Sunday, 21 June 2020

2016-18 के इर्दगिर्द परशुराम जयन्तियों के मुख्यतिथि रहे राजकुमार सैनी के मुखमंडल से सुनिए ब्राह्मण समाज व् उनकी रचनाओं बारे राय!

Note: See the attached video, before reading this post!

यह महाशय वही हैं जिनको 35 बनाम 1 की फायरब्रांड बनाया गया था| अब इस्तेमाल किये जाने के बाद अपनी वास्तविकता पर आख़िरकार आ ही गए|
ऐसे ही तमाम अन्य नेताओं को ध्यान रखना चाहिए कि जाट समाज में अगर यह जज्बा व् माद्दा है कि वह आध्यात्म से ले इकॉनोमी व् सोसाइटी से ले पॉलिटिक्स तक में अपने हिस्से बराबरी से सुनिश्चित रखता आया है तो इससे जलो मत|
1) आध्यात्म में दादा नगर खेड़े, आर्यसमाज, बिश्नोई, बैरागी व् कई डेरों के मालिक होने के साथ-साथ सिखिज्म व् मुस्लिम धर्मों के अगवा होने जरिये, जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
2) इकॉनमी में कृषि-डिफेंस-खेल में लीडिंग के साथ और व्यापार व् नौकरियों में अग्रणी समाजों में रह के, जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
3) सोसाइटी में सोशल इंजीनियरिंग व् समाज-सुधार के नाम की थ्योरी यानि खापोलॉजी, जो विश्व की सबसे प्राचीन सोशल जूरी सिस्टम है, के साथ जाट समाज ने अपना हिस्सा सुनिश्चित रखा|
4) पॉलिटिक्स में राजशाही (महाराजा हर्षवर्धन से होते हुए महाराजा रणजीत सिंह व् महाराजा सूरजमल आदि) से ले लोकशाही (सर छोटूराम-चौधरी चरण सिंह - सरदार प्रताप सिंह कैरों - ताऊ देवीलाल व् अन्य बहुत से स्टेट लेवल लीडर्स की लिगेसी) के साथ अपने हिस्से आध्यात्म-इकॉनमी-सोसाइटी-पॉलिटिक्स में सुनिश्चित रखे|
इस वीडियो में देखिये राजकुमार सैनी समेत तमाम ओबीसी या दलितों के हक किसने मारे, यह जनाब खुद अपनी जुबानी बता रहे हैं| इनके अनुसार जिन्होनें इनके हक़ मारे, जाटों ने तो उन तक को "धौली की जमीनें" दान में दे-दे अपने यहाँ बसाया हुआ है| और वह समाज भी तब चुप रह गया जब 35 बनाम 1 उछला, एक भी यह कहने को आगे नहीं आया कि हमें मत काउंट करो इसमें, 34 बनाम 2 समझो अगर ऐसे ही करना रास्ता बचा है तो| किसी समाज ने नहीं बाँट रखी जमीन जैसी बेशकीमती दौलत इस समाज को जिस अनुपात में जाटों ने दी| और कमाल देखो 35 में काउंट हुए खटटर बाबू ने ही इनसे इस जमीन की मल्कियत छीनी, जो मल्कियत इनके नाम भी चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा जैसा जाट करके गया था|
और अंदरखाते राजकुमार सैनी जैसे इस बात से भली-भांति परिचित हैं कि दिमाग और लठ दोनों की ताकत के बैलेंस वाली जाट कम्युनिटी ही वह कम्युनिटी है जिसके साथ अगर दलित-ओबीसी मिलके रहे तो उसके हक-हलूल दलित-ओबीसी सबसे जल्दी हासिल कर सकते हैं| परन्तु राजकुमार सैनी जैसे नेता ही इन चीजों को हासिल होने देने में बाधा हैं| बल्कि इनकी हरकतें देख कर कई सारे तो जाट भी विचलित हो जाते हैं कि क्या वाकई में मेरा समाज या मेरे पुरखे इतने गलत रहे, जितने राजकुमार सैनी, रोशनलाल आर्य, मनीष ग्रोवर, अश्वनी चोपड़ा या मनोहरलाल खट्टर जैसे फरवरी 2016 पे आग झोंक कर या मूक रह कर समाज को जतलाते दिखे?
खैर, किसी द्वेष-क्लेश के चलते यह पोस्ट नहीं लिखी है और ना ही 35 बनाम 1 का कोई रश्क मुझे| अच्छा है हमारी स्थापना और दृढ ही करके गया फरवरी 2016| जिस प्रकार 1984 के बाद सिख पहले से भी बेहतर बन के उभरे, जाट समाज भी उभरेगा| परन्तु दलित व् ओबिसियों के सैनी जैसे नुमाइंदे औरों की बजाये इन्हीं की राहों के रोड़े ज्यादा साबित होते हैं| जो जनाब की इस वीडियो से झलक भी रहा है|
होंगी जाट समाज में भी कमियां, परन्तु यह कोई तरीके नहीं होते कि तुम 35 बनाम 1 करके अपना गुबार निकालो; बस आपसी कम्पटीशन के इन असभ्य तरीकों से असहमति है अपनी तो| तुम भी इन तरीकों से गुबार तो नहीं निकाल पाते, उल्टा अपना थोबड़ा सा झिड़कवा के बैठ जाते हो; परन्तु बहुतों के दिलों में खामखा की टीस जरूर बैठा जाती हैं ऐसी हरकतें|
बाकी इससे बड़ी विडम्बना व् भंडाफोड़ क्या होगा कि एक वक्त जो व्यक्ति कुरुक्षेत्र का सांसद रहा हो, वही व्यक्ति महाभारत व् कुरुक्षेत्र दोनों को काल्पनिक बता रहा है| ना जाने ब्राह्मण सभाएं अब क्या हश्र करेंगी एक वक्त परशुराम जंयन्तियों के चीफ-गेस्ट रहे सैनी साहब का|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Monday, 15 June 2020

कुंडलिनी की ऊर्जा का वैमनस्य!

जब यह ऊर्जा वैमनस्य यानि शारीरिक हिंसा, व्यभिचार में बदल जाती है तो वासना कहलाती है| और यह लड़का-लड़की दोनों की समस्या रहती है| समाज गलती यह करता है कि वयस्कों को इसको ऊर्जा के रूप में बताता ही नहीं, सीधा इसको वासना का नाम दे देता है जिससे दिग्भर्मिता फैलती है और वयस्कों में इसको ले कर उलझन| जबकि जिंदगी में अगर सबसे सहज (सीरियस तो बिलकुल भी नहीं) लेने की कोई चीज होती है तो वह यह कुंडलिनी की ऊर्जा ही होती है|
क्योंकि वासना को पाप बताया/फैलाया गया है और कुंडलिनी की ऊर्जा को पहले ऊर्जा की तरह समझाने की बजाये सीधा वासना के नाम से बता दिया जाता है तो वयस्कों में आत्मग्लानि भाव भरता है, असुरक्षा का भाव भरता है, चरित्रहीन हो जाने का भय भरता है और इसको कण्ट्रोल (मैनेज) करने की इच्छाशक्ति ही मारी जाती है|
ऊपर से समाज में फैली/फैलाई गई ऐसी भ्रांतियां कि, "इस उम्र में नहीं करोगे तो तब करोगे", "यह चीजें होती ही एन्जॉय करने के लिए हैं" टाइप की पंक्तियाँ बच्चों को इस ऊर्जा के व्यर्थ व्यय की ओर तल्लीनता से धकेलती हैं| और ऐसे अपनी ही अच्छी खासी शारीरिक ऊर्जा के वयस्क दुश्मन बन, खुद को मानसिक-शारीरिक परिपक्क्वता तक पहुंचने ही नहीं देते|
इसलिए वयस्कों को इसको पहले झटके वासना मत बताएं, इसको शारीरिक ऊर्जा बताये व् इसको मैनेज करना सिखाएं| क्योंकि यह सत्य है कि अगर बच्चों ने यह नहीं सीखी तो वह अपने जैविक अस्तित्व की बुलंदी को कभी नहीं छू पाएंगे|
इसलिए निम्नलिखित कारकों को अपने वयस्कों के इर्दगिर्द से हटाइए, या ईमानदारी से सही-सही बताईये:
1) कुंडलिनी की ऊर्जा को वासना का नाम देना बंद करें| इसको ऊर्जा बता के उनको इसको मैनेज करने को प्रेरित करें|
2) चरित्रप्रमाण पत्र जारी करने की जल्दबाजी ना करें, पहले उनको चरित्र होता क्या है यह सही से समझा दिया, इसको पुख्ता करें|
3) किसी भी प्रकार की ब्रह्मचर्यता (खुद की हो सकने वाली बीवी या बीवी के अलावा विश्व की सब औरतों को अपनी बहन मानना व् गलतख्याली से दूर रहना) या जट्टचर्यता (सिर्फ गाम-गौत-गुहांड वालियों को बहन मानना व् गलतख्याली से दूर रहना) वयस्कों पे थोंपने की जल्दबाजी ना करें|
4) सबसे पहले अपने बच्चों को फॅमिली पॉलिटिक्स से प्रोटेक्ट कीजिये| क्योंकि फॅमिली पॉलिटिक्स चाहे पॉजिटिव हो या नेगेटिव अगर आपका बच्चा उसका शिकार हुआ तो वह इस ऊर्जा को कभी सीरियस नहीं लेता और फिर इसको कभी शौक-स्टैण्डर्ड-शोऑफ के चक्कर में बरबाद करता/करती है तो कभी शरीर में कोई कुछ अजीब उभार ना देख ले इस चक्कर में बर्बाद करता/करती है|
5) शारीरिक मैनेजमेंट मामले में बच्चों को कभी भी दिल से काम लेना ना सिखाएं, हमेशा आत्मा की इच्छाशक्ति से दिमाग को काबू रखते हुए, एक मानवीय विज़न दे के उसके मद्देनजर इसको मैनेज करना सिखाएं|
6) शारीरिक रिलेशन एक जरूरत है, स्वाभविक क्रिया है; उसको प्यार-व्यार समझने की भूल से बच्चों को बचाएं| प्यार एक जिम्मेदारी का नाम होता है, मस्ती/हंगाई/गधे के अढ़ाई दिन के अखाड़े का नहीं|
7) मोरल पोलिसिंग से पहले पर्सनल पोलिसिंग सिखाएं|
8) बताएं कि इच्छा-शक्ति हर किसी के शरीर की बॉस होती है, जिसको दोनों आँखों के मध्य माथे के बीच की संवेदना यानि तीसरी आँख संचालित करती है| इच्छाशक्ति-आत्मिक सवेंदना के नीचे दिमाग को रखें और दिमाग के भी नीचे दिल को| और उन लोगों-माहौलों को अपने बच्चों का दुश्मन मानें जो उनको इस हायररकी के उल्टा चलने को प्रेरित या बाधित करते हैं|
फिर बेशक वो किसी भी धर्म के नाम पे ज्ञान-प्रवचन वालों की शिक्षा ही क्यों ना हों| ऐसी शिक्षा धर्म नहीं होती, अपितु दिग्भर्मिता होती है, फंडियों का फंड होती है|
9) बच्चों को सोशल इंजीनियरिंग व् इकनोमिक इंजीनियरिंग में सहयोगी व् दुश्मन सामाजिक समूहों की सही-सही ईमानदारी से जानकारी दें| खामखा के थोथे भाईचारे पे चलने के सबब पढ़ाने से कन्नी काटें| यहाँ बिना रोये माँ दूध नहीं पिलाती, तुम भाईचारा-भाईचारा चिल्ला के काका से ककड़ी लेने चल देते हो| दी है आज तक किसी ने काका कहने मात्र से ककड़ी, जो तुमको मिलेंगी? यह भी वजह रहती है शारीरिक ऊर्जा को वासना समझने की|
10) अपने परिवार-कुल के सर्वश्रेष्ठ आध्यात्म व् सम्मान, एथिकल वैल्यू सिस्टम, कल्चर-इतिहास से बच्चों को जरूर अवगत व् प्रेरित करवाएं (सीधा वह जो पुरखों से आता है, फंडियों का फैलाया तो वह बाहर से वैसे ही जान लेंगे, क्योंकि वह तो प्रचारित ही इतना हद से आगे तक मिलता है समाज में), अन्यथा उनको इनका ही नहीं पता होगा तो उनको कुंडलिनी की ऊर्जा वासना ही फबेगी और वह इसको यूँ ही बेवक्त-बेवजह बर्बाद करेंगे|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 11 June 2020

नारनौंद के मल्हाण पान्ने की विहंगम परस!


ऐसी मिनिफोर्ट्रेस-नुमा परस (चौपाल/चुपाड़) 1857 से पहले के प्राचीन विशाल हरयाणा (वर्तमान हरयाणा, वेस्ट यूपी, दिल्ली, उत्तरी राजस्थान, दक्षिणी उत्तराखंड) व् पंजाब के हर गाम-पिंड की कहानी हैं| और खास बात यह, कि यह कम्युनिटी गैदरिंग का अजब सिस्टम, इंडिया में इस क्षेत्र से बाहर नहीं मिलता; फिर मिलता है तो सीधा अमेरिका-यूरोप-ऑस्ट्रेलिया के डेवेलप्ड देशों में मिलता है|

और यह सिस्टम देन है वर्णवाद रहित नेग-नात की सीरी-साझी वर्किंग कल्चर वाली उदारवादी जमींदारी (उज़्मा) सिस्टम की; जिसको सींचती है
  1. विश्व की सबसे पुरानी वैधानिक मान्यता प्राप्त सोशल जूरी व् सोशल इंजीनियरिंग की सर्वखाप व्यवस्था
  2. मूर्ती-रहित, मर्द-पुजारी रहित व् 100% औरत की धोक-ज्योत की लीडरशिप वाली दादा नगर खेड़ों/दादा नगर बईयों/भूमिया खेड़ा/गाम खेड़ा/बाबा भूमिया/दादा बड़े बीरों के आध्यात्म वाली वह आध्यात्मिकता कि जो आर्य-समाज की मूर्ती-पूजा रहित आइडियोलॉजी का बेस सोर्स है
  3. गाम-गौत-गुहांड व् 36 बिरादरी की बेटी सबकी बेटी वाली नैतिकता
  4. खेड़े के गौत की लिंग समानता
  5. गाम-खेड़े में कोई भूखा-नंगा ना सोवे की मानवता व्
  6. पहलवानी अखाड़ों वाले मिल्ट्री कल्चर|
यह परस 1871 की बनी बताई जाती है| कमाल है अगर उस जमाने में लोगों के यह ब्योंत व् जीने के स्टाइल थे तो यह बातें झूठी हैं कि अंग्रेजों ने या अन्य प्रकार के प्रवासियों ने यहाँ लोगों को जीना सिखाया, या नहीं?  

अपने पुरखों की इस लिगेसी की किनशिप डेवेलोप करते चलिए, इन चीजों को सहेजते व् आगे की पीढ़ियों को पास करते चलिए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक



Friday, 5 June 2020

खुद की बजाए, जो कौम को लीडर बनाना चाहे, वह साथ आवे!

"खुद को लीडर बनाने की महत्वाकांक्षाओं" वालों के आदर्श "खुद की बजाए कौम को लीडर बनाने वाले सर छोटूराम" कैसे हो सकते हैं? उनके नाम पर अगर कौम की लीडरी चमकाने की बजाये खुद की चमकानी है तो भला हो, घर बैठो| क्योंकि लीडर-मसीहा कोई खुद के घोषित करने से या प्रचारित करवाने से नहीं बना करते| यह लीडरी तो वह गाज़ी है जो उन्हीं के सर सजा करती है जो "कौम को लीडर" बनाने को टूरदे होवें| उदाहरण: यूनियनिस्ट पार्टी की यूनाइटेड पंजाब में 25 साल की सरकार में सर फ़ज़्ले हुसैन से ले सर सिकंदर हयात खान व् मलिक हिज्र खान टिवाणा तक कोई वह ताजपोशी नहीं पा सका जो सर छोटूराम इन तमामों के कार्यकालों में मंत्री रहते हुए पा गए यानि "रहबर-ए-आज़म सर छोटूराम"| इसलिए सर छोटूराम को आदर्श मानते हो तो खुद के जज्बे-नीत-नियत-विज़न पर यकीं रखते हुए यह त्याग भी करना सीखो कि खुद को औरों पर थोंपना नहीं अपितु चुपचाप काम करते जाना है; इस सिद्द्त से करते जाना है कि फिर बेशक हिन्दू महासभा सर छोटूराम को पंजाब छुड़वाने के प्रोपेगंडा के तहत जम्मूकश्मीर का प्राइम-मिनिस्टर बनवाने का लालच भी देवे तो भी बंदा अपना कॉल-करार अपनी कौम, अपनी जमीन के साथ ना तोड़े और वहीँ जमा रहे, उसी लाइन पर चला-चले| तब जा कर मिलती है मसीहा या रहबर की खलीफाई|

और इस जल्दबाजी में रहते हो कि खुद को लीडर बनना है, तभी भटकन बनी हुई है और अपनी ही स्ट्रैटेजियों में घिर रहे हो| कौम की सोचो कौम की, क्योंकि अपनों के हाथों मारे जाने वाले तो ईसाह मसीह भी, अपनों द्वारा उठा लिए जाते हैं भले अपनों के ही हाथों मारे जाने के बाद ही| इसलिए अपनों के हाथों मरने का खौफ ना खा, बुलंदी लिख और सूली चढ़; तेरे कौल-करार की टीस सच्ची हुई तो सूली पे टंगा-टंगा भी ईसाह मसीह कहलाएगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

उस जमाने के "खट्टर खान" से आज वाले "खट्टर" तक!

सर सिकंदर हयात खान खट्टर, यूनियनिस्ट पार्टी की तरफ से अविभाजित पंजाब के प्राइम-मिनिस्टर साहब का आज जन्मदिन है (5 June 1892)| दिवंगत प्राइम-मिनिस्टर साहब के जन्मदिन की आप सभी को शुभकामनायें|
ऐसे मसीहाई इंसानों को रहती दुनियाँ की कायनात तक हर वह जमींदार-मजदूर-व्यापारी याद करेगा जिनको अविभाजित पंजाब में 25 साल तक वह स्थाई राज व् कानून मिले जो आज तक भी भारत-पाकिस्तान के दोनों तरफ के पंजाब के लोगों के जीवन का शबब हैं| कहने की बात नहीं कि इन 25 सालों में यूनियनिस्ट पार्टी के कितने ही अन्य नामी-गिरामी प्राइम मिनिस्टर बने, परन्तु इन सब के दौर में जो एक नाम स्थाई तौर से सत्ता में जम के जमींदारों की जून संवारता रहा, वह था "खालिस-अलाही-आला-ए-पंजाबियत रहबर-ए-आजम दीनबंधु चौधरी सर छोटूराम ओहल्याण"| सलंगित फोटो दोनों हस्तियों की है|

"खट्टर" शब्द नोट किया खान साहब के नाम में? 'वाह', मुल्तान-पाकिस्तान की प्रसिद्ध खट्टर फेमिली के चिराग थे खान साहब| एक "खट्टर" वो थे और एक ... | क्या यह संगत का फर्क है कि वो खट्टर खान, एक चौधरी के साथ मिले तो जमींदारों को पुख्ता-तौर पर जमींदार शब्द पर जमा गए और एक यह वाले "खट्टर" हैं जो फंडियों के साथ मिल के जमींदार को उल्टा जमींदार से किसान बनाने को आतुर दीखते हैं? खटटरो और चौधरियो, पहले की तरह एक रह लो; चौधरी तो आज भी उसी लाइन पर हैं परन्तु आप किधर से किधर जा चुके, जरा देखो "खट्टर खान" से ले आज वाले "खट्टर" की जर्नी तक| आप एक रहो तो ना सितंबर 1947 होवे, ना जून 1984 और ना फरवरी 2016| जिन फंडियों के चक्करों में आप रहते हो इन्हीं की वजह से हमारी धरती को 1947, 1984 व् 2016 देखने पड़े हैं; मत पड़िये इनके चक्करों में| क्योंकि यह तो आपको-हमको लड़ा के फिर से साफ़ बच निकलते हैं| और हम-आप जब तक 30-35 साल में पीछे वाली खाई पाटते हैं जैसे 1947 से 1984 (37 साल), 1984 से 2016 (32 साल) तब तक यह कुछ ना कुछ और ऐसा करवा जाते हैं कि हम फिर अगले 30-35 साल यही खाई पाटने में खपा देते हैं| क्या यह सिलसिला बंद नहीं हो सकता? कहने की बात नहीं कि 1947, 1984 व् 2016 भुगता सर्वसमाज ने परन्तु सबसे ज्यादा व् बड़े स्तर के भुग्तभोगी खट्टर व् चौधरी ही रहे, कि मैं झूठ बोल्या?

नोट: इन दोनों वर्गों को उनका इतिहास याद दिलवाने की इस पोस्ट को कोई जातिवाद का चश्मा मत पहनाना प्लीज| और हो सकता है यह अपील अनसुनी जाए, परन्तु कल मुझे यह संतुष्टि रहेगी कि मैंने ऐसी अपील की थी| दिल खुले रखिये, क्या पता इससे दिमाग भी मिल जाएँ|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 3 June 2020

आर्य-समाज क्यों महान है, देखिये उसकी बानगी - भाग 1

नीचे जो लिख रहा हूँ इसमें बस एक कसर रहती है कि जिन खाप-खेड़ा-खेतों से यह विचार सबसे गहन समानता में मिलते हैं, वह रेफरेन्सेस इसमें शामिल हो जाएँ तो "सोने पे सुहागा" हो जाए| जानिये क्या हैं वो बातें|
आर्य-समाज की गीता कही जाने वाली पुस्तक "सत्यार्थ प्रकाश" के ग्यारहवें समुल्लास अनुसार निम्नलिखित बिंदुओं पर ध्यान दीजिये (संबंधित पन्नों की कटिंग सलंगित हैं):

1) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: मूर्ती-पूजा जैनियों की देन है यानि महर्षि दयानन्द के कथनानुसार सिर्फ हिन्दू धर्म का आर्य-समाजी पंथ ही नहीं अपितु सनातनी पंथ भी भूतकाल में मूर्तिपूजा नहीं करने वाला माना जाए, क्योंकि सनातनियों से भी पहले तो मूर्तिपूजा जैनी करते थे| तो फिर सनातनियों ने यह मूर्तिपूजा कब व् क्यों पकड़ी जैनियों से? इसका दूसरा आशय यह भी हुआ कि मूर्तिपूजा नहीं करने वाला आर्यसमाजी ही असली व् पुराना हिन्दू है, सनातनी तो मूर्तिपूजा नहीं करने वालों में से निकली हुई एक शाखा हुई इस मायने से; या नहीं?

मेरी विवेचना: और यही मूर्तिपूजा रहित आध्यात्म तो उदारवादी जमींदारी की आध्यात्म की थ्योरी यानि "दादा नगर खेड़ों / दादा भैयों / बाबा भूमियाओं / गाम खेड़ों" के माध्यम से अनंतकालीन है?

2) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: मंदिर में जाने से दरिद्रता बढ़ती है| मंदिर में जाने से स्त्री-पुरुषों में व्यभिचार, लड़ाई-झगड़ा बढ़ता है| मंदिर में जाने को ही पुरुषार्थ मान के इंसान मनुष्य जन्म व्यर्थ गंवाता है| पुजारी लोग एकमत को तोड़कर विरुद्धमत में पड़कर देश का नाश करते हैं| महर्षि दयानन्द के अनुसार पुजारी लोग दुष्ट होते हैं| बाकी इस पेज पर पूरी पढ़ लीजिये|

मेरी विवेचना: इतनी अति तो मैं नहीं करता किसी के विरोध की जितनी यहाँ महर्षि दयानन्द कर गए, परन्तु हाँ इतना मानता हूँ कि धर्म-धोक में मर्द का आधिपत्य नहीं होना चाहिए| और इस नहीं होने की सबसे सुंदर बानगी हैं हमारे मूर्ती-पूजा रहित, मर्द-पुजारी रहित, 100% औरत की धोक-ज्योत की लीडरशिप वाले प्रकृति-परमात्मा से ले तमाम पुरखों को एक धाम में नीहीत मानने के कांसेप्ट पर बने "दादा नगर खेड़े/ दादा भैये / बाबा भूमिये / गाम खेड़े"| हमें महर्षि दयानन्द के मतानुसार मर्दों को अपने धोक-ज्योत की चाबी/लीडरशिप देने से ना सिर्फ परहेज करना चाहिए अपितु यह दुरुस्त करना चाहिए कि यह चाबी/लीडरशिप हमारी औरत के ही हाथ में रहे| गर्व है मुझे मेरे पुरखों के इस आध्यात्म पर, जिसको महर्षि दयानन्द ने भी माना, भले इसकी रिफरेन्स सही जगह नहीं जोड़ी; जो कि हमें जोड़ने की जरूरत है|

3) तीन सलंगित कटिंग में से एक के अनुसार: आर्यसमाज में मूर्तिस्वरूप कोई है तो वह हैं जीते-जागते 1 - माता-पिता, 2 - शिक्षक, 3 - विद्वान्-सभ्य-अहानिकारक अतिथि, 4 - पति के लिए पत्नी व् 5 - पत्नी के लिए पति|

मेरी विवेचना: यानि पत्थर वाली मूर्तिपूजा नहीं करनी चाहिए| मूर्ती के रूप में पूजना है तो उपरलिखित 5 प्रकार के मनुष्यों को पूजें| यह है वो सबसे उत्तम बात जो "उदारवादी जमींदारी" में होती है| अपनी दादी-काकी-ताई में देखो, कितनियों के गले में विवाहिता के पट्टे स्वरूप मंगलसूत्र-सिंदूर आदि होते हैं; यह आज-कल वाली तथाकथित मॉडर्न जरा ध्यान देवें इस बात पर| और इस पर भी कि यह मर्दों को खामखा झाड़ पे टांगने के "करवाचौथ" तुम्हारी सास-पीतस-दादस कितनी करती थी या करती हैं? खामखा द्वेष-जलन की मॉडर्न व् एडवांस दिखने वाली देखा-देखी की पर्तिस्पर्धा में दे रही मर्दवाद को बढ़ावा व् खुद बनती जा रही शॉपीस|

लौटो अपनी इन जड़ों पर| यह विश्लेषण सिद्ध करता है कि आर्य-समाजी विचारधारा सनातनी विचारधारा से भी पुरानी है| 1875 में यह "आर्य-समाज" के रूप में लिखित अवस्था में आई और उससे पहले यह "दादा नगर खेड़ों" के रूप में युगों-युगों से अलिखित अवस्था में मौजूद रही|

विशेष: हमें नवीनता हेतु आर्य-समाज में इस बात पर मंथन करना चाहिए कि आर्य-समाज की मूल थ्योरी का आधार खाप-खेड़े-खेत इसमें जोड़ा जाए ताकि इसकी जड़ें 1875 से पहले व् अनंतकाल तक स्थापित की जा सकें|
लेख संदर्भ: 1882 व् 2000 के "सत्यार्थ-प्रकाश" के संस्करण| कटिंग्स 2000 वाले वर्जन की हैं जो मेरे पास है| यह मेरे बड़े भाई-भाभी को उनके फेरों के वक्त भाभी जी के आर्यसमाजी आचार्य सगे दादा जी, जिन्होनें दोनों के फेरे करवाए थे उन्होंने दी थी| यहाँ यह भी मिथ्या तोड़ें अपनी कि ब्याह-फेरे कोई जाति विशेष वाला ही करवा सकता है| 35-40 साल से ऊपर वाले आर्य-समाजियों में झांक के देखो, 50% से अधिकतर के फेरे ऐसे ही उनकी ही जाति-परिवार वाले के करे मिलेंगे जैसे मेरे बड़े भाई-भाभी के हुए थे| भाई-भाभी के पास 4 साल तो न्यूतम रही यह पुस्तक, उन्होंने कितनी पढ़ी पता नहीं परन्तु फ्रांस आते वक्त मैं इसको साथ उठा लाया था| 1882 का वजर्न यौद्धेय भाई विकास पंवार से चीजों को क्रॉसचेक करने हेतु चर्चित किया गया कि 1882 और 2000 के संस्करणों में क्या-कितना अंतर् व् समानता है|

आगे है: "आर्य-समाज क्यों महान है, देखिये उसकी बानगी - भाग 2" में ला रहा हूँ कि कैसे महर्षि दयानन्द ने "अवतारवाद" का खंडन किया है| यानि उनके अनुसार जितने भी अवतारी भगवान-देवता हुए हैं यह सब मिथ्या हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक