Friday, 6 August 2021

फंडी कैसे समाज में polarisation व् manipulation का गेम खेलते हैं, उसकी इस धाती से समझिए!

समझिए व् यह अंकुर जहाँ फूटता दिखे उसको वहीँ दबोचिए!

मीडिया द्वारा ऐसे शरारतपूर्ण टाइटल वाले कार्यक्रमों से हर प्रकार के नेता को दूर रहना चाहिए| यह घोर सनकी इसी तरीके से समाज में polarisation व् manipulation का खेल खेलते हैं| कृपया हो सके तो यह संदेश हर किसान नेता तक पहुँचावें व् ऐसे कार्यक्रमों का भहिष्कार करवावें|

इस तरह के टाइटल्स रख के, यह लोग पूरे 1 घंटे के प्रोग्राम में 70 बार जाट-जाट चिल्लायेंगे व् नॉन-जाट पब्लिक को जता देंगे कि यह किसान आंदोलन भी सिर्फ जाटों का है व् बीजेपी की खाट भी सिर्फ जाट खड़ी करेंगे| व् इन्हीं प्रोग्राम्स में जो भी जाट नेता चला जाएगा, उसको दिखा-दिखा फंडी ओबीसी व् दलित्स में यह प्रचारित करेंगे देखो इधर हम राष्ट्रभक्ति की बात करते हैं व् यह जाट-जाट चिल्लाए जाते हैं|

यह ऐसे टाइटल्स से प्रोग्राम ब्राह्मण, बणिया, राजपूत, अरोड़ा, खत्री या किसी अन्य जाति के नाम से क्यों नहीं करते कभी? टाइटल्स मैं सुझा देता हूँ जैसे कि, "अरोड़ा, बनेगा बीजेपी की राह का रोड़ा", "बणिया, केजरी को सपोर्ट दे, बीजेपी से कटवाएगा धनिया" या "ब्राह्मण, सबका बिगाड़ देगा सामण" आदि-आदि|

विशेष: लेखक हर जाति, हर वर्ग से प्यार करता है| परन्तु समाज में असली जातिवाद व् वर्णवाद के बीज बोने वाले मीडिया व् इन मीडिया के सलाहकार फंडियों को आईना दिखाना चाहता है कि यह हरकतें कल को तुम्हारे समाजों के टाइटल्स के साथ होने लगी तो सहन तो कर लोगे ना; या कहीं फिर आ जाओ जातिवाद-जातिवाद चिंघाड़ते?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक


Tuesday, 3 August 2021

क्या है जो 8 महीने बीत जाने पर भी किसान अपने धरनों की टकसाल सी निरंतर चलाए जाते हैं?

निचौड़: यह पब्लिक संसदों व् पब्लिक की क्याण (लिहाज-लाज) मानने के दस्तूर अमेरिका-यूरोप में मिलते हैं; स्वघोषित विश्वगुरु बने फंडियों के यहाँ नहीं| आगे कभी भी भूल सर मत बैठाइयो इनको|

8 महीने किसानों को सड़कों पर बिठा के भी टस-से-मस नहीं होने की मानसिकता वह वर्णवाद है, जिसमें सिर्फ उच्च वर्ण ही सब निर्णय लेता है व् इस व्यवस्था को मानने वालों के अनुसार नीचे के वर्णों की आवाज इनके अनुसार इनके यहाँ मायने नहीं रखती| सरकार व् सत्ता का अहम् नहीं है यह जो फैसला नहीं होने दे रहा, अपितु इस सत्ता में यह ऊपर बताये वर्णवाद वाले लोग आन बैठे हैं, जो तुम्हारे द्वारा आवाज उठाने मात्र को ही इनकी तौहीन मानते हैं| जो लोग बौद्धिकता का परिचय देते हुए उछाल देते हैं ना कि राजनीति बदलने से पहले सिस्टम बदलने होंगे; अवश्य बदलने होंगे, परन्तु पहले वह सिस्टम बदलो जहाँ से वर्णवाद दिमागों में घुस के चलता है; तब तौड़ मिलेगा| यह वर्णवाद तोड़ा जाएगा, तब रास्ता पाएगा!
वरना ऐसा जुल्म, ऐसा बेशर्मपना कि स्वधर्म की सरकार में सर्वधर्म के किसान 8 महीने से देश की राजधानी की दहलीज पे इन्होनें रोक रखे, ना इनको "रामलीला मैदान" में जाने दे रहे और ना इनकी सुन रहे| ऐसा नहीं कि यह "रामलीला मैदान" जाने को इनके मोहताज हैं, जाने को तो अपनी आई पे यह सीधे संसद में जा बैठें, परन्तु देश के कानून-कायदों व् सविंधान में विश्वास की मर्याद ना टूटे; इसलिए बॉर्डर्स पर ही शांति धारे अपने धरनों की टकसाल सी चलाए जाते हैं|
और यह जो 8-8 महीने से सड़कों पर बैठ के हौंसले नहीं छोड़े हैं, यह आते ही उस सिस्टम से जो हैं वर्णवाद के बिल्कुल विपरीत है यानि मुख्यत: खेड़ों, खापों, निहंगों व् मिसलों वाले लोग| खेड़ों, खापों, निहंगों व् मिसलों वालो व् अन्य इस जैसी विचारधारा के लोगो ख़ुशी मनाओ व् गर्व करो खुद पर कि इंडिया में वाकई विश्व स्तर का कुछ है, जो अमेरिका-यूरोप से मिलता है तो यह आपका स्वछंद पब्लिक ओपिनियन व् सामूहिक लीडरशिप पर चलने वाला सिस्टम; जो अधिनायकवादी फंडियों को मुसलमानों से ले ईसाईयों से भी ज्यादा चुभता है| फंडी इन्हीं दो धर्मों को इनका सबसे बड़ा दुश्मन बताते हैं ना? नहीं, इनको सबसे ज्यादा यह विचारधारा हजम नहीं; जो ताकत बन किसानों को 8 महीने होने के बाद भी यथावत जमाए हुए हैं|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 30 July 2021

जिसकी जितनी विधवा औरतें, विधवा आश्रमों में सड़ती हैं, वह जाति, वह वर्ण, वह वर्ग उतना ही बड़ा स्वर्ण व् कुलीन!

इस देश की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यहाँ स्वर्ण व् कुलीन वह समाज कहलाता है जिसकी सबसे ज्यादा औरतें विधवा होने पर, दिवंगत पति की प्रॉपर्टी से बेदखल कर हरद्वार से हुगली तक के व् वृन्दावन के विधवा आश्रमों में आजीवन सड़ने हेतु फेंक दी जाती हैं| अगर इस स्वघोषित स्वर्ण व् कुलीन वर्ग को इसकी औकात में रखना है तो इसकी यह कमजोर नश दबाओ| इन अबला-असहाय औरतों को, जो कि इन विधवा आश्रमों में अघोषित वेश्याओं सी जिंदगी जीने को मजबूर होती हैं, इनको इन स्वघोषित स्वर्ण-कुलीनों के चंगुल से छुड़वाने का अभियान चलाओ; पहले इस विषय पर सार्वजनिक चर्चाएं ही चल जाएँ तो फिर देखो इन तथाकथित सर्वणों के घमंड, ज्ञान, manipulation व् polarisation स्किल्स का कैसे कूप सा धधक-धधक जलता है|

और कुछ समाज ऐसे हैं जो विधवाओं को पुनर्विवाह की व्यवस्था दे कर भी, दिवंगत पति की प्रॉपर्टी पर उसका हक़ आजीवन यथावत रख कर भी, क्रूर-तालिबानी-निर्दयी बतवा दिए जाते हैं व् वह समाज अपनी इस इतनी पॉजिटिव व् महान मानवता व् जेंडर सेंसिटिविटी की KINSHIP को इतना भी प्रचारित व् अपनी औरतों में नहीं जगाते कि वह समाज विधवाओं को विधवा आश्रमों में साड़ने वाले तथाकथित स्वर्ण परन्तु नियत व् नीति से फंडी समाज, उसकी सॉफ्ट-टार्गेटिंग से अपने आपको बच/बचा सकें| असली स्वर्ण ये हैं जो फंडियों की तुलना में महिला के प्रति इतनी वास्तविक कुलीनता व् सभ्यता बरतते हैं, परन्तु ढंग से अपनी KINSHIP को carry-forward नहीं करवाने के चलते क्या-क्या तो नहीं झेलते ये, 35 बनाम 1 से ले क्या-क्या नहीं?

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 28 July 2021

कोई राजनैतिक लालच भी देवे तो चिंता ना करियो; बस महाराजा सूरजमल गेल फंडियों ने क्या करी थी उसको स्मरण कर लीजियो!

किसान आंदोलन को पार उतारने हेतु सरदार अजित सिंह, सर छोटूराम व् चौधरी चरण सिंह जैसी फंडी की चाल को पहले भाँप लेने वाली कुशाग्र कुटिलता से चलना होगा हर किसान लीडर को| अन्यथा इन फंडियों के प्रति थोड़ा सा भी अपनापन टाइप के भाव में आये और इन्होनें आपको ठीक उसी तरह पटकनी दी जैसे महाराजा सूरजमल के सर से दिल्ली का ताज ठीक उसी दिन दूर कर दिया था, जिस दिन उनकी दिल्ली के तख्त पर ताजपोशी थी यानि 25 दिसंबर 1763 को| सोण-कसोण के नाम पर फंडियों ने महाराजा सूरजमल को ताजपोशी से पहले निहत्थे हो यमुना में स्नान करके आने की कह दी व् उन्होंने मान ली और उधर इन्हीं फंडियों के घात पे बैठाये मुस्लिम सैनिकों ने निहत्थे महाराजा की गर्दन उड़ा दी| अगर धर्म के नाम पर इन फंडियों के लिए किसी का हेज पाटता हो तो यह घटना याद कर लेना, फिर भी समझ ना आवे तो शाहदरा में महाराज सूरजमल की समाधि पर हो आना| तुम्हारा सबसे बड़ा दुश्मन ना मुसलमान है, ना ईसाई; सिर्फ यह फंडी है जो तुम्हारा बन के तुम्हारे धर्म का कुहा के, तुम्हारे बीच बैठ तुम्हारी गोभी खोदता है| अभी यूपी एलेक्शंस सर पे हैं तो यूपी को बचाने हेतु अभी अलग ओहदे के फंडी तुम्हारे चक्कर काटने पर लगाए जायेंगे; सौं तुम्हें तुम्हारे पुरखों की जो इनकी बहकाई में आए तो|


कोई राजनैतिक लालच भी देवे तो चिंता ना करियो, बिना किसी किसान लीडर से बात हुए लिख रहा हूँ कि एक बार यह किसान आंदोलन जीत लो; फिर कहोगे तो थारी 40 की 40 वाली टीम ने सीधे केंद्र सरकार की कैबिनेट तक बिना इन फंडियों की मदद के पहुंचा देंगे| परन्तु वैसा होने का रूतबा भी तभी हासिल होगा जब सरदार अजित सिंह, सर छोटूराम व् चौधरी चरण सिंह के फ़ॉर्मूलाज को आगे रख के चलता चला जाएगा|

ऐसे-ऐसे समूह-सोण बार-बार नहीं बनते, जब प्रकृति-परमात्मा-पुरखे तीनों सिद्धत से आपको किसान आंदोलन जितवाने में जुटे हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Monday, 26 July 2021

अनाज को पत्थरों पर चढ़ाते फिरते हो, इसलिए मंडियों/बाजारों में यथोचित दाम पर नहीं बेच पाते व् हताश हो सड़कों पर फेंक के आते हो!

एक कहावत चलती आई है उत्तरी भारत की सबसे बड़ी जमींदार/किसान बिरादरी पर कि, "जाट भेल्ली दे दे, पर गन्ना/गंडा ना दे"|

इसके आर्थिक (economical) व् मार्केटिंग पहलु पर विचारा कभी? हालाँकि पहले-पहल सुनने में ऐसा लगेगा कि जैसे जाट की कोई क्रूरता या नादानी इसमें दिखाई गई हो| परन्तु आपके जमींदार/किसान पुरखों के आर्थिक व् मार्केटिंग सिद्धांतों से इसको समझोगे तो बात का सही मर्म समझ आ जाएगा| परन्तु आपके पुरखे ही क्या आपकी तो पूरी कौम बारे फंडियों ने "भोली कौम", "भोला किसान" प्रचारित करा रखा तो कैसे इन बातों के मर्म तक जा के सोचना होगा|
चलिए थोड़ी सी इकोनॉमिक्स व् मार्केटिंग टर्म्स समझते हैं इस पर बताने से पहले| बिज़नेस में सेकेंडरी प्रोडक्ट व् प्राइमरी प्रोडक्ट (raw-material) होते हैं| सेकेंडरी प्रोडक्ट, प्राइमरी प्रोडक्ट से बना होता है| उदाहरणार्थ: बिस्कुट सेकेंडरी प्रोडक्ट है व् गेहूं जिससे बिस्कुट बनता है वह प्राइमरी प्रोडक्ट|
ऐसे ही ऊपर वाली कहावत में आई "भेल्ली" यानि "गुड़ की पेडियां" सेकेंडरी प्रोडक्ट है व् गन्ना/गंडा जिससे गुड़ बनता है वह प्राइमरी प्रोडक्ट| और पुरखे किसी भी आंगतुक को कभी गन्ना/गंडा ऑफर नहीं करते थे, बल्कि गुड़ खिलाते थे| इससे उनके गुड़ की मार्केटिंग होती थी, खाने वाले को स्वादिष्ट लगता था तो खरीद भी लेता था या अपने यारों-प्यारों-जान-पहचान वालों में बताता था कि फलाने "कोल्हू का गुड़" बहुत स्वादिष्ट है| इससे डिमांड क्रिएट होती थी व् किसान को और ग्राहक मिलते थे|
अब ऐसे ही रॉ-मटेरियल (प्राइमरी प्रोडक्ट) है अनाज; उसको आप बिना सेकेंडरी प्रोडक्ट बनाए पत्थरों पर चढ़ा आते हो, तो ना आपका सामुदायिक रुतबा बन पाता ना ब्योंत| अब जब खुद ही अपने प्राइमरी प्रोडक्ट को फ्री-फंड में चढ़ाते-बाँटते फ़िरोगे तो मंडी क्या ख़ाक कद्र करेगी उसकी? अंत में उचित दाम ना मिलने की हताशा में सड़कों पे ही फेंक के आओगे और बहुतेरों को आना भी पड़ता है| आगे समझदार को ईशारा काफी|
अब जिस बिरादरी पर यह कहावत बनी है, उसी को पुरखों के यह फंडे भुलाये जाते हैं तो बाकी किसान बिरादरियों के तो कहने ही क्या|
तो कृपा कहाँ रुकी पड़ी है? किसी कुंडली-सर्प या गृह दोष में नहीं; अपितु पुरखों के इकोनॉमिक्स व् मार्केटिंग कॉन्सेप्ट्स को तिलांजलि देने में|
निचौड़: आपकी आस्था/आध्यात्म के तौर-तरीके निर्धारित करते हैं कि आपका सामुदायिक रुतबा कैसा होगा व् आपकी सामुदायिक माली हालत कैसी होगी|
चलते-चलते एक चीज और नोट करने की है: जिन धर्मों में अनाज, पत्थरों पर ज्याया नहीं किया जाता; वहां किसान की भी कीमत है व् अनाज की भी| जहाँ ऐसा नहीं होता, वहां देख लीजिये| अमेरिका में किसान को इंडिया की अपेक्षा 734 गुना compensations व् subsidies मिलती है, यूरोप में औसतन 500 गुना ज्यादा मिलती है| लेकिन इंडिया में ना उचित दाम मिलते और ना सम्मानजनक compensations व् subsidies| अमेरिका-यूरोप में corporate ने किसानी हालात बिगाड़े तो कम-से-कम से compensations व् subsidies के जरिये उनको संभाले तो रखते हैं|
अब इन पहलुओं का साइकोलॉजिकल व् आर्थिक क्या कनेक्शन है, आपके लिए "food for thought" छोड़ दिया है|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Sunday, 25 July 2021

"दादा नगर खेड़ों" पर सिर्फ ज्योत लगाई जाती है, प्रसाद रुपी अनाज-फल-दूध या "गुड़ की भेली" चढ़ा अनाज की बेअदबी नहीं की जाती; बल्कि उसको इंसानों में ज्योत लगाने वाली ही स्वत: वितरित करती है!

जिसने अपनी कष्ट कमाई की बेअदबी करनी सीख ली या सहज मंजूर कर ली, उससे खाली दिमाग कौन होगा? बस आप इस कष्ट-कमाई को कदमों-पत्थरों पर रुलवा सकते हो या नहीं; यह पत्थरों पर चढ़वा के बाकायदा पहले चेक किया जाता है|

इस बात को हमारे पुरखे भली-भांति समझते थे इसलिए "दादा नगर खेड़ा" के कांसेप्ट में उन्होंने यह सिस्टम कभी रखा ही नहीं| आपने देखा भी होगा आपकी दादी-नानी-माँ-काकी-ताई, "दादा नगर खेड़ों/भैयों/भूमियों/बड़े बीरों" पर सिर्फ ज्योत लगा के आती थी, "गुड़ की भेली" रुपी प्रसाद या तो खेड़े के आगे जो मिलता उसको खुद बांटती थी या अपने बगड़ में आ के बांटती थी|
संजोग कहिये या आपकी इस थ्योरी का ग्लोबल स्टैण्डर्ड की होना कहिये; अनाज को पत्थरों पर खराब नहीं करने का विधान ईसाई धर्म में भी है, सिख धर्म में यूँ अनाज की बेअदबी नहीं, काफी हद तक इस्लाम में भी है, शायद जैन व् बुद्ध वाले भी इसका अनुसरण करते हैं|
कहना सिर्फ इतना है कि पुरखों के सिद्धांतों को पकड़े रखिए; बहुत बड़े मनोवैज्ञानिक दोहन व् व्यर्थ के इकनोमिक दोहन से तो इतने से ही बचे रह सकते हो|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Thursday, 22 July 2021

फंडी की manipulation व् polarisation थ्योरियों से बचना व् बचाना क्यों जरूरी है व् कैसे यह आपकी सांझा व्यापार-कारोबार की संभावनाओं को कुंध कर रहा है?

हमारे अंदर चार इंटरनल पावर एम्पायर (आंतरिक शक्ति साम्राज्य) होते हैं:

1) Kinaesthetic - सोधी (हरयाणवी में उसाण) - Kundalini Health Set
2) Emotional - भावनाएं - Heart Set
3) Cognitive - तार्किकता - Mind Set
4) Spiritual - आत्मीयता - Soul Set
चारों का 25% प्रत्येक के हिसाब से 100% व्यक्तित्व बनता है| यह बैलेंस अगर नहीं है तो आप सनकी हो सकते हैं, भीरु हो सकते हैं, हीन हो सकते हैं, गुस्सैल हो सकते हैं, चिड़चिड़े हो सकते हैं, एकलवादी, अलगाववादी, मानसिक बीमार हो सकते हैं| इसमें सबसे खतरनाक स्थिति तब होती है, जब दूसरा यानि Emotional - भावनाएं - Heart Set आपके बाकी तीनों सिस्टम्स से बड़ा बन जाता है या बना/बनवा दिया जाता है तो यह बाकी तीनों को कुचलने लगता है व् आप "भरी थाली को ठोकर मारने वाली" पटरी पर चलने लगते हैं|
फंडियों ने उनकी manipulation (सच्ची झूठी माइथोलॉजी-इतिहास आदि की गपोड़ -कहानियों के जरिये भय-भ्रम-द्वेष-आवेश-हेय-नफरत-लालच-महत्वकांक्षा) व् polarisation (वर्णवाद की दिग्भर्मित श्रेष्टता) की थ्योरीज के जरिए अधिकतर सोसाइटी को सामूहिकता-सहकारिता-ल्हास-डंगोसरा-मलौटा कल्चर की पटरी से उतार, उनकी आत्मीयता-तार्किकता-सोधी को क्षीण कर खाली भावनाएं हावी करवा रखी हैं| याद करो कथा-पंडालों में आपको डांगरों की तरह डाटने का इनका तर्क क्या होता है, "आस्था में भावना चलती है, तर्क व् दिमाग नहीं"|
इसीलिए आज किसानी परिवेश के घरों में भी बाजारों से सब्जियां आ रही हैं, बावजूद इसके कि डोळे से लगते खेत वाला चाहे बाजार से 10 गुणा सस्ती कीमत पर व् मार्किट से कई गुणा ताज़ी क्यों ना देता हो| बस उसी की आमदनी नहीं करवानी|
अत: जब तक फंडियों के फेंके गए इस "psychological war game" को समझ माइथोलॉजी व् वर्णवाद से दूर नहीं हटा जाएगा; यह भटकन बनी रहेंगी|
जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Tuesday, 20 July 2021

हिंडवा / हिंडी / इंडवा / इंडि से बना दूँ क्या इंडिया?

पाड़ ल्यो पूंझड़ मेरा, वो सनकी लेखक/फंडी जो मात्र शब्दों के मिलाप के आधार इतिहासकार बने फिरते हैं| जो यह समझने को ही रेडी नहीं कि इतिहास सिर्फ शब्दों के मिलाप के आधार पर नहीं लिखे जाते वरन जेनेटिक्स, शिलालेख, आर्कियोलॉजिकल दस्तावेज भी साथ में रखने होते हैं|


इससे पहले नौसिखिया ज्ञानी, इंडवा / इंडि के तार कहीं यूरोप-थाईलैंड से जोड़ने निकल पड़े; जनता को बता दूँ कि इंडवा / इंडि म्हारे हरयाणवी कल्चर व् भाषा में सर पे मटके या भरोटे रखने के लिए कपड़े-जूट आदि के बनने वाले गद्देदार वृताकार को कहते हैं|

अत: खबरदार जो आज के बाद किसी ने "इंडिया" शब्द को विदेशी कहा तो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 16 July 2021

फंडियों के इशारे पर "ठगपाल एंड कंपनी" की लगवाई हुई है "पंजाब में चुनाव लड़ने की बात" किसान आंदोलन में!

याद रखना इससे पहले इस कंपनी को खापों में दो-दो चौधरी बनवा इनको धड़ों में बाँट इनकी ताकत कम करने का काम दिया गया था, जिसमें यह काफी जगह कामयाब भी हुए| भला हो इस किसान आंदोलन का कि खाप-चौधरी तो फिर से एक हो गए हैं व् एकमुश्त किसान आंदोलन में जी-जान व् चट्टान जैसी ढाल की तरह संयुक्त किसान मोर्चे के पीछे खड़े हैं| जो कि किसान आंदोलन को एक अप्रत्याशित शक्ति प्रदान करता है|


अब ठगपाल एंड कंपनी को किसान आंदोलन का ठेका मिला हुआ है सीधा फंडियों के उच्च दरबार से| इसकी सत्यता जांचनी है तो जरा चेक करो, ठगपाल के गुर्गे, कौनसी किसान यूनियन में किस-किस जिले के यूनियन अध्यक्ष बन के घुसे हुए हैं व् किसान आंदोलन शुरू होने के बाद से घुसाए गए हैं| इनको वहां-वहां से बाहर निकलवा दो, सब बाज की तरह वापिस एकमुश्त किसान आंदोलन के असली मुद्दों पर केंद्रित हो जाएंगे| अन्यथा टोहाना घटना का हीरो, जिसने उसमें घुसे संघी पहचनवाये व् उनका विरोध किया; वह अभी चुनाव में उतरने की रट क्यों पकड़ेगा? सब ठगपाल एंड कंपनी का असर है| पब्लिक अपील हो इस कंपनी से दूर रहने की|

राजनीति कीजिए परन्तु स्टेप-बाई-स्टेप| पहले किसान आंदोलन जीत लीजिये; उसके बाद आपकी इतनी क्रेडिबिलिटी बन जाएगी कि आप देश की जिस चाहे लोकसभा सीट से खड़े हो लेना| बिना इसके आपके साथ "धोबी के कुत्ते वाली बननी है, ना आंदोलन के ना इलेक्शन के"| "बननी है" लिखा है "बन सकती है नहीं"; और यह किसी रिसर्च व् तथ्यों के आधार पर लिखा है| इतना सिम्पल नहीं है कि आप आंदोलन व् चुनाव, दो नावों में एक साथ पाँव रखोगे व् पार उत्तर जाओगे| नहीं, अपितु बीच से फाड़ दिए जाओगे; गोदी मीडिया, संघ के गिद्द आँखों में खून उतारे चीरफाड़ करने को लालायित बैठे हैं|

साथ ही; छोटा मुंह बड़ी बात परन्तु इस नाजुक वक्त में ज्यादा सख्त फैसले ना लिए जावें तो बेहतर, क्योंकि संघ-शाह सब आंदोलन को तोड़ने में जी-जान लगा रहे हैं| दिसंबर-जनवरी के वक्त माहौल और था, नया-नया जोश व् अनुशासन का गज़ब भाव था; इसीलिए उस वक्त जिसका भी सस्पेंशन हुआ, ख़ुशी-ख़ुशी झेल गया| अभी का समय आंदोलन पर ज्यादा टाइट है इसको देखते हुए, "प्रेस-कांफ्रेंस से किसी भी प्रस्ताव को निरस्त घोषित कर देना" व् "उसको उठाने वाले साथी से उस प्रस्ताव को (कारण समेत) नहीं उठाने की पब्लिक अपील" करने से काम चलाया जा सकता है| हाँ, फिर भी साथी अवहेलना करे तो सस्पेंशन पर जाया जाए|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Wednesday, 14 July 2021

वर्तमान किसान आंदोलन की सफलता के उस पार "राष्ट्रीय किसान राजनीति का आगे का स्वर्णिम भविष्य" मुंह बाए बाट जोह रहा है; इसको स्टेट पॉलिटिक्स में ना ही रोळा जाए तो बेहतर!

सन 1907 में सरदार अजित सिंह के "पगड़ी संभाल जट्टा" किसान आंदोलन से शुरू हो सर छोटूराम व् सर फज़ले हुसैन की जोड़ी से होती हुई सरदार प्रताप सिंह कैरों व् चौधरी चरण सिंह (साउथ-ईस्ट इंडिया से भी बड़े नाम जोड़ लीजिये) से होते हुए 2011 में बाबा महेंद्र सिंह टिकैत के जाने के वक्त से जो "राष्ट्रीय किसान राजनीति" रुपी नाव इसके खेवनहार की जो बाट जोह रही है, उस खेवनहार/ उन खेवनहारों को देने का माद्दा रखती है वर्तमान किसान आंदोलन की सफलता|


हालाँकि खेवनहार तो राज्य-स्तरीय और भी बहुत नाम हुए परन्तु 20वीं सदी में राष्ट्रीय किसान राजनीति में अमूल-चूक परिवर्तनों के धोतक ऊपर दिए नाम ही कहे जा सकते हैं| दसवीं सदी से ले बीसवीं सदी के बीच किसान क्रांतियों का डंका सर्वखाप आर्मी व् सिख मिसलों ने लगभग हर दूसरे शासक के विरुद्ध बजाया|

राष्ट्रीय किसान राजनीति के आगे का स्वर्णिम भविष्य निर्धारित होने में किसान आंदोलन की सफलता इसको वह क्रेडिबिलिटी प्रदान करेगी कि SKM (सयुंक्त किसान मोर्चा) जिस किसी पार्टी या कैंडिडेट पर हाथ धर देगा या खुद के भी कैंडिडेट उतार देगा तो सीधा सेण्टर सत्ता यानि लोकसभा में पहुंचेगा| और 3 काले कृषि बिल व् MSP गारंटी कानून सेण्टर से बनने हैं, स्टेट से नहीं| इन तीन बिलों के मामले में एक स्टेट सरकार जितना कर सकती थी, उसके लगभग पंजाब सरकार पहले ही कर चुकी है तो ऐसे में एक स्टेट जीत भी ली जाएगी तो कितना लाभ होगा; जब समस्या सेंटर से हल होनी है तो?

इसलिए लाजिमी है कि SKM न्यूनतम 2024 तक गैर-राजनैतिक हो कर ही चले व् वर्तमान केंद्र सरकार को हर राज्य चुनावों में हरवावे| इससे या तो यह मांगें मानेंगे अन्यथा तो तब होगा असली लोहा आजमाने का वक्त तो; क्योंकि तब तक लोगों के इस सरकार से जुड़े रहे-सहे भ्रम भी टूट चुके होंगे व् सब समझ चुके होंगे कि अब लोकसभा चुनावों में जा के जनमत हासिल कर ही हल मिल सकेगा| उस वक्त चाहे तो SKM खुद उम्मीदवार उतारे या संभावित राजनैतिक पार्टियों के साथ "लीगल गारंटी इलेक्शन बांड" साइन करवा के उनको समर्थन दे|

अभी जल्दबाजी नहीं की जा सकती क्योंकि एक तो क्रेडिबिलिटी कच्ची है, दूसरा आम जनता भी कह उठेगी कि राजनीति में कूदने की ऐसी भी क्या जल्दी थी| खुद से नहीं कहेगी तो गोदी मीडिया कहलवा देगा व् सारा आंदोलन तीतर-बितर होने की भेंट चढ़ता दिखेगा|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

फ्रांसीसी क्रांति का दिन है आज, 14 July, 1789 कुछ ऐसे ही हालात व् वजहें थी फ्रांस में जिनके चलते आज इंडिया में दिल्ली बॉर्डर्स पर किसान आंदोलन है!

आगे बढ़ने से पहले कहता चलूँ:


मुझे गर्व है कि कुदरत ने मेरी कर्म-स्थली के रूप में मेरे खाते फ्रांस लिखा; लिंगभेद जहाँ विश्व में न्यूनतम है| दरअसल औरतों को बहुत से पैमानों में ठीक उसी तरीके का आधिपत्य है जैसे सर्वखाप की थ्योरी "दादा नगर खेड़ों" की धोक-ज्योत में 100% प्रतिनिधत्व अपनी औरतों को दिया गया है; होंगी कमियां इनमें भी परन्तु ऐसी-ऐसी खूबियां ही सर्वखाप को मेरे लिए अतिप्रिय बनाती हैं और तब तो और भी जब मैं सर्वखाप की धाती का ही वंशानुगत अंश हूँ| और गर्व है इस पर भी कि इसी धाती के इन्हीं सर्वखाप-मिशल-निहंगों के लोग 21वीं सदी की "इंडियन किसान-मजदूर क्रांति" के अग्रणी हैं|

अब जानिए "फ़्रांसिसी क्रांति" के पीछे की वजहें, व् क्यों हैं आज इंडिया में वही 1789 वाले फ्रांस जैसे हालात:

तीन एस्टेट्स में बँटे हुए फ्रांस ने आज के ही दिन (14 July, 1789) पाई थी आंतरिक धार्मिक व् वर्णवाद की कटटरता से आज़ादी| सही-सही वर्णवाद तो नहीं कह सकते, परन्तु वर्गीकरण कुछ ऐसा ही था; जबकि हमारे यहाँ वाला वर्णवाद विश्व में सबसे नीचतम स्तर वाला है| खैर इस दिन को "La Fête nationale (Bastille Day) बोलते हैं यहाँ; फ्रांस का सबसे बड़ा राजकीय त्यौहार है आज| Three estates: the First Estate (clergy); the Second Estate (nobility); and the Third Estate (commoners) होती थी|

"​आंतरिक ​धार्मिक व् वर्णवाद की कटटरता" के तीन एस्टेट रुपी वर्णों में बँटा ईसाई ही ईसाई को कुचल रहा था|

पहली दो एस्टेट्स ने तीसरी एस्टेट को इतना दबाया-कुचला हुआ था, उल-जुलूल टैक्सों व् फसलों में मनमाने मूल्य देने का इतना भार थोंपा हुआ था कि किसानों को ही खाने के इतने लाले पड़े कि 14 जुलाई 1789 को फ्रेंच औरतों को खाने की दुकानों का सामान लूटना पड़ा; इस हद तक अत्याचार था प्रथम दो ऐस्टेटों का तीसरी एस्टेट पर|

दुकानों के बाद बास्तील (Bastille) की जेल (सलंगित फोटो देखिये) तोड़ना थर्ड एस्टेट का निशाना बनी, जहाँ झूठे-सच्चे देशद्रोह तक के ऐसे मुकदमे लगा के थर्ड एस्टेट के लोगों को बंदी बना के डाला गया था कि वह अपने ऊपर हुए केसों पर अपील भी नहीं कर सकते थे| जेल तोड़ी गई व् बेकसूर लोग आज़ाद कराये गए|

उसके बाद चर्चों से पादरियों को निकाल-निकाल कर काट डाला गया| पंद्रहवीं सदी के यूरोप के ब्लैक-प्लेग के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा अभियान था जब पादरियों व् उनके उल-जुलूल तथाकथित ज्ञान को समाज से खदेड़, चर्चों के भीतर सिमित कर दिया गया था| क्योंकि यह भ्रम-भय-नफरत ज्यादा फैलाते थे व् सकारात्मक सामाजिक योगदान नगण्य करते थे| कहते हैं पूरे एक साल में जा के शांत हुई थी यह क्रांति, जिसके समापन की ख़ुशी में 14 जुलाई 1790 को Fête de la Fédération मनाया गया|

यह नोट हिंदी में इसलिए लिखा कि हमारे देशवासी फ्रांस के इस दिन से यह दिशा व् समझ ले सकें कि हमें किस दिशा में जाना है|

चलते-चलते एक और विशेष: आज लोग अपने पुरखों की सर्वखाप की स्थापित इतनी महान प्रैक्टिकल "यत्र पूजयन्ते नारी, तत्र रमन्ते देवता" की लाइन की थ्योरी यानि "धोक-ज्योत में औरतों को 100% प्रतिनिधित्व" देने की सभ्यता छोड़ के धोक-ज्योत में 100% मर्द के प्रतिनिधित्व वाली फंडी थ्योरी में डूबते जा रहे हैं| और शायद यही इनके ग्रास का, पीड़ा का, 35 बनाम 1 झेलने का सबसे बड़े कारणों में से एक कारण है| अपनी लीख पे आ जाओ वापिस, लीख छोड़ के चलने वाले तो बुग्गी में जुते झोटे के ज्योते टूट जाते हैं; तुम क्या चीजों हो| या कम-से-कम अपनी थ्योरियों को सबसे ऊपर प्रचारित रखो, अंगीकृत रखो|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक




Monday, 12 July 2021

स्याणे थारे पुरखे थे या थम हो?

यूपी में चुनी हुई महिला पार्षदों के साथ व् हांसी में आंदोलनरत किसान महिलाओं (वो भी दोनों जगह हिन्दू धर्म की ही) के साथ बीजेपी व् संघ के लोगों (विनोद भयाणा व् मनीष ग्रोवर) द्वारा मारपीट से ले अश्लील इशारे व् हरकतें करना इनकी 'देवदासी व् वर्णवादी मानसिकता' का खुला परिचय है| सबूत है कि इनके लिए "हिन्दू एकता व् बराबरी", "भाईचारा" टाइप की इमोशनल बातें व् हवाले, आपको अपने झांसे में फंसा के आपका दिमाग-सोच-वोट-नोट हड़पने का प्रपंच मात्र होते हैं|


यह "हिन्दू एकता व् बराबरी", "भाईचारा", "धर्म-देश के खतरे में होने" की बातें तभी तक करते हैं, जब तक इनको पावर नहीं मिल जाती, जब पावर मिल जाती है तो यह किस क्रूर स्तर का नश्लवाद, अलगाववाद, शूद्र-स्वर्ण वाद, छूत-अछूत वाद, वर्णवाद, दक्षिणी भारत के धर्मस्थलों में पाई जाने वाली "देवदासी वाली वासनायुक्त मंशा" करते-बरतते हैं, यह दोनों घटनाएं इसकी साक्षी हैं| और तो और पावर मिलने पर इनको सेक्युलर कहलाने का शौक चढ़ आता है, जैसे अभी मोहन भागवत ने पिछले हफ्ते ही "हिन्दू-मुस्लिम का DNA एक बता दिया था"| पहले जोर लगा के तुमको कट्टर बना देंगे व् खुद बाद में सेक्युलर-सेकुलर खेलना शुरू करेंगे|

सरदार अजित सिंह, सर छोटूरम, सर फ़ज़्ले हुसैन, चौधरी चरण सिंह, सरदार भगत सिंह, सरदार प्रताप सिंह कैरों, बाबा टिकैत सेक्युलर किसान राजनीति के समानांतर संघी-फंडी तब भी दिखावे के कट्टर थे व् असल में सेक्युलर थे; यहाँ तक कि नेहरू, गाँधी की सेक्युलर राजनीति तक को कोसते आये हैं| यह तब भी सिंध व् बंगाल में मुस्लिम लीग के साथ मिलके सरकारें भी बनाते थे और आज भी इनके लिए हिन्दू-मुस्लिम DNA एक है| आज भी इनकी लाइन नहीं बदली|

परन्तु आपने बदल डाली|

मूढ़ या मूर्ख या रूढ़िवादी नहीं थे, हमारे आपके पुरखे जो इनको समाज, धर्म के नेतृत्व से दूर रखते थे; इनको धिक्कारते थे, नकारते थे| अब सोच लो, स्याणे थारे अक्षरी ज्ञान के तथाकथित अनपढ़ ग्रामीण पुरखे थे या थम अक्षरी ज्ञान के पढ़े लिखे शहरी तथाकथित मॉडर्न हो? पुरखों के बुद्धिबल व् विवेक को धारण कीजिये, इन फंडियों को ठिकाने लगाने का रास्ता उन्हीं के तौर-तरीकों में हैं|

जय यौद्धेय! - फूल मलिक

Friday, 9 July 2021

क्या वाकई में ऋग्वेद मात्र 550 साल पुराना है?

हम अक्सर धार्मिक विद्वानों से सुनते आए हैं कि वेद, रामायण-महाभारत पुराण-उपनिषद आदि सबसे पुराने हैं| और नीचे सलंगित वीडियो ने कुछ सबूतों समेत दावा किया है कि सबसे पुराना ग्रंथ कहे जाने वाले ऋग्वेद की सबसे पुरानी पाण्डुलिपी यानि मैनुस्क्रिप्ट सिर्फ 550 साल पुरानी है|

पढ़कर एक बार तो लगा कि क्या मजाक है? परन्तु जब यह वीडियो देखी तो इसमें पेश सबूतों व् तथ्यों ने विचार में डाल दिया: https://www.youtube.com/watch?v=99oDx39N6Is
विचार में क्यों डाल दिया? क्योंकि इसमें बताया गया है कि
1) हिंदुस्तान में पांडुलिपियों के संग्रहण का सबसे पुराना संस्थान "The Bhandarkar Oriental Research Institute, Pune - https://www.bori.ac.in/ " है, जिसके पास 29510 पांडुलिपियां संग्रहित हैं और इसके पास सबसे पुरानी स्क्रिप्ट 1376 AD की है| ऋग्वेद की सबसे पुरानी मात्र 550 साल पुरानी है|
2) UNESCO Nomination form of Rigveda (http://www.unesco.org/.../nomination_forms/india_rigveda.pdf) फाइल में भी यही प्रमाणित है, जिसका पूरा एनालिसिस ऊपर की वीडियो किया गया है|
आप भी देखें इस वीडियो व् इन तथ्यों को व् समझें/समझाएं इस शोध बारे|