Thursday, 28 July 2022

23 ₹ किलो की लागत आती है देसी घी बनाने में!

सावधान: चमड़े से बनता है, व् मंदिरों के भंडारों में यही प्रयोग होता है! वह कैसे विस्तार से नीचे पढ़ें!


चमड़ा सिटी के नाम से मशहूर कानपुर में जाजमऊ से गंगा जी के किनारे किनारे 10 -12 किलोमीटर के दायरे में आप घूमने जाओ
तो आपको नाक बंद करनी पड़ेगी,
यहाँ सैंकड़ों की तादात में गंगा किनारे भट्टियां धधक रही होती हैं,
इन भट्टियों में जानवरों को काटने के बाद निकली चर्बी को गलाया जाता है,
इस चर्बी से मुख्यतः 3 चीजे बनती हैं।
1- एनामिल पेंट (जिसे हम अपने घरों की दीवारों पर लगाते हैं)
2- ग्लू (फेविकोल इत्यादि, जिन्हें हम कागज, लकड़ी जोड़ने के काम में लेते हैं)
3- और तीसरी जो सबसे महत्वपूर्ण चीज बनती है वो है "शुध्द देशी घी"
जी हाँ " शुध्द देशी घी"
यही देशी घी यहाँ थोक मंडियों में 120 से 150 रूपए किलो तक भरपूर बिकता है,
इसे बोलचाल की भाषा में "पूजा वाला घी" बोला जाता है,
इसका सबसे ज़्यादा प्रयोग भंडारे कराने वाले करते हैं। लोग 15 किलो वाला टीन खरीद कर मंदिरों में दान करके पूण्य कमा रहे हैं।
इस "शुध्द देशी घी" को आप बिलकुल नही पहचान सकते
बढ़िया रवे दार दिखने वाला ये ज़हर सुगंध में भी एसेंस की मदद से बेजोड़ होता है,
औधोगिक क्षेत्र में कोने कोने में फैली वनस्पति घी बनाने वाली फैक्टरियां भी इस ज़हर को बहुतायत में खरीदती हैं, गांव देहात में लोग इसी वनस्पति घी से बने लड्डू विवाह शादियों में मजे से खाते हैं। शादियों पार्टियों में इसी से सब्जी का तड़का लगता है। जो लोग जाने अनजाने खुद को शाकाहारी समझते हैं। जीवन भर मांस अंडा छूते भी नहीं। क्या जाने वो जिस शादी में चटपटी सब्जी का लुत्फ उठा रहे हैं उसमें आपके किसी पड़ोसी पशुपालक के कटड़े / बछड़े की ही चर्बी वाया कानपुर आपकी सब्जी तक आ पहुंची हो। शाकाहारी व व्रत करने वाले जीवन में कितना बच पाते होंगे अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
अब आप स्वयं सोच लो आप जो वनस्पति घी आदि खाते हो उसमे क्या मिलता होगा।
कोई बड़ी बात नही कि देशी घी बेंचने का दावा करने वाली कम्पनियाँ भी इसे प्रयोग करके अपनी जेब भर रही हैं।
इसलिए ये बहस बेमानी है कि कौन घी को कितने में बेच रहा है,
अगर शुध्द घी ही खाना है तो अपने घर में भैंस / गाय पाल कर ही आप शुध्द खा सकते हो, या किसी गाय भैंस वाले के घर का घी लेकर खाएँ, यही बेहतर होगा ||
आगे जैसे आपकी इच्छा.....

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Wednesday, 27 July 2022

वास्तव में धर्म क्या है?

लेख का निचोड़: आपकी दुर्गति धर्म ने नहीं की है, अपितु धर्म की गलत चॉइस ने की हुई है; आपका DNA किसी और दार्शनिकता का है व आप ढो उसके विपरीत को रहे हैं| 

 

धर्म वह उच्च स्तरीय राजनीति है जिसको मनी पॉलिटिक्स कण्ट्रोल करती है व् जो सत्तात्मक राजनीति व् सामाजिक राजनीति को कण्ट्रोल करता है; वह धर्म है| यानि दुनिया में 4 प्रकार की राजनीति हैं:

1 - आर्थिक राजनीति (इसको आर्थिक संसाधन कब्जाने की राजनीति कहते हैं)

2 - धार्मिक राजनीति (इसको मानसिक संसाधन कब्जाने की राजनीति कहते हैं)

3 - सत्तात्मक राजनीति (इसको किसी देश-राज्य का सिस्टम कब्जाने की राजनीति कहते हैं)

4 - सामाजिक राजनीति (यानि सोशल इंजीनियरिंग, इसको समाज में प्रभाव कायम रखना कहते हैं)


इन चारों में धर्म 1 के नीचे है व् 2 के ऊपर| 


दरअसल वास्तविक धर्म क्या है?: कम्युनिटी मैनेजमेंट की वह प्रणाली जो अपने व्यक्ति को मन की शांति, सम्मानजनक अस्तित्व का आत्म-साक्षात्कार, सामाजिक सुरक्षा-न्याय-समानता और सामाजिक आर्थिक स्वतंत्रता की भावना प्रदान करती है। इसके विपरीत जो है वह सब फंडी-प्रणाली है| 


धर्म का नाम दे कर फंडी कैसे फलता-फूलता है?: व्यक्ति में 2 दिमाग होते हैं, एक छोटा व् एक बड़ा| छोटा दिमाग हमेशा अर्ध-सुसुप्त अवस्था में होता है, जिसमें हमारे जीवन के अनसुलझे, अतृप्त खट्टे-मीठे, डरावने-दुखद-सुखद, पहलु पड़े रहते हैं| इन पहलुओं में वह पहलु भी होते हैं जो आपकी जिंदगी के फॉर्मेट के हिसाब से जीवन की प्राथमिकताओं के चलते सुलझाए या खुद को समझाये नहीं गए होते, जिसमें लालसाएं-महत्वाकांक्षाएं-पीड़ाएं भी होती हैं| अधिक स्याणे लोग या कहो फंडी लोग इन अनसुलझे पहलुओं को पकड़ते हैं व् आपको इन सबके सोलूशन्स देने के दावे करके धर्म के नाम पर नचाते हैं व् आर्थिक-मानसिक रूप से लूटते व् गुलाम बनाते हैं| जबकि असली धर्म का काम निस्वार्थ हो इनके हल देने का होता है| जो ऐसा नहीं करता, वह फंड है पाखंड है धर्म नहीं| इसलिए फंड व् फंडी दोनों से बचो व् अपने लोगों को बचाओ| 


तो पहले तो जरूरी है कि अपनों से सरजोड़ो व् अपने मूल-स्वभाव को समझो व् उसकी मूलता के अनुरूप पुरखों ने जो सिद्धांत स्थापित किये जिसको कि "दार्शनिक विरासत यानि KINSHIP" बोलते हैं उसको जानो; तब समझ आएगा कि आपका असली धर्म क्या है व् किनशिप की अनुपस्तिथि में आप धर्म के नाम पर क्या बवाल ढो रहे हो| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 

Monday, 25 July 2022

जब पेरिस में साउथ-इंडियंस, हरयाणवी गाणों पे झूम के नचा दिए थे:!

मेरी आपबीती है:


वीकेंड पार्टी थी, 24 जणे हम इकट्ठे हो रखे थे (17 लड़के 7 लड़कियां) व्, हरयाणा-यूपी के हम 3 ही थे, एक मैं निडाना का जाट, एक फतेहाबाद का अरोड़ा/खत्री व् एक बिजनौर का शर्मा; बाकी सब गुजराती-मराठी या साउथ इंडियन| खाना-पीना, नाच-गीत-संगीत सब था| राउंड चल रहा था कि अपनी-अपनी स्टेट के लोक-कल्चर के गानों के सिर्फ मुखड़े यूट्यूब पे लगाएंगे व् बाकी सब उनपे डांस करेंगे| हरयाणा का नंबर आया तो फतेहाबाद वाले ने एक थर्ड-ग्रेड हरयाणवी रागणी, जिसमें गायक ने शराब पी रखी व् गाते-गाते नीचे गिर रहा, वह लगा दी व् तंज सा कसता हुआ बोला कि यही है जी हरयाणा में तो लोकगीतों व् कल्चर के नाम पे| यूपी वाला शर्मा भी सुर-में-सुर मिला बैठा| 


मुझे बहुत महसूस हुई, मखा यह कैसे लोग, जो हरयाणवी को अपनी बता भी रहे व् उसका बेस्ट दिखाने की बजाए, सबसे घटिया दिखा रहे| मैं मेरा जूस का गिलास ऊठा के बालकनी में आ गया| पीछे-पीछे वह अरोड़ा व् शर्मा भी आ गए| और मेरे को लगे उपदेश देने कि जब तुम्हारे यहाँ है ही यह सब तो हम क्या करें? मैंने कहा, "हरयाणवी ही गानों पे अगर यह पूरी पार्टी नचा दी तो क्या इस बालकनी से कूद के मरोगे?" बोले, भूल जाओ तुम घोड़ुओं की चीजों को कोई पसंद करेगा व् वो भी यह कॉर्पोरेट व् यूनिवर्सिटियों में काम करने वाली क्लास तो कतई भी नहीं| मखा, मैं तो उम्मीद करूँ था कि तुम अपनी हरकत पे शर्मिंदा होवोगे परन्तु अब तुम इस बालकनी से कूदने की तैयारी कर लो, क्योंकि ईब हरयाणवी गाणों पे गुजरातन-मराठण व् साउथ इंडियन नाचेंगी और तुम खड़े देखोगे| 


बस यह कह के मैं गया भीतर और यूट्यूब पे गाने चलाने की यह कहते हुए कमांड ली कि अभी आपने हरयाणवी का वर्स्ट देखा, अब बेस्ट दिखाता हूँ| उन दोनों का खून फूंकने को पहला ही गाणा, "मैं सूरज तू चंद्रावल, म्हारा जोड़ा ठाठ का" का मुखड़ा बजा के; "जीज्जा तू काला, मैं गोरी घणी" लगा दिया| दो जणियों ने कही की यह होता है म्यूजिक| और फिर तो सारे चंद्रावल के, लाडोबसंती, पनघट, पाणी आळी से ले गिटपिट और उस वक्त की फेमस एलबम्स से लगभग 20 गाणे एक-के बाद एक बजा छोड़े| उस ग्रुप को यह पता था कि यह अगर अड़ के बैठ गया तो इसको जिद्द पे लगा देने वालों के "मानसिक उत्पीड़न" करके छोड़ता है ये; इसलिए बाकी सब को जहाँ अपनी स्टेट के एक बार में अधिकतम 5 गानों के मुखड़ों पे नचवाना था, मैंने लगातार 20 पे नचवा दिए| 


वो दोनों कभी कोने झांके, कभी टुकर-टुकर देखें| 


बिजनौर वाला तो ऐसा डरा उस दिन के बाद, एक दिन कोर्ट में वीजा के काम से मिल गया; मेरे से 5 नंबर आगे खड़ा था| देखते ही जैसे सहम सा गया हो; फॉर्मल सी हाय-हेलो हुई| मेरा ध्यान 2 मिनट काउंटर वाली से अपने पेपर्स चेक करवाने में ही लगा था कि मुड़ के देखा तो वह गायब था| यानि जा चुका था वहां से| मखा, ले भाई आज सेधेगा; एक तो वीजा की मुश्किल से अपॉइंटमेंट्स मिलती हैं और आज वाली इसकी मेरी वजह से खाली गई; बेरा ना के श्राप दे के मुझे मारता हुआ गया होगा| 


मैंने भी करी, "मखा न्यू जाट मरैगा तो जाट नैं जिवा भी देगा कौन"| यह निडरता मेरे दादाओं की उस सीख से आती है मेरे में जो वो कूट-कूट के भर गए मेरे में कि, "पोता, जिस जाट के आगे कोई वर्णवादी फंडी ज्ञान झाड़ जा, उस जाट नैं मरे बराबर मान लिए"| 


इसलिए खेत में खड़े हो, या कॉर्पोरेट में; अपने पुरखों की अणख निभा के रखो| वरना यह ऐसे परजीवी हैं इनको पोहंचा दोगे, सीधे सर पे मूतते पावैंगे| पुरखों की अणख निभाने को, अपमान झेलना हो तो झेलो, कोई छोटा दिखावै तो दिखाने दो; पर कभी उसकी उड्डंदता को स्वीकार मत करो| पुरखों की अणख तुम्हें अपने आप साहम देगी, इतना विश्वास हमेशा रखना उनमें| 


उद्घोषणा: इस पोस्ट में जिस किसी को जातिवाद दीखता हो, दीखता रहे; जो किसी कल्चर का सम्मान नहीं जानता, वो मेरा क्या ही सम्मान करेगा; उसको उसी रूप में सबके सामने नहीं रखेंगे तो लोग बुद्धू व् दब्बू समझने लगते हैं तुम्हें| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 


 

Sunday, 24 July 2022

कह रहे हैं कि MSP नहीं देंगे, और किसान को Carbon Credit व् टोल व् रोड टैक्स कलेक्शन में हर गाम का जो हिस्सा बनता है वो भी नहीं दे रहे!

किसानों व् गामों के बाळक इस पोस्ट को जरूर पढ़ें!

1) UNO से इंडिया को किसानों के नाम पर सालाना 1.5 लाख करोड़ रुपया Carbon Credit के नाम का मिलता है; और इस पूरे को सरकार ढकारती है या अपने अजीजों को जिमवाती है|
2) आपके गाम की जमीन पर से गुजरने वाले तमाम रोड़ों (स्टेट या नेशनल हाईवे) पर जो भी रोड टैक्स या टोल टैक्स कलेक्शन होता है, उसमें हर एक गाम का एक निर्धारित परसेंटेज टैक्स का हिस्सा उस गाम की हाईवे में जमीन की लम्बाई के अनुपात में सरकार को उस गाम की पंचायत को देना होता है| परन्तु नहीं दे रहे|
आईये पहले जानते हैं कि Carbon Credit क्या है: किसानी-खेती द्वारा जो हरयाली बनती है उससे सिर्फ फसल उत्पादन ही नहीं अपितु वातावरण में ऑक्सीजन जोड़ने का भी योगदान होता है जिससे कार्बोनडाइऑक्सइड कम होती है; इस प्रक्रिया को कार्बन क्रेडिट कहते हैं, यानि आपकी प्रोडक्शन ने वायु से कार्बन घटाने में कितना योगदान दिया, वह आपका कार्बन क्रेडिट होता है|
इस कार्बन क्रेडिट के लिए इंडिया को UNO की इससे संबंधित यूनिट से सालाना 1.5 लाख करोड़ रुपया मिलता है| और यह सारा का सारा रुपया सरकारें खुद जीमती हैं या अपने चहेतों को जिमाती हैं; किसानों को इससे एक दवन्नी भी नहीं दी जाती|
अत: किसान यूनियनों, खापों व् तमाम अन्य संगठनों को चाहिए कि इन दोनों बिंदुओं पर भी आवाज उठानी शुरू करें| ताकि सरकार को और भड़क हो व् उसको समझ आए कि MSP दे दो| सालाना डेड करोड़ कार्बन क्रेडिट का किसान को मिल जाए तो उल्टा सरकारें कर्जदार होंगी किसान की|
और हर ग्राम पंचायत से अनुरोध है, अभी की हैं या अभी जो नई चुनी जाने वाली हैं कि वह इन हाइवेज के टोल व् रोड़ टैक्स कलेक्शंस के क्लॉजो का अध्ययन करें अच्छे से व् टोल कंपनियों व् सरकारों को कानूनी हक से कहें कि हमारे गाम का टैक्स का हिस्सा हमें दिया जाए, ताकि गाम के विकास कार्यों में प्रयोग किया जा सके|
जय यौधेय! - फूल मलिक
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हरयाणा से अबकी बार लगभग 50% कम कावड़ लेने गए हैं लोग!

शामली-बुढ़ाना-कैराला-कांधला रूटों पर मौजूद हमारे सूत्रों (दुकानदार व् कावड़ यात्रा सुरक्षा कर्मचारी) की रिपोर्ट के आधार पर यह बात निकल कर आई है कि अबकी बार हरयाणा से 50% से भी कम भीड़ आई है| 

साथ ही मुजफ्ररनगर-मेरठ-बागपत-बड़ौत के स्थानीय जाट लगभग नगण्य ही कावड़ लेने गए हैं| 

इसकी दो वजहें बताई जा रही हैं: एक तो किसान आंदोलन की पीड़ा, टीस व् इनकी किसान के प्रति तथाकथित अपनेपन के थोथेपन बारे किसान बालकों में आई  जागरूकता व् दूसरा ढोंग-पाखंड के खिलाफ चल रहे विभिन्न मिशनों-पंचायतों-संगठनों की जागरूकता का असर| 

एक नया बदलाव जो इस साल देखने को मिला है वह यह कि एक तो "जय भीम" व् नीले झंडों की कावड़ ज्यादा आ रही हैं| और दूसरी बात सबसे ज्यादा भीड़ ग़ाज़ियाबाद व् मेरठ के मध्य रुट पर रहने वाले व् दिल्ली में रहने वाली लेबर क्लास ज्यादा ला रही है जो कि अधिकत बिहारी या बंगाली दिख रहे हैं| 

जय यौधेय! - फूल मलिक 

Saturday, 16 July 2022

दूसरा सर छोटूराम बनने निकले थे, बन गए उसके आलोचक मात्र जिसको सर छोटूराम ने ही कलकत्ता में सेठ छाजूराम के यहाँ 3 महीने अज्ञात में रखवाया था!

तुम उसकी आलोचना करते हो तो, उससे पहले सर छोटूराम की करो इस हिसाब से तो? वह तो उस वक्त फिर भी 20 साल का था, परन्तु उसने एक लाला से संबंधित सांडर्स को मारा है, यह जानते हुए भी उसको कलकत्ता में छुपवाने वाले सर छोटूराम तो उस वक्त 43 साल के थे; उससे दोगुनी से भी ज्यादा उम्र के? क्या उनमें इतनी अक्ल नहीं रही होगी, जितनी का भोंडा प्रदर्शन तुम अब कर रहे हो?

जो इस तथ्य को जानते हुए भी देशभक्ति के भगवान के पे बकवाद काट रहा है, वह या तो दबाव में है या किसी निहित स्वार्थ में|
सनद रहे, "पैसों से आइडियोलॉजी नहीं बनती, अपितु आइडियोलॉजी से पैसा बनता है"|
आ गई होगी उसको रहम या निकल लिया होगा सांडर्स को मारने, परन्तु वो उसको सिर्फ एक लाला के लिए मारने गया होगा; यह बहुत हल्का व् बचकाना क्यास मात्र है| उसकी जंग सिर्फ लाला को मारने तक की रहती तो वह भरी असेंबली बीच गोला ना फेंकता| जेल में बैठ विचारों की क्रांति खड़ी ना करता| वह माफिवीर बनने की बजाए हसंते-हँसते फांसी ना चूमता| उसकी प्रसिद्धि इतनी ना चढ़ती कि अंग्रेजों को पब्लिक के डर से उसकी फांसी तय तारीख से एक दिन पहले वह भी गुपचुप करनी पड़ी| ऐसे डंके की चोट पर सब कुछ ना करता कि देशभक्ति के सब आयामों की ऊंचाई छू के गया वो| सैनिकों की शहादत अलग प्रकार की है व् उसकी शहादत अलग प्रकार की; दोनों में कोई तुलना हो ही नहीं सकती|
और नहीं तो इतने ही व्यक्तिगत स्वार्थ में डूबे हो तो अपनी ही ब्रांड-वैल्यू का ख्याल कर लो? किस कोने लगाते जा रहे हो अपने आपको, कभी बैठ के आंकलन किया करो|
और नहीं तो उनसे (फंडियों से) ही सीख लो, जिनको ठीक करने निकले हुए होने का दम भरते हो? देखा है कभी कोई उनमें से अपनी ही कौम के किसी किरदार की यूँ बीच चौराहे झलूस पीटता? एक वो हैं जो उनके वहां के माफीवीरों को भी शूरवीर स्थापित करने पर लगे हैं और एक तुम हो जो "बाल मात्र नुक्स, वो भी क्यास आधारित" से "राई के पहाड़ बनाने" लग बैठे हो? ऐसे जीतोगे फंडियों से? यह हैं सर छोटूराम के रास्ते व् आदर्श?
सौं तुम्हें सर छोटूराम की, अगर आगे ऐसी बकवादें काटो तो!
जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 12 July 2022

दादा नगर खेड़ों / दादा भैयों / बाबा भूमियों को खत्म करवाने हेतु दुष्प्रचार (महिलाओं-बच्चों में खास टारगेट) करती फिरती एक तथाकथित "निर्मात्री सभा"!



यह अपने आगे हमारी मूर्तिपूजा नहीं करने की पहचान के शब्दों का दुरूपयोग भी कर रही है, जबकि असलियत में यह वर्णवादी फंडियों का ऑउटफिट है| इनका उद्देश्य है कि या तो दादा खेड़े खत्म हों, या इन पर इनके मुताबिक इनके अड्डे बनें, इसलिए वक्त रहते इनसे सम्भलें व् अपनी नस्ल व् असल की इनसे बाड़ करें| 


अब जानिए, यह क्या दुष्प्रचार कर रहे हैं| बात मेरे और गाम में दूसरे पान्ने से मेरे भतीजे के मध्य फोन पर हुई थी, ज्यों-की-त्यों रख रहा हूँ| इस भतीजे से मैं पहली बार बात कर रहा था, क्योंकि इसके मन में जो सवाल कोंध रहे थे, उनके उत्तरों बारे इसको मुझे ही उचित सोर्स के तौर पर बताया गया| तो आपस में परिचय और प्रणाम की औपचारिकता पूरी होने के बाद गाम की सभ्यता और हरयाणत (संस्कृति) की वर्तमान हालत बतलाने से होते हुए बात इस मुद्दे पर कुछ यूँ पहुंची:


भतीजा: काका, आपको असली बात बता दी ना तो अपने गाम के "दादा खेड़ा" को उखाड़ के फेंकने का मन करेगा आपका|


काका: क्या बात करता है? ऐसा क्या सुना जो ऐसा कह रहा है? जबकि हमारी हरयाणत की मूल पहचान हैं हमारे गामों में पाए जाने वाले "दादा नगर खेड़े / दादा भैये / बाबा भूमिए / बड़े बीर" तो?


भतीजा: काका "दादा खेड़ा" हिन्दुओं की नहीं अपितु मुस्लिमों की देन है|


काका: वो कैसे?


भतीजा: मेरे को एक निर्मात्री सभा के आचार्य ने बताया|


काका: जरा खुल के बता पूरी बात?


भतीजा: हाँ क्यों नहीं, वो अपने गाम के एक प्राइवेट स्कूल ने पिछले हफ्ते 2 दिन का इस निर्मात्री सभा का केम्प लगाया था, जिसमें आये एक आचार्य ने बताया कि "जब हमारे देश में मुगलों का शासन था तो वो हमारी नई दुल्हनों को लूट लिया करते थे और अपनी पूजा करवाते थे, जिसके लिए उन्होंने हर गाँव में उनकी पूजा हेतु ये दादा खेड़ा बनवाये थे" और तभी से दादा खेड़ा पर हमारी औरतें और बच्चे पूजा करती हैं|


काका: और क्या बताया उस आचार्य ने?


भतीजा: और तो कुछ नहीं पर अब मैं दादा खेड़ा को अच्छी चीज नहीं मानता|


काका को खूब हंसी आती है|


भतीजा (विस्मयित होते हुए): आप हंस रहें हैं?


काका: हँसते हुए...अब मुझे समझ आया कि खापलैंड पर मूर्तिपूजा नहीं करने के सिद्धांत वालों की पकड़ दिन-भर-दिन ढीली क्यों होती जा रही है|


भतीजा: वो क्यों?


काका: क्योंकि इसमें पाखंडी घुस आये हैं|


भतीजा: आप एक आचार्य को पाखंडी कहते हैं?


काका: तो और क्या कहूँ? तूने तुम्हारी माँ-दादी या दादा को ये बात बताई?


भतीजा: नहीं?


काका: क्यों नहीं?


भतीजा: मुझे आचार्य की बात सच्ची लगी?


काका: आचार्य की बात सच्ची नहीं थी बल्कि उसका प्रस्तुतिकरण भ्रामक था और उसके भ्रम में तुम आ गए| और आचार्य होना, कौनसी सत्यता या आपके अपने हो जाने का परिचायक है?


भतीजा: वो कैसे?


काका: दादा खेड़ा की जो कहानी आचार्य ने तुम्हे सुनाई वो सच्ची नहीं है, और क्योंकि तुम पहले आचार्य से ये बातें सुनके आये तो सर्वप्रथम तो मुझे तुम्हारा भ्रम दूर करने हेतु आचार्य के तर्क के सम्मुख कुछ तर्क रखने होंगे और फिर दादा खेड़ा की सच्ची कहानी तुम्हें बतानी होगी| अत: मैं पहले तर्क रख रहा हूँ, जो कि इस प्रकार हैं: दादा खेड़ा एक मुस्लिम कृति या मान्यता नहीं है क्योंकि अगर ऐसा होता तो आज के दिन किसी भी गाम/शहर में दादा खेड़ा नहीं होते|


भतीजा: वो कैसे?


काका: उसके लिए तुम्हें "सर्वखाप " का इतिहास जानना होगा, "खाप" जानते हो ना क्या होती है?


भतीजा: ज्यादा नहीं सुना?


काका: हमारी खाप का नाम है "गठ्वाला खाप"|


भतीजा: हाँ, हम गठ्वाले हैं ना?


काका: हाँ, तो अगर दादा खेड़ा मुस्लिम देन होती तो यह उसी वक्त खत्म हो गई होती, "जब गठ्वाला खाप के बुलावे पे आदरणीय सर्वजातीय सर्वखाप ने मुस्लिम रांघड़ नवाबों की कलानौर रियासत तोड़ी थी" (और फिर मैंने उसको कलानौर रियासत के तोड़ने का पूरा किस्सा विस्तार से बताया) और पूछा कि जो वजह आचार्य ने दादा खेड़ा के बनने की बताई उसी वजह की वजह से तो कलानौर रियासत तोड़ी गई थी| सो अगर ऐसी ही वजह दादा खेड़ा के बनने की होती तो आप बताओ खापें उनके गांव में दादा खेड़ा को क्यों रहने देती? और इसको "कोळा पूजन" कहते थे, "कोळा यानि थाम्ब यानि खम्ब"; तो क्या समानता हुई दोनों में? 


भतीजा: ये बात तो है काका!


काका: अब दूसरा तर्क सुन, दादा खेड़ा की पूजा अमूमन रविवार को होती है, वह भी च्यांदण वाला रविवार; जबकि मुस्लिमों का साप्ताहिक पवित्र दिन होता है शुक्रवार (उनकी भाषा में जुम्मा)?


भतीजा: हाँ


काका: तो अगर उनको खेड़ा पूजवाना होता तो वो शुक्रवार को क्यों ना पुजवाते?


भतीजा: आचार्य कह रहे थे कि देखो थारे गाम के दादा खेड़ा का मुंह भी पश्चिम की तरफ है यानि कि मक्का-मदीना की तरफ|  


काका (अचरज करते हुए, यह फंडी इतनी खोजबीन समाज जोड़ने पे कर लें, तो इंडिया वाकई विश्वगुरु बन जाए): जिंद (जींद) के रानी तालाब मंदिर का मुंह किधर है? 


भतीजा: पश्चिम की तरफ| 


काका: तो क्या वह भी मुस्लिमों का कहना शुरू कर दें आज से, इनकी मान के? और हर तीसरे-चौथे मंदिर का मुंह पश्चिम की तरफ मिलेगा, तो आचार्य की मान के ढहा दें सबको? 


भतीजा: समझ गया काका| अगली बात काका, आचार्य कह रहे थे कि दादा खेड़ा पर नीला चादरा चढ़ता है, जो कि मुसलमानों की दरगाहों पर चढ़ाया जाता है?


काका: दरगाह का तो हरा होता है| नीला तो सिख धर्म का रंग है| और मान्यता के हिसाब से दादा खेड़ा का सफ़ेद चादरा बल्कि चादरा भी नहीं धजा होती है और अगर कोई नीला चढ़ा जाता है तो वह ऐसा अज्ञानवश करता है या इन फंडियों के प्रोपगैंडा में पड़ के इनके भ्रम फैलाने को करता है| हरे के साथ कहीं-कहीं नीला चादरा/फटका सैय्यद बाबा की मढी पर भी चढ़ता है| हाँ अगर यह आचार्य सैय्यद और दादा खेड़ा में कोई समानता ढून्ढ रहा हो तो कृप्या उसको बता देना कि दोनों अलग मान्यताएं हैं|


भतीजा: हम्म.....और जब भी गाम में नई बहु आती है तो उसको दादा खेड़ा पे धोक लगवाने क्यों ले जाया जाता है, क्या यह बात आचार्य की बताई बात से मेल नहीं खाती?


काका: पहली तो बात नई बहु को तो बेरी आळी, भनभोरी आळी, खरक आळी यानि अपनी-अपनी स्थानीयता के अनुसार कहीं-ना-कहीं सब ही ले जाने लगे हैं| जो कि पहले सिर्फ खेड़ों पर ही ले जाई जाती थी (हालाँकि आज भी जाती हैं)| तो क्या इस आचार्य ने इन बेरी-भनभोरी-खरक आदि पे ले जाने पे भी ऑब्जेक्शन जताई? 


भतीजा: नहीं, काका; सिर्फ दादा खेड़ों बारे बुरा बता रहा था| 


काका: तो समझ लो इसी से| और नई बहु तो क्या, नया दूल्हा जब मेळमांडे वाले दिन केसुह्डा (घुड़चढ़ी) फिरता है तो वह भी दादा खेड़ा पर धोक लगाता है और इस धोक का उद्देश्य होता है अपनी नई शादीशुदा जिंदगी की अच्छी और शुभ शुरुआत के लिए अपने पुरखों का आशीर्वाद लेना और इसी उद्देश्य से नई बहु शादी के अगले ही दिन गाम के दादा खेड़े पर धोक मारने आती है| नई बहु को दादा खेड़ा पर लाने का एक उद्देश्य बहु को गाम के प्रथम पुरखों की मान-मर्यादाओं-मूल्यों से परिचित करवाना भी होता है|


भतीजा: दादा खेड़ों पर क्यों?


काका: यही तो गाम के वह माइलस्टोन होते हैं, जहाँ प्रथमव्या आए पुरखों ने डेरा डाला होता है व् इस जगह को केंद्रबिंदु मान के इसके इर्दगिर्द ही हमारे गाम-खेड़े बसते आए हैं|  


भतीजा: अच्छा काका, अब समझा| यह और बताओ कि सैय्यद बाबा की क्या कहानी है?


काका: सैय्यद मुस्लिमों के सिद्ध पीर हुए हैं, और मुख्यत: अपने गाम में बसने वाली मुस्लिम जातियाँ उनकी अरदास करती हैं|


भतीजा: काका वो कह रहे थे कि हमारा गाम पहले मुस्लिम रांघड़ों की रियासत था और हम बाद में आकर बसे|


काका: तो फिर इस हिसाब से तो उस निर्मात्री सभा वाले आचार्य, आर.एस.एस. और तमाम हिन्दू संगठनों को हमें पुरस्कृत करना चाहिए कि हमने मुस्लिम रांघड़ों की रियासत पर अपना खेड़ा बसा रखा है, या नहीं?  


भतीजा: बात तो सही है काका आपकी| अब समझा| और शायद इसीलिए अपने गाम के खेड़े को "बड़ा बीर" भी बोला जाता है? 


काका: हाँ, गठवालों में चार बड़े बीर हैं; एक निडाणा में, एक आहूलाणा में, एक कासण्डा में व् एक का मुझे नाम ध्यान नहीं|  


भतीजा: काका आपने तो मेरी आँख खोल दी, वो आचार्य तो वाकई में हमें भ्रमित कर पथभ्रष्ट करने वाला ज्ञान बांटता फिर रहा है|


काका: जब कभी तुझे वो दोबारा मिले तो ये तर्क रखना उसके आगे और फिर देखना वो क्या जवाब देता है|


भतीजा: काका असल में हमारे बुजुर्ग हमें कुछ बताते ही नहीं...


काका: सारा दोष बुजुर्गों पर मत डालो, तुम जैसे हैं ही कितने जो अपने बुज्रुगों से ऐसी बातें पूछते-परखते हैं? यह बच्चे घर आकर अपनी दादी-दादा, माँ-पिता को यह बातें बताएं तो वो जरूर इन बातों की सत्यता से अवगत करवाएं या किसी जानकार को तुम्हें रेफर करें; जैसे तुम्हें मेरे से पूछने को कहा गया| 


भतीजा: थैंक्यू काका| 


काका: अपने साथियों को भी इस सच्चाई से अवगत करवाना| और उनको यह भी कहना की गए डेढ़ दशक पहले तक हमारे आदरणीय आर्यसमाजी हमारे गाम में जो भी कार्यक्रम करते थे उसमें, 'जय दादा नगर खेड़ा' और 'जय निडाणा नगरी' का उद्घोष लगा के ही तो प्रचार का कार्यक्रम प्रारम्भ किया करते थे और यही नारे लगा के कार्यक्रम सम्पन्न होते थे| तो इनसें पूछें कि मात्र डेढ़ दशक के काल में ऐसा क्या हो गया कि उसी दादा खेड़ा को यह बहरूपिए गिराने की बात करने लगे|


भतीजा: जी बिलकुल करवाऊंगा और आगे से पुछवाऊँगा भी!


वार्तालाप खत्म!


जय यौधेय! - फूल मलिक

Tuesday, 5 July 2022

इंडिया में विश्वगुरु कहलाने की हैसियत का कोई है तो हैं वह हैं 2020-21 का किसान आंदोलन करने वाले यहाँ के किसान!

पढ़ें नीचे व् देखें कैसे पूरी दुनिया को शांतिपूर्ण आंदोलन करने सीखा दिए!


नीदरलैंड में किसानों ने ट्रैक्टरों के माध्यम से हाईवे को जाम किया| सरकारी बिल्डिंगों के सामने धरना शुरू किया और सुपर-मार्किटों के स्टोरों को घेर लिया है। किसानों ने नीदरलैंड-जर्मनी हाईवे को भी जाम कर दिया है। नीदरलैंड की सरकार 2030 तक अमोनिया और नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन 50% तक कम करना चाहती है जिसके लिए किसानों पर अलग-अलग तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हैं, जिसके तहत पशु रखने पर प्रतिबंध, खेती में उर्वरक इस्तेमाल पर रोक आदि शामिल हैं। किसानों का कहना है कि हवाई यातायात, बिल्डिंग निर्माण व इंडस्ट्री से बड़ी मात्रा में खतरनाक गैसों का उत्सर्जन होता है लेकिन उन पर किसी तरह की कोई रोक नहीं लगाई जा रही है, बल्कि उल्टा किसानों पर प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। किसानों ने नया नारा दिया है "Our Farmers, Our Future", जिस तरह भारत में किसान आंदोलन के दौरान नारा "No Farmers, No Future" था। भारत के किसान आंदोलन ने दुनियाभर के किसानों पर गहरा प्रभाव डाला है और शांतिपूर्ण ढंग से ट्रैक्टरों के माध्यम से प्रदर्शन करने का जज्बा पैदा किया है, जिसके भविष्य में सार्थक परिणाम होंगे।


यह है असली विश्वगुरु की धाती, इन फंडियों वाले कपोल-कल्पित विश्वगुरु के डोंडरों में मत पड़ा करो; यह तुम्हें चलते-फिरते नस्लीय-घृणा से भरे विषगुरु तो जरूर बना सकते हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं| 


जय यौधेय! - फूल मलिक 






Sunday, 3 July 2022

दुनियां में "दादा नगर खेड़ों" जैसी साफ़-सुथरी-स्पष्ट-निश्छल "धार्मिक फिलोसॉफी" का कोई सानी नहीं!

सबसे पहले दादा नगर खेड़ा के पर्यायवाची: दादा नगर भैया, बाबा भूमिया, गाम खेड़ा, जठेरा आदि|


कहां पाया जाता है: उदारवादी जमींदारे की खापलैंड व् मिसललैंड पर, उदारवादी जमींदारी कल्चर की आध्यात्मिक फिलोसॉफी है दादा नगर खेड़ा|

क्या होता है दादा नगर खेड़ा: गाम को बसाने वाले पहले पुरखों द्वारा स्थापित गाम की नींव का स्थल; जिसको केंद्रबिंदु मान के उसके इर्दगिर्द गाम बसा होता है| कहीं-कहीं इसको गाम के प्रथम मृत व्यक्ति (पुरुष या महिला) की याद में बनाया भी कहा जाता है|

साफ़-सुथरी-स्पष्ट-निश्छल "धार्मिक फिलोसॉफी" कैसे:

1) 100% औरतों की लीडरशिप की धोक-ज्योत होती है इनमें|
2) मूर्ती पूजा रहित सिद्धांत है|
3) कोई मर्द धर्मप्रतिनिधि नहीं बैठाया जाता इनपे|
4) खुद का लाया हुआ प्रसाद खुद ही बांटना होता है|
5) धर्म-वर्ण-जाति की कोई बाध्यता नहीं, गाम-नगर में बसने वाला कोई भी रंग-नश्ल का इंसान इनको धोक सकता है|

यानि धर्म के नाम पर किसी भी प्रकार के आर्थिक भ्र्ष्टाचार, सामाजिक व् नश्लीय भेदभाव, औरतों के प्रति दुराचार के रास्ते; इसके सिद्धांतों में ही बंद कर दिए थे पुरखों ने|

और इसीलिए फंडी वर्ग इनको हड़पना चाहता है, क्योंकि उसको वर्णवाद चाहिए, धर्म के नाम पर दान रुपी आमदनी चाहिए, औरतों पर आधिपत्य चाहिए (फंडियों के बनाए हुए तथाकथित धर्म स्थलों में धर्मप्रतिनिधि पुरुष बैठते हैं ना)|

इन खेड़ों/भैयों/भूमियों के बालकों को यह जानकारी जरूर पास करें, ताकि वह समझें कि वाकई में धर्म के नाम पर इंसानियत, सामाजिकता, बराबरी, संवेदना पालना कहते हैं तो उनके पुरखों के दिए इस धार्मिक सिद्धांत को कहते हैं|

उद्घोषणा: लेखक का किसी भी प्रकार की अन्य सच्ची-झूठी धार्मिक मान्यता से कोई विरोध नहीं है, लेखक ने सिर्फ वह बातें अपने लोगों के मध्य रखी हैं जो उसको उसके पुरखों से विरासत में मिली हैं, उसकी किनशिप हैं|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Thursday, 30 June 2022

महाराष्ट्र एपिसोड!

इंडिया की पॉलिटिक्स दो तरीके की liasoning पर चलती है, एक इंटरनेशनल व् दूसरी इंटरनल|

इंडिया में international liasoning करने वाले आज़ादी से पहले मुख्यत: छह ग्रुप रहे हैं, जिनमें कि जैन ग्रुप (जैनियों का), हिन्दू महासभा ग्रुप (लिबरल ब्राह्मण-बनियों की लीडरशिप का), संघी ग्रुप (कंज़र्वेटिव ब्राह्मण-बनियों की लीडरशिप का), लेफ्ट ग्रुप, यूनियनिस्ट ग्रुप (खाप-खेड़े-खेतों की किनशिप वाली तमाम जाति-धर्मों का) व् मुस्लिम लीग ग्रुप होते थे| मुस्लिम ग्रुप आज़ादी के बाद बंटवारे के चलते बंट सा गया; यूनियनिस्ट ग्रुप, सर छोटूराम के बाद इसकी लिगेसी ढंग के हाथों में नहीं जाने के चलते लुप्तप्राय हो गया| संघी व् हिन्दू महासभा वाले धीरे-धीरे एक हो गए या ऊपरी तौर पर एक दिखते हैं| कुल मिला के आज के दिन international liasoning में जैनी व् संघी ही मुख्य दिखते हैं|
अब जब इस समीकरण को महाराष्ट्र के हिसाब से समझें तो एक पेंच और है| और वह है कायस्थों (ब्राह्मण से व्यापारी बना वर्ग) व् चितपावनी ब्राह्मणों की आपसी लड़ाई| बाल ठाकरे, कायस्थ हैं जबकि फडणवीस ग्रुप चितपावनी| यहाँ वह लोग ध्यान दें जिनको उनकी जाति या कौम के भीतर आपसी लड़ाई व् फूट से चिंता रहती है कि यह एक कब होंगे| रोळा एक होने का है ही नहीं, रोळा तो इस बात का है कि आप लोग आपस में एक कौम के आंतरिक लड़ते किसलिए हो, व्यक्तिगत सर ऊँचा रखने को या कौम का सर ऊँचा रखने को? खैर, महाराष्ट्र में जो भी हुआ परन्तु शारद पंवार नाम के मराठे का खौफ अभी भी कायम है, इसलिए बारहवीं पास फडणवीस को inter में दाखिला दिलवाया गया व् शिंदे एक मराठे को सीएम बनाया गया| एक हिसाब से मराठों को सबसे ज्यादा फायदा हुआ क्योंकि उनको मराठा सीएम मिल गया| लेकिन इसमें जैनियों के जरिए यह फैसला हुआ है हमारे सूत्र बताते हैं|
जैनी व् संघियों में भी इंटरनल रस्साकसी है, जो सिर्फ उनको दिखेगी जो जैनियों को बारीकी से ऑब्ज़र्व कर रहे होंगे| आज का लब्बोलुआब यही है कि आज के दिन इंडियन पॉलिटिक्स में क्या होने वाला है उसके लिए संघी नहीं, बल्कि जैनियों की पॉलिटिक्स को समझिये| संघी, हरयाणवी भाषा में कहे जाने वाले "आडुओं" से ज्यादा कुछ नहीं| यह सिर्फ इमोशंस को एक्सप्लॉइट करना ज्यादा जानते हैं जबकि जैनी एक्सप्लोइटेड इमोशंस का अग्रिम इस्तेमाल जानते हैं| इसीलिए सारा संघ, मात्र 50 लाखी जैनी समुदाय के आगे कठपुतली से ज्यादा कुछ नहीं|
देखना यह योगी के पीएम बनने के सपने को भी 2024 आते-आते कैसे धराशायी करेंगे| अगला पीएम मोदी या शाह ही होना है या फिर कोई तीसरा ही चेहरा आएगा, योगी नहीं|
ऐसे में सर छोटूराम की आइडियोलॉजी वालों से अनुरोध है कि थारे उस पुरखे के खड़े किये उस इंटरनेशनल चैनल की कुछ सुध ले लो अगर कहीं अपना भी नाम चाहो तो; वरना करवाते रहना अपने साथ "बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना" वाली बार-बार|
जय यौधेय! - फूल मलिक

हेमराज डाकू (बाग्गी)!

एक रियल स्टोरी। 

हेमराज डाकू (बाग्गी)का (गोरा रंग अति सुन्दर कद 6'3")जन्म सन 1915 में जिला जींद के  मेहरडा गाँव में हरेराम के घर हुवा।ये मशहूर निघाइया(1856) की पांचवी पीढ़ी से थे।हेमराज की 3 बहनें छ्न्नो,धनकोर तीसरी का नाम याद नहीं है थी हेमराज के दो भाई दीवाना और भगत में से दीवाना काफी दबंग था अपने साथ काफी लठैत रखता था इनका परिवार काफी संपन था।इनका फ़ादर हरेराम 20,25 गांवो का चौधरी था। 

गांवों में कुछ बाह्मण भी रहते थे एक दीपा बाह्मण इनसे किसी डांगर की खरीद फरोख्त बाबत उलझ गया वो भी आछा संपन था उसने और उसके हमजातों ने मिलकर हेमराज के बाप हरेराम को मार दिया हेमराज बहुत सरीफ़ था इस घटना से पहले।उसके बाद हेमराज ने अपने गांव के सभी बाह्मणो का सफाया कर दिया तथा आस पास या हरयाणा के  गांवो से ये गूर्जरता तो जाती पूछता उसमें अगर कोई  बाह्मण मिला उसी को मार दिया करता।बाकी कई कहानियां हैं अलग अलग इलाकों की जो प्रचलित हैं।

अंत में 1955 में एक मुख्बिरी से हेमराज एक पुलिस मुठभेड़ में बूढ़ाखेडा गाँव में घिर गया उसने अपनी ही बंदूक से अपना जीवन समाप्त किया।

चेता किसान। (https://www.facebook.com/profile.php?id=100040322672354) 

Monday, 20 June 2022

अग्निवीर के बारे में कुछ बहम!

1) इससे आरएसएस के कैडर को ट्रैन किया जाएगा? ऐसा ही होता तो एनसीसी भी तो गोलियां चलाना सिखाती है, व् इतना ट्रेनिंग भी करती है कि 90% आरएसएस वाला तो उसी से थक के भाग खड़ा हो? या नहीं? तो 4 साल की फ़ौज वाली ट्रेनिंग में जायेंगे तो जरूर, पर वही जो जाते रहे हैं|

2) अडानी-अम्बानी या नेताओं आदि के सिक्योरिटी गार्ड बनेंगे: वह तो अभी भी बनते आ रहे हैं, बस जुल्म यह हुआ है कि पहले 37-40 की उम्र में जा के बनते थे अब 20-21 की उम्र में बनेंगे|
3) देशभक्ति की भावना को कोई फर्क नहीं पड़ेगा: बिलकुल पड़ेगा व् लुप्तप्राय हो जाएगी| विश्व का कोई भी रोजगार उठा के देख लो, लम्बी नौकरी में ही इंसान का अपनी जिम्मेदारी व् संस्था के प्रति लगाव व् समर्पण पैदा होता है| फ्रांस में तो प्राइवेट सेक्टर तक में सरकारी की तरह जॉब सिक्योर होती है, एक बार उस पर चढ़ गए तो कोई आपकी नौकरी नहीं छीन सकता, सिवाए आप दिवालिये व् जानबूझ के परफॉर्म करना छोड़ दो तो| यह पॉइंट सबसे खतरनाक होगा, इस पालिसी में| 17 साल न्यूनतम वाली नौकरी में फौजी स्थाई होते ही ब्याहा भी जाता था यानि 20-21 साल की उम्र में बंदा नौकरी व् शादी दोनों में सेटल, इससे उसका सिस्टम व् देश के प्रति मोह व् प्रतिबद्धता बढ़ती थी; देशभक्ति चरम छूती थी| और यह तभी होता है जब 17 साल वाली जॉब वाला स्थाईत्व हो यानि वो कहते हैं ना कि "भूखे पेट देशभक्ति नहीं होती"| 4 साल वाली में तो बंदा कहाँ इन बातों तक की भावना तक जा पाएगा, अपितु 2 साल होते ही दूसरी नौकरी व् ब्याह की चिंता में डिस्टर्ब रहेगा| यह बहुत घातक कदम में इस सरकार का; वह भी राष्ट्रभक्ति का दम भरने वाली सरकार का| ताज्जुब है राष्ट्रभक्ति रटने वाली सरकार को यह नहीं पता कि राष्ट्रभक्ति बना के कैसे रखी जाती है|
4) 25% में सब ईमानदारी से लिए जाएंगे| नहीं लिए जाएंगे, असली घपला ही यहाँ होगा| भाई-भतीजावाद, चाटुकारिता चरम पर बढ़ेगी, 25% में शामिल होने को| स्वछंद कर्मचारी का कल्चर खत्म करेगी यह योजना|
5) फौजियों की अर्निंग कैपेसिटी पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा: पड़ेगा, 60 व् 70 हजार की सैलरी पर पहुँच कर, पेंशन समेत रिटायर होने वाले फौजियों का जमाना लद गया है इससे| कहाँ तो 2022 के पंजाब-यूपी आदि एलेक्शंस में सिविल जॉब्स में पेंशन स्कीम वापिस आ रही थी, कई राज्यों ने घोषणा भी कर दी थी; तो उसका पक्का इलाज बांधा गया है कि किसी को भी पेंशन नहीं दी जाए| फौजी तो गए ही इससे, साथ ही सिविल में भी देखना शायद ही कोई राज्य पेंशन की पुनर्बहाली की घोषणा करे| ऐसा किसी गुलाम स्टेट में ही हो सकता है, आज़ाद में नहीं| शायद ही दुनिया में ऐसा कोई देश हो, जो अपने कर्मचारियों को रिटायर पेंशन नहीं देता हो| इन दोनों ही बातों से आम फौजी की अर्निंग कैपेसिटी कभी भी 70 हजार महीना नहीं पहुँच पायेगी वरन इससे आधे के नीचे रह लेगा| इनकी कैपेसिटी आधी यानी कंस्यूमर कैपेसिटी आधी| जिससे ना सिर्फ फ़ौज को नुकसान होगा, आने वाले वक्त में कंस्यूमर कैपेसिटी आधी होने के चलते, बिज़नेस वालों का सामान भी आधा बिकेगा यानि बिज़नेस पर सीधा-सीधा असर| बिज़नेस वालों को इससे इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि बिज़नेस का कल्चर ही "बड़ी मछली, छोटी को खाने वाला" होता है; तो रोड्स पर तो आएंगे परन्तु छोटे व् मझले व्यापारी| यानि इजराइल अमेरिका से अग्निवीर की कॉपी करने से पहले, वहां के छोटे व् मझले व्यापारी को कैसे बचा के रखा जाता है इसकी भी कॉपी करते तो अग्निवीर लागू करने की सोचते ही नहीं|

लेकिन लगता है मनुवाद इनके सर चढ़ कर बोल रहा है| अभी सचेत हो जाओ, यह हिन्दू राष्ट्र के नाम पर भी तुमको "मनुवाद" परोसने वाले हैं; कहीं कहो कि किसी ने चेताया नहीं था|

जय यौधेय! - फूल मलिक

Sunday, 19 June 2022

आंतरिक रोळा घर का हो या कौम का, गळी में लाने से सदा उलझता ही है, सुलझता नहीं!

बात 2017 की है: फरवरी 2016 के जाट आरक्षण आंदोलन के बाद, जनवरी 2017 में इंडिया आया था तो आधी जनवरी व् पूरी फरवरी लगा के फरवरी 2016 मुद्दे पर विवेचना करने को एक-के-बाद एक चार खाप कॉन्फरेन्सेस करवाई थी व् शांति से निबटवाई| पहली रोहतक, दूसरी कुरुक्षेत्र, तीसरी दिल्ली सुप्रीम कोर्ट के प्रांगण वाले लॉ कॉलेज में व् चौथी फिर से रोहतक ही|

इनमें से एक में भवन बुक करने में दिक्कत आई, वह भी वहां के स्थानीय खाप चौधरी साथ होते हुए, भवन भी कौम के नाम का ही था; परन्तु हमारी बात नहीं बनी तो हमने तुरताफुर्ति यूनिवर्सिटी कॉलेज में वह कांफ्रेंस करवाई|

परन्तु उस भवन की देखरेख करने वालों पर ना खुद क्रोधित हुआ व् ना जो मेरे साथ थे उनमें से किसी को होने दिया| सोशल मीडिया पर उनका मीडिया ट्रायल खोल के बैठने की तो सपने में भी नहीं आई|

बल्कि बैठ के उन वजहों पर विचारा गया कि यह नौबत क्यों आई, वह भी खाप तक के चौधरी साथ होते हुए| और कमी खुद की सैडुलिंग, नेटवर्किंग व् जरूरी कम्युनिकेशन में पाई गई| कुछ इशू कुछ स्थानीय लोगों के आपसी तालमेल में अहम् का भी पाया गया| परन्तु सबसे पहले खुद की तरफ से रही कमियां सुधारी गई| आपस में सर-जुड़वाए गए व् आगे इसका ध्यान रखवाया गया तो आगे के कार्यक्रमों में कभी भी नौबत नहीं आई|

एक-दो ने कहा भी कि ऐसा भवन जो समुदाय के नाम से है व् समुदाय के ही काम नहीं आ सकता तो इस मुद्दे को यूँ ना दबाओ या छोटा मानो| लेकिन यह कह के सब शांत करवा दिए कि ऐसे मसले घर के हों या कौम के, गळी में नहीं ले जाए जाया करते| और अगर तुम उनको घर-कौम के भीतर रख के, आपस में जरूरी सरजोड़ करके नहीं सुलटा सकते तो तुम उनको भी दुश्मन बना लोगे जो उस भवन में थे व् तुम्हारे काम आ सकते थे या उनकी नजर में तुम्हारा मामला गया ही नहीं|

जय यौधेय! - फूल मलिक