगत करवाना| और उनको यह भी कहना की गए डेढ़ दशक पहले तक हमारे आदरणीय आर्यसमाजी हमारे गाम में जो भी कार्यक्रम करते थे उसमें, 'जय दादा नगर खेड़ा' और 'जय निडाणा नगरी' का उद्घोष लगा के ही तो प्रचार का कार्यक्रम प्रारम्भ किया करते थे और यही नारे लगा के कार्यक्रम सम्पन्न होते थे| तो इनसें पूछें कि मात्र डेढ़ दशक के काल में ऐसा क्या हो गया कि उसी दादा खेड़ा को यह बहरूपिए गिराने की बात करने लगे|


भतीजा: जी बिलकुल करवाऊंगा और आगे से पुछवाऊँगा भी!


वार्तालाप खत्म!


जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 5 July 2022

इंडिया में विश्वगुरु कहलाने की हैसियत का कोई है तो हैं वह हैं 2020-21 का किसान आंदोलन करने वाले यहाँ के किसान!

पढ़ें नीचे व् देखें कैसे पूरी दुनिया को शांतिपूर्ण आंदोलन करने सीखा दिए!


नीदरलैंड में किसानों ने ट्रैक्टरों के माध्यम से हाईवे को जाम किया| सरकारी बिल्डिंगों के सामने धरना शुरू किया और सुपर-मार्किटों के स्टोरों को घेर लिया है। किसानों ने नीदरलैंड-जर्मनी हाईवे को भी जाम कर दिया है। नीदरलैंड की सरकार 2030 तक अमोनिया और नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन 50% तक कम करना चाहती है जिसके लिए किसानों पर अलग-अलग तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं, जिसके तहत पशु रखने पर प्रतिबंध, खेती में उर्वरक इस्तेमाल पर रोक आदि शामिल हैं। किसानों का कहना है कि हवाई यातायात, बिल्डिंग निर्माण व इंडस्ट्री से बड़ी मात्रा में खतरनाक गैसों का उत्सर्जन होता है लेकिन उन पर किसी तरह की कोई रोक नहीं लगाई जा रही है, बल्कि उल्टा किसानों पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। किसानों ने नया नारा दिया है "Our Farmers, Our Future", जिस तरह भारत में किसान आंदोलन के दौरान नारा "No Farmers, No Future" था। भारत के किसान आंदोलन ने दुनियाभर के किसानों पर गहरा प्रभाव डाला है और शांतिपूर्ण ढंग से ट्रैक्टरों के माध्यम से प्रदर्शन करने का जज्बा पैदा किया है, जिसके भविष्य में सार्थक परिणाम होंगे।


यह है असली विश्वगुरु की धाती, इन फंडियों वाले कपोल-कल्पित विश्वगुरु के डोंडरों में मत पड़ा करो; यह तुम्हें चलते-फिरते नस्लीय-घृणा से भरे विषगुरु तो जरूर बना सकते हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 






Sunday, 3 July 2022

दुनियां में "दादा नगर खेड़ों" जैसी साफ़-सुथरी-स्पष्ट-निश्छल "धार्मिक फिलोसॉफी" का कोई सानी नहीं!

सबसे पहले दादा नगर खेड़ा के पर्यायवाची: दादा नगर भैया, बाबा भूमिया, गाम खेड़ा, जठेरा आदि|


कहां पाया जाता है: उदारवादी जमींदारे की खापलैंड व् मिसललैंड पर, उदारवादी जमींदारी कल्चर की आध्यात्मिक फिलोसॉफी है दादा नगर खेड़ा|

क्या होता है दादा नगर खेड़ा: गाम को बसाने वाले पहले पुरखों द्वारा स्थापित गाम की नींव का स्थल; जिसको केंद्रबिंदु मान के उसके इर्दगिर्द गाम बसा होता है| कहीं-कहीं इसको गाम के प्रथम मृत व्यक्ति (पुरुष या महिला) की याद में बनाया भी कहा जाता है|

साफ़-सुथरी-स्पष्ट-निश्छल "धार्मिक फिलोसॉफी" कैसे:

1) 100% औरतों की लीडरशिप की धोक-ज्योत होती है इनमें|
2) मूर्ती पूजा रहित सिद्धांत है|
3) कोई मर्द धर्मप्रतिनिधि नहीं बैठाया जाता इनपे|
4) खुद का लाया हुआ प्रसाद खुद ही बांटना होता है|
5) धर्म-वर्ण-जाति की कोई बाध्यता नहीं, गाम-नगर में बसने वाला कोई भी रंग-नश्ल का इंसान इनको धोक सकता है|

यानि धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार के आर्थिक भ्र्ष्टाचार, सामाजिक व् नश्लीय भेदभाव, औरतों के प्रति दुराचार के रास्ते; इसके सिद्धांतों में ही बंद कर दिए थे पुरखों ने|

और इसीलिए फंडी वर्ग इनको हड़पना चाहता है, क्योंकि उसको वर्णवाद चाहिए, धर्म के नाम पर दान रुपी आमदनी चाहिए, औरतों पर आधिपत्य चाहिए (फंडियों के बनाए हुए तथाकथित धर्म स्थलों में धर्मप्रतिनिधि पुरुष बैठते हैं ना)|

इन खेड़ों/भैयों/भूमियों के बालकों को यह जानकारी जरूर पास करें, ताकि वह समझें कि वाकई में धर्म के नाम पर इंसानियत, सामाजिकता, बराबरी, संवेदना पालना कहते हैं तो उनके पुरखों के दिए इस धार्मिक सिद्धांत को कहते हैं|

उद्घोषणा: लेखक का किसी भी प्रकार की अन्य सच्ची-झूठी धार्मिक मान्यता से कोई विरोध नहीं है, लेखक ने सिर्फ वह बातें अपने लोगों के मध्य रखी हैं जो उसको उसके पुरखों से विरासत में मिली हैं, उसकी किनशिप हैं|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 30 June 2022

महाराष्ट्र एपिसोड!

इंडिया की पॉलिटिक्स दो तरीके की liasoning पर चलती है, एक इंटरनेशनल व् दूसरी इंटरनल|

इंडिया में international liasoning करने वाले आज़ादी से पहले मुख्यत: छह ग्रुप रहे हैं, जिनमें कि जैन ग्रुप (जैनियों का), हिन्दू महासभा ग्रुप (लिबरल ब्राह्मण-बनियों की लीडरशिप का), संघी ग्रुप (कंज़र्वेटिव ब्राह्मण-बनियों की लीडरशिप का), लेफ्ट ग्रुप, यूनियनिस्ट ग्रुप (खाप-खेड़े-खेतों की किनशिप वाली तमाम जाति-धर्मों का) व् मुस्लिम लीग ग्रुप होते थे| मुस्लिम ग्रुप आज़ादी के बाद बंटवारे के चलते बंट सा गया; यूनियनिस्ट ग्रुप, सर छोटूराम के बाद इसकी लिगेसी ढंग के हाथों में नहीं जाने के चलते लुप्तप्राय हो गया| संघी व् हिन्दू महासभा वाले धीरे-धीरे एक हो गए या ऊपरी तौर पर एक दिखते हैं| कुल मिला के आज के दिन international liasoning में जैनी व् संघी ही मुख्य दिखते हैं|
अब जब इस समीकरण को महाराष्ट्र के हिसाब से समझें तो एक पेंच और है| और वह है कायस्थों (ब्राह्मण से व्यापारी बना वर्ग) व् चितपावनी ब्राह्मणों की आपसी लड़ाई| बाल ठाकरे, कायस्थ हैं जबकि फडणवीस ग्रुप चितपावनी| यहाँ वह लोग ध्यान दें जिनको उनकी जाति या कौम के भीतर आपसी लड़ाई व् फूट से चिंता रहती है कि यह एक कब होंगे| रोळा एक होने का है ही नहीं, रोळा तो इस बात का है कि आप लोग आपस में एक कौम के आंतरिक लड़ते किसलिए हो, व्यक्तिगत सर ऊँचा रखने को या कौम का सर ऊँचा रखने को? खैर, महाराष्ट्र में जो भी हुआ परन्तु शारद पंवार नाम के मराठे का खौफ अभी भी कायम है, इसलिए बारहवीं पास फडणवीस को inter में दाखिला दिलवाया गया व् शिंदे एक मराठे को सीएम बनाया गया| एक हिसाब से मराठों को सबसे ज्यादा फायदा हुआ क्योंकि उनको मराठा सीएम मिल गया| लेकिन इसमें जैनियों के जरिए यह फैसला हुआ है हमारे सूत्र बताते हैं|
जैनी व् संघियों में भी इंटरनल रस्साकसी है, जो सिर्फ उनको दिखेगी जो जैनियों को बारीकी से ऑब्ज़र्व कर रहे होंगे| आज का लब्बोलुआब यही है कि आज के दिन इंडियन पॉलिटिक्स में क्या होने वाला है उसके लिए संघी नहीं, बल्कि जैनियों की पॉलिटिक्स को समझिये| संघी, हरयाणवी भाषा में कहे जाने वाले "आडुओं" से ज्यादा कुछ नहीं| यह सिर्फ इमोशंस को एक्सप्लॉइट करना ज्यादा जानते हैं जबकि जैनी एक्सप्लोइटेड इमोशंस का अग्रिम इस्तेमाल जानते हैं| इसीलिए सारा संघ, मात्र 50 लाखी जैनी समुदाय के आगे कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं|
देखना यह योगी के पीएम बनने के सपने को भी 2024 आते-आते कैसे धराशायी करेंगे| अगला पीएम मोदी या शाह ही होना है या फिर कोई तीसरा ही चेहरा आएगा, योगी नहीं|
ऐसे में सर छोटूराम की आइडियोलॉजी वालों से अनुरोध है कि थारे उस पुरखे के खड़े किये उस इंटरनेशनल चैनल की कुछ सुध ले लो अगर कहीं अपना भी नाम चाहो तो; वरना करवाते रहना अपने साथ "बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना" वाली बार-बार|
जय यौधेय! - फूल मलिक

हेमराज डाकू (बाग्गी)!

एक रियल स्टोरी। 

हेमराज डाकू (बाग्गी)का (गोरा रंग अति सुन्दर कद 6'3")जन्म सन 1915 में जिला जींद के  मेहरडा गाँव में हरेराम के घर हुवा।ये मशहूर निघाइया(1856) की पांचवी पीढ़ी से थे।हेमराज की 3 बहनें छ्न्नो,धनकोर तीसरी का नाम याद नहीं है थी हेमराज के दो भाई दीवाना और भगत में से दीवाना काफी दबंग था अपने साथ काफी लठैत रखता था इनका परिवार काफी संपन था।इनका फ़ादर हरेराम 20,25 गांवो का चौधरी था। 

गांवों में कुछ बाह्मण भी रहते थे एक दीपा बाह्मण इनसे किसी डांगर की खरीद फरोख्त बाबत उलझ गया वो भी आछा संपन था उसने और उसके हमजातों ने मिलकर हेमराज के बाप हरेराम को मार दिया हेमराज बहुत सरीफ़ था इस घटना से पहले।उसके बाद हेमराज ने अपने गांव के सभी बाह्मणो का सफाया कर दिया तथा आस पास या हरयाणा के  गांवो से ये गूर्जरता तो जाती पूछता उसमें अगर कोई  बाह्मण मिला उसी को मार दिया करता।बाकी कई कहानियां हैं अलग अलग इलाकों की जो प्रचलित हैं।

अंत में 1955 में एक मुख्बिरी से हेमराज एक पुलिस मुठभेड़ में बूढ़ाखेडा गाँव में घिर गया उसने अपनी ही बंदूक से अपना जीवन समाप्त किया।

चेता किसान। (https://www.facebook.com/profile.php?id=100040322672354) 

Monday, 20 June 2022

अग्निवीर के बारे में कुछ बहम!

1) इससे आरएसएस के कैडर को ट्रैन किया जाएगा? ऐसा ही होता तो एनसीसी भी तो गोलियां चलाना सिखाती है, व् इतना ट्रेनिंग भी करती है कि 90% आरएसएस वाला तो उसी से थक के भाग खड़ा हो? या नहीं? तो 4 साल की फ़ौज वाली ट्रेनिंग में जायेंगे तो जरूर, पर वही जो जाते रहे हैं|

2) अडानी-अम्बानी या नेताओं आदि के सिक्योरिटी गार्ड बनेंगे: वह तो अभी भी बनते आ रहे हैं, बस जुल्म यह हुआ है कि पहले 37-40 की उम्र में जा के बनते थे अब 20-21 की उम्र में बनेंगे|
3) देशभक्ति की भावना को कोई फर्क नहीं पड़ेगा: बिलकुल पड़ेगा व् लुप्तप्राय हो जाएगी| विश्व का कोई भी रोजगार उठा के देख लो, लम्बी नौकरी में ही इंसान का अपनी जिम्मेदारी व् संस्था के प्रति लगाव व् समर्पण पैदा होता है| फ्रांस में तो प्राइवेट सेक्टर तक में सरकारी की तरह जॉब सिक्योर होती है, एक बार उस पर चढ़ गए तो कोई आपकी नौकरी नहीं छीन सकता, सिवाए आप दिवालिये व् जानबूझ के परफॉर्म करना छोड़ दो तो| यह पॉइंट सबसे खतरनाक होगा, इस पालिसी में| 17 साल न्यूनतम वाली नौकरी में फौजी स्थाई होते ही ब्याहा भी जाता था यानि 20-21 साल की उम्र में बंदा नौकरी व् शादी दोनों में सेटल, इससे उसका सिस्टम व् देश के प्रति मोह व् प्रतिबद्धता बढ़ती थी; देशभक्ति चरम छूती थी| और यह तभी होता है जब 17 साल वाली जॉब वाला स्थाईत्व हो यानि वो कहते हैं ना कि "भूखे पेट देशभक्ति नहीं होती"| 4 साल वाली में तो बंदा कहाँ इन बातों तक की भावना तक जा पाएगा, अपितु 2 साल होते ही दूसरी नौकरी व् ब्याह की चिंता में डिस्टर्ब रहेगा| यह बहुत घातक कदम में इस सरकार का; वह भी राष्ट्रभक्ति का दम भरने वाली सरकार का| ताज्जुब है राष्ट्रभक्ति रटने वाली सरकार को यह नहीं पता कि राष्ट्रभक्ति बना के कैसे रखी जाती है|
4) 25% में सब ईमानदारी से लिए जाएंगे| नहीं लिए जाएंगे, असली घपला ही यहाँ होगा| भाई-भतीजावाद, चाटुकारिता चरम पर बढ़ेगी, 25% में शामिल होने को| स्वछंद कर्मचारी का कल्चर खत्म करेगी यह योजना|
5) फौजियों की अर्निंग कैपेसिटी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा: पड़ेगा, 60 व् 70 हजार की सैलरी पर पहुँच कर, पेंशन समेत रिटायर होने वाले फौजियों का जमाना लद गया है इससे| कहाँ तो 2022 के पंजाब-यूपी आदि एलेक्शंस में सिविल जॉब्स में पेंशन स्कीम वापिस आ रही थी, कई राज्यों ने घोषणा भी कर दी थी; तो उसका पक्का इलाज बांधा गया है कि किसी को भी पेंशन नहीं दी जाए| फौजी तो गए ही इससे, साथ ही सिविल में भी देखना शायद ही कोई राज्य पेंशन की पुनर्बहाली की घोषणा करे| ऐसा किसी गुलाम स्टेट में ही हो सकता है, आज़ाद में नहीं| शायद ही दुनिया में ऐसा कोई देश हो, जो अपने कर्मचारियों को रिटायर पेंशन नहीं देता हो| इन दोनों ही बातों से आम फौजी की अर्निंग कैपेसिटी कभी भी 70 हजार महीना नहीं पहुँच पायेगी वरन इससे आधे के नीचे रह लेगा| इनकी कैपेसिटी आधी यानी कंस्यूमर कैपेसिटी आधी| जिससे ना सिर्फ फ़ौज को नुकसान होगा, आने वाले वक्त में कंस्यूमर कैपेसिटी आधी होने के चलते, बिज़नेस वालों का सामान भी आधा बिकेगा यानि बिज़नेस पर सीधा-सीधा असर| बिज़नेस वालों को इससे इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि बिज़नेस का कल्चर ही "बड़ी मछली, छोटी को खाने वाला" होता है; तो रोड्स पर तो आएंगे परन्तु छोटे व् मझले व्यापारी| यानि इजराइल अमेरिका से अग्निवीर की कॉपी करने से पहले, वहां के छोटे व् मझले व्यापारी को कैसे बचा के रखा जाता है इसकी भी कॉपी करते तो अग्निवीर लागू करने की सोचते ही नहीं|

लेकिन लगता है मनुवाद इनके सर चढ़ कर बोल रहा है| अभी सचेत हो जाओ, यह हिन्दू राष्ट्र के नाम पर भी तुमको "मनुवाद" परोसने वाले हैं; कहीं कहो कि किसी ने चेताया नहीं था|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 19 June 2022

आंतरिक रोळा घर का हो या कौम का, गळी में लाने से सदा उलझता ही है, सुलझता नहीं!

बात 2017 की है: फरवरी 2016 के जाट आरक्षण आंदोलन के बाद, जनवरी 2017 में इंडिया आया था तो आधी जनवरी व् पूरी फरवरी लगा के फरवरी 2016 मुद्दे पर विवेचना करने को एक-के-बाद एक चार खाप कॉन्फरेन्सेस करवाई थी व् शांति से निबटवाई| पहली रोहतक, दूसरी कुरुक्षेत्र, तीसरी दिल्ली सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण वाले लॉ कॉलेज में व् चौथी फिर से रोहतक ही|

इनमें से एक में भवन बुक करने में दिक्कत आई, वह भी वहां के स्थानीय खाप चौधरी साथ होते हुए, भवन भी कौम के नाम का ही था; परन्तु हमारी बात नहीं बनी तो हमने तुरताफुर्ति यूनिवर्सिटी कॉलेज में वह कांफ्रेंस करवाई|

परन्तु उस भवन की देखरेख करने वालों पर ना खुद क्रोधित हुआ व् ना जो मेरे साथ थे उनमें से किसी को होने दिया| सोशल मीडिया पर उनका मीडिया ट्रायल खोल के बैठने की तो सपने में भी नहीं आई|

बल्कि बैठ के उन वजहों पर विचारा गया कि यह नौबत क्यों आई, वह भी खाप तक के चौधरी साथ होते हुए| और कमी खुद की सैडुलिंग, नेटवर्किंग व् जरूरी कम्युनिकेशन में पाई गई| कुछ इशू कुछ स्थानीय लोगों के आपसी तालमेल में अहम् का भी पाया गया| परन्तु सबसे पहले खुद की तरफ से रही कमियां सुधारी गई| आपस में सर-जुड़वाए गए व् आगे इसका ध्यान रखवाया गया तो आगे के कार्यक्रमों में कभी भी नौबत नहीं आई|

एक-दो ने कहा भी कि ऐसा भवन जो समुदाय के नाम से है व् समुदाय के ही काम नहीं आ सकता तो इस मुद्दे को यूँ ना दबाओ या छोटा मानो| लेकिन यह कह के सब शांत करवा दिए कि ऐसे मसले घर के हों या कौम के, गळी में नहीं ले जाए जाया करते| और अगर तुम उनको घर-कौम के भीतर रख के, आपस में जरूरी सरजोड़ करके नहीं सुलटा सकते तो तुम उनको भी दुश्मन बना लोगे जो उस भवन में थे व् तुम्हारे काम आ सकते थे या उनकी नजर में तुम्हारा मामला गया ही नहीं|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Saturday, 18 June 2022

सालाना 48000 कुंवारे राष्ट्रीय स्तर पर व् 4800 कुंवारे अकेले हरयाणा स्तर पर बढ़ाया करेगी "अग्निवीर" योजना!

तथ्यात्मक बात से शुरू करते हैं: "अग्निवीर" के बाद रेगुलर व् ट्रेडिशनल रेजिमेंट्स (जैसे कि सिख-गोरखा-मराठा-जाट-राजपूत-ग्रेनेडियर्स-डोगरा रेजिमेंट्स आदि) में सैनिकों की भर्ती अब "अग्निवीर" से ही हुआ करेगी, जिसमें कि अग्निवीर पालिसी के तहत हर साल 25% को इसमें लिया जाएगा| औसतन हर साल 60000 भर्तियां इंडियन डिफेंस करती आई है| बस अब हुआ इतना करेगा कि 75% यानि 48000 की हर साल "अग्निवीर" पालिसी के तहत फ़ौज से छुट्टी होती रहा करेगी|

अब हकीकत देखते लेते हैं:
1) पहली बात तो जो अंधभक्तों के जरिए फैलवाई जा रही है कि जातीय नामों वाली रेजिमेंट्स खत्म हो रही हैं यानि यह लोग रेजिमेंट्स के नाम बदलने मात्र के जरिए ही तथाकथित जातिवाद खत्म करने जा रहे हैं (जो कि फ़ौज में ना तो लीगली मान्य व् ना ही कभी देखने को मिलता; कम से समाज में पाए जाने वाले वर्णवाद के स्तर का तो 1% भी नहीं), तो ऐसा फैलाने वाले लोग व् उनकी बहकाई में आने वाले लोग दोनों अपनी गलतफहमी दूर कर लें, कि ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है| कम से कम अभी तो नहीं| तो यह सिवाए इस बात का आनंद लेने से मतलब रखने वाले लोग कि, "हमारी दोनों आँखें भले फूटें, पर पडोसी की एक फूटनी चाहिए' अपनी यह आदत सुधार लें, क्योंकि दोहरा नुक्सान तुम्हारा हो रहा है, तुम्हारी अगली नस्लों का हो रहा है|
2) अग्निवीर की पॉलिसी को जितना बढ़ा-चढ़ा के यह सरकार परोस रही है, इससे बढ़िया भर्ती की सुविधाएं जवानों को ट्रेडिशनल रेगुलर भर्तियों में पहले से ही मिलती आ रही हैं (ज्यादा होगा 19-20 का हेरफेर होगा)| इसलिए थोड़ा सा तुलना करने का जोखिम उठाया करो, अग्निवीर में नया या चमत्कारी कुछ भी नहीं है|
3) अभी तक ट्रेडिशनल तरीके से रेगुलर फौजी की नौकरी औसतन 17 साल की होती थी| जब वह रिटायर होता था तो उसकी औसत तनख्वाह 60-70 हजार होती थी व् आजीवन पेंशन की सुरक्षा अलग से| और यही वह स्थाईत्व व् स्टैण्डर्ड देख के लोग, फौजियों को फ़ौज में लगने के 1 से 2 साल के भीतर ही अपनी बेटियां देने को एडवांस में ही बुक करना शुरू हो जाते थे व् अधिकतर की तो ट्रेनिंग पूरी होते ही शादी भी हो जाती रही है| यानि बंदा 20-21 की उम्र में स्थाई रोजगार व् शादी दोनों फ्रंट्स से सेटल व् संतुष्ट| देश व् देश के प्रति देशभक्ति, आदर व् प्यार में अंतहीन इजाफा अलग से| और जो रिटायरमेंट के बाद सिक्योरिटी गार्ड या कोई भी एडमिनिस्ट्रेशन की नौकरी, रिटायर्ड फौजी शौकिया तौर पर करते होते हैं, मारामारी में नहीं, वह पोस्ट-रिटायरमेंट सुरक्षा अलग से| 17 साल की सेविंग्स व् पेंशन के बैक-अप के चलते 70000 हजार से रिटायर हुए फौजी को एक 15000-20000 हजार रूपये की सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी करते हुए इसीलिए फील नहीं होती यानि दिल-दिमाग की शांति के साथ यह नौकरी कर लेता है वो, अन्यथा 20000 में कौन खुश व् संतोष हो सकता है या घर व् जिंदगी चला सकता है?
अब क्या होगा?
1) 4 साल वाले को कोई छोरी नहीं देगा, अगर उसका 4 साल की नौकरी के अलावा कोई और बैक-अप जैसे कि जमीन या पुस्तैनी काम-धंधा या प्रॉपर्टी नहीं हुई तो| और हरयाणा-वेस्ट यूपी व् पंजाब में तो शादियों के दूल्हे चूज करने के स्टैण्डर्ड इतने हाई हैं कि न्यूनतम 90% अग्निवीर कुंवारे ही फिरेंगे यानि पहले से ही शादियों का संकट झेल रहे देश में सालाना 48000 कुंवारे राष्ट्रीय स्तर पर व् 4800 कुंवारे अकेले हरयाणा (10% फ़ौजी हैं हरयाणा से) स्तर पर बढ़ाया करेगी यह "अग्निवीर" योजना|
2) मानसिक दबाव से मानसिक व् शारीरिक स्वास्थ्य बिगड़ेंगे, अग्निवीरों के 4 साल बाद| ब्याह ना होने की वजह से घरों में क्लेश व् शांति भंग होंगी|
3) आज के दिन 40-50 साल के सिक्योरिटी गार्ड की भी अधिकतम तनख्वाह कितनी होती है, औसतन 20 हजार? यह बीस हजार तो वह 17 साल की फ़ौज की नौकरी करके आने के बाद भी कमा ही रहा होता है| परन्तु उन 17 सालों का खाता किधर रहा उसके पल्ले, जिसका बैक-अप उसको इतनी छोटी नौकरी करने को महसूस ही नहीं होने देता| यानि सिक्योरिटी गार्ड की नौकरी जो अब तक एक्स्ट्रा इनकम का जरिया मानी गई, अग्निवीरों के लिए अब वह एक बाध्यता व् मजबूरी का मात्र सोर्स रहा जायेगा| तो एक ऐसी उम्र जब सबको ब्याह करके सेटल होना होता है, उस उम्र में अग्निवीर किन मानसिक, व् सामाजिक ट्रोमाओं से गुजरा करेंगे, इसपे सोचा कुछ अग्निवीर लांच करने वालों ने?
इसीलिए हो रहा है विरोध इस अग्निवीर का व् जम के विरोध करो इसका|
व्यापारियों के हजारों लाखों करोड़ों करोड़ NPA माफ़ करते वक्त या माल्या-चौकसियों व् मोदियों को हजारों करोड़ के घपले करवा के भगाते वक़्त यह चीजें नहीं दिखती होती हैं क्या कि इनको हद से ज्यादा फैवर करने से, देश के बाकी के सिस्टम्स चरमरा जायेंगे व् फौजों तक को सैलरी से ले पेंशन तक देने के लाले पड़ जायेंगे? बस यह किया-धरा व्यापारियों का है व् भुगतवाई अब फ़ौज जा रही है| आए बड़े फ़ौज में नए सुधार करने वाले| यह क्यों नहीं कहते कि सारा सिस्टम, सारा पैसा चटवा दिया अपने चहेते व्यापारियों को व् अब उनका खून चूसेंगे जो सबसे ईमानदार देशभक्त हैं?
यह है इनकी तथाकथित राष्ट्रभक्ति की नंगी सच्चाई| चाहिए तो थी फौजियों की अर्निंग कैपेसिटी बढ़ानी परन्तु यह सुधार के नाम पे उसको भी आधे से भी नीचे ला के छोड़ रहे हैं| मतलब दोहता यानि व्यापारी कुकर्म करो व् नानी यानि फ़ौज दंड भरो|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 16 June 2022

चाहिए तो था FCI के अनाज गोदामों को साईलो-गोदामों में तब्दील करना, लेकिन बनवा दिए अडानी के!

व् इस तरह एक नंबर के धूर्त पीएम ने देश पर कई गुणा आर्थिक बोझ डाल दिए|

प्राइवेटाइजेशन का बोझ: सारा अनाज सरकारी व् सहकारी कब्जे से निकाल एक अडानी को सौंपा| इसका दुष्परिणाम किसान तो जो भुगतेंगे वह खे भी लें शायद, परन्तु असल भुग्तभोगी तो लम्बे दौर तक आम जनता यानि आम ग्राहक रहने वाले हैं, जो अभी फ़िलहाल कहीं 35 बनाम 1 तो कहीं हिन्दू-बनाम-मुस्लिम में उलझे जाते हैं|
डबल लैंड का खर्चा व् उपजाऊ जमीन का खोह: नए गोदाम नई जगह, यानि नई खेती लायक जमीन का खोह; FCI के गोदामों की जमीन का क्या होगा, जब यह रद्द होंगे? क्या यह जमीन उन गामों को वापिस की जाएगी, जिनसे मिली होगी; वह भी किसानों की ह्रदय-विशालता के चलते, शायद फ्री में सिर्फ सरकारी प्रोजेक्ट लगने के नाम पे व् लोकल्स को रोजगार के नाम पे? क्या सरकार अपने ही व् इनको चलाने वाली सहकारी समितियों के कण्ट्रोल में बात को रख के FCI के गोदामों का ही आधुनिकरण करके वहां साईलो गोदाम बनवा नहीं सकती थी? नहीं बनवाये, क्योंकि नियत तो पूरे देश की पूँजी का एक-दो खसम बनाने की, वही आरएसएस के गोलवलकर वाली सोच कि, "सारे देश की पूँजी अपने 1-2 को सौंप दो व् बाकियों दो जून की रोटी की जद्दोजहद तक ही रखो"| और सौंपे भी तो किसको, किसी हरयाणवी को नहीं, अपितु गुजराती को; जिनसे हरयाणवियों का ना कल्चर मिलता, ना भाषा, ना एथिक्स| ये जो हरयाणे वाले इनके भक्त बनते फिर रहे हैं ना, यह समझो कि तुम्हारी अगली पीढ़ियां तुम्हें ही सबसे ज्यादा कोसा करेंगी|
अगर तुम सिर्फ अपनी या अपने जन्म तक की सोचते हो तो तुम निरे जन्योर हो| जिसने अगली पीढ़ी के लिए अपनों संग सरजोड़ के निर्णय लेने व् चलने नहीं सीखे, वह समूह अंत दिन खुद के साथ "घूं-कुत्त्यां आळी" करवा के खत्म हो जाते हैं धरती से| और यही हो रहा है, कहीं राजी हुए टूल रहे हो कि बस अपना व् अपने परिवार का जुगाड़ कर लिया, बाकी जाति-समूह-कल्चर-किनशिप जाओ भाड़ में| कितने ही गैरों की, उसमें भी सबसे खतरनाक फंडियों की चाटुकारिता में जीवन काट लो, फंडी तुम्हें कभी ना तो बराबर बैठाएंगे व् ना ही उनके कल्चर-किनशिप में तुम्हें स्थान देंगे| वही कल्चर-किनशिप जो कि एकल व परिवार से बाहर हर इंसान की आइडेंटिटी होती है| इसको बचाना फर्ज है या नहीं? या समूह से संबंधित होने की भावना खत्म कर चुके हो अपनी? तो फिर ऑफिसियल तौर पर ही डिक्लेअर कर लो कम से कम कि आज के बाद मेरा कोई समूह-कल्चर-किनशिप नहीं; ताकि हमारे जैसे फिर सिर्फ उन पर फोकस रखें, जिनको समूह-कल्चर-किनशिप चाहिए होती है|
जय यौधेय! - फूल मलिक

Wednesday, 15 June 2022

माननीय राज्यपाल सतपाल मलिक जी, हमारे पुरखों ने सिखाया है कि "जेली-लाठी तो फंडी-फलहरियों पर उठाई जाती हैं", "अडानी के साईलों को तो कलम से तोड़ा जाता है"; नीचे पढ़िए कैसे!

आपसे अपील है आगे जब भी ऐसे बोलने का अवसर मिले तो अडानी के साईलो तोड़ने की बजाए, गाम-गाम गेल अपने गाम की सालाना कैपेसिटी के डेड या दोगुने साइज के व् अपने कण्ट्रोल के साईलो बनाने की अपील करें, तमाम किसान कौम को; उससे अडानियों को ज्यादा चोट लगती है साहेब| और नार्थ इंडिया की किसान कौम यह काम बाकायदा कर सकती है, क्योंकि जब यह कौम गाम-गाम गेल मिनी फोर्ट्रेस टाइप की साझली परस-चौपाल खड़ी कर सकती है तो साईलो गोदाम बनाना कौनसी बड़ी बात है|

और एक और बात, म्हारे लोग साईलो गोदाम भी बना लेंगे परन्तु उसके आगे का एक और लेवल है जिसपे काम हो| और वह है इनके साइलो से सीधा देश-विदेश के ग्राहक तक अनाज पहुंचाने का रास्ता बाँधा जाए| और यह रास्ता बाँध सकते थे उस कार्यक्रम में आये NRI जिसमें आपने साइलो तोड़ने की बात कही| आप उनको अपील करते कि हम यहाँ गाम-गाम साइलो बनवाते हैं व् आप विदेशों में अपने किसान भाईयों को अनाज सीधा बिकवाने का इंतजाम बैठाइये| इंडियन गोवेर्मेंट से इसपे पालिसी मैं बनवाऊंगा कि सिर्फ अडानी का ही नहीं, हमारे इस मॉडल से जमा हुआ अनाज भी विदेशी मार्किट में जाए, इसका प्रावधान हो|
यानि अपनों की लकीर बड़ी करने की बातें कीजियेगा साहेब, खासकर तब जब आपकी कौम पे 35 बनाम 1 की तलवार 24 घंटे लटकी रहती हों तब तो अवश्यम्भावी ही कीजिए|
ये बही-खातों की चोट समझने वाले लोग हैं, और आज तक यही चोटें इनका इलाज बांधती आई हैं| अभी अल्लाह पर नूपुर शर्मा के जवाब के बदले अरब से आई रिएक्शन का तुरता-फुर्ती एक्शन देखा ना?
इतिहास में हमारे ही पुरखे सर छोटूराम की कलम ने यह साबित भी किया हुआ है| जब उस आदमी की कलम चली थी तो कहते हैं कि यूनाइटेड पंजाब के गाम-के-गाम 'बही-खातों के जरिए डंडी मारने वालों' से खाली हो गए थे, व् आज भी हैं भतेरे ऐसे गाम| एक भी नहीं बचा है आज के दिन| हम तो unethical capitalism को ऐसे गायब कर देने वालों के मुरीद हैं|
सर छोटूराम की कलम की दूसरी सबसे बड़ी उपलब्धि रही थी APMC एक्ट| जिसके चलते किसानों ने आढ़त पर 70% कब्जा कर लिया था व् इस फील्ड से भी डंडी मारने व चक्रवर्धी सूधख़ोरी वालों को लगभग खदेड़ ही दिया था| इससे पहले "बार्टर सिस्टम" से किसान ethical capitalism वाला व्यापार करता था, परन्तु उसमें अनएथिकल कैपिटलिज्म के धोतक सूदख़ोरों ने चक्रवर्धी ब्याज चढ़ाने शुरू किये तो सर छोटूराम ने उनको आढ़त के नियमों में बाँध दिया|
व् इसी ताकत से खदेड़ दिया था, इसीलिए तो अब उनके लिए नए बंदोबस्त किये गए हैं| परन्तु यह बंदोबस्त किसान से ज्यादा इनको खुद को मारने वाले हैं| खैर, इस पर विस्तार से फिर कभी|
लबोलवाब यही है कि जो खुद को कहती तो पचासियों बुद्धि है परन्तु उस बुद्धि पर जब-जब अपनी अणख पर चल 56 बुद्धि आगे बढ़ी है, तब-तब गाम-के-गाम बिना लाठी-जेली उठाए इनसे खाली हुए| वह जो गाना चलता है ना गांधी जी पर कि "दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग, बिना ढाल"; इसको किसान-मजदूर के मामले में सही में किसी ने चरितार्थ किया था तो सर छोटूराम ने| ना एक जेली उठवाई लोगों से, ना लठ; बस एक कलम चली थी और सारे unethical capitalism वाले खत्म या बचे तो वो जो ethical capitalism से चले व् किसान-मजदूरों को सूधख़ोरों के चंगुल से 1936 से ले 2014 तक तो कन्फर्म तौर पर आज़ादी रही; यानि 78 साल|
तो जब आपके पुरखों के वैल टेस्टेड व् प्रूव किए रास्ते आपके सामने हैं तो इन पर क्यों जेली-लाठी-गंडासियां उठवाते हो? जेली-लाठी गंडासी फंडी-फलहरी पर उठाने की कह गए थे पुरखे ना कि अडानियों पर| इनको कलम से सीधा किया जाए, ऐसा कैडर खड़ा कीजिये किसान कौम में|
वो कहते हैं ना कि, "हज़ारों साल नर्गिस अपनी बे-नूरी पे रोती है; बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदा-वर पैदा" - हमें ऐसा सिस्टम चाहिए जो एक और सर छोटूराम जैसा दीदावर पैदा कर दे| यह सिस्टम, यह माहौल फिर से बनाने पर कौम को लाइए| वह आ गया तो फिर से 78 साल यानि लगभग 4 पीढ़ियों का ऐसा ही जुगाड़ बाँध जायेगा, जैसा सर छोटूराम ने बाँधा|
और आज इस दीदावर के पैदा होने की राह में सबसे बड़ा रोड़ा, अडानियों ने नहीं अपितु फंडियों ने लगाया हुआ है| आपके घर-कौम की औरतों-मर्दों के दिमागों में नस-नस में माइथोलॉजी घुसा, घर-कुणबे-कुल-खूम की लड़ाइयों के महाभारती स्टेज सजवा उनके बीच कभी आपस में आँखें तक ना मेलने की दरारें डाल के| यह दरारें टूटें, व् लोग फिर से बैठक-परस-चौपालों में बैठ मंत्रणाएं शुरू करें; इससे निकलेगा रास्ता| जब इनके सरजुडेंगे यानि फिर से सरजोड़ होंगे तो भटाभट लठ भी बजेंगे व् सिस्टम भी हिलेंगे| लठ बजेंगे फंडियों पर व् उनके लठ लगते देख रास्ता छोड़ भागेंगे अडानी-अम्बानी|
इसलिए लठ से पहले कलम चलवाइए जिसकी चोट सर छोटूराम जैसी हो|
अपील: जो कोई इस लेख को माननीय राज्यपाल तक पहुंचावे, मैं उसका धन्यवादी होऊं!
जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 12 June 2022

मुस्लिमों से बदतर ही व्यवहार रखते हो फंडियो तुम जाट-गुज्जर से!

कुछ एक दिनों पहले जैसे आगरा व् ताजमहल जाटों के नाम करने चले थे फंडी, ऐसे ही अरब से आये प्रेशर को डाइवर्ट करने को जाट व् गुज्जर के नाम से कुछ सोशल मीडिया हैंडल से नूपुर शर्मा के समर्थन में पोस्टें निकलवाई जा रही हैं| इनसे बच के दोनों ही| जैसे आगरा व् ताजमहल का मसला उल्टा इनके मुंह पे मारा था, ऐसे ही इसपे मारो| अपना-अपना काम करें जाट-गुज्जर, इनके तो हर दूसरे रोज के ड्रामे हैं ये| धर्म-वर्म का कोई मसला नहीं है इसमें सिवाए, व्यापार हथियाने के| अब पोस्टें निकालती फिर रही है कि शिवजी को बुरा-भला कह रहे थे, तो कोई बात नहीं हमारे धर्म के एक अकेले व् शिवजी के चेले, धरती को बार-बार धरती तथाकथित क्षत्रियों से खाली करने वाले ही काफी हैं, ऐसे लोगों से निबटने को; अभी भी जिन्दा बताये जाते हैं वो उनको चिट्ठी भिजवा दो|

या फिर जाट-गुज्जरों को बालकों को एनसीआर की MNCs में सबसे पहले नौकरियों में वरीयता दो, जिनको कि तुम भाषा व् जाति देखते ही सबसे पहले लिस्ट से काट देते हो| नौकरियों-रोजगारों-सम्मान की बात हो तो जाट-गुज्जर तुम्हारे सबसे बड़ी "NO" लिस्ट में व् वैसे तुम्हारे हागे हुए को साफ़ करने को तुम्हें जाट-गुज्जर चाहियें| वैसे भी जाट-गुज्जर दादा खेड़ों को मानने वाले लोग हैं, जो ना धर्म से नफरत करना सिखाते ना जाति से; हमारे लिए जितने तुम देश के नागरिक उतने ही मुस्लिम|

अत: खामखा बहाना बना रहे शिवजी की आड़ ले कर, पूरे 8 साल किसी को बात-बेबात डंडा करके रखोगे व् उनमें कोई एक आध वह भी गोदी मीडिया का पठाया हुआ कुछ उल्ट-सुलट फेंक गया तो इसपे जाट-गुज्जर तुम्हारे लिए मुस्लिमों को मारें? तब कहाँ जाते हैं जाट-गुज्जर तुम्हारे लिए, जब सम्राट भोजराज को व् पृथ्वीराज को गुज्जर बताना होता है या किसान आंदोलन पर इनको किसानी हक देने होते हैं या इनपे जब 35 बनाम 1 रचते हो? मुस्लिमों से बदतर ही व्यवहार रखते हो तुम जाट-गुज्जर से|

जय यौधेय! - फूल मलिक

अपने कान व् जेहन दोनों को फंडियों की वाहियातों से बचा के रखिये!

विषय: पैगंबर मोहम्मद के ब्याह की जिरह व् तुम्हारी-हमारी मनोस्थिति|

पैगंबर मोहम्मद का ब्याह तो सदियों पहले हुआ था, तुम अपने दादा-दादी वाली पीढ़ी में ही झाँक लो ना; असल तो 80% नहीं तो न्यूनतम 50% यानि हर दो में से एक के दादा-दादी के ब्याह "पोतड़ों" या "परातों" में हुए ना मिलें तो?
दरअसल तुम में से जो भी इन संघी-फंडियों की तकियानूसी वाहियातों को अपने जेहन में जगह दे रहा है, उसका कॉमन सेंस, रेशनलिटी व् ह्यूमैनिटी इस कदर मर चुकी है कि तुम्हें वही बात दूसरों के यहाँ बीमारी लगती है जो रही तुम्हारे यहाँ भी है अगर इसको बीमारी ही मानने लगे हो तो जो फंडियों ने तुम्हारे कानों व् जेहन में फूंक देनी होती है|
मोहम्मद पैगंबर के ब्याह में कोई नया बिघन नहीं हुआ था, वही हुआ तो जो तुम्हारे दादा-दादियों के मामले में हुआ था| यानि दूध पीते की उम्र से ले 6-8-10 साल की छोरे-छोरी की शादी व् जब लड़की व्रजसला होती तो उसका मुकलावा या गौना| व् लड़की का व्रजसला होना गर्म-शरद इलाकों में अलग-अलग उम्र में होता है| शरद इलाकों में जहाँ यह उम्र 11-12 साल होती है वहीँ गर्म इलाकों में 9-10 साल|
नबी की बेगम 6 साल की थी जब उनका ब्याह हुआ परन्तु मुकलावा हुआ 9 साल की उम्र में वह भी लड़की की माँ के संदेशा पहुंचाने पे कि लड़की बालिग़ हो गई है, मुकलावा ले जाओ|
अभी 2006-07 तक जर्मनी-जापान जैसे ऐसे देश रहे हैं जिनमें लड़की की ब्याह की उम्र 13 साल रही है| कनाडा-ऑस्ट्रेलिया में तो आज भी 16 से 18 साल उम्र है|
और तुम बहस कर रहे हो न्यूनतम 1500 साल पहले की?
फिर भी इसको गंद ही मान रहे हो, फंडियों के कहने से तो जरा खुद की माइथोलॉजी में ही झाँक लो पहले? इनके यहाँ तो मान्यता होने पर ही खून में भी रिश्ते करते हैं, तुम्हारे वालों ने मान्यता के विरुद्ध जा के बेटियों तक से ब्याह रचाये हुए हैं व् फिर भी भगवान बनाये बैठे हो उनको?
"बैया, बंदर को सलाह दे और अपना ही घर तुड़वा ले" - इन व्यर्थ की बहसों में फंसे अनाड़ी लोगों को देख कर, यह तथ्यात्मक बातें करते हुए हमें तो यह लाइन तक याद हो आती है|
जय यौधेय! - फूल मलिक