Wednesday, 25 November 2020

हर धर्म अपने बंदों को सोशल सिक्योरिटी व् इकनोमिक सिक्योरिटी देने को बना है, सिवाए इन तथाकथित अपने वालों के!

गुरुद्वारों की तरफ से 3 कृषि बिलों पर किसानों को पिछले 2.5 महीनों से सीधी धरणास्थलों पर लंगर की मदद की यह तो वजह है ही कि यह धर्म अपने फोल्लोवेर्स के प्रति सिद्द्त से ईमानदार है; इनसे लेना जानता है तो इनको देना और इनकी सेवा करना भी जानता है; परन्तु इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि इनकी मैनेजमेंट सीधी किसानों के ही हाथों में है और फंडियों की पैठ नगण्य है|

जबकि हमारे यहाँ इसका उल्टा है| मंदिरों-गुरुकुलों-गौशालाओं-मठों की मैनेजमेंट मुख्यत: है ही फंडियों के हाथों में| अब आर्य-समाज का ही उदाहरण ले लीजिये; इसकी शहरी ब्रांच DAV पे तो फंडियों का कब्ज़ा शुरू दिन से चला आ ही रहा है परन्तु आज के दिन यह ग्रामीण आँचल के गुरुकुलों-गौशालाओं-मठों में भी इतनी घुसपैठ बनाये हुए हैं कि वहां से भी कोई किसान बारे मदद की आवाज नहीं आ रही; जबकि ग्रामीण आँचल वाला आर्यसमाज चलता ही मुख्यत: किसान वर्ग के बूते पर है|
इस आंदोलन के बाद से ही आईये इनसे फंडियों की घुसपैठ खत्म करने बारे विचारें| साथ ही ग्रामीण परिवेश के सारे मंदिरों की मैनेजमेंट सीधे-सीधे अपने हाथों में लेवें| अन्यथा तो क्या पागल कुत्ते ने काट रखा है जो इनको पालते-पोसते हो खामखा में; धर्म के प्रति तुम्हारी ड्यूटी है तो धर्म की भी ड्यूटी होती है तुम्हारे प्रति? और यह दुरुस्त करने को अगर इनमें घुस आये गलत लोगों को इनसे बाहर करना पड़े तो कीजिये, अन्यथा तुम अपने खेतों-जमीनों से बाहर करवा दिए जाओगे, जिसमें इनकी मूक सहमति चिल्ला-चिल्ला कर बोल रही है आज के दिन|
इन अपने वालों को छोड़ कर नजर घुमा के देखा जाए तो चाहे सिख हो, ईसाई हों, मुस्लिम हों, जैन हों, बुद्ध हों; कौनसा धर्म नहीं वापिस मुड़ के अपने बंदों को सोशल सिक्योरिटी से ले इकोनॉमिक सिक्योरिटी देता? विचार कीजिये इस पर; यूँ खामखा के परजीवी तो हम अपने जानवरों के शरीरों पर नहीं छोड़ते जैसे कि चिचड़-खलीले-जोंक; तो इनको क्यों ढो रहे हैं, अगर यह कृषि बिलों पर किसानों को रशद-पानी व् कानूनी मददें उपलब्ध नहीं करवा सकते तो?
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Tuesday, 24 November 2020

"किसानों के साथ बदतमीजी" - कौनसा राष्ट्रवाद है यह?

किसानों के ट्रेक्टर कूच होते हमने पेरिस के Champs Elysee पर भी देखे हैं, बर्लिन-ब्रूसेल्स-लंदन में भी देखे हैं; यूरोपियन यूनियन के ब्रुसल्स हेडक्वार्टर के आगे तक देखे हैं; परन्तु उनको यहाँ की सरकारें शहर के बॉर्डर पर नहीं रोकती| शहरी नागरिकों का रवैया इतना सहयोग भरा रहता है कि पेरिस के Champs Elysee पर रहने वालों को किसानों को रषद-पानी देते तक देखा है| पुलिस तक को सिर्फ किसानों के ट्रैफिक को सुचारु रूप से सुनिश्चित करने की ड्यूटी होती है, उनको रोकना या बेरिकेड लगाना तो यहाँ सपनों तक में नहीं होता|

तो फिर कौनसी मानसिकता, कौनसा भय है जो इंडिया में किसानों के साथ ऐसा किया जाता है? यह है कोरा वर्णवाद व् इस देश को अपना नहीं समझने की मानसिकता| अपने ही देश के किसान को जब सड़क आना पड़े तो आम जनता से ले सरकारों तक के हृदय सम्मान में भर के चेत जाते हैं कि ऐसा क्या गलत हुआ जो हमारे किसान को खेतों से निकल सड़कों पर आना पड़ा| और एक ये तथाकथित थोथे राष्ट्रवाद को माथे धरे जो चल रहे हैं इनके तो माथे-त्योड़ी ही दुनियाँ जहान से भी अलग किस्म की पड़ती हैं कि जैसे यह कोई विदेशी आक्रांता हों और यहाँ के किसान इनके गुलाम| इसके ऊपर जुल्म इनकी वर्णवादी मानसिकता| हद दर्जे का कहर है यह| कौनसा राष्ट्रवाद है यह?
अब प्लीज यह कोरोना आगे मत अड़ाना| अभी-अभी बिहार चुनाव हो के हटे हैं, बंगाल चुनाव की तैयारी है| फंडी-पाखंडियों के मेलों-पंडालों से खड़तल-खुड़के बदस्तूर जारी हैं| इनसे ना फैलता कोरोना? और इनमें फ़ैल जायेगा, जो इम्युनिटी सिस्टम के हिसाब से देश के सबसे स्ट्रांग लोग हैं? और यह बात इस बात से भी सत्यापित है कि 10 सितंबर 2020 पीपली आंदोलन के बाद से किसान सड़कों पर ही बैठे हैं; 2.5 महीने कम नहीं होते, इनमें कोरोना फ़ैलना होता तो यह धरना-स्थल श्मशान बन चुके होते अभी तक|
पहचान लो, कि आप अभी भी गुलाम हो और विदेशी ही ताकतों द्वारा शासित हो जिनका ओरिजिन थाईलैंड-कम्बोडिया वाली थ्योरी से साफ़ सत्यापित होती दिख रही है| अगर ऐसा है तो यहाँ से नारा दे लो कि, "थाईलेंडियों, भारत छोड़ो! कम्बोडियाईओ, भारत छोडो!" ग़दर मचा दिया इन्नें तो कति| दुनियां में किते भी कोनी देख्या यह सिस्टम तो| इनका कोई कनेक्शन नहीं है आपके इमोशंस से, मुद्दों से| सर छोटूराम वाले तेवर अपनाने से ही राह निकलनी अब तो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक



धर्म किसी को नहीं जोड़ सकता; ना आंतरिक तौर पर, ना बाह्य तौर पर!

1) अगर ऐसा होता तो एक मुस्लिम धर्म के, साथ-सीमा लगते 59 देशों की बजाए, यह इस हिस्से वाली पूरी धरती एक मुस्लिम राष्ट्र होती|

2) अगर ऐसा होता तो एक ईसाई धर्म के, साथ-सीमा लगते यूरोप के 32-35 देशों की बजाए, पूरा यूरोप एक ईसाई राष्ट्र होता|
3) अगर ऐसा होता तो एक बुद्ध धर्म के, साथ-सीमा लगते पूर्वी एशिया के 15-20 देशों की बजाए, पूरा पूर्वी एशिया एक बुद्ध राष्ट्र होता|
तो क्यों हैं यह देश, एक धर्म के होते हुए, साथ सीमा लगते हुए भी अलग-अलग?
वजह हैं, इनके अपने-अपने आर्थिक, कल्चरल, भाषीय, रिसौर्सेज व् एथिकल रूचियां व् समूह|
हजम करो तो करो, नहीं तो जब तुम अपने यहाँ तथाकथित एक धर्म का राष्ट्र घोषित कर लेते हो तो उसके अगला डिस्ट्रक्शन यही शुरू होगा, आज की 29 स्टेटस कल, न्यूतम 29 राष्ट्र होंगी|
तो ना यह बात सच कि धर्म आंतरिक विषमता मिटाते हैं और ना यह वाली बाह्य विषमता मिटाने की कि "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना" या "हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई, आपस में सब भाई-भाई"|
धर्म सिर्फ और सिर्फ उन चालाक लोगों का प्रोपगैंडा है जो समाज पे इकोनॉमि, रिसोर्सेस व् पावर पॉलिटिक्स पर कण्ट्रोल चाहते हैं| इसलिए अपना-अपना आर्थिक, कल्चरल, भाषीय, रिसौर्सेज व् एथिकल रूचियां समझो और इनको ठीक करने पे काम करो; यूनाइटेड अमेरिका की तरह डिसेंट्रलाइज्ड स्टेट का राष्ट्र बना के; जिसमें स्टेटस के अपने भी इंडिपेंडेंट राइट्स हों व् कुछ राष्ट्रीय स्तर के केंद्र के पास हों|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 6 November 2020

करवा फोटो सेशन और जाट-कल्चर का बिगड़ता रूप!

जिस करवाचौथ की खुद ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री, यहाँ तक कि दलित-ओबीसी तक की लुगाइयों ने शायद ही कोई 2-4% ने फोटो डाली होंगी सोशल मीडिया पर; उसी की ऐसा लगता है कि न्यूनतम 70-80% फोटोज तो जाटणियों ने ही डाल रखी हैं; मरी-बटियाँ नैं इतना आंट दिया सोशल मीडिया| कुछ तो बावली-बूच कल्चर प्रमोशन के नाम पे चेहरा चमकाने को इतनी बावली हुई जा रही हैं कि फोटो सेशंस तक करवा रखे हैं| और ये 90% वो हैं जिनके मर्द 3 कृषि बिलों को लेकर या तो रोड़ों पर हैं या बैंक-देनदारों के कर्जे चुकाने के बोझ में हैं| रै और नहीं तो ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री स्त्रियों की रीस ही कर लो; इस दिन ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री की औरतें जहाँ इस कर्वे की कथा-कहानियां सुना के अपने घर भर रही थी, ये म्हारे वाली खामखा ही चामल-चामल के जेब झड़वा रही थी| जरा बताइयों कथा-कहानी कुहाणे वालियों में से ही कितनियों की करवा-क्वीन टाइप फोटो आई? ऐसा भी नहीं कि इतने छेछर कर कर के थम अपने ऊपर से 35 बनाम 1 होने से ही रुकवा लेती हो?

याद आती हैं पड़दादा दरिया सिंह जांगड़ की वह सारे ठोले की लेडीज की काउन्सलिंग क्लासेज लेना; जिनमें वो बताते थे कि कल्चर-कस्टम के नाम पर क्या हमारे लिए सामूहिक तौर पर सही है और क्या गलत| ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री यह काउन्सलिंग आज भी कर रहे हैं बस ये एक जाट ही न्यारे उभरे हैं जिनको गधों वाले जुकाम हुए पड़े हैं| लुगाई तो लुगाई, इनके मर्दों को टोक लो तो ऐसे पाड़ के खाने को आवें, जैसे बस सारी दुनिया का तोड़ इस चौथ में ही आ लिया| रै मखा रोज सांप-बिच्छू-बघेरों के मुँहों में पैर धर के देश के लिए फसल उगाने वालो, थमनें भी मौतों के डर सताने लगे; रै क्यों गद्यां कैं जुकाम आळी कर रे हो?
35 बनाम 1, जाट बनाम नॉन-जाट, ऐसा प्रतीत होता है जैसे कोई चीज इनके असर ही नहीं कर रही| आर्य-समाज तक जैसे ताक पर धर दिया हो| इनको तो शहरों में रहते हुए तीज-त्योहारों के पीछे के इकनोमिक मॉडल्स तक नहीं पता, ना समझे आते और ना ही समझने की कोशिश करते दीखते; जो कि आज से 30 साल पहले मेरे पड़दादा दरिया सिंह जैसे बूढ़े इन मॉडल्स को इतना बारीकी से समझते थे कि उनकी तरह गाम के हर ठोले का बूढा अपने ठोले की औरतों की मासिक काउन्सलिंग किया करते| रै थम और तो छोडो अपने बूढ़ों की रीस कर लो जो अगर ब्राह्मण-बनिया-अरोड़ा-खत्री की नहीं भी होती तो थारे से|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 2 November 2020

तुमसे मरे पे पिंड-पितृ-दान करवाने वाले के पिंड-पितृ-दान कौन करता है, कभी सोचा है?

तुम्हारे यहाँ किसी के मरने पे आत्मा-पितृ-भगवान-भूत आदि की शांति-पुण्य-भय आदि के नाम तुमसे पिंड-पैसे आदि दान करवाने-लेने, हवन-भंडारे-जीमनवारे करवाने वाले फंडी के घर में जब कोई मरता है तो वह यही चीजें खुद के घर में किस से करवाता है, किसको पिंड-पैसे देता है; कभी सोचा, पूछा या पता किया है?

भली-भांति 10 फंडियों के घरों का गुप्त-सर्वे करवाया मैंने इसपे और पाया कि वह अपनी बिरादरी से बाहर तो छोडो, खुद की बिरादरी तक में किसी को नहीं जिमाता-पुजवाता-दान देता; अपितु जो देता है सिर्फ और सिर्फ अपनी बेटियों को देता है; चाहे उसके घर माँ मरे, बाप मरे, बीवी मरे, जवान मरे या बूढ़ा|
बताओ यह दोहरे मापदंड कैसे हो सकते हैं भगवान के; इसलिए जो भी जिस भी जाति-बिरादरी का इंसान ऐसे फंड रचता है फंडी कहलाता है| इनसे बड़ा सीखते हो ना, इनको बड़ा ज्ञानी-ध्यानी भी बताते हो; इसका मतलब यह जो खुद के मामले में बरतते हैं वही असली ज्ञान हुआ ना? तो करो लागू इसको ही अपने घरों में और घर में हर मरगत पे सिर्फ बेटी को दो या आपस में बांटों|
औरों की तो कहूं ही क्या, जिन 50-60-70 साल वालों के ब्याह-फेरे उनके घर के ही आर्य-समाजी बूढ़े-बड़ों ने करवाए थे, जो यह चीजें घर-खानदान-बिरादरी वाले से ही करवाए थे, उन व् उनकी औलादों तक को यह गधे वाले जुकाम हुए पड़े हैं| फिर कहते हैं कि अजी हमको कोई कंधे से ऊपर-नीचे के तंज क्यों कसता है, अजी यह 35 बनाम 1 हमारे ही साथ क्यों होता है| ना तो और बाबा जी गेल होवैगा? खुद की देखी-बरती पुरखों की कल्चरल लिगेसी थम माननी छोड़ चुके, औलादों को वह पास करनी तुम छोड़ चुके; तुमपे ही होंगी ऐसी बातें-वारदातें|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 1 November 2020

दिवाली के साथ-साथ अबकी बार पुरखों के "कोल्हू दिवस" को मनाएं!

धनतेरस पर दुकानदार की आप लोग शॉपिंग करवाते हो, तो दिवाली को उसके घर उस कमाई की लक्ष्मी आने की ख़ुशी में दिए जलाए जाते हैं|


परन्तु तुम किसान-जमींदारों की औलादों, तुम धनतेरस पर अपनी जेबें कटवा के आने वालो, तुम किस ख़ुशी में लक्ष्मी पूजन करते हो; तुम तो धनतेरस पे दुकानदार के यहाँ उल्टा लक्ष्मी लुटा के आए होते हो, अपनी जेबें फूंक के उनकी दिवाली मनाए आते हो? कभी सोचा-समझा है या एविं देखादेखी भेड़चाल बन चले हो?
आओ बताता हूँ कि उदारवादी जमींदारों के यहाँ कौनसी लक्ष्मी आती है जिसके चलते घी के दिए जलते आए हैं:

कातक की अमावस को वह दिन होता है जब 99% गन्ने (गंडे) की खेती पक के तैयार हो जाया करती है| जो आज भी गामों से जुड़े हो आपको पता होगा कि कहते हैं कि "कातक अमावस को पहला गंडा पाडना चाहिए"| तो पुरखे यह पहला गंडा पाड़ के यह चेक किया करते थे कि गंडे मीठे हो गए हैं तो चलो कोल्हू शुरू किये जावें| और कोल्हू शुरु होने का मतलब होता था जमींदार के यहाँ "कोल्हू इंडस्ट्री से गुड़-शक्कर-शीरा-खोई आदि का बनना शुरू होना" यानि गुड़-शक्कर-शीरा-खोई चारों ही वह औद्योगिक उत्पाद जो जमींदार को अगले छह महीने तक इंडस्ट्रियलिस्ट व् व्यापारी बनाए रखते थे|

इसी धन-आवक की बड़क में पुरखे अपने कोल्हू व् इनके औजारों को धोते-पोंछते व् घी-तेल के दिए लगा के इस इंडस्ट्री के शुरू होने की ख़ुशी में "कोल्हू दिवस" मनते|

इसलिए दिवाली के साथ-साथ अबकी बार कोल्हू दिवस भी मनाओ| ये माइथोलॉजी हमें-तुम्हें खाने को नहीं देती और ना इन मैथोलोजियों से निकले त्योहार देते, उल्टा लेते-ही-लेते हैं| जो देते आए वह त्यौहार मत बिगाड़ो, उनको जरूर से जरूर मनाओ| मनाओ अगर चाहो हो कि फिर से कोई 35 बनाम 1 ना होवे और कोई कंधे से ऊपर-नीचे की अक्ल के तंज ना कसे| और इन सबसे भी जरूरी, तुम्हारी, तुम्हारे पुरखों की हस्ती-शक्ति-लिगेसी बची रहे व् उसकी बुलंदी कायम रहे|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक